1918 में गांधी जी ने जो कहा, आज उसे दुनिया के पर्यावरणविद और कई सरकारें शुद्ध हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार और मानवाधिकार के रूप में अपने एजेंडे में शामिल कर चुके हैं। ग्लासगो सम्मेलन में अमरीकी दूत जॉन केरी ने कहा कि हम जलवायु परिवर्तन की अराजकता और संघर्ष से बचने के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और एक स्वस्थ ग्रह हासिल करने के लक्ष्य के ज्यादा करीब हैं।
गांधी जी ने कहा था कि धरती हर किसी की जरूरतों की पूर्ति कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक भी पूरा नहीं कर सकती. जलवायु परिवर्तन या जलवायु विघटन के मूल में गांधी जी का यही विचार निहित है। उन्होंने जिसे मनुष्य का लालच कहा था, आज पश्चिमी देशों और वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम के देशों का वही विस्तृत एजेंडा है, दुर्भाग्य से जिसमें भारत भी शामिल है।
एक बार फिर जलवायु जस्टिस की बात ग्लासगो सम्मलेन में उठी है, जिसमें विकसित और अमीर औद्यौगिक देशों से कार्बन उत्सर्जन 2030 तक घटाने और नियन्त्रित करने की अपील की गई है। इसमें 2030 तक धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक लाने की मांग प्रमुख है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा समय में ग्लोबल वार्मिंग की दर 2.4 डिग्री सेल्शियस है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन ने कार्बन उत्सर्जन और जैव विविधता के अनेक खतरे बढ़ा दिये हैं, इस स्थिति से गांधी जी ने 100 साल पहले ही आगाह किया था। ग्लासगो सम्मलेन में जलवायु विस्थापन और मानव स्वास्थ्य के खतरे का भी मुद्दा छाया रहा, हालांकि इस पर कोई ठोस सहमति नहीं बन सकी। आज विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्र का जलस्तर और धरती का तापमान बढ़ने से विस्थापन और जन स्वास्थ्य के मुद्दों पर प्रभावित है। इससे प्रभावित देशों में जनसंघर्ष और जन असन्तोष बढ़ने के आसार हैं और प्रभावित क्षेत्रों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन रही है। इनमें से ज्यादातर देश ऐसे हैं, जिनका स्वयं का कार्बन उत्सर्जन विकसित देशों से कम है और इनके पास जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की क्षमता का अभाव भी है। एक मुद्दा ये भी है कि जलवायु परिवर्तन और उसका दुष्प्रभाव एक व्यापार का रूप ले रहा है। करीब एक दशक पहले एक बड़े राष्ट्र ने मुंबई को जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाने के लिए 50 बिलियन डाॅलर की टेक्नोलॉजी भारत को बेचने की कोशिश की थी। विकसित देश अभी तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपने वायदों से चूकते नज़र आये हैं। विकासशील अर्थव्यवस्था को मदद के मामले में उनकी चुप्पी निराशाजनक है।
गांधी जी ने अपने लेख “स्वास्थ्य की कुंजी’’ में साफ हवा की जरूरत पर रोशनी डाली है, जिसमें कहा है कि मानव शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है- हवा, पानी और भोजन, लेकिन साफ हवा अति आवश्यक है। गांधी जी सौ साल पहले कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा मुफ्त में दी है, लेकिन दुख का विषय है कि आधुनिक सभ्यता ने इसका भी बाज़ार के हिसाब से भाव तय कर दिया है। 100 साल पहले 1 जनवरी 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। 1918 में गांधी जी ने जो कहा, आज उसे पर्यावरणविद और कई सरकारें जीवन के अधिकार के कानून के रूप में, शुद्ध हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार और मानवाधिकार के रूप में अपने एजेंडे में शामिल कर चुके हैं। ग्लासगो सम्मेलन में अमरीकी दूत जॉन केरी ने कहा कि हम जलवायु परिवर्तन की अराजकता और संघर्ष से बचने के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और एक स्वस्थ ग्रह हासिल करने के लक्ष्य के ज्यादा करीब हैं।
100 साल पहले पर्यावरण पर गांधी की समझ, चिंतन और भारत की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के प्रति उनके विचार आज इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें प्रासंगिक बनाते हैं। विश्व के अनेक देशों मे ‘ग्रीन पार्टी’ गांधी जी के विचारों को ही आगे बढ़ा रही है। प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा संपादित पुस्तक “सर्वाइविंग द सेंचुरी फेसिंग क्लाउड” में चार मानक सिद्धांतों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी बताया गया है। दुनिया गांधी जी और उनके उन सिद्धांतों को मान और अपना रही है, जो सदैव उनके जीवन और कार्यों के केंद्र में रहे हैं। सौ साल पहले ही गांधी ने बता दिया था कि शहर केन्द्रित और पूंजीवादियों द्वारा लागू व्यवस्था एक विनाशकारी प्रक्रिया है। पश्चिमी विज्ञान और अविष्कार उस वक्त पूंजीवादी व्यापार का इंजन बन रहा था, उन्होंने आगाह करते हुए ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा कि ये नवीन उत्पाद और वस्तुएं मानव उपभोग के लिए नहीं, बल्कि व्यापार और मुनाफ़े के लिए हैं। इससे समाज में आगे चल कर कई तरह के विनाशकारी असन्तुलन पैदा होंगे। आज ये बात बिल्कुल सत्य जान पड़ती है।
1992 के रियो डी जिनेरियो से 2021 के ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन तक इस मुद्दे पर अगर कोई व्यापक आम राय नहीं बन पाई है, तो वजह ये है कि विकसित देश अपनी इकोनॉमी और लाइफ स्टाइल में कोई बदलाव करने के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ साल पहले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प को जलवायु परिवर्तन के एजेंडे से इतनी दिक्कत थी कि उन्होंने पेरिस समझौते से ही अमेरिका को अलग कर लिया था। गांधी यहां फिर से प्रासंगिक हो उठते हैं. उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा था कि वर्तमान सभ्यता अंतहीन इच्छाओं और शैतानी सोच से प्रेरित है। यह हमारी आवश्यकता नहीं, वरन लालच और उपभोग की प्रकृति पर अंकुश लगाने का काम न करके, उसे बढ़ाने का काम कर रही है।’ उनके अनुसार, असली सभ्यता तो अपने कर्तव्यों का पालन करना और नैतिक व संयमित आचरण करना ही है। उनका दृष्टिकोण था कि लालच, उपभोग और शोषण पर अंकुश होना चाहिए। विघटन रहित और टिकाऊ विकास का केंद्र बिंदु समाज की मौलिक जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। सतत विकास के लिए गांधी जी के विचारों को पुनः समझना और लागू करना अनिवार्य है.
ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में जी-20 देशों का रवैया बहुत निराशजनक रहा। इसमें भारत भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि यह समूह 80 प्रतिशत विश्व कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इन देशों ने महत्वपूर्ण मुद्दे 2050-2070 तक पूरा करने का वायदा किया है।
-सौरभ सिंह
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