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एक अखबार के चालीस साल

टेलीग्राफ

एक पाठक के तौर पर दशकों तक टेलीग्राफ के साथ इश्क वाला रिश्ता रहा। मगर आज उसी टेलीग्राफ की सूरत देखकर आए दिन मन खीझ जाता है। खबरों पर विचारों को हावी होते देखना अच्छा नहीं लगता। जर्नलिज्म के जिस स्कूल में शिक्षा-दीक्षा हुई, वह इस परिवर्तन को स्वीकार करने की इजाजत नहीं देता।

सात जुलाई 1982 की सुबह-सुबह मैं गया स्टेशन पर था। एक नया अखबार देखा। पता चला, आज से ही शुरू हुआ है। उस अखबार का कोई विज्ञापन, होर्डिंग कभी कहीं नजर नहीं आयी थी, सो मेरे लिए बिल्कुल ही नया था वह अखबार। 16 पेज के उस अखबार को देखा तो देखता ही रह गया। बिल्कुल नए तरह का अखबार। नए अंदाज का लेआउट। खबरों के चयन और प्रस्तुति का तरीका अलग। पहले पेज की किसी खबर का शेष नहीं। सभी अखबारों से बिल्कुल अलग था यह अखबार।

मैंने कमाल साहब से कहा कि उदय के हाथ मेरे लिए यह अखबार डेली भिजवा दिया कीजिए। उदय हॉकर था, जो डेली देहरादून एक्सप्रेस से गुरारू अखबार बांटने जाता था। अखबार बांटकर वह 11 बजे आसनलोल-वाराणसी पैसेंजर से गया वापस आ जाता था। गुरारू में अखबारों का कोई एजेंट नहीं था।


इस तरह हुई थी मेरी पहली मुलाकात एक नए अखबार से। वह भी उसके जन्म के दिन ही। और वह नया अखबार था टेलीग्राफ। फिर तो उस अखबार को देखे बिना चैन नहीं मिलता था। उसके इनसाइट और फोकस पेज का इंतजार हफ्ता भर रहता था। सच कहूं तो उस अखबार से इश्क-सा हो गया था। वैसा इश्क फिर सिर्फ विनोद मेहता के संडे ऑब्ज़र्वर और आउटलुक से ही हो पाया। इमरजेंसी हटने के बाद हम इंडियन एक्सप्रेस के भी दीवाने थे। फिर भी वह दीवानगी कुछ अलग किस्म की, अलग कारणों से थी। इश्क वाला रस नहीं था उसमें। फिर एक समय बहुत सारे लोग जनसत्ता को पसंद करते थे। मगर जनसत्ता को लेकर उसके स्वर्णकाल में भी मेरी राय थोड़ी अलग थी।

सच कहें तो टेलीग्राफ और फिर संडे ऑब्ज़र्वर ने ही मुझे सिखाया कि लेआउट क्या होता है। अपने हिंदुस्तान, पटना के दिनों में मुझ पर इन दोनों अखबारों के लेआउट का असर रहा। उस वक्त हिंदुस्तान, पटना का लेआउट मोड्यूलर नहीं था। फिर भी जब मैं फीचर पेज का इंचार्ज था, तब सारे फीचर पेज मोड्यूलर बनवाता था। बाद में जब जनरल डेस्क का इंचार्ज बना तो पहला पेज और उससे जुड़ा आगे का एक पेज मोड्यूलर बनवाता था। जबकि पूरा अखबार बहुत साल बाद मोड्यूलर हुआ। इस तरह टेलीग्राफ का मैं न सिर्फ पाठक रहा, बल्कि उससे बहुत कुछ सीखा भी। उस सीख को अपने पत्रकार-जीवन में लागू भी किया।

बहरहाल 7 जुलाई को टेलीग्राफ का जन्मदिन था। इस मौके पर एमजे अकबर को याद न करना बेइंसाफी होगी। अकबर महज 32 साल के थे और एक बड़े दैनिक के संपादक बने थे। उन्होंने टेलीग्राफ की कल्पना की थी। डिज़ाइन तैयार करवाया था। पाठकों को मोड्यूलर लेआउट से परिचित कराया था। टीम खड़ी की थी। सबसे बड़ी खासियत कि कलकत्ता के बेताज बादशाह स्टेट्समैन को चुनौती देने के लिए जो नया अखबार खड़ा हुआ था, उसकी संपादकीय टीम के सारे सदस्य युवा थे। शायद अकबर (32) से अधिक उम्र के सिर्फ उनके नंबर 2 शेखर भाटिया ही थे। बाकी सभी 30 से कम वाले थे। मुझे याद है इंदिरा गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस का दूरदर्शन पर वह सीधा प्रसारण। भारत में किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस का यह पहला सीधा प्रसारण था। बड़े-बड़े अखबारों के सीनियर जर्नलिस्ट मौजूद थे। उनके बीच टेलीग्राफ की सीमा मुस्तफा बिल्कुल बच्ची दिख रही थीं, लेकिन सीमा ने बहुत ही तीखा सवाल किया था।

एक पाठक के तौर पर दशकों तक टेलीग्राफ के साथ इश्क वाला रिश्ता रहा। मगर आज उसी टेलीग्राफ की सूरत देखकर आए दिन मन खीझ जाता है। खबरों पर विचारों को हावी होते देखना अच्छा नहीं लगता। जर्नलिज्म के जिस स्कूल में शिक्षा-दीक्षा हुई, वह इस परिवर्तन को स्वीकार करने की इजाजत नहीं देता। आप पूछ सकते हैं, इसमें ऐसा भी क्या हो गया? तो इसका उत्तर संजीदगी से वे सभी तलाश सकते हैं, जो अखबार होने के मायने को समझते हैं। वे सभी समझ सकते हैं, जो अखबारों के लिए वांछित आत्मानुशासन से परिचित हैं.

-बीपेंद्र बिपेन

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