अपने पीएचडी प्रबंध के लिए इधर कुछ वर्षों में जब मुझे गांधी के बारे में पढ़ने की जरूरत पड़ी, तो मेरे कई पूर्वाग्रह दूर हुए और मैं उनका सम्मान करने लगा। गांधी के साथ कोई भावनात्मक जुड़ाव फिर भी नहीं बना। लेकिन गांधी के बारे में पढ़ते-पढ़ते कुछ समय बाद मैंने महसूस किया कि मेरी आंखें नम होने लगी हैं। मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे बताया कि गांधी के बारे में पढ़ते हुए उनके साथ भी ऐसा ही होता है। मेरे मन में सवाल उभरा कि गांधी के जीवन और विचार से गुजरते हुए आखिर ऐसा क्यों होता होगा! पढ़ते-पढ़ते एक बात ये समझ में आयी कि गांधी के संपर्क में आने वाला कोई भी व्यक्ति उनकी पकड़ से छूट नहीं पाता था। उस आदमी के जीवन में उथल-पुथल हो जाती थी। गांधी के करीब जाना खतरे से खाली नहीं था। भारतीय ही नहीं, विदेशी भी उस आदमी के जादू में बिंधे बिना नहीं रह पाते थे। आज उनके जाने के चौहत्तर वर्ष बाद भी उन विचारों में इतना तेज़ है कि पाठक पतंगे की तरह उस प्रकाश की ओर खिंचे चले जाते हैं। लेकिन गांधी आपको कई तरह से अस्वस्थ कर देते हैं। क्योंकि वे आपको संवेदनशील बनाते हैं। सत्य, प्रेम और करुणा जैसे आध्यात्मिक मूल्यों को वे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित कर देते हैं। वे व्यक्ति को जगत से जोड़ देते हैं. व्यष्टि में समष्टि को समाहित कर देते हैं। समग्र सृष्टि से जुड़े व्यक्ति का मन और शरीर से निष्क्रिय रहना मुश्किल है। यही उथल-पुथल किसी मुरलीधर देवीदास को बाबा आमटे बना देती है, तो किसी मेडेलीन स्लेड को मीराबेन।
मानवीय संदर्भ में आंसू
आंसू संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति और इंसानियत की निशानी होते हैं। आंसू के सामाजिक, सांस्कृतिक और वर्गीय संदर्भ भी होते हैं। आम तौर पर दुनिया के सभी समाजों में पुरुषों का आंसू बहाना उनकी कमजोरी का संकेत माना जाता है। इसलिए लड़कों को बचपन से ही मन सख्त करने के संस्कार दिए जाते हैं। असंवेदनशीलता को पुरुषत्व का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है कि ब्रिटिश पुरुषों ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना इसी असंवेदनशील पुरुषत्व के बल पर की। पश्चिमी सभ्यता की भौतिक समृद्धि और शक्ति से प्रभावित भारतीय पुरुष भी विक्टोरियन पुरुषत्व का अनुकरण करना चाहते थे। इसीलिए नरम दल के सर फिरोज़शाह मेहता और गरम दल के लोकमान्य तिलक विशेष लोकप्रिय हो गए, क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व सख्त थे। इस पृष्ठभूमि में गांधी जैसे संवेदनशील व्यक्ति का भारत के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरना आश्चर्यजनक था। पुरुष भी कोमल हृदय के हो सकते हैं और संवेदनशील होना किसी व्यक्ति का अवगुण नहीं होता, यह गांधी ने अपने विचार और कृतित्व से दिखाया। अन्याय के खिलाफ़ लड़ते हुए वज्र-से कठोर इस महापुरुष का हृदय दीन दलितों की पीड़ा से सिहर उठता था। और इस पीड़ा को अपने आंसुओं से व्यक्त करने में गांधी को कुछ भी गलत नहीं लगता था। कांग्रेस के मंच पर बेहिचक आंसू बहाते हुए, वेटिकन के सिस्टिन चैपल में सूली पर चढ़ाये ईसा मसीह की मूर्ति देखकर रोते हुए और द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई लंदन की तबाही के कारण वायसराय लिनलिथगो के सामने भावविवश होकर आँसू बहाते हुए गांधी की तस्वीरें इतिहास का हिस्सा हैं। गीता में तिलक ने कर्मयोग का और गांधी ने अनासक्ति योग का सार पाया। गांधी के अनुसार रोना भी आसक्ति का ही एक रूप है। फिर भी, सभी विकार और वासनाओं के पार जा चुके गांधी अंत तक संवेदनशील बने रहे। यानी स्थितप्रज्ञ की स्थिति तक पहुंचने के अंतिम चरण तक गांधी पहुंच चुके थे। लेकिन क्या वे वहीं रुक गए, ऐसे कहा जाय? क्या उनका वहीं रुके रहना, लोगों की नजर में उनके महात्मा होने का मर्म नहीं है?
