नई दिल्ली, 30 जनवरी, 1948
बिड़ला हाउस, नई दिल्ली के बागान में सार्वजनिक प्रार्थना होने को है। मोहनदास करमचंद गांधी प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ रहे हैं। बीच रास्ते में उन्हें रोकती हैं तीन गोलियां। उनका ग्यारह साल का पोता रामचंद्र कई वर्षों बाद दर्शनशास्त्र के आलोक में कहने वाला है कि ‘गांधी को गोलियों ने नहीं, घातक गोलियों को गांधी ने अपने सीने से रोका।’ सत्य क्या है? क्या गांधी के काम को उनको मारने वाले ने रोक थामा? या फिर उसने उनके काम को एक मनुष्य के आकार से उठाकर दैवी रूप प्रदान कर दिया? क्या उस क्षण के बाद गांधी एक मूर्त संत बन बैठे हैं? या उन्हें उनके जीवन काल में भी न मिला हुआ एक नया अमूर्त अर्थ मिल गया है?
सेवाग्राम, मार्च 1948
गांधीजी की हत्या के कुल छ: हफ्तों बाद सेवाग्राम में कुछ जन, पुरुष और महिलाएं एकत्र होकर अपने सूने दिलों और भटकते दिमागों के अंदर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ते हैं। यही लोग हैं गांधी के राजनैतिक कुल के सदस्य, गांधी के रचनात्मक कुल के सदस्य। राजधानी से आये हैं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू; तकाजों और फिक्रों से दबे हुए, लेकिन चश्म-ए-दिल। उनके साथ आये हैं शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद। नेहरू से कुछ ज्यादा बा-हौसला कांग्रेस के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद मौजूद हैं, सभा की अध्यक्षता करते हुए। सभा में भाग ले रहे हैं व्यंग्य शिरोमणि आचार्य कृपलानी, मतभेदी जेसी कुमारप्पा, नवदूर्वातुल्य जयप्रकाश नारायण और अपनी अनूठी चमक बिखेरते विनोबा भावे।
यह सब अपने ख्याल साफगोई से पेश करते हैं। अगर आलोचना करते हैं तो खुद की भी करते हैं और सबको सत्य की तराजू पर तौलते हैं। उसको भी तौलते हैं, जिसे उन्होंने छ: हफ्तों पहले कुर्बान होते देखा है।
सरदार वल्लभभाई पटेल इस सभा के केन्द्र बिन्दु होते। मगर बीमारी, जो कुछ ही समय बाद उन्हें चिरनिद्रा देने वाली है, उन्हें आने नहीं देती। राज्यों में हाल ही में नियुक्त राज्यपालों को या तो बुलाया नहीं गया है या वे आ नहीं सके हैं। काश, पश्चिम बंगाल से चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और यूपी से सरोजिनी नायडू का आना होता। निश्चित ही दोनों कुछ नई बात कह जाते। गांधी की तहों में लिपटे कुछ विशेष चिन्तक भी शरीक नहीं हैं, जैसे आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया और निर्मल कुमार बोस। उनकी गैरहाजिरी से यह सभा गरीब हुई है। फिर भी संग्रह ग्रहमंडलीय है। लेकिन उस सितारों से जड़े आसमान जैसा, जिसमें चंद्रमा नहीं है।
एकत्रित हुए जन जानते हैं कि जिस सभा में वे जुड़े हैं, उसमें गांधी स्वयं आने को थे। बल्कि यह सम्मेलन गांधी का ही रचा हुआ है। उन्हीं से कल्पित और योजित। 2 फरवरी 1948 की तारीख इस सम्मेलन के लिए तय की गयी थी और गांधी स्वयं आने को थे। डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है, ‘यह तय हो गया था कि रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन सेवाग्राम में आयोजित होगा। फरवरी 1948 के पहले हफ्ते में उसके लिए एक तारीख भी रख दी गयी थी। महात्मा जी ने उसमें शरीक होने का फैसला कर लिया था और उस मकसद से वे वर्धा जाने के लिए आतुर भी थे।’
महात्मा नहीं रहे। रचनात्मक कार्यकर्ताओं की सभा को मार्च 1948 तक स्थगित करना पड़ा। यही है वह स्थगित सभा। उसके सामने उपस्थित सवालों के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि ‘बापू तो गये, अब हमें क्या करना है? बापू के पास हम हिदायत लेने पहुंच जाते थे, अब वह हिदायत कौन देगा? और गांधी ने जिन रचनात्मक संस्थाओं का निर्माण किया है, और जो संस्थाएं उनसे प्रेरित होकर काम कर रही हैं, उन्हें अब क्या करना चाहिए? उन्हें कौन चलायेगा?’
इस भय-भीनी आत्म-प्रश्नावली के साथ सभासदों में यह समझ भी है कि गांधी के वारिसों में भय के लिए स्थान नहीं हो सकता, न ही उस भावना के लिए, जो मानती है कि ‘जो होना है, सो होगा ही’। गांधी के नाम से काम करने वालों के लिए हाथ बांधकर बैठे रहना तो असंभव है। सबमें यह समझ भी है कि अब एक नई ऊर्जा की जरूरत है, जिसे ढूंढ़ निकालना होगा या फिर उसका आविष्कार करना होगा। इस नई शक्ति और उस शक्ति से उत्पन्न वातावरण को दर्शाने के लिए नेहरू एक उर्दू शब्द का इस्तेमाल करते हैं। इस लफ्ज़ का अंग्रेजी में अनुवाद कठिन है– ‘फ़िज़ां’। एक नई फ़िज़ां चाहिए, वे कहते हैं। कुमारप्पा जैसे गांधी विचारधारा से ओतप्रोत, गांधी की फ़िज़ां को देखते हैं अहिंसा में और हिन्दुस्तान के गरीब गांवों में। उनकी नजर में कांग्रेस और दिल्ली की नई सरकार अब एक हो गयी है, गांधी के तौर तरीकों से दूर।
सदमें से सहमे पर साहसी प्यारेलाल, सभा को याद दिलाते हैं अपने मेहरबान के उस आखिरी वसीयतनामे की, जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस अपना काम खत्म करे और उसकी जगह ले एक नई संस्था – लोक सेवक संघ। कांग्रेस ने यह सुझाव मंजूर नहीं किया। प्यारेलाल पूछते हैं कि क्या यह सभा उस सुझाव को फिर से उठाकर लोक सेवक संघ की परिकल्पना को साकार बना सकती है?
गांधी के राजनैतिक और गैर राजनैतिक वारिस– एक-एक अपने-अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठित– इन विकल्पों पर विचार करते हैं। विनोबा कहते हैं कि एक भाईचारा बने, जिसमें जो भी खुद को गांधी का अनुयायी मानता है, वह शामिल हो। कुछ और कहते हैं कि ऐसे ढीले संगठन से वह मार्गदर्शन नहीं मिलेगा, जिसकी हम सबको जरूरत है। बात से बात बनती है, बहस से बहस जुड़ती है, फिर तय होता है कि एक ‘सर्वोदय समाज’ की स्थापना हो। कुछ शाब्दिक सुधारों के बाद ‘अखिल भारत सर्व सेवा संघ’ का जन्म होता है। सर्व सेवा संघ गांधी से प्रेरित रचनात्मक संस्थाओं का एक मिलापी संघ तथा सर्वोदय समाज एक व्यापक भाईचारे के रूप में बनाये जाते हैं।
श्रीमन्नारायण अग्रवाल (1912-1978), बीबी अम्तुस्सलाम (1907-1985), मौलाना अबुल कलाम आजाद (1888-1958), आशादेवी आर्यनायकम (1892-1969), ईडब्ल्यू आर्यनायकम (1889-1967), काकासाहेब कालेलकर (1885-1981), जैनेन्द्र कुमार (1905-1988), डॉ. जेसी कुमारप्पा (1892-1960), सुचेता कृपलानी (1908-1974), आचार्य जेबी कृपलानी (1888-1982), राजकुमारी अमृत कौर (1889-1964), बालासाहब खेर (1888-1957), देवदास गांधी (1900-1957), पुरुषोत्तम गांधी (1909-2004), डॉ प्रफुल्लचन्द्र घोष (1891-1983), हृदयनारायण चौधरी (1901-1972), श्रीकृष्ण दास जाजू (1882-1955), एवी ठक्कर (ठककर बापा) (1869-1951), आरआर दिवाकर (1894-1990), शंकरराव देव (1871-1958), मगनभाई देसाई (1899-1969), दादा धर्माधिकारी (1899-1985), भाऊ धर्माधिकारी (1899-1998), रघुनाथ श्रीहरि धोत्रे (1897-1967), गुजलारीलाल नंदा (1898-1998), जयप्रकाश नारायण (1902-1979), पंडित जवाहरलाल नेहरू (1889-1964), झवेरभाई पटेल (1894-1984), सुशीला पै (1905-1980), प्यारेलाल (1899-1982), डॉ राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963), कमलनयन बजाज (1915-1972), राधाकृष्ण बजाज (1905-2007), आचार्य विनोबा भावे (1895-1982), किशोरलाल मश्रूवाला (1890-1952), हरेकृष्ण महताब (1899-1987), तुकड़ोजी महाराज (1909-1968), व्योहार राजेन्द्र सिंह (1900-1988), जी रामचन्द्रन (1904-1995), कोंड़ा वेंकटप्पय्या (1866-1949), मुन्नालाल शाह (1901-1974), मृदुला साराभाई (1911-1974), सरलाबेन साराभाई (1896-1975), जाकिर हुसैन (1897-1969)।
सेवाग्राम स्थित महादेव भाई भवन के इसी सभागार में हुआ था यह 1948 का रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन
रघुनाथ श्रीहरि धोत्रे – 13 तारीख से हमारा सम्मेलन शुरू होगा। सम्मेलन का उद्घाटन पंडित जवाहरलाल नेहरू करेंगे। राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष की जगह लेंगे। सरदार वल्लभभाई पटेल नहीं आ सकेंगे। उनकी तबियत अच्छी नहीं है और इसलिए उनके लिए आना असंभव है। सम्मेलन का मुख्य विषय है- अब बापू नहीं रहे। बापू की सिखाई हुई चीजें आज भी हमारे काम की हैं या नहीं? अहिंसा में श्रद्धा रखने वालों का आज समाज में क्या स्थान है? हमें अपनी श्रद्धा टटोलनी है।
विनोबा– हमको यह सोचना है कि आज हमारी श्रद्धा कितनी गहरी है?
धोत्रे– इस देश को आला दर्जे का फौजी राष्ट्र बनाने की बात अब कही जाती है। बापूजी ने पहले पहल जब यह बात सुनी तो वे कुछ चौंक से गये। पटना में उन्होंने मुझसे कहा कि मैं इसके बारे में दस व्याख्यान देना चाहता हूं। लेकिन उन्हें फुरसत नहीं मिल सकी।
प्रफुलचंद्र घोष- अगर सरकार हिन्दुस्तान को एक आला दर्जे का फौजी राष्ट्र बनाना चाहती है और अगर हम मिलिटराइजेशन के चक्कर में पड़ेंगे तो मैं एक साइंटिस्ट की दृष्टि से कहता हूं, हमें या तो अमेरिका के या रूस के हाथ में पड़ना पड़ेगा। हमारी आजादी खतम हो जायेगी। हमें एटम बम के लिए जितनी वोल्टेज बिजली चाहिए, उतनी दस साल में भी हमारे यहां पैदा नहीं होगी। पच्चीस बरस में जो तैयारियां हम कर सकेंगे, उन्हें दो एटम बम सेकेण्ड भर में खतम कर देंगे। जनता को अहिंसा का शिक्षण भी देना होगा।
राजेन्द्र प्रसाद- हमारा ध्येय तो अहिंसक समाज की रचना होना चाहिए। इस विषय में चर्चा की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
विनोबा- जनता और सरकार अहिंसा के लिए अनुकूल नहीं होती, ऐसी स्थिति में हमारी श्रद्धा क्या कहती है? क्या हम भी नीचे उतरकर समाज के हिंसक तरीके अपनायें? या अपनी श्रद्धा के अनुकूल रहकर मर मिटें? मेरी श्रद्धा कहती है कि हम मर मिटें। लेकिन इतनी शक्ति न हो तो क्या कायर बनें? अप्रतिकार में बैठें?
