फौजी ड्रेस में आपने मुसोलिनी, हिटलर, तोजो, फ्रेंको, पोल पॉट को देखा होगा। इनमें से कुछ ने जीवन में कभी भी सेना में सेवा नहीं दी, लेकिन डेकोरेटेड वर्दी मे घूमा करते थे। लेकिन दूसरी तरफ चार्ल्स डी गाल, आइजनहाइवर या कमाल अतातुर्क जैसे असली कमांडर, सत्ता में आने के बाद वर्दी से परहेज करते रहे। भारत में भी पचास सालों तक प्रधानमंत्रियों ने कभी वर्दी नही पहनी। सेना का सुप्रीम कमांडर यानी राष्ट्रपति भी वर्दी नही पहनता। पर हाल हाल में हमने नेताओं को सेना की वर्दी में देखा है। वे टैंक पर चढ़कर फोटो खिंचवा रहे थे। अपने आसपास भी हमने तोंद बढ़ाये, थुलथुल शरीर वाले अनफिट लोगों को खाकी हाफ पैंट में उछल कूद करते, सेना की तरह परेड करते, बैंड बजाते, पथ संचलन करते और प्रभात फेरी निकालते देखा है। उपर से नीचे तक, जनता के मानस का ऐसा सैन्यीकरण करने की रणनीतिक जरूरत क्या है? इसके लाभ हानि पर कभी विचार किया आपने?
सेना एक प्रोफेशन है। इस प्रोफेशन की पहली शर्त है, ऊपर से आए आदेश का अक्षरशः पालन! वह जान लेने का आदेश हो या देने का, जवान को बिना सवाल किये उसे मानना है. यू हैव साइन्ड फॉर दिस, एण्ड यू आर गेटिंग पेड फॉर दिस। यूनिफाइड कमांड है। मुख्यालय में बैठा जनरल या जनरलों का समूह सोच रहा है। वही तय कर रहा है, विचार करने का किसी और को कोई अधिकार नहीं है। जो भी आदेश हो, बस पालन कीजिए।
कोई शक या सवाल? नो सर!!
हाऊ इज द जोश? हाई सर!!
शक हो, सवाल हो, किसी भी दशा में हों, दिलो दिमाग कुछ और कहता हो, लेकिन आपके पास नो सर, हाई सर कहने के अलावा और कुछ कहने का ऑप्शन ही नहीं है। वह आदेश लाखों देशवासियों को धर्म के नाम पर गैस चेम्बर में झोंक देने का हो या बादलों मे छुपकर राडार से बचने का, बस हाऊ इज द जोश? के जवाब में हाई सर! ही कहना है। सेना डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन नहीं है, हो भी नहीं सकती। होना भी नहीं चाहिए। सवाल पूछने के सिस्टम पर सेना चरमरा जाएगी। सवाल न पूछने के सिस्टम पर डेमोक्रेसी चरमरा जाएगी। और फासिस्ट को यही करना है। डेमोक्रेसी की जड़ खोदनी है। उसे जनता को सेना बनाना है।
विचार का एक केन्द्र, एक फासिस्ट लीडर। प्रसार का एकतरफा प्रवाह आईटी सेल, मीडिया, मोहल्ले की शाखा। लीजिए, चेन आफ कमांड तैयार हो गई। वे जनरल बन गए और हम हुक्म बजाते सैनिक। मोर्चे वे तय करेंगे। सोशल मीडिया, चौपाल, मोहल्ला या कोई पब्लिक स्पेस। मुद्दे वे देंगे, सवाल वे भेजेंगे, जवाब भी वही भेजेंगे। आपको सिर्फ फैलाना है और लड़ना है। वैचारिक युद्ध, या शारीरिक भी, पूरी सैन्य निष्ठा के साथ. हमें न कुछ पूछना चाहिए, न हुक्मउदूली करनी है। हमें युद्ध लड़ना है। दुश्मन से, गद्दारों से, विधर्मियों से, विपक्ष से।
हर नाजुक मौके पर वह याद दिलाता है- “सीमा पर जवान मर रहा है” इसलिए नोटबन्दी पर सवाल न करें। पुलवामा में जवान मरे, इस असफलता को भूल जाइये, आतंकी को सजा देनी है, लाइन में आकर वोट कीजिए। ऐसा बटन दबाइये कि करंट शाहीनबाग में लगे, सीएए पर सवाल मत कीजिए। आप सोल्जर हैं, बस आदेश का पालन कीजिए। और हम करते हैं, जबकि वी हैव नाट साइन्ड फॉर दिस, वी आर नाट गेटिंग पेड फॉर दिस। लेकिन माहौल के प्रभाव में आकर मिलीशिया बन जाते हैं। क्योकि आदेश मानना देशभक्ति का का पर्याय है, और सवाल करना गद्दारी।
इस आदेश की एकता, यूनिफाइड कमांड आपके घर में भी लागू है। पिता जनरल हैं, लड़के लेफिटनेट जनरल, और मां पूज्य है। बेटी लाइबिलिटी है। वह कमजोर है, उसे बचाना है, छिपाकर रखना है। हरण से हम बचा नहीं पाते, तो जौहर मे झोंक देते हैं। ऐसी हमारी संस्कृति है, परंपरा है, यह हमारा अभिमान है। आजाद बेटी, आजाद विचार, डेमोक्रेटिक विमर्श, समानता, अधिकार, सब बेमानी है। ये सैन्य कमांड के माकूल नहीं है। ये देशभक्ति नहीं, धर्मभक्ति नहीं। यह पाप है। सवाल, शको शुबहे, हिसाब मांगना, जिम्मेदारी याद दिलाना, ये आदर्श सोल्जर का काम नहीं है।
एक विचार, एक परिवार, एक टैक्स, एक बाजार, एक दुकानदार, एक धर्म, एक संस्कृति, एक पार्टी, एक नेता, और जो एक भारत है, वही तो श्रेष्ठ भारत है। यह आपको जब बताया गया, तक आपने बारीकी से नहीं देखा कि “ये तो फासिस्ट भारत है” और फासिज्म को फौज पसंद है।
– मनीष सिंह
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