गाँधीजी को याद करने की दो तारीखें तय हैं; 2 अक्टूबरः जन्म और 30 जनवरीः हत्या। सरकारी कैलेंडर में ये तारीखें और दिल्ली की गाँधी समाधि रस्म अदायगी के खूंटे की तरह गड़ी हुई हैं। कई दशकों और कई स्थानों में जिये हुए एक विशाल सामाजिक जीवन को इस तरह एक स्थान और दो तारीखों में समेट देना सरकारी छुट्टियों की सूची के लिए काम का हो सकता है। समाज के लिए वह किस काम का है, यह कहना कठिन है।
आइये, इस रस्म अदायगी और इसकी ऊब को छोड़कर किसी और देशकाल में चलते हैं। एक और तारीख, एक और स्थान आजमाते हैं। 29 नवंबर 1898, दक्षिण अफ्रीका का डरबन शहर। इस दिन एक छापाखाना खुला था। इसके उद्घाटन समारोह में लगभग 100 लोग आए थे। मदनजीत नामक एक शिक्षक ने इसका खर्च उठाया था। अब्दुल कादिर नाम के एक व्यापारी ने प्रेस लगाने के लिए बिना किराए की जमीन दी थी। असल में इस छापाखाने के पीछे 29 साल के युवा वकील मोहनदास करमचंद गाँधी का हाथ था।
न्यायालय में भारतीय व्यापारियों की तरफ से जिरह कर-कर के मोहनदास को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की करीबी समझ आने लगी थी। आमतौर पर वकील केवल अपने मुवक्किल की बात करता है, लेकिन मोहनदास को वकालत के संबंध बहुत संकरे लगने लगे थे। उन्हें अपना दायरा बढ़ाना था और ज्यादा लोगों से बात करनी थी। इसके लिए उन्हें एक ही रास्ता दिखा- पत्रकारिता।
इस छापाखाने से मोहनदास के संपादन में ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक एक पत्र निकलने लगा। वकालत की औपचिरिक शिक्षा पाए मोहनदास ने अनौपचारिक और व्यावहारिक तरीके से पत्रकारिता सीखी। वे छापने लायक सामग्री इकट्ठा करते, उसकी छंटाई करते और उसे इस तरह से लिखते कि वह पढ़ने वालों में विचार का संचार करे। सत्य को गहराई से समझने की आदत डाले। उनकी लिखाई साफ सुथरी थी और छपाई में सादापन था। कागज और छपाई के खर्च उन्हें महँगे पड़ते थे और धन की कमी सदा ही रहती थी। इसलिए संपादक गाँधी का जोर रहता था कि कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा बात हो। एक वकील अब एक मंझा हुआ पत्रकार बन चला था।
यह पत्रकार जानकारी और गुलामी का संबंध भी समझने लगा था। वे यह जानने लगे थे कि दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य और उसकी शोषण की विशाल व्यवस्था तेज गति से जानकारी के लेन-देन पर टिकी हुई थी। साम्राज्य चलाने के लिए अँग्रेज हुक्मरानों के लिए यह मालूम रखना जरूरी था कि कब कहाँ क्या हो रहा है। इस तेजी से चलती जानकारी के बिना साम्राज्य की सैन्य ताकत, पूंजीवाद की हवस और औद्योगिक मशीनों की शक्ति बेकार थी।
तब दक्षिण अफ्रीका में एक स्वतंत्र विचार का अखबार निकालना आसान नहीं था। खासकर जब भारतीय लोगों की समस्याओं पर सामाजिक आंदोलन भी खड़ा किया जा चुका हो। गाँधीजी पर अध्ययन करने वाले कई लोग मानते हैं कि 1906 से 1909 के बीच का समय उनके लिए भारी उथल-पुथल का था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह थम गया था। जनरल स्मट्स के साथ किया समझौता गाँधीजी को भारी लगने लगा था। धंधे में नुकसान के डर से धनी व्यापारी गाँधीजी का साथ छोड़ चले थे। अब उनके समर्थकों में गरीब तबके के लोग ही ज्यादा रह गये थे।