काका कालेलकर– अहिंसात्मक तपस्या का तरीका हमारे ऋषियों-मुनियों का तरीका था। वह बापू का तरीका नहीं है। हम लोग जनता में रहते हैं। सरकार से रक्षण पाते हैं। अकेला व्यक्ति अरण्य या एकांत में भले तटस्थ रह सके; समुदाय, संस्था या समाज में हरगिज नहीं रह सकता।
विनोबा- मेरा मतलब इतना ही है कि अगर अहिंसक तरीका विकसित करने का मौका मुझे नहीं मिला तो मैं निष्क्रिय रहकर तपस्या करना अधिक पसंद करूंगा। निष्क्रियता अपनाने के सवाल पर मुझे कहना है कि चुप बैठने में भी तपस्या है। निष्क्रियता में भी तपस्या है। चिन्तात्मक निष्क्रियता विधायक कार्यक्रम की ही एक क्रिया है। हमें दो भूमिकाएं कदापि नहीं लेनी चाहिए, पहली, नीचे उतरकर समाज के साथ होकर हिंसक प्रतिकार को अपनाना और दूसरी कायर बनना। निष्क्रिय चिन्तनात्मक तपस्या भी सेवा का एक तरीका है। हम अलग रहकर प्रतीक्षा करते रहें। हम अहिंसक शक्ति का विकास करने के उपाय सोचते रहें। मुझे इस वक्त इस निष्क्रिय अहिंसक शक्ति– संग्रहात्मक तपस्या– के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखायी देता।
प्यारेलाल- किनारे बैठकर चुपचाप ताकने वाले ही बने रहेंगे तो समाज पर हमारा कोई असर बाकी नहीं रहेगा। हमारे सारे सिद्धांत किसी काम के नहीं साबित होंगे। अब हम यदि उस रास्ते को छोड़कर दुनिया की दूसरी ताकतों की तरह हिंसा के मार्ग पर चलेंगे तो हमारी कोई इज्जत नहीं रहेगी। दूसरों की तराजू में हमको तोला जायेगा। और हम उनके मुकाबले में बिलकुल एक तीसरे दर्जे की ताकत साबित होंगे।
कालेलकर- बापूजी ने अहिंसक सेना बनाने की बात पेश की। बड़े-बड़े नेताओं ने अहिंसक सेना का संगठन करना असंभव बतलाया। बापू ने अपना प्रस्ताव लौटा लिया। बंबई में मोरारजीभाई कठोर शासन से काम लेना चाहते हैं। केन्द्रीय सरकार कश्मीर का प्रश्न फौजी ताकत से हल कर रही है। उनके सामने अहिंसक प्रतिकार का कोई सामान मौजूद नहीं है। हम उसे कोई सलाह देने की योग्यता भी नहीं रखते। पहली जरूरत एक अहिंसक सेना का संगठन करना है।
कमलनयन बजाज- हम सरकार से यह नहीं कह सकते कि वह अहिंसक सेना बनावे। यह जिम्मेवारी हमको उठानी चाहिए। सरकार तो हथियारों से ही लड़े।
जेसी कुमारप्पा- सरकार की सेना में हम जिस हिंसा की परछाई देखते हैं, वह हिंसा हम ही पैदा करते हैं। युरोपीय युद्ध, अमेरिकन युद्ध, सरकारी फौजें, पाकिस्तान – ये सब आखिर हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के नतीजे हैं। हम यदि अपना रोज का जीवन दूसरी तरह से ढाल देंगे तो सारा नक्शा बदल जायेगा। मैंने जवाहरलालजी से कहा कि बापू को गोली गोडसे ने नहीं मारी, बल्कि हमने मारी। गोडसे में संकल्पशक्ति, साहस और बलिदान था। हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोसना बेकार है, कसूर हमारा है। हमने इन नवयुवकों का कोई सदुपयोग नहीं किया।
शंकरराव देव- गांधीजी की दी हुई श्रद्धा जिनमें है, वे सब मिलकर कोई काम कर सकते हैं या नहीं? क्या उनमें वह ताकत है?
विनोबा- प्रश्न यह है कि हम अहिंसा को मानते हैं या नहीं? और अगर मानते हैं तो किस हद तक?
कुमारप्पा- मेरी दरखास्त इतनी ही है कि हम एक कदम और आगे बढ़ें। यह दिखा देना चाहिए कि सामाजिक संगठन किस तरह किया जा सकता है।
देवदास गांधी- मेरे सामने यह सवाल है कि अब बापू के बाद उनके कार्यक्रमों और विचारों के बारे में मेरा मार्गदर्शन कौन कर सकता है? मैं जानना चाहता हूं। उत्तर की जरूरत मेरे जैसे लाखों आदमियों को मालूम होती है।
प्रफुल्लचंद्र घोष- आज बापू की जगह लेने वाला कोई एक आदमी हमारे पास नहीं है। इसलिए संगठन की जरूरत है। सच्चे दिल से एक होकर काम करें। एक दूसरे की कमियां प्रेम से बतलावें। मिलकर उनपर विचार करें। पीठ पीछे बुराई न करें। दस से पन्द्रह तक आदमियों की सम्मिलित समिति कायम करें।
श्रीकृष्णदास जाजू- गांधीजी की जगह एक संस्था की जरूरत है। अब एक व्यक्ति के बजाय अनेक व्यक्ति यह काम करेंगे। पांच-सात व्यक्तियों को मिलकर उनकी जगह लेनी पड़ेगी। यह एक अलग संघ होगा, जिसे हम मार्गदर्शन करने वाला संघ कह सकते हैं।
राजेन्द्र प्रसाद- एक संघ बनाने का निश्चय अगर हम करें तो उसके रूप का विचार करना होगा।
विनोबा- मेरी व्यक्तिगत वृत्ति संस्थाओं के बंधन के कुछ प्रतिकूल रही है। मैं बंधु भावना का कायल हूं, लेकिन बंध-भावना नहीं चाहता। जेल में मैंने निर्णय किया कि मैं किसी संघ में नहीं रहूंगा। बाहर आने पर बापू से यह बात कही। उन्होंने मेरा निर्णय अपनी भाषा में रखा कि ‘तुम सेवा करोगे, अधिकार से दूर रहोगे।’ कुछ व्यक्तियों का संघों से दूर रहना दोनों के लिए अच्छा होता है।
देवदास गांधी- हमारी समझ में तो विनोबा की ही बातें आती हैं। सारा देश बापू का संघ है। अगर हम संघ के नाम से एक छोटी सी जमात लेकर बैठ जायेंगे तो अनर्थ ही होगा और बापू की आत्मा को संतोष न होगा। मैं एक रैंक-ऐंड-फाइल की हैसियत से कहता हूं कि मुझे किसी संघ या बापू के नाम के छाप के किसी संगठन की जरूरत नहीं है।
जाजू- कुमारप्पा जी की योजना है कि मौजूदा संघों को तोड़ देना चाहिए। इन संघों को तोड़ देने के बाद आगे जो समग्र संघ बनेगा उसे भी अलग अलग कामों के लिए अलग-अलग शाखाएं बनानी पड़ेंगी। मौजूदा संघों को तोड़ना कोई जरूरी बात नहीं। उनको कायम रखते हुए उनमें मिलाप हो सकता है।
विनोबा– अस्पृश्यता निवारण, खद्दर, नई तालीम आदि सारे कामों को मिला देने से पहले हमें इनके इतिहास का ध्यान रखना चाहिए। नई तालीम का भी अपना एक इतिहास है। एकीकरण की बात तो सुहावनी है। परंतु यह देखना होगा कि क्या इन कार्यों की उन्नति के लिए उनको एक मर्यादा तक अलग रखना भी आवश्यक नहीं है?
राजेन्द्र प्रसाद- हम जो रचनात्मक कार्य करते आये हैं, वह सब बापू की प्रेरणा और मार्गदर्शन से हुआ है। चरखा संघ, ग्रामोद्योग संघ, तालीमी संघ की स्थापना अलग अलग स्थिति में हुई। जैसे-जैसे जरूरत हुई, बापूजी बतलाते गये और हम करते गये। एक तरफ बहुत कुछ अधिकार हाथ में आ गया है और दूसरी तरफ भीतर और बाहर से राज पर खतरे आ रहे हैं। इस संघ का इस काम में किस तरह का रुख हो? क्या वह सरकार की शक्ति में अपनी शक्ति मिला दे, या स्वतंत्र रूप से अपना काम करता रहे, ये सारे सवाल हमारे सामने आये हैं।
जी रामचन्द्रन- बापू हमारे लिए एकीकरण के बिन्दु थे। अब वह जिम्मेवारी उठाने की किसी की हिम्मत नहीं होगी। विनोबाजी शायद उस शर्त को पूरा कर सकें। दूसरा कोई व्यक्ति दिखायी नहीं देता।
शंकरराव देव- पहले यह तय करें कि हमें गांधीजी के सिद्धांतों को मानने वालों का एक संगठन बनाना है या नहीं?
प्यारेलाल- घर में आग लगी है। हमें बेजान संगठन कायम नहीं करना है। मूल बात यह है कि जनता को ही हम अपना भगवान मानें। जहां संकट हो वहां हर आदमी दौड़ जाये। हम हर बात में इस वृत्ति से काम लें, तो हमें इस तरह बैठकर कृत्रिम रूप से किसी संघ का निर्माण नहीं करना पड़ेगा। जब हम संकट निवारण के लिए इकट्ठे होंगे तो अपने आप संघ बन जायेगा। केवल बौद्धिक चर्चा में पड़ेंगे तो भौंरों की तरह घूमते रहेंगे। आज शरणार्थियों पर बदले का भूत सवार है। मसजिदों को तोड़ दो, खून का बदला खून से लो, इस तरह के नारे वे लगाते हैं। ऐसी बातें करते हैं, जो सुनी नहीं जातीं। पहले वे मुसलमानों के साथ ज्यादतियां करते थे। लेकिन आज दिल्ली के हिन्दू कहते हैं कि इनसे तो हमारे मुसलमान पड़ोसी अच्छे थे। हम बेफिक्र नहीं रह सकते।
राजेन्द्र प्रसाद- क्रूरता का भी कोई ठिकाना नहीं रहा। हमने स्त्रियों को, बूढ़ों को और बच्चों को भी नहीं छोड़ा। यहां तक हमारा पतन हुआ। बदले के लिए ही क्यों न हो, लेकिन हमने अपनी इंसानियत को छोड़ दिया। हमारी जो संस्था बनेगी, उसे सबसे पहले इसमें कूदना है। इसमें वह कुछ कर सकेगी तो जमेगी, वरना हवा में रहेगी। दिल्ली में फसाद हो और हम चरखा चलाते रहें, या नई तालीम का काम करते रहें, यह काफी नहीं है। जब घर में आग लग रही है, तब पहला काम यह हो जाता है कि हम उसे बुझायें। हमारे सामने दो तरह का काम है। एक तो यह कि जहां आग लग रही है, वहां उसे बुझाना और जहां नहीं लगी है, वहां उसे रोकना। दोनों तरह के कामों की योजना तुरंत करनी चाहिए। बहुत लोग एकमत हैं कि एक ऐसा संगठन बने, जो अहिंसात्मक समाज रचना का ध्येय रखकर काम करे।
प्यारेलाल- आज हमें अन्न-संकट निवारण करने की भी कोशिश करनी है।
प्रफुल्लचंद्र घोष- आज सरकार कहती है, अधिक अन्न उपजाओ। लेकिन सिर्फ पैदावार बढ़ाने से क्या फायदा होगा? बंगाल में काफी अन्न होते हुए भी अकाल पड़ा और लोग मरे। इसका विचार भी करना होगा। ये सब बातें संगठन से ही हो सकती हैं।
धोत्रे- यह सब काम कौन संभालेगा?
राजेन्द्र प्रसाद- हां, यह सवाल तो है। नये आदमी के आने का स्रोत बहुत दिन से पतला पड़ गया है और अब तो सूख चला है। हमारे बीच नये आदमी आते क्यों नहीं? शायद नये आदमियों को हमारी चीज नहीं भाती। हमें सोचना होगा। या फिर हम खुद भी अपने काम के साथ एकजीव नहीं हो सके हैं। हमारा सारा दिल उसमें नहीं है।
राधाकृष्ण बजाज- आप इसका क्या कारण समझते हैं?
राजेन्द्र प्रसाद- हमारे कार्यक्रम लोगों को अपील नहीं करते, यह एक कारण हो सकता है। दूसरा कारण यह है कि हमने उसको इस तरह नहीं चलाया कि लोगों पर असर पड़े।
किशोरलाल मश्रूवाला- यह बात ठीक नहीं है कि नये लोग आये ही नहीं। हाँ लेकिन, नये लोग काफी तादाद में नहीं आते यह सच है। इसके तीन कारण हैं। एक हमारी तपश्चर्या। नई तपस्या नहीं है, इसलिए नया आकर्षण भी नहीं। दूसरा कारण यह है कि जमाने के साथ परिभाषा बदलती रहती है। बापू से पहले सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी काम करती थी। लेकिन 1908 से लेकर 1910 के दरम्यान परिभाषा बिलकुल बदल गयी। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया के लिए कोई आकर्षण नहीं रह गया। ऐसे वक्त पर बापू सामने आये। उनकी भाषा लोगों के दिमाग में सामने से लगी। अब जमाना मार्क्सवाद और समाजवाद का है। अब हमें अपने विचार उस परिभाषा में रखने होंगे। तभी वे लोगों की समझ में आवेंगे। तीसरा कारण यह है कि हमारे पास जितना चारित्र्य बल चाहिए, उतना नहीं है। विनोबा के पास नये-नये लोग आते हैं। हम उन्हें पकड़ते नहीं, बल्कि फेंक देते हैं।
धोत्रे- नया संघ बनाने की बात तो सर्वमान्य-सी हो गयी है।
संघ की रूपरेखा का मसविदा बनाने के लिए पंद्रह सदस्यों की एक समिति मुकर्रर हुई। समिति को हिदायत दी गयी कि वह अगले दिन की सबेरे की बैठक में मसविदा पेश करे। 11 मार्च1948 की रात को 8 बजे के बाद मसविदा समिति की बैठक हुई। 12 मार्च 1948 को 8 बजे सबेरे फिर विषय नियामक समिति की बैठक शुरू हुई।
धोत्रे- हम संघ बनाने का फैसला करीब-करीब कर चुके हैं। अब सोचना यह है कि इस संघ का मुखिया कौन होगा? और संघ का कांग्रेस से और सरकार से क्या संबंध होगा?
विनोबा- सब लोग चाहते हैं कि हमारा एक ब्रदरहुड या बंधुत्व संघ हो। अगर अंदरुनी ब्रदरहुड– भीतरी बंधुत्व– न हो, तो कोई फायदा नहीं। सब संघों के एकीकरण के लिए मिलापी संघ तो हो। उसके बारे में कोई बहस नहीं। वह तो बने। लेकिन दूसरा जो बंधु संघ बनाने की बात है, वह किन उसूलों को मानता है, यह साफ हो। उन नियमों को मानने वाले जो भी हों, वे सब उसके सदस्य हैं। फेहरिस्त की भी जरूरत नहीं। जो समझते हैं कि हम इसके सदस्य हैं, वे सदस्य हैं। वे अपनी-अपनी जगह काम करते रहें। सदस्यों के लिए बहुत कम नियम हों। लेकिन जो नियम हों, वे बिलकुल साफ-साफ हों, आचरण करने वालों को स्पष्ट कल्पना हो जाये। संघ में जो आना चाहे, उसके पास कोई प्राइवेट प्रॉपर्टी न हो। फिर यह संघ क्या करे? साल में एक मुकर्रर तारीख पर एक मेला कराया जाय। उसकी जगह भी मुकर्रर हो। जो अपने को सदस्य मानते हैं, वे मेले में आयें। कोई इंतजाम हम नहीं करेंगे। संघ के पास इतना कोष है, बैंक में उसकी इतनी रकम है, यह तो बिलकुल नहीं होना चाहिए।
राजेन्द्र प्रसाद- अपनी मर्जी से बने हुए सदस्य जहां-तहां बिखरे रहेंगे। उनका कोई एक दूसरे के साथ संबंध भी होगा या नहीं? वे अपनी-अपनी मर्जी से काम करते रहेंगे, तो एक दूसरे के खिलाफ भी जा सकते हैं।
विनोबा- जो इस तरह का संबंध रखना चाहें, वे मेले में आवें। वहां वे आकर चर्चा और विचार भी कर सकते हैं। सलाह देने के लिए ‘हरिजन’ की तरह का कोई अखबार भी चला सकते हैं। हमें आज बैठकर कृत्रिम रूप से एक संस्था का निर्माण नहीं करना चाहिए। रचनात्मक काम के लिए मिलापी संघ बनायें। मैं दूसरे संघ के बारे में कह रहा हूं। उस बंधु संघ का कोई विधान न बने, कोई रजिस्टर न हो।
राजेन्द्र प्रसाद- यह तो ठीक है, लेकिन हमारी एक व्यावहारिक मुश्किल है। मान लीजिए हम खादी का काम करते हैं, लेकिन चरखा संघ में नहीं हैं। अब अगर चरखा संघ से हमारा मतभेद हो, तो विरोध पैदा होगा। एक तरह की अव्यवस्था पैदा हो जायेगी।
जाकिर हुसेन- विनोबा जी की चीज खुद में अच्छी है। मगर राजेन्द्र बाबू की जो मुश्किल है, उसमें भी काफी जोर है।
जाजू- यह मेला कौन करायेगा? काम किसके जरिये होगा? मिलापी संघ करेगा या लोक सेवा संघ? सवाल केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण का नहीं है, बल्कि संगठित रूप से कार्य करने और अलग-अलग केन्द्रों में सामंजस्य स्थापित करने का है।
विनोबा- मेरी दरखास्त यह है कि सारे सवाल मुझ ही से न पूछे जायें। बंधुत्व संघ के नियम कम से कम हों। साफ हों। किसी फतवा देने वाली संस्था की जरूरत नहीं है। हर एक अपनी बुद्धि के मुताबिक नियमों का अर्थ करे। मिलापी संघ की बात दूसरी है।
प्रफुल्लचंद्र घोष- कांग्रेस से हमारे संगठन का क्या संबंध हो? पहले आजादी का आंदोलन था, तब हम अंग्रेजों के साथ लड़ते थे। आजादी आ गयी है। अब कांग्रेस में सत्ता की राजनीति जोर पकड़ रही है। मैं नहीं कह सकता कि दो साल के बाद मैं कांग्रेस में रहूंगा या नहीं। जिस ढंग से कांग्रेस चल रही है, उसे देखकर दुख हो रहा है।
प्यारेलाल- बापू की लोक सेवा संघ की कल्पना कांग्रेस के लिए बनायी गयी थी। उनको यह डर था कि कांग्रेस जिस तरह आज चल रही है, पहले की कांग्रेस की छाया-सी बन जायेगी। सत्ता की लड़ाई में वह अपनी कमाई हुई ताकत खो रही है। वे कांग्रेस का रूप बदलकर उसको ऐसा बनाना चाहते थे, जिससे वह राज्यसत्ता को बल दे सके। कांग्रेस की शक्ति का आधार नैतिक बल था, इसलिए बापू ने कांग्रेस को सत्ता की राजनीति से अलग रखकर सरकार को नैतिक बल देने वाली संस्था बनाना चाहा। लोक सेवा संघ की योजना का यही हेतु था, लेकिन किसी कारण कांग्रेस ने उसे नहीं लिया। हमें सोचना चाहिए कि लोक सेवा संघ की कल्पना का अमल करने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
विनोबा- मेरी यह स्पष्ट राय है कि हम लोक सेवा संघ बनाने के चक्कर में न पड़ें। कांग्रेस ने अपनी तरफ से लोक सेवा संघ बनाने की सच्चाई से कोशिश की। जैसा भी लोक सेवा संघ बन सकता था, वैसा बना। जैसा बापू चाहते थे वैसा नहीं बना, यह सच है, लेकिन अब हमें अलग लोक सेवा संघ नहीं बनाना चाहिए। कांग्रेस रहेगी, हमारा मिलापी संघ रहेगा, कांग्रेस की अलग-अलग स्थानीय पंचायतें रहेंगी, उनकी सदस्यता की शर्तें भी होंगी। कांग्रेस की दृष्टि में शराबी और मिल का कपड़ा पहनने वाला एक समान होंगे। कांग्रेस है, मिलापी संघ है। अब इन दोनों के अलावा एक तीसरी संस्था की क्या जरूरत है? मिलापी संघ का विधान आप बना लें, लेकिन इस भाईचारे को ऐसा ही रहने दें।
जाकिर हुसेन- आपके जो नियम होंगे, उनमें अगर अपरिग्रह का नियम होगा तो बहुत कम और बहुत अच्छे आदमी ही आपके संघ में शामिल हो सकेंगे। यह तो गिने-चुने आदमियों की– मानो जो इस जमीन का नमक होंगे– उन्हीं की बिरादरी बनेगी।
मगनभाई देसाई- कठिन व्रत रखकर एक छोटी-सी बिरादरी बनाकर अपना पृथक अस्तित्व न रखें। अब हमें सारे देश का सवाल हल करना है।
कमलनयन बजाज- चर्चा जहां आकर टिकती है, वह यह है कि मुख्य व्यक्ति कौन हो? स्पष्ट है कि विनोबा ही हो सकते हैं। विनोबा, आपको हमारी आवश्यकता भले ही न हों, लेकिन हमको आपकी जरूरत है। आप देश को पार लगावेंगे या नहीं?