आंसुओं की शक्ति का अनुभव उन्होंने बचपन में ही कर लिया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह बात लिखी है। मोहन ने घर में चोरी की थी और पत्र लिखकर पिता से माफी मांगने का फैसला किया। बीमारी के कारण बिस्तर पर लेटे पिता को उन्होंने पत्र सौंपा। पत्र पढ़कर पिता की आंखों से आंसू गिरने लगे। उन्होंने वह पत्र फाड़ दिया और वापस लेट गए। मोहन की आंखों से भी आंसू बह रहे थे। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘उन कोमल आँसुओं ने मेरे पापों को धो दिया और मेरे हृदय को शुद्ध कर दिया। केवल वही इसका महत्व समझ सकता है, जिसने इस तरह के प्यार का अनुभव किया हो। वे आँसू नहीं थे, अपने बच्चे के लिए एक पिता का प्यार थे। मेरे लिए यह अहिंसा का एक बड़ा सबक था। यही अहिंसा जब सर्वव्यापी हो जाती है, तो उसको स्पर्श करने वाले हर व्यक्ति को बदल सकती है..’
नोआखाली दंगों का समय गांधी के लिए अत्यंत कठिन समय था। उस समय वे दिल्ली की भंगी कॉलोनी में टिके थे। तथ्यों की समीक्षा के बाद, उन्होंने नोआखाली में प्रवेश किया। वहाँ के गाँवों में नंगे पांव और अकेले चलते हुए उन्होंने वह करके दिखाया, जो पंजाब में सेना भी नहीं कर सकी थी। उस वक्त उन्होंने सप्रयास अपने आँसू रोक रखे थे। गांधी कहते हैं, ‘यहाँ मैं आंसू नहीं बहा सकता, क्योंकि मैं यहां दूसरों के आंसू पोंछने आया हूं, लेकिन मेरा दिल रो रहा है।’ गांधी संवेदनशील थे, पर भोले नहीं थे। नोआखाली में अपने सचिव निर्मल कुमार बोस से एक दिन उन्होंने कहा, ‘कोई भी दंगा या युद्ध अमानवीय होता है, इसलिए मुझे मृतकों की संख्या या संपत्ति के विनाश की चिंता नहीं है। इन दंगों के पीछे राजनैतिक उद्देश्य क्या हैं और उनसे सफलतापूर्वक लड़ने का तरीका क्या होगा, यह ढूंढ़ना अधिक महत्वपूर्ण है।’ आकाश की गहराई-सी करुणा से भरा हृदय, गांधी ने मानव मन के सभी विकारों के वैज्ञानिक अध्ययन के बाद पाया था।
करुणा और दृढ़ता
गांधी का दर्शन सत्य, अहिंसा और करुणा के मूल्यों पर आधारित था। उन्होंने हमेशा अपने विचार और कार्य में तर्क और भावना के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की, लेकिन जब दोनों में से किसी एक को तरजीह देने की बारी आई तो उन्होंने संवेदना को ही तवज्जो दी। गांधी जानते थे कि भारत जैसे विविधता वाले देश को तर्क नहीं, भावनाएं ही इकट्ठा कर सकती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने तार्किक सरदार पटेल के बजाय, भावुक जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुना था।
कलकत्ता में बार-बार अपील करने के बावजूद, जब दंगे नहीं थमे, तो गांधी ने 1 सितंबर 1947 से आमरण अनशन शुरू कर दिया। उसके परिणाम भी मिले। नोआखाली में बंगाली हिंदुओं की जान बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले वे एकमात्र हिंदू नेता थे। कम से कम बंगाली हिंदू उन पर मुस्लिमों की तरफदारी का आरोप तो नहीं लगा सकते थे। गांधी ने अपने 73 घंटे के उपवास का समापन सुहरावर्दी के हाथों मुसम्बी का रस पीकर किया। सुहरावर्दी गांधी के पैरों पर सिर रखकर रोये, यह इतिहास की अद्भुत घटना थी। सुहरावर्दी मुस्लिम लीग के नेता थे और गांधी को मुसलमानों का दुश्मन मानते थे। 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग द्वारा बुलाए गए ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’ के समय कलकत्ता में हुए दंगों के पीछे वे प्रमुख सूत्रधार थे और उस समय बंगाल के मुख्यमंत्री भी थे। उन्हीं के मार्गदर्शन में लीग समर्थक मुसलमानों ने हिन्दुओं पर हमले किए थे।
नोआखाली के बाद गांधी ने बिहार में मुस्लिम विरोधी दंगे रोकने के लिए भी गंभीर प्रयास किए। इसलिए मुसलमानों के मन से यह भ्रांति दूर हो गई कि गांधी मुस्लिम विरोधी थे। 15 अगस्त के बाद स्थिति बदल गई थी। कलकत्ता भारत का अंग बन गया था। वहां के हिंदू, मुसलमानों से बदला लेना चाहते थे, इसलिए सुहरावर्दी गांधी की शरण मे आए थे। जनता में ‘कपटी और कठोर हृदयी’ की छवि रखने वाले सुहरावर्दी के आंसू नाटकीय नहीं, अफसोस के थे। गांधी उनके पाषाण-हृदय से भी झरना बहाने में सफल रहे।
दिल्ली दंगे रुकवाने के लिए, अंतिम उपाय स्वरूप गांधी ने 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन शुरू किया। उस समय उनकी जान बचाने की जद्दोजहद करने वालों में सुहरावर्दी सबसे आगे थे। स्टेट्समैन अखबार के संपादक आर्थर मूर ने पहले गांधी के उपवास के तरीके को निरुपयोगी माना था। लेकिन कलकत्ता में घटित चमत्कार के बाद उन्हें गांधी की भावनात्मक अपील के महत्व का एहसास हुआ। उन्होंने भी 13 तारीख को गांधी का समर्थन करने के लिए उपवास शुरू किया। 18 जनवरी 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा आदि विभिन्न संगठनों और प्रतिनिधियों ने गांधी से वादा किया कि वे मुसलमानों के जीवन, संपत्ति और धर्म की रक्षा करेंगे। उस समय भी गांधी की आंखों से आंसू बह रहे थे।
30 जनवरी को गांधी की हत्या कर दी गई। बिड़ला भवन में गांधी के शरीर के बगल में बैठे पटेल की गोद में सिर रखकर नेहरू किसी बच्चे की तरह रो रहे थे। उन आंसुओं में पटेल और नेहरू के बीच के मतभेद भी बह गये। पूरा देश शोक सागर में डूब गया था। गांधी की हत्या ने उस पूरी पीढ़ी के हृदय में सामूहिक पश्चाताप की भावना पैदा कर दी थी। अगले इक्कीस सालों तक भारत के किसी भी हिस्से में कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। उस रात रेडियो से राष्ट्र को संबोधित करते हुए अपने आंसुओं को थामे नेहरू रुँधे कंठ से बोले, ‘हमारे जीवन से रोशनी चली गई है. हर जगह अंधेरा फैल गया है..’ नेहरू का वह भाषण एक अमेरिकी पत्रकार विल्यम शेयरर, अमेरिका स्थित अपने घर में बैठा सुन रहा था। 1931 में उसने अपने अखबार के संवाददाता के रूप में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए गांधी की इंग्लैंड यात्रा को कवर किया था। इस दौरान उसकी अक्सर गांधी से बातचीत होती थी। नेहरू का भाषण सुनते-सुनते शेयरर को साड़ी कायनात अपनी आँखों से निकलते आंसुओं में डूबती-सी महसूस हुई.
-श्याम पाखरे
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