गांधीजी अंतर्मुखी हो चले थे। उनका ध्यान सत्याग्रह के राजनीतिक पक्ष की बजाय, उसके अध्यात्मिक वजन पर जाने लगा था। वे साधारण लोगों में चेतना और विवेक चाहते थे, ताकि वे साम्राज्यवाद और औद्योगिक व्यवस्था से होने वाली मशीनी दुर्गति से बच सकें। उन्हें एक ही उपाय सूझा। जानकारी, सूचना और समझ की इस रफ़्तार को धीमा करने की जरूरत थी। पढ़ना-समझना मनुष्य के शरीर और मन की प्राकृतिक गति से क्यों न हो? उन्हें लगने लगा था कि पढ़ना, लिखना और संपादन, तीनों ही क्रियाएं ध्यान से और सोच-समझ कर होनी चाहिए, हड़बड़ी और उतावली में नहीं।
पाठकों में यह बदलाव कैसे आए? इसका एक अद्भुत वृत्तांत मिलता है 2013 में छपी एक अँग्रेजी किताब में, जिसका शीर्षक है ‘गाँधीज् प्रिंटिंग प्रेसः एक्सपेरिमेंट्स इन स्लो रीडिंग’। किताब की लेखक हैं अफ्रीकी साहित्य की प्राध्यापक इसाबेल हॉफ्मायर, जिन्होंने नए सिरे से पुराने दस्तावेजों को खंगाला है। उनकी किताब पत्रकारिता पर एक ऐतिहासिक नजर तो डालती ही है, हमारे आज के हालात में तो वह और भी आवश्यक है।
आज जानकारी उपनिवेश और साम्राज्य की गति से भी अधिक तेजी से दौड़ती है। इस सूचना क्रांति के बारे में कहा जाता है कि इसने साधारण लोगों का सशक्तिकरण किया है। इसकी बात नहीं होती कि सूचना की यह बिजली की गति लोगों को दास बनाकर एक मशीनी भ्रांति में रखने की गजब की ताकत भी रखती है। सोशल मीडिया, टीवी न्यूज़ चैनल और स्मार्टफोन बिजली की तेजी से लोगों को बरगलाने में सक्षम हैं। साधारण लोगों को एक क्रुद्ध और जानलेवा भीड़ बना देना इतना आसान पहले कभी नहीं रहा। स्मार्टफोन में ‘इंस्टॉल’ करने के लिए विवेक और समझदारी का कोई ‘ऐप’ नहीं है।
ऐसे में गांधीजी के प्रयोग को याद करने की जरूरत है। थोड़ी धीमी गति से, नैसर्गिक गति से भी पत्रकारिता की जा सकती है, जो लोगों में विचार का संचार करे। इसाबेल की किताब विस्तार से बताती है कि गाँधीजी ने अपने पाठकों को खुद तैयार किया था। उनके लिखे में पाठकों को सब्र के साथ पढ़ने के निर्देश बार-बार आते थे। वे पाठक को धीमे-धीमे पढ़ने को कहते थे, कई बार पढ़ने को कहते थे। वे मानते थे कि उनके हर आदर्श पाठक में स्वाध्याय और सत्याग्रह की योग्यता है।
वे संपादन की समस्याएं भी खुलकर बताते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है कि संपादन करते समय उन्हें अपनी कमजोरियां और साफ दिखती हैं। कभी तो आत्मलीन हो कर लच्छेदार भाषा में लिखने का मन होता है। फिर ऐसा भी लगता है कि अपने क्रोध के वश में आकर सारा जहर शब्दों में उगलने दें। लेकिन उनकी कोशिश यही रहती थी कि संयम से काम लें। लिखाई में विवेक का सहारा लें।
ऐसा नहीं था कि पाठक से उनका संबंध किसी प्रचारक का रहा हो, जिसका जीवन वे अपनी विचारधारा के हिसाब से बदल देना चाहते थे। पाठक उनके लिए वह ग्राहक भी नहीं था, जिसकी आँख से होते हुए सीधे उसकी जेब का निशाना किया जाए। गाँधीजी अपने पाठक के साथ बेबाक रिश्तेदारी और अधिकार रखते थे। वे यह भी लगातार कहते थे कि संपादक और मालिक से ज्यादा किसी प्रकाशन की मिल्कियत उसके पाठकों में होती है। पाठकों के पत्रों का जवाब वे ऐसे देते थे, जैसे किसी निकट के संबंधी से बात कर रहे हों।
इस पत्रकारिता में एक विशाल और सदाचारी सामाजिक जीवन के बीज थे। धीरे-धीरे इससे एक ऊँचा और बड़ा पेड़ निकला, जिसकी शीतल छाया में हम आज भी बैठ सकते हैं। चाहे उसमें बैठे हुए हम बिजली की तेजी से अपने स्मार्टफोन पर किसी और को बिलावजह गालियां ही क्यूँ न दे रहे हों।
-सोपान जोशी
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