शंकरराव देव- कल विनोबा संघ बनाने की बात सुनने को तैयार नहीं थे। आज संघ की जरूरत तो महसूस करते हैं।
विनोबा- कल यह तय हुआ था कि पांच रचनात्मक संघों का एक मिलापी संघ बने और उसके अलावा एक नया भाईचारा संघ बने। उस निर्णय को मानकर मैं आज आगे बढ़ा हूं।
जाकिर हुसेन- विनोबाजी ने दो चीजें कही हैं। जो रचनात्मक संघ मौजूद हैं, उनको कारगर बनाया जाये। उनकी ताकत बढ़ाने के लिए और आपस में संबंध कायम करने के लिए एक मिलापी संघ बनाया जाये। इन दोनों तजवीजों में कोई टक्कर नहीं है।
कुमारप्पा- इस तरह के ढीले-पोले संगठन से कुछ भी सिद्ध नहीं होगा। हम जरा धरती पर पैर रखकर बातें करें।
जाकिर हुसेन- हमारे सामने सिर्फ एक ढीले ढाले भाईचारे की ही बात नहीं है। तीन चीजें हैं। एक तो लोक सेवा संघ यानी कांग्रेस, दूसरा मिलापी संघ और तीसरा यह भाईचारा।
कुमारप्पा- हम पहली और दूसरी चीज को संभाल लें। तीसरी अपने आप आ जायेगी। बापू की यह मंशा थी कि राजनीति रचनात्मक कार्य की सेविका बनेगी। उनकी लोक सेवा संघ की योजना में राजनीति की भूमिका गौण है। बापू के जाने के बाद लोक सेवा संघ ही हमारे लिए ‘बापू’ हो जाता है।
राजेन्द्र प्रसाद- तो यह तय हुआ कि एक संगठन बने। अब उसकी शक्ल क्या हो, यह सवाल हमारे सामने है।
शंकरराव देव- गांधीजी के सिद्धांतों को मानने वाले और रचनात्मक कार्य करने वाले लोग यहां पर इकट्ठा हुए हैं। वे सब मिलकर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि हम लोगों का एक संघ बने। हमारा दूसरा सवाल चरखा संघ, ग्राम उद्योग संघ आदि के एकीकरण का है। उस संघ से यह बिलकुल अलग चीज है। रचनात्मक संघों को मिलाने के बारे में दो तजवीजें है। एक जेसी कुमाररप्पा की, जिसमें यह कहा गया है कि मौजूदा संघों को तोड़कर उनकी जगह एक नया संघ बनाया जाय, जो अलग-अलग महकमे बनाकर सारे रचनात्मक काम करे। दूसरी तजवीज जाजू जी की है, मौजूदा संघों को बनाये रखकर उनका एक फेडरेशन बनाने की बात है।
मौलाना आजाद- तीस जनवरी से यह चीज बराबर मेरे सामने आ रही है कि जिन कामों में बापू ने हाथ डाला था, उनकी असली जान बापू की हस्ती थी। अब वह नहीं रहे। अब हमें कोई ऐसा तरीका ईजाद करना है, कोई ऐसा ढंग अख्तियार करना है, जिसमें बापू की जिन्दगी की जो दौलत है, यह बरबाद न हो। अब बापू के जैसी हस्ती हमें नहीं मिलेगी। बापू की सबसे बड़ी देन इंसान की खिदमत है। वह अपनी उम्र भर इंसान में भाईचारा पैदा करने के लिए कोशिश करते रहे हैं। बापू के बहुत से काम हैं। उन सब की तह में इंसान की खिदमत की नीयत थी। आम इंसान की खिदमत का खाना जब तक नहीं भरेंगे, तब तक हम उनके रास्ते पर चलने वाले नहीं होंगे। इंसान-इंसान में मेलजोल और भाईचारा कायम करने की सख्त जरूरत है, इसलिए ये दोनों काम हमको करने चाहिए। इंसान की खिदमत के बापूजी के जो उसूल थे, उनकी जो खास तदबीर थी, उसके लिए एक संगठन बनाना है। एक ऐसा संगठन जो हमारी रहनुमाई करे, हमको मशविरा दे, हमारे बीच में एक बंध पैदा करे।
राजेन्द्र प्रसाद- मौलाना, सवाल मौजूदा रचनात्मक संघों को इकट्ठा करने का है। एक तजवीज है कि मौजूदा संघों को बंद करके सारे कामों के लिए एक नया संघ बनाया जाये। दूसरी यह कि इनको बंद न करके उनको मिलाने वाली एक बीच की कमेटी बनायी जाये, जो खुद अलग रहकर भी इन संघों में मेल कायम कर सकेगी।
मौलाना आजाद- बीच की कमेटी हो, जो इनसे अलग रहकर भी इनमें जान डालती रहे। लेकिन असली चीज तो यह दूसरा संघ है, जिसकी चर्चा यहां हो रही है।
विनोबा- भाईचारा संघ के बारे में सुझाव ये हैं कि इसकी कोई फॉर्मल मेम्बरशिप नहीं होगी। उसके पास पैसा न हो। यह कोई फतवा निकालने वाला संघ न हो। देश के सामने जो सवाल है, उन पर वह अपनी राय दे। चौथी बात नाम के बारे में। नाम का प्रश्न गौण है। मुझे ‘सर्वोदय समाज’ नाम अच्छा लगता है। पांचवीं बात अपरिग्रह की शर्त की है। कई जबरदस्त परिग्रही व्यक्ति भी बापूजी के अनुयायी होने का दावा करते हैं। यह कुछ बात असंगत-सी है। अपरिग्रह की शर्त होनी चाहिए।
जयप्रकाश नारायण- विनोबा जी कहते हैं कि संग्रह नहीं करना चाहिए। वह धन संग्रह और साधन संग्रह की बात कर रहे हैं। लेकिन जन संग्रह तो करना ही होगा। जब तक इसमें नये-नये नवयुवक शामिल नहीं होंगे, तब तक इस काम में जान नहीं आयेगी। इसके लिए ढीले और लचीले संगठन से काम नहीं चलेगा।
कुमारप्पा- इस तरह के ढीले-पोले संगठन से कुछ भी नहीं सिद्ध होगा। माना कि संगठन में थोड़ी-बहुत हिंसा आ ही जाती है, इसका यह मतलब नहीं कि संगठन से हिंसा बढ़ती है। इस तरह के ढीले-ढाले भाईचारे की जगह तो मैं अराजकता पसंद करूंगा।
मौलाना आजाद- अब आप कोई संघ बनाना चाहते हैं, तो उसकी कोई न कोई शकल तो होगी ही। आप मेंबरशिप की कोई कसौटी नहीं रखेंगे, यह तो ठीक है। लेकिन जो हमारी चीजों को मानते हैं, उनका रिश्ता-नाता बतलाने वाली पतली से पतली लकीर तो रखनी ही चाहिए। आप नाम भी नहीं चाहते, तब तो उसकी कोई शकल ही नहीं रहेगी।
राजेन्द्र प्रसाद- उनको मेले में मिलने का मौका मिलेगा। क्या इतना काफी नहीं है?
मौलाना आजाद- नहीं। मेले का रूप कुछ और तरह का होता है। उसमें जमघट होता है। हम एक-दूसरे को जान भी नहीं पाते। किसी तरह की जिम्मेवारी महसूस नहीं करते। एक बिखरी चीज हो जाती है।
विनोबा- इसीलिए तो मेले की योजना है।
कृपलानी- किसी जमाने में हिन्दू और मुसलमानों के बारे में भी ऐसा ही था। जो कहे मैं हिन्दू, वह हिन्दू और जो कहे मैं मुसलमान, वह मुसलमान। उसी तरह जो कहे मैं सत्य और अहिंसा में विश्वास करता हूं, वह हमारा सदस्य समझा जाय। हम उसके लिए कोई थर्मामीटर न लगायें। ऐसा कोई नाप हमारे पास है भी नहीं। हमने यह देखा है कि दुनिया में अच्छे और बुरे इंसान सभी तरह के लोगों में पाये जाते हैं। बहुत से शराबी भी अच्छे होते हैं और कभी गुस्सा न करने वाले भी बाज दफा खून कर डालते हैं। अच्छे आदमी किसी खास गिरोह या जमात में पाये जाते हों, ऐसी कोई बात नहीं। जो कहते हैं कि हम बापू जी के उसूलों को मानते हैं, उनका एक ढीला-सा संगठन बना लें। पुराने जमाने में हमारी कांग्रेस भी ऐसी ही थी। साल में एक दफा मिल लेना काफी ‘ब्रदरहुड’ होगा। इसलिए हम विनोबा की बात मंजूर कर लें।
जयप्रकाश नारायण- आप लोग जो बापूजी के साथ काम करते आये हैं, आपमें अद्भुत शक्ति है। आप उसे जानते नहीं हैं। हम जानते हैं। आपकी हनुमान जी जैसी हालत है। आपकी शक्ति बहुत है। सिर्फ याद दिलाने की जरूरत है। आप अपनी शक्ति का प्रयोग इस मौके पर मजबूती के साथ करें।
कृपलानी- हम खुद अब बूढ़े और सख्त हो गये हैं। हम बदल नहीं सकते। जब तक नया खून नहीं आयेगा, तब तक कोई जानदार चीज बन नहीं सकेगी। इसलिए हम एक ढीला संगठन बना लें। साल छह महीने में मेले या सम्मेलन हों। रचनात्मक संघों का जो मिलापी संघ बनेगा, वह यह काम करे। यह मिलापी संघ सलाह-मशविरा दे।
राजेन्द्र प्रसाद- कृपलानी जी ने जो तजवीज पेश की है, उस पर अपने अपने विचार प्रकट करें।
जयप्रकाश नारायण- मैं कृपलानीजी की इस बात का समर्थन करूंगा कि हमारे सामने जो दो तजवीजें पेश हैं, उनको मिलाकर एक नयी तजवीज पेश करने के लिए एक छोटी-सी कमेटी बना दी जाय, जो कल सबेरे अपनी रिपोर्ट पेश करे।
राजेन्द्र प्रसाद- अगर यह कमेटी आज रात को बैठे, तो कल सबेरे जवाहरलालजी के सामने हम अपना प्रस्ताव रख सकेंगे।
जयप्रकाश नारायण- सुबह से जो कुछ बहस सुनी, उससे कुछ साफ नहीं हुआ। मेरी समझ में हमारे उद्देश्य भी स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए कोई फैसला साफ नहीं हो रहा है। पहले से जो संघ काम कर रहे हैं, उनका एकीकरण हो। यह जरूरी है। दूसरे सवाल के मुकाबले यह सवाल छोटा है। दूसरा सवाल यह है कि बापूजी के आदर्शों और सिद्धांतों को मानने वाले किस तरह इकट्ठा हों। उनका कोई संगठन हो या न हो? विनोबा जी सिर्फ एक मेले की बात करते हैं। उनका सुझाया हुआ ढीला-सा ब्रदरहुड या भाईचारा अपने में अच्छा है। लेकिन वह हमारे काम को बढ़ाने वाला औजार नहीं हो सकता। अगर हमारा यह इरादा है कि बापूजी के विचारों को मानने वालों की तादाद बढ़ती रहे और देश में उनके तरीके से काम हो, तो फिर यह वॉलंटरी और ढीले-ढाले संगठन की बात छोड़ देनी होगी। इसको एक ठोस और चुस्त संगठन बनाना होगा। उसके काम के लिए बाकायदा धन संग्रह करना होगा, साधन भी जुटाने होंगे। आज बहुत से एक्स्ट्रा-गवर्नमेंटल काम लोगों के द्वारा कराने हैं। ये काम आज दूसरे लोग अपने अपने ढंग से करते हैं। हमको अपने सिद्धांतों के मुताबिक और अपने तरीके से इन कामों को कराना है। हम काम की बात सोचें।
आज दो तरह के एक्स्ट्रीम विचार हैं। एक विचार तो यह है कि अब अपनी सरकार हो गयी है, इसलिए सब कुछ सरकार ही करे। इस विचार में बहुत बड़ा दोष है। कोई सरकार रचनात्मक संयोजन का कार्य पूरी तरह नहीं कर सकती। कुछ लोगों को स्वतंत्र रूप से खोजबीन, फील्डवर्क और प्रयोग करने पड़ते हैं। कुछ ऐसे काम हैं, जो सरकार के क्षेत्र से बाहर के हैं। उन कामों में जनता को सक्रिय दिलचस्पी होनी चाहिए। गांधीजी की पद्धति के अनुसार जनता द्वारा काम करने वालों का एक व्यापक और मजबूत संगठन चाहिए। हर क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अध्ययन और शिक्षण का प्रबंध होना चाहिए। खोज और शोध की सुविधा होनी चाहिए। आज जो संगठन स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं, उन सबको बांधने वाले बापू जी के विचार होंगे। मतलब यह कि हमें तीनों प्रश्नों को मिलाकर एक संयुक्त योजना बनानी चाहिए। ये तीन प्रश्न इस प्रकार हैं –
पहला, बापूजी के विचारों को मानने वाले व्यक्तियों को इकट्ठा करना और नये नये व्यक्तियों को दाखिल करने का आयोजन करना। दूसरा, बापूजी के विचारों का अर्थ करना, उस संबंध में पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर देना और तीसरा, अपने-अपने क्षेत्र में काम करने वाली रचनात्मक संस्थाओं का एक सम्मिलित संघ बनाना।
दिवाकर- अगर कोई फेहरिस्त न रही, तो हमें यह पता कैसे चले कि फलाना-फलाना इसमें है?
मौलाना आजाद- रजिस्टर रखना जरूरी है। फंड, दफ्तर, वगैरह भी रखने की जरूरत होगी। मेले का खर्च कैसे होगा? इसके लिए दफ्तर और पैसा भी चाहिए। जहां संगठन हुआ कि फंड का सवाल किसी न किसी शक्ल में आ ही जाता है।
ठक्कर बापा- मैं मौलाना साहब से सहमत हूं। फंड के बिना दुनिया में कोई काम नहीं चलता। जरूरत के लायक फंड रखना और जमा करना भी चाहिए।
मौलाना आजाद- मेला कौन बुलायेगा?
कृपलानी- सारा इंतजाम कौन करे, सवाल यह है। हमारी रचनात्मक संघों का जो एक फेडरेशन बनेगा, वह करे या तालीमी संघ करे? भाईचारा संघ के लिए कोई अध्यक्ष न बनाया जाय। एक मंत्री या संयोजक से काम चला लें, जैसा कि समाजवादी और साम्यवादी पार्टियां कर रही हैं। कोई अलग कार्यकारिणी या मंत्री या संयोजक मुकर्रर नहीं करते। कोई सख्त और चुस्त संगठन बनाने की ताकत अब हममें नहीं है।
रचनात्मक संस्थाओं का आज जो रवैया है, उसमें तबदीली की जरूरत है। वे अपने-अपने तंग दायरे से बाहर नहीं निकलतीं। चरखा संघ, ग्रामोद्योग संघ, तालीमी संघ का आपस में कोई मेलजोल नहीं है। इनमें लचीलापन और प्रगतिशीलता लाने के लिए इनको फेडरेशन बनाने की जरूरत है, जो इनको एक में बांधे, लेकिन उनमें किसी तरह की ‘रिजिडिटी’ पैदा न होने दें।
कुमारप्पा के नक्शे में हर तरह के कार्यक्रम हैं। स्वास्थ्य के कार्यक्रम हैं, शिक्षण के हैं, रोगियों की शुश्रूषा के हैं। उन कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए देहातों में जहां-तहां छोटे-छोटे केन्द्र बनें। ये केन्द्र स्वतंत्र हों, ‘सेल्फ-रेग्युलेटिंग’ हों। वहां के कार्यकर्ताओं में एक-दूसरे से प्रेम हो। वे सत्ता की राजनीति से दूर रहें। ये हमारी ‘सेल्स’ होंगी। इस तरह के सेल्स या केन्द्र बढ़ते चले जायेंगे। एक-एक जिले में फैल जावें। फिर एक प्रांत में फैल जावें। हमारे जिले के केन्द्रीय और प्रांतीय केन्द्र बन जावेंगे। उनकी बुनियाद पर एक पुख्ता अखिल भारतीय संगठन बन सकेगा। हर एक केन्द्र स्वतंत्र हो। उसके काम में किसी तरह से दखल न दिया जाय। शायद उन्हीं में से कोई जीनियस पैदा हो जाय। इसको ठीक-ठाक रूप देने के लिए एक छोटी-सी कमेटी बनावें। इसके बाद उप-कमेटी कायम हुई और चर्चा स्थगित हुई।
दिवाकर- गांधीजी के विचारों को मानने वाले आदमी सब तरफ बिखरे हुए हैं और अपनी-अपनी जगह अपनी-अपनी मति के अनुसार काम कर रहे हैं। उन सबको इकट्ठा करने वाली और एक सूत्र में बांधने वाली किसी संस्था की जरूरत है।
शंकरराव देव- कृपलानी जी ने एक तजवीज हमारे सामने रखी है। उसको लेकर आगे चलें। जो लोग किसी न किसी संघ के मातहत काम करते हैं, उनके लिए सम्मिलित संघ काम दे सकता है, लेकिन जो किसी संघ में नहीं है, उनका संगठन भी तो होना चाहिए। इस संघ में ऐसे सब लोगों का समावेश हो, जो गांधीजी के सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं। हम और कोई शर्त या कसौटी नहीं रखना चाहते।
कृपलानी- नाम के बारे में मेरा यह ख्याल है कि इसे लोक सेवा संघ नहीं कहना चाहिए। हम या तो उसका नाम गांधी सेवा संघ रखें या सर्वोदय संघ।
कालेलकर- सर्वोदय शब्द बापू का अपना खास शब्द है। उन्होंने रस्किन की अन्टु दिस लास्ट पढ़कर उसका अनुवाद किया। उस अनुवाद का नाम उन्होंने सर्वोदय रखा है। लेकिन संघ शब्द में वह बात नहीं है। उसमें सांप्रदायिकता की बू है। हमको संघ शब्द से बचना चाहिए। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जिक्र भी संक्षेप में संघ शब्द से किया जाता है।
जाकिर हुसेन- पहले गांधी सेवा संघ था ही। वही नाम क्यों न ले लिया जाय?
कुमारप्पा- गांधी सेवा संघ नाम अच्छा नहीं है। उससे गांधी की सेवा का भी मतलब निकल सकता है। हम गांधी संघ नाम रखें।
जी रामचंद्रन- सर्वोदय शब्द लोगों के परिचय का नहीं है। सत्याग्रह शब्द से लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं। संघ से एक सटे हुए संगठन की कल्पना होती है और सभा शब्द से व्यापक संगठन की कल्पना नहीं आती। इसलिए मंडल शब्द अच्छा है।
कृपलानी- इसका उद्देश्य हो सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के अनुसार, यानी समानता और न्याय बुद्धि की बुनियाद पर समाज की रचना करना।
मश्रूवाला- हमारा उद्देश्य building a casteless and non-exploiting society based on truth and non-violence हो। यह सुझाव सर्व-सम्मति से मंजूर हुआ।
शंकरराव देव- इस संघ का कोई कोष होगा या नहीं? वह धन इकट्ठा करके उसे संभालेगा या नहीं? क्या संघ भी अपरिग्रही होगा?
मश्रूवाला- यह मंडल कोई जाहिर फंड इकट्ठा नहीं करेगा, लेकिन अपने काम के लायक पैसा रखेगा और खर्च करेगा।
शंकरराव देव- मतलब यह है कि थोड़ा-बहुत हिसाब-किताब तो रखना पड़ेगा। क्या यह मंडल अपनी तरफ से गांधी-साहित्य का प्रकाशन और प्रचार भी करेगा?
कुमारप्पा- मंडल अपनी तरफ से एक मासिक पत्र या साप्ताहिक चला सकता है। इसके प्रकाशन और प्रचार की जिम्मेवारी नवजीवन संस्था ले सकती है।
शंकराव देव- कार्यकारिणी का क्या रूप होगा? उसका दफ्तर कहां रहेगा?
मश्रूवाला- शंकरराव को संयोजक बनाकर यह मंडल बनाने की सारी जिम्मेवारी सौंप दी जाय।
कृपलानी- हमारे रचनात्मक संघों की जो एक सम्मिलित समिति बनने वाली है, उसी को इस मंडल की कार्यकारिणी मान लेने में क्या हानि है?
जाकिर हुसेन- यह को-ऑर्डिनेटिंग कमेटी उस मंडल की जगह नहीं ले सकती। जो मंडल बनेगा, उसका इस को-ऑर्डिनेटिंग कमेटी से कोई ऑरगैनिक रिलेशन नहीं होगा। मौजूदा संघों में से कौन-कौन से संघ इस को-ऑर्डिनेटिंग बॉडी में आने वाले हैं?
कृपलानी- मौजूदा संघ हैं– चरखा संघ, ग्रामोद्योग संघ, तालीमी संघ, गोसेवा संघ, हरिजन सेवक संघ, हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, हिन्दुस्तान मजदूर सेवक संघ, आदिवासी सेवा मंडल और कस्तूरबा ट्रस्ट। सम्मिलित संघ की कार्यकारिणी ही सत्याग्रह मंडल की कार्यकारिणी होगी।
मश्रूवाला- ठीक है। इसका स्वरूप सलाह देने वाली संस्था का रहेगा, नियंत्रण करने वाली संस्था का नहीं। निर्देशक स्वरूप होगा।, आज्ञापक नहीं।
उपसमिति की रिपोर्ट दादा धर्माधिकारी ने पढ़कर सुनायी।
दादा धर्माधिकारी- यह मसौदा बनाया गया है कि गांधीजी के उसूलों को मानने वालों की एक बिरादरी कायम हो, जो एक संगठन का रूप ले। इस संगठन का नाम ‘सर्वोदय समाज’ या ‘सत्याग्रह मंडल’ हो।
इरादा– सत्य और अहिंसा की बुनियाद पर एक ऐसा समाज बनाने की कोशश करना, जिसमें जात-पांत न हो और किसी को दूसरे को चूसने का मौका न मिले।
साधन– इस इरादे को पूरा करने के लिए नीचे लिखे उपाय या जरिये काम में लाये जायेंगे–
सांप्रदायिक एकता या अलग-अलग मजहबों को मानने वालों में मेल कायम करना, अस्पृश्यता निवारण (छुआछूत मिटाना), जाति-भेद निराकरण (जात-पांत तोड़ना), नशाबंदी, खादी और दूसरे ग्रामोद्योग (देहाती दस्तकारियां), गांव की सफाई, नई तालीम, स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी के हक दिलाना, आरोग्य और स्वच्छता, प्रांतीय भाषाओं की तरक्की तथा प्रांतीय संकीर्णता का निराकरण, हिन्दुस्तानी का राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रचार, आर्थिक समानता, खेती की तरक्की, मजदूर संगठन, आदिमजाति सेवा, विद्यार्थी संगठन, कुष्ठ रोगियों की सेवा, संकट-निवारण और दुखियों की सेवा, गो-सेवा, निसर्गोपचार और इसी तरह के दूसरे काम।
सदस्यता या मेम्बरी की शर्त- जो शख्स सत्य, अहिंसा में भरोसा रखता हो, खादी पहनता हो, छुआछूत, जातपांत न मानता हो, शराब न पीता हो और सारे धर्मों को समान मानता हो, वह इस मंडल का सदस्य बन सकेगा।
रजिस्टर- जो कोई अपनी इच्छा से इत्तिला दे, उसका नाम मेम्बरों के रजिस्टर में दाखिल कर लिया जाये।
अर्थ-संग्रह- यह मंडल अपने काम के लिए पैसा इकट्ठा कर सकेगा और रख सकेगा।
मेले- मंडल मुकर्रर तारीख को मुकर्रर जगह पर मेले करायेगा।
प्रचार- मंडल अपने विचारों के प्रचार के लिए किताबें, पर्चे, पत्रिकाएं, अखबार वगैरह आवश्यकता के अनुसार छापेगा।
मंत्री- इस मंडल का काम चलाने के लिए एक मंत्री होगा। शंकरराव देव को मंडल का मंत्री मुकर्रर किया जाता है।
स्वरूप- इस मंडल की सूरत सलाह देने वाली संस्था की होगी, न कि हुकूमत करने वाली संस्था की।
मिलापी कमेटी या सम्मिलित संघ की योजना
मौजूदा रचनात्मक संघ आपस में मेल कराने की एक योजना बना ले और एक सम्मिलित समति या मिलापी कमेटी कायम करे। इस काम के लिए सारे संघों के नुमाइंदों की बैठक बुलाने की जिम्मेवारी जेसी कुमारप्पा को सौंपी गयी है।
कार्यक्रम– इस सम्मिलित समिति से सिफारिश है कि वह कुमारप्पा की तजवीज के मुताबिक रचनात्मक काम चलाने के लिए जगह-जगह छोटे-छोटे केन्द्र कायम करे।
विनोबा का यह भी सुझाव था कि मंडल के सदस्य के पास कोई निजी जायदाद न हो। इसके बारे में कोई हद या नाप बांध देना गैर-मुमकिन समझा गया। इसलिए बात छोड़ दी गयी।
विनोबा- जो मसौदा अभी पढ़ा गया, इसमें और मेरी कल्पना में मामूली मतभेद नहीं है। मूलभूत मतभेद है। मैंने सूचित किया था कि कोई लिस्ट न रहे, इसमें लाखों रहें। फेहरिस्त न बनायी जाय। ढोंगी भी आ सकते हैं और कुछ योग्य होने पर भी, लिस्ट में दर्ज नहीं रहेंगे। मेरी योजना में और इस योजना में भारी फर्क है। लिस्ट हो तो टेस्ट भी हो। बिना टेस्ट के लिस्ट कैसे बनेगी? यह बुनियादी मतभेद है। दूसरा सवाल नाम का है। सत्याग्रह शब्द का रूढ़ या प्रचलित अर्थ नहीं, रचनात्मक कार्य का जो रूढ़ अर्थ है, उससे सत्याग्रह शब्द का अर्थ बिलकुल अलग है। हम अपनी संस्था का नाम सत्याग्रह मंडल रखेंगे, तो लोग हमसे सत्याग्रह की अपेक्षा रखेंगे।
राजेन्द्र प्रसाद- सत्याग्रह के मानी लड़ने के हो गये हैं। इसलिए इसका नाम बदला जाय तो अच्छा है।
विनोबा- तीसरा सवाल पैसे का है। इस देश के धार्मिक लोगों ने जो मेले कराये, उन्हें पैसों की जरूरत नहीं पड़ी। जहां पैसा इकट्ठा करने की बात आयी, वहां मामला बिगड़ जाता है। सिर्फ दफ्तर वगैरह का खर्च चलाने के लिए अगर थोड़ा-सा पैसा आप जमा करना चाहें तो उसे मैं किसी तरह बरदाश्त कर लूंगा। अब मिलापी संघ की बात लेता हूं। मिलापी संघ में बापू की बतायी हुई पांच संस्थाओं से आरंभ किया जाय। हर एक संघ की अपनी खास दिक्कतें और अपनी खास समस्याएं हैं। हम एकदम बहुत से संघों को एक करने की जल्दी न करें। संघों की संख्या के साथ बल की अपेक्षा कमजोरी अधिक बढ़ेगी। भेदभाव बढ़ सकता है।
दिवाकर- ऐसी शर्त होनी चाहिए कि संघ और उसके सदस्य चुनाव में भाग न लें।
विनोबा- अगर हम इस संघ को व्यापक और सर्व-संग्राहक बनाना चाहते हैं तो इस तरह की कोई शर्त रखना ठीक नहीं होगा। उसमें लाखों करोड़ों लोग आ नहीं सकेंगे। मैं तो यह शर्त भी नहीं रखूंगा कि इसका सदस्य होने वाला व्यक्ति शराबी न हो, व्यभिचारी न हो। यह उस मनुष्य की सद्बुद्धि पर छोड़ दूंगा। सिर्फ इतना कहें कि जो गांधी की बातों को मानता हो, वही इसमें आवे। अगर वह चुनाव में खड़ा होना चाहता है, गवर्नर बनना चाहता है, तो खुशी से वैसा करे। यह बात उसके विवेक की है। हर हालत में इलेक्शन से दूर रहना सत्याग्रह का उसूल नहीं है।
शंकरराव देव- इतने फैले हुए और विशाल संगठन में से दोषों को निकालना मुश्किल हो जाता है। इतनी बड़ी संस्था में ढोंगी लोग भी आ सकते हैं। वह हिन्दू धर्म की शकल की चीज बन जायेगी। हिन्दू धर्म के सिद्धांत बहुत ऊंचे हैं, लेकिन दंभ और पाखंड कहां नहीं है, यह बतलाना मुश्किल है। शिथिल संगठन बनाने से हमारा उद्देश्य सफल नहीं होगा। आज ऐसे स्थान की जरूरत है, जिसकी तरफ लोग सलाह-मशविरे के लिए और मार्गदर्शन के लिए देख सकें। दुनिया में कोई एक जगह तो ऐसी हो, जिसको वे मार्गदर्शन के लिए प्रमाण मान सकें। कुंभ मेले की तरह एक बार मिलने से काम नहीं चलेगा।
राजेन्द्र प्रसाद- मेला एक अनिश्चित वस्तु है। किसी तरह के बंधन के बिना संगठन की कल्पना भी करना मुश्किल है।
राजकुमारी अमृत कौर- रचनात्मक काम करने वालों को रास्ता दिखाने से भी ज्यादा बड़ा काम हिंसा वालों को अहिंसा के रास्ते पर लाने का है। जिस चीज के लिए बापू ने अपने प्राण दिये, उसका हमें ध्यान रखना चाहिए।
मश्रूवाला- विनोबा ने बापू के सिद्धांतों को अधिक से अधिक समझा है, ऐसा हम मानते हैं। विनोबा में हमारी जितनी श्रद्धा है, उतनी और किसी में नहीं है। हमको विनोबा पर श्रद्धा रखकर चलना चाहिए। जैसा संगठन उनको मंजूर हो, वैसा ही बनाना चाहिए।
दिवाकर- विनोबाजी संघ में ही विश्वास नहीं करते, तो फिर उनके जिम्मे यह काम कैसे दिया जाय?
जवाहरलाल जी के आने के कुछ पहले
कृपलानी- यहां पर वर्दी पहने हुए संगीन वाले पुलिस के लोग तैनात हैं। चारों तरफ कंटीले तार लगे हुए हैं। हम अहिंसक कहलाते हैं। हमें इन चीजों की क्या जरूरत है? और अगर किसी के लिए इस तरह के इंतजाम की जरूरत हो ही, तो उसे तमीज के साथ करना चाहिए। यह तरीका बिलकुल भद्दा है। यह बापूजी का आश्रम था। यहां की एक परंपरा और मर्यादा है। यहां जो इंतजाम किया गया है, उसमें कोई डीसेंसी नहीं है। कोई शऊर नहीं है। कंटीले तार लगा दिये, वे आंखों में चुभते हैं। कोई इस्थेटिक सेंस का ख्याल नहीं है। आप हमारी तरफ से कह दीजिये कि जिनको इस तरह का रक्षण चाहिए, वे मेहरबानी करके ऐसी परिषद में न आयें।
धोत्रे- जब पंडित जी और सरदार के आने की बात तय हुई, तो हमने अपना प्रबंध अपनी तरह से कर लिया था। मगर सरकार का मत था कि इस ढंग का इंतजाम संतोषजनक नहीं हो सकेगा। हमारे और उनके सोचने के तरीके में फर्क है। आखिर यही ठीक समझा गया कि सरकार को अपने तरीके से इंतजाम करने देना चाहिए।
राधाकृष्ण बजाज- हमारे अहाते के अंदर कोई पुलिस वाला नहीं आ सकता।
धोत्रे- यहां जो लोग इकट्ठा हुए हैं, उनकी तरफ से मैं पंडितजी का हार्दिक स्वागत करता हूं। जो रचनात्मक संस्थाएं काम कर रही हैं, उनकी जानकारी और कठिनाइयां थोड़े समय में पंडितजी के सामने रख दी जायेंगी।
जाजू (चरखा संघ)– हमारा जो राष्ट्रीय झंडा है, उसमें चरखे की जगह चक्र आया है। चक्र को चरखे का ही एक अंश बतलाया गया है। कहा गया है कि कल की दृष्टि से चरखा ठीक नहीं बैठता। लेकिन झंडे के लिए खादी का ही कपड़ा चाहिए, ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गयी। मिल के कपड़े पर लाखों झंडे बने। हमारा यह सुझाव है कि अगर हम खादी के सिद्धांत को मानते हैं, तो झंडे के लिए खादी की शर्त जरूरी होनी चाहिए। हमारी शालाओं में प्राथमिक और मिडिल तक कताई आवश्यक कर दी जाये। पांच वर्ष में सब शालाओं में कताई का आरंभ हो ही जाना चाहिए।
कालेलकर (हिन्दुस्तानी प्रचार सभा)- कांग्रेस का दफ्तर हिन्दुस्तानी में रहे और कांग्रेस का काम हिन्दुस्तानी में चले। अंग्रेजी की प्रतिष्ठा न रहे। यह हिन्दुस्तानी के द्वारा ही हो सकता है। अगर आप हिन्दी रखेंगे तो अंग्रेजी रखनी ही पड़ेगी। अंग्रेजी थोड़े दिनों के लिए रख लीजिये, लेकिन अगर उसको हटाना है तो हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी को अपनाना होगा। नागरी इसी देश की लिपि है, लेकिन अरबी लिपि भी इस देश में कुछ सदियों से आ बसी है। दोनों को लेकर चलें। सरकारी कागज पत्र दोनों लिपियों में रखे जायें। सरकार के पास दरखास्तें किसी भी एक लिपि में भेजने की आजादी रहे। सरकारी ऐलान दोनों लिपियों में रहें।
मश्रूवाला- आजकल राष्ट्रभाषा के नाम पर एक कृत्रिम और दुर्बोध भाषा बन रही है। हमारे मध्य प्रांत की असेम्बली में इस भाषा का प्रयोग हो रहा है। बिल के लिए विधेयक, ट्रांन्सफर एंट्री के लिए स्थानांतरण प्रविष्टि, इस तरह के नये-नये शब्द काम में लाये जाते हैं, जिनको कोई समझ नहीं पाता। अगर ऐसी भाषा बनानी है तो फिर सीधे संस्कृत को ही क्यों न ले लें?
जाकिर हुसेन (हिन्दुस्तानी तालीमी संघ)- हम जानना चाहते हैं कि बुनियादी तालीम के बारे में हुकूमत का रवैया साफ तौर पर क्या है। कुछ लोग कहते हैं कि आपकी सरकार बुनियादी तालीम को चाहती है और कुछ कहते हैं कि नहीं चाहती। आपका रुख हमको साफ-साफ मालूम हो जाना चाहिए। हम लोग तालीमी काम करने वाले तालीमी संघ का काम अहम समझते हैं। हम ही को मौका दें यह जिद नहीं, हम अपनी खिदमत को पेश करते हैं। आप मौका दें तो मुल्क में एक इंकिलाब पैदा होगा।
ठक्कर बापा (हरिजन सेवक संघ)- हमारे सामने तीन मुख्य प्रश्न हैं। हरिजन, आदिवासी और स्त्री-बच्चे। हरिजन कार्य बापू ने 1932 में शुरू किया। तब से वह बराबर चल रहा है। आज केन्द्रीय मंत्रिमंडल में दो हरिजन मंत्री हैं। नये विधान में अस्पृश्यता गुनाह करार दी जायेगी, लेकिन आदिवासियों और पिछड़ी हुई जातियों के मामले में काफी ध्यान नहीं दिया गया है। नये विधान में उन्हें प्रतिनिधित्व मिलेगा। उन्हें पचास मेम्बर मिलेंगे। लेकिन सवाल यह है कि वे कहां तक काबिल होंगे? राज्य की तरफ से जितना काम होना चाहिए, नहीं हो रहा है।
तीसरा सवाल स्त्रियों का और बच्चों का है। कस्तूरबा ट्रस्ट देहातों में ही काम करता है। उसका बहुत अच्छा नतीजा आया है। स्त्रियों और बच्चों का प्रश्न अपना अलग महत्त्व रखता है। सरकार को चाहिए कि इसके लिए एक अलग महकमा कायम करे या दूसरा कोई इंतजाम करे।
झवेरभाई पटेल (ग्रामोद्योग संघ)- हम सरकार के सामने जो भी योजना पेश करते हैं, उसे कॉम्पिटिटिव ऍकानमी के नाप से नापा जाता है, एक नया सोशल ऑर्डर कायम करने की दृष्टि से नहीं। देहातों की तरक्की की दृष्टि से योजना लेकर जावें तो हमसे कहा जाता है कि केन्द्रीय सरकार या हाईकमांड का हुक्म लाओ, तो हम तुम्हारी योजना लेंगे। बुनियादी सवाल यह है कि हम अपनी अर्थनीति का मूलाधार क्या रखना चाहते हैं? आप कांग्रेस की संयोजन-समिति के अध्यक्ष हैं और सरकार के प्रधानमंत्री। इस विषय पर आप अधिकार के साथ राय दे सकते हैं।
राजेन्द्र प्रसाद- अब तक जो काम हुआ, उसका ब्यौरा हम थोड़े में जवाहरलालजी को सुना देते हैं। किसी निर्णय पर नहीं पहुंचे हैं। एक सवाल तो गांधीजी के उसूलों को मानने वालों की कोई जमात या संघ बनाने के बारे में है।
इस सवाल के बारे में विनोबा का ख्याल है कि गांधीजी के विचारों को मानने वालों की कोई संस्था या संघ कायम किया जाय तो डर है कि वह संप्रदाय का रूप ले ले। यह बहुत बड़ा खतरा है, इसलिए विनोबा का विचार है कि हम एक ढीला-सा संगठन रखें। हमारे सिद्धांत साफ-साफ बता दें। जो उन सिद्धांतों को मानता है, वह हमारा सदस्य हो जाता है। सदस्यों द्वारा आपस में ताल्लुक रखने के दो जरिये होंगे। एक तो अखबार और दूसरा मेला। मेला कांग्रेस की तरह नहीं होगा। उसमें कोई किसी को बुलायेगा नहीं। कोई खर्च भी नहीं किया जायेगा। एक खास जगह और खास तारीख पर मेला मुकर्रर किया जायेगा।
दूसरे लोगों का खयाल यह है कि संगठन ढीला ही क्यों न हो, लेकिन एक रजिस्टर जरूर होना चाहिए। इस पर विनोबा का ऐतराज यह है कि यदि हम रजिस्टर रखेंगे तो सदस्यता की कोई परख या कसौटी रखनी पड़ेगी। विनोबा का यह भी कहना है कि संघ के पास कोई जायदाद या निधि न हो। दूसरों का खयाल है कि मेलों वगैरह के लिए पैसों की जरूरत होगी। विनोबा इस पर राजी हो गये हैं कि जरूरत के लायक पैसा रखें। संघ के नाम के बारे में भी अब तक कोई फैसला नहीं हुआ है।
दूसरा सवाल यह है कि जो रचनात्मक संघ अब तक काम करते आये हैं, उनमें कोई एकता नहीं थी, वे अलग-अलग काम करते थे। उनकी जगह पर कोई मिलाने-जुलाने वाला साधन कायम करने की बात हमारे सामने है।
अब तक कोई ठीक रास्ता नहीं निकला है। सुझाव यह है कि हर संस्था के मुख्य-मुख्य आदमी मिलकर इसका फैसला करें। सुझाव पेश किया गया है कि सब संघों के संचालकों या प्रतिनिधियों का एक मध्यवर्ती संघ हो, सब संघों का एक अध्यक्ष हो। जाजूजी की योजना स्वतंत्र संघों का एक संयुक्त संघ बनाने की है। कुमारप्पा की तजवीज दूसरे तरह की है। उन्होंने एक नक्शा तैयार किया है। उनका कहना है कि मौजूदा सभी संघों को हटाकर एक नया संघ बनाया जाय। उसको कई विभागों में बांटा जाय। किशोरलाल भाई का कहना है कि यह काम विनोबा जी को सौंपा जाय।
मश्रूवाला- कुछ अन्य सवालों के बारे में भी आप हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। बापू की हत्या का कारण बनी साम्प्रदायिकता के विष को किस तरह दूर किया जाय? भगाई हुई स्त्रियों के मामले में हम आपकी किस तरह मदद कर सकते हैं? शरणार्थियों के मामले में आप हमसे किस तरह की सहायता की अपेक्षा रखते हैं? दूसरी बात, हिन्दुओं में द्वेष भावना बढ़ रही है। इसके बारे में भी मार्गदर्शन की जरूरत है।
प्यारेलाल- आज कम्यूनलिज्म और वायलेंट ऑर्गनाइजेशन्स के कारण अहिंसा खतरे में है। ये दो शक्तियां अहिंसा को चुनौती दे रही हैं। हम अपने सिद्धांतों के अनुसार नौजवानों का संगठन खड़ा करने की हिम्मत रखें। ये नौजवान हमारे साथ शरणार्थियों का सवाल हल करने में लग जायेंगे। विनोबा जैसे शक्तिशाली व्यक्ति शरणार्थियों को मानसिक पोषण देकर उनकी मनोदशा को सुधार सकते हैं। कौमी द्वेष और हिंसा के अलावा खुराक का सवाल भी हाथ में लिया जा सकता है। कौमी द्वेष, हिंसा और खुराक, इन तीनों प्रश्नों को हल करने के काम में हम नौजवानों को संगठित कर सकते हैं। जरूरत अगली कार्रवाई की है, सिद्धांतों या विचारों के प्रतिदान की नहीं। पंडित जी से प्रार्थना है कि वे इस विषय पर भी रोशनी डालें।
जवाहरलाल नेहरू- आप लोगों के कहने से अपने विचार आपके सामने रखूंगा। इन सब बातों के बारे में मेरे विचार साफ नहीं हैं। विभाग में एक तरह की परेशानी है। कई बातों में उलझा रहता हूं। समय बहुत कम मिलता है। इत्तफाक से चंद मिनट मिलते भी हैं, तो दिल में विचार आता है कि डेढ़ बरस से गवर्नमेंट में रहे, कुछ किया, बहुत कुछ नहीं किया। सही किया, गलत भी किया। जो किया उसे देखकर दिल खुश नहीं होता। इतनी मेहनत का नतीजा क्या निकला? यह भी विचार आता है कि इस तरह से काम करके असल में देश को कोई फायदा पहुंचा रहे हैं या नहीं? मगर ये विचार भी पूरे नहीं हो पाते। दिमाग को फुरसत नहीं मिलती। कोई न कोई बड़ी क्राइसिस सामने आती ही रहती है। जो सवाल आता है, उस पर उसी वक्त सोचना पड़ता है। रोज नयी-नयी बातों पर ध्यान देना पड़ता है। सारी चीजों को मिलाकर विचार करने का मौका नहीं मिलता। पहले लीग का सवाल आया। फिर देश के टुकड़े हुए। शरणार्थियों का सवाल खड़ा हुआ। दिल्ली में झगड़े हुए। आये दिन नया सवाल पेश होता रहा। दिमाग का यह हाल भी न रहा कि ठंडे दिल से कुछ सोचा जाय। विचार करने को समय न मिले, यह अच्छी बात नहीं, लेकिन यह हमारे वश की बात नहीं थी। इसलिए बड़े पसोपेश में हूं। मेरे ऊपर आपने मार्गदर्शन की जिम्मेवारी डाल दी। जो बातें इस वक्त दिल में उठती हैं, आपके सामने रखता हूं।
हमारे सामने बड़े-बड़े सवाल हैं। बुनियादी सवाल हैं। खादी वगैरह महज शाखें हैं, जड़ के सवाल नहीं हैं। सवाल अपने में ठीक है, लेकिन उनके पीछे एक आर्टिफीशियालिटी और अनरियालिटी है। हम सोचते हैं कि खादी किस तरह की पहनें। लेकिन खानी पहनने वाले ही न रहे, फिर तो सवाल ही न रहेगा कि खादी किस तरह की हो।
देश के दो टुकड़े तो हो गये, लेकिन आगे चलकर और भी टुकड़े-टुकड़े हो जाने का डर है। हम फुटकर सवालों में उलझ जाते हैं, जो बातें अहम हैं वे पिछड़ जाती हैं। अगर बुनियादी सवाल से आप अपने को जोड़ न दें तो प्रचलित धारा से दूर पड़ जाते हैं। आज तक गोरों की गुलामी थी। अब डर है कि देश के टुकड़े-टुकड़े होकर भीतरी गुलामी आयेगी। बुनियादी सवालों से अपने आपको अलग रखकर कोई संस्था सेवा नहीं कर सकती।
महान पुरुष अलग बैठकर सेवा कर सकते हैं, लेकिन उन्हें भी परिस्थिति के साथ अपने आपको जोड़ना पड़ता है। महात्मा जी सवालों के साथ चीजों को बांध देते थे। उन्होंने खादी को आजादी के साथ जोड़ा, इसलिए वह बढ़ी। सिर्फ आर्थिक दृष्टि से वह इतनी न बढ़ती। महात्मा जी में वह सिफत थी। हम बड़े सवालों को छोड़कर खादी वगैरह के बारे में सोच रहे हैं। अपने लिए अलग-अलग दड़बा बना रहे हैं। महात्मा जी की निगाह समूचे देश पर रहती थी। वे बुनियादी सवाल को पकड़ लेते थे, इसलिए वे नोआखाली गये, कलकत्ते गये, बिहार गये, देहली में आकर बैठ गये। प्यारेलाल जी से मैं पूरी तरह सहमत हूं। हमको काम तलाश करने की जरूरत नहीं है। काम देश भर में पड़ा हुआ है। हम देखें कि बुनियादी काम क्या है, मूल काम क्या है। बापू की मौत चिल्ला-चिल्लाकर कहती है कि वह काम कौन-सा है। रचनात्मक काम के नाम पर हम अपने-अपने खाने में काम न करें। बापू ने दिल्ली में जो काम किया, उससे सवाल की अहमियत का पता चलता है। सांप्रदायिकता के जहर का मुकाबला किये बिना हम अपनी आजादी को नहीं बचा सकते।
सवालों को हल करने का सरकार का ढंग अलग तरह का होता है। उसकी अपनी कुछ मर्यादाएं होती हैं। सिर्फ सरकार की ताकत से सवाल हल नहीं होते। मैं सरकार में हूं। दिल्ली में रहता हूं। रात-दिन पहरे में रहना पड़ता है। बाहर निकलूं तो आगे सिपाही, पीछे सिपाही होते हैं। यह इंसान की जिन्दगी नहीं है। मैं परेशान हूं। मुझे पिंजड़े में रहना पड़ता है। मेरे लिए यह अहमदनगर और दूसरे कैदखानों से बड़ा कैदखाना है। असल कैद मेरे लिए आज है। अगर यही हाल रहा तो मैं पागल हो जाऊंगा। इसे कब तक बर्दाश्त कर सकूंगा?
खतरे का सामना करना, मुसीबत का मुकाबला करना कांग्रेस का तरीका है। उसने एक अजीब-ओ-गरीब रास्ता अख्तियार किया था। वह अहिंसा का रास्ता था। आज हम उस पर किस तरह चलें, यह तफसील की बात है। प्यारेलाल जी की बात के साथ मेरा इत्तफाक है।
जिस बात ने मुझे बापू की तरफ खींचा, वह कोई एक बात नहीं थी। सारी बातें मिलकर जो चीज बनती थी, उसने मुझे खींचा। खादी, ग्रामोद्योग वगैरह बातें उसमें थीं। हर टुकड़ा उसमें था, लेकिन खादी, ग्रामोद्योग वगैरह सबको निकाल दीजिये, तो भी बापू की बुनियादी बातें रह जाती हैं। खादी के बारे में हमारे खयाल बदले भी हैं। हिन्दुस्तानी के बारे में भी हमेशा वही खयाल नहीं रहे। मैंने इन सवालों के बारे में सोचा और लिखा भी है। हमारे खयाल बुनियादी तौर पर नहीं बदलते, लेकिन बापू के हाथों जिस तरह ये सारी खींचने वाली बातें हो जाती थीं, उस तरह हमारे हाथों क्यों नहीं होतीं, यह सोचने की बात है।
इन सारी ऊपरी बातों को हटाने के बाद भी बापू की जो बुनियादी बातें रह जाती हैं, उन्हीं पर आज हमला हो रहा है। उनको आज अगर हम नहीं बचायेंगे तो देश तबाह हो जायेगा, इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम बुनियादी तौर पर उनके रास्ते पर चलें। दूसरे रास्ते पर हम मजबूती से नहीं चल सकते। और तरीके भी हो सकते हैं, लेकिन जिन तरीकों पर हम पच्चीस बरस से चलते आये हैं, उनसे हटने पर हमारी कमजोरियां और भी बढ़ेंगी। आज ही हमारी कमजोरियों ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया है। डिसरप्शन की भावना बढ़ रही है। एक पार्टीशन हुआ, उससे कितना डिसरप्शन फैला, हम सब जानते हैं। इस वक्त डिसरप्शन की दूसरी तजवीजें पेश हो रही हैं। यह सबसे खतरनाक चीज है। इसलिए हमको अच्छी बातें भी तौल-तौलकर लेनी चाहिए। राज्यों की भाषाई पहचान का सवाल ही ले लीजिये। इस वक्त इसे छूना खतरनाक है। मैं उसे टाल नहीं सकता, क्योंकि वह एक बुनियादी और माना हुआ उसूल है, लेकिन आज उसमें देश की तबाही है। आप अपनी शक्ति इन बुनियादी बातों पर डालिये। शाख-पत्तियों में न खो जाइये। जड़ की तरफ कदम बढ़ाइये।
आपकी बहस जिस दूसरे सवाल पर हो रही है, उस पर कुछ कहने का मुझे अधिकार नहीं है। जो रचनात्मक संस्थाएं काम कर रही हैं, उनसे मेरा करीब का संबंध नहीं रहा। सहानुभूति रही, दूर का संबंध भी रहा। मैं उनका ठीक- ठीक हाल नहीं जानता, इसलिए सलाह देने का मुझे हक नहीं है। ऊपर से देखने पर ऐसा मालूम होता है कि ये संस्थाएं एक हो जायें तो अच्छा है। मिल जाने से वे एक दूसरे की ताकत बढ़ायेंगी, लेकिन यह सिर्फ जाब्ते की बात नहीं है। हमको इस वक्त इनर्शिया का – सुस्ती का – मुकाबला करना है। मिलकर करने में आसानी होगी। यह जरूरी है कि हमारी शक्ति बिखरने न पावे।
कांग्रेस के साथ क्या संबंध हो, इसके बारे में राष्ट्रपति बतावें। आज सवाल तो यह है कि कांग्रेस क्या हो? नये कायदे और विधान पर भी यह सवाल रहेगा कि कांग्रेस क्या हो? मैं पसंद नहीं करूंगा कि कांग्रेस रचनात्मक संस्थाओं के कामों में दखल दे। वह उनसे संबंध बनाये रखे, इतना काफी है।
अब उस बड़े संगठन की बात आती है। बापू ने लोक सेवा संघ की योजना बनायी थी। वह चीज तो ठीक थी, लेकिन बापू ने जो लिखा था, वह पोलिटिकल संस्था नहीं थी। उसके मानी ये थे कि कांग्रेस खत्म कर दी जाय और उसकी जगह एक नई संस्था पैदा कर दी जाय, जो पोलिटिकल न हो। तब दूसरी पोलिटिकल संस्था बनानी पड़ती, क्योंकि पोलिटिकल काम तो करना ही होगा। कांग्रेस पोलिटिकल मैदान से हट जाती तो नये नाम से कोई न कोई पोलिटिकल संस्था बनती। खाली नाम बदलकर वही लोग खड़े हो जाते और वे बेकाबू हो जाते, इसलिए यह विचार किया गया कि इसका पोलिटिकल कैरेक्टर बिल्कुल ही खत्म न करें। कांग्रेस पुरानी है। उसका जो काबू मेम्बरों पर है, वह नई संस्था का नहीं रह सकता। कांग्रेस को पूरा बदलने का काम, ओपन सेशन ही कर सकता है, एआईसीसी और वर्किंग कमेटी नहीं कर सकती। जो पोलिटिकल काम में रहना चाहें, उनके लिए एक संस्था चाहिए। पोलिटिकल लाइफ तो बंद नहीं हो सकती। अब तक कांग्रेस अंग्रेजी हुकूमत का मुकाबला करती थी। अब वह काम खत्म हो गया। एक तरह से पूरा हो गया। अब उसे हुकूमत का मुकाबला करने का काम नहीं, बल्कि हुकूमत करने का काम करना है। इसलिए पॉलिटिक्स में रहकर उसे नये ढंग से काम करना पड़ेगा। पोलिटिकल क्षेत्र में काम करते रहने पर वह इन रचनात्मक संस्थाओं से संबंध रखेगी। अब अलग-अलग व्याख्यानों में जो बातें कही गयीं, उनमें से कुछ को एक-एक करके लेता हूं।
ठक्कर बापा ने जो बातें कही हैं, वे तो ठीक ही हैं। उनको हमें करना ही है। ग्रामोद्योग की बात बुनियादी है। उसको बाद में लूंगा। काका साहब ने हिन्दुस्तानी की बात कही। आजकल जो भाषा निकल रही है, उसे हिन्दी कहूं, उर्दू कहूं, क्या कहूं, समझ में नहीं आता। पचास परसेंट भाषा मेरी समझ में नहीं आती। रेडियो पर या कभी-कभी व्याख्यानों में भी ऐसी भाषा चलती है, जो अक्सर मेरी समझ में नहीं आती। जिस तर्जुमे का किशोरलाल भाई ने जिक्र किया, वह भाषा तो मेरी समझ से एकदम परे है। मैं प्रैक्टिकल बात जानता हूं। मैंने न हिन्दी पढ़ी, न उर्दू। चूंकि दोनों में अनपढ़ हूं, इसलिए बीच की राय रखता हूं। मुझे भी बड़ी परेशानी है कि आखिर हमारा झुकाव किस तरफ को जा रहा है। हर बात को हम धार्मिक और मजहबी ढंग से देखने लगे हैं। कल की ही बात है। असेम्बली में हिन्दी का सवाल आया। हिन्दू और मुसलमान धार्मिक और मजहबी ढंग से सोचने लगे। इस देश में हिन्दू ज्यादा हैं, इसलिए हिन्दुओं की भाषा ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। मुसलमान सिर्फ तेरह फीसदी हैं, इसलिए क्या यह कहा जाय कि सिर्फ तेरह फीसदी अरबी-फारसी के शब्द हों? भाषा का मजहब से संबंध नहीं है। मुसलमान कहे कि मेरी भाषा उर्दू है तो मुझे नागवार गुजरता है। हम झगड़ों में उलझ जाते हैं। बुनियादी काम की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। रूस से एक अच्छे-से कोश की मांग आयी। एक भी माकूल किताब नहीं मिली। हिन्दी-उर्दू का झगड़ा होता रहता है। दोनों में से बेसिक लफ्ज छांटने का काम नहीं होता।
ड्राफ्ट कॉन्स्टिट्यूशन में अंग्रेजी रखी गयी है, तो वह सही रखी गयी है। न रखना, बड़े पैमाने पर झगड़ा-फसाद मोल लेना है। माना कि हमारी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, लेकिन उसके लिए यह मौका नहीं है। अच्छा काम गलत वक्त पर बुरा काम हो जाता है। दुनिया में जबान से ज्यादा डिसरप्टिव चीज कोई नहीं। जबान मजहब से भी ज्यादा दूरी बढ़ाती है। आखिर आदमी जबान से ही तो झगड़ा करता है। अच्छे कामों में भी प्रायोरिटी का खयाल रखना पड़ता है। खाली हिन्दुस्तानी को दक्षिण भारत के लोग लेने को तैयार नहीं थे। हम उनके साथ ज्यादती कैसे करते? इस बात पर कॉन्स्टिट्यूएंट असेम्बली को क्या तोड़ देते? मेरा खयाल है कि हम इस सवाल को जरूरत से ज्यादा महत्त्व नहीं दे सकते। काका साहब से ज्यादा राष्ट्रभाषा-वादी कहां है, लेकिन हम क्या करते? एक ही तरीका था, जो मौलाना साहब ने बतलाया कि पांच साल का कार्यक्रम बनायें। पांच साल तक अंग्रेजी से काम लें और अपनी राष्ट्रभाषा बनाते रहें। कोई चार-पांच हजार बेसिक लफ्जों की भाषा बनायें। डॉक्टर जाकिर साहब ने हिन्दुस्तानी तालीमी संघ के निस्बत जो कहा, उसका जवाब मौलाना साहब दें। यों, खुद जाकिर साहब भी हाल जानते हैं।
मैं समझता हूं कि अलग अलग भाषणों में जो सवाल उठाये गये थे, उनमें से अधिकतर को मैं ले चुका हूं, लेकिन असल बात तो बुनियादी काम की है। देश में इस वक्त जो फ़िज़ां और खतरा है, उसका मुकाबला करना आपका और हमारा पहला काम है। खादी, ग्रामोद्योग वगैरह के सिलसिले में यहां पर कुछ बुनियादी बातें उठायी गयीं। इस सवाल को और सवालों से अलग रखें। कॉम्पिटिटिव एकॉनमी और एक नये सोशल ऑर्डर की बात कही गयी। देखना यह है कि इनके मानी क्या है? मैं कॉम्पिटिटिव एकानमी से दूसरा मतलब समझता हूं। जो एकॉनमी आप पेश करते हैं, वह अपने बल पर ठहर सके। अगर आज नहीं तो दस साल के बाद अपनी टांगों पर खड़े होने का दम उसमें होगा या नहीं? सरकार मदद करे, आप उसे शुरू करें।
लेकिन बुनियादी चीज यह है कि क्या उसमें अपनी टांगों पर खड़े होने का दम है? अन्न की कमी है। अगर अन्न की कमी को हम पूरा न कर सके, तो कोई सरकार लोगों को भूखों थोड़े ही मरने देगी। जहां तक उसका बस चलेगा, वह बाहर से अन्न लायेगी। कपड़े की कमी है। एक वैक्यूम तैयार हो गया है। अगर हम उसे खादी से न भर सकें तो कोई भी सरकार मिल के कपड़े की बात तो अलग, विदेशी कपड़ा लाये बिना नहीं रहेगी। वह लोगों को नंगे नहीं रहने दे सकती। अगर वह कपड़े की कमी को दूर करने की कोशिश नहीं करेगी, तो नतीजा खतरनाक होगा। अगर अपना कपड़ा हम बना सकते हैं तो गवर्नमेंट मदद भले ही करे। मिल हलके-हलके बंद करें और बाहर का कपड़ा बंद कर दें तो क्या वैक्यूम अपने आप भर जायेगा? अगर आज विदेशी कपड़ा या मिलों का कपड़ा वैक्यूम को भर देने लायक होता तो वैक्यूम ही न रहता। मगर वैक्यूम है, इसका मतलब यह है कि हमारे पास हमारी जरूरत के लायक कपड़ा नहीं है। देश के लिए यह हालत खतरे की है। विदेशी कपड़ा और मिलों का कपड़ा आने के बाद भी कपड़े की जो कमी रह जाती है, उसे भी खादी पूरा नहीं कर सकती। ग्रामोद्योगों की वस्तु गवर्नमेंट की मदद से कुछ दिनों के बाद अपनी टांगों पर खड़ी नहीं रह सकती तो वह नहीं ठहरेगी। बात कुछ पेचीदा है। मैं नहीं जानता कि मैं उसे कहां तक साफ कर सका हूं। मेरा मतलब यह है कि कॉम्पिटिटिव एकॉनामी निकाल देने से सवाल हल नहीं होता।
दूसरी बात युद्ध के बारे में है। यों हम युद्ध किसी से नहीं करना चाहते, लेकिन देश-रक्षा का पूरा-पूरा इंतजाम हमें करना होगा। आप कहते हैं, उद्योगों की योजना देश-रक्षा की दृष्टि से न की जाय। मैं अर्ज कर दूं कि ऐसा कोई उद्योग नहीं, जिसका देश-रक्षण के साथ संबंध न हो। कपड़े से भी देश रक्षा का संबंध होता है। देश-रक्षण की दृष्टि से हमें एक हद तक इंडस्ट्रियलाइजेशन करना पड़ेगा। कॉटेज इंडस्ट्रीज से इसका मुकाबला नहीं। होम इंडस्ट्रीज से अलग औद्योगीकरण का एक ढांचा हमें बनाना है। औद्योगीकरण से एक वायुमंडल हमने देश को दे दिया है। मजदूरी की दर और तनखाहों पर उसका असर होता है, लेकिन मुझे शक नहीं कि कितना ही औद्योगीकरण क्यों न हो, तो भी पचास या सौ बरस तक ग्रामोद्योग बहुत ज्यादा बढ़ाने की गुंजाइश होगी। सवाल यह है कि किन-किन बातों में ग्रामोद्योग चल सकेगा और किन बातों में नहीं। आज इसका ठीक-ठीक जवाब मेरे पास नहीं है। देश-रक्षण का सवाल एक ऐसा सवाल है, जिससे सारी औद्योगिक फ़िज़ां ही बदल जाती है। बड़े-बड़े उद्योग अगर राज्य के काबू में हों तो वे नॉन-कॉम्पिटिटिव हो जाते हैं। घरेलू दस्तकारियां किन क्षेत्रों में और कहां तक बढ़ें, यह अध्ययन का सवाल है। सरकार का फर्ज है कि जिन बातों में घरेलू दस्तकारियां चल सकती हैं, वहां उनको पूरी तरह बढ़ाये।
दुनिया की बुनियादी समस्या यह है कि सारी दुनिया राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से केन्द्रीकरण की तरफ बढ़ती जा रही है। हम भी केन्द्रीय सरकार को अधिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाना चाहते हैं। सिफत इस बात में है कि हम केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण के फायदे जोड़ने की तरकीब निकालें। हम देश-रक्षण के सवाल को छोड़ देंगे तो अपनी राजनैतिक आजादी भी नहीं रख पायेंगे। फिर आर्थिक स्वतंत्रता भी कैसे रख सकेंगे?
यह सवाल सीधा-सादा नहीं है, काफी पेचीदा है। बिना काते अगर खादी नहीं चलती तो यह सोचना होगा कि वह चलेगी या नहीं। उसमें इकोनोमिक आउट टर्न का सवाल है। खुद चरखा चलाने की बात दूसरे तरह की है। चरखा तो कुछ चुने हुए लोग चलायेंगे। बाबू राजेन्द्र प्रसाद चलावें, मैं चलाऊं, इस तरह कई आदमी चला लें। ये चुने हुए आदमी एक लाख हों या दस लाख हों। वे अपने कपड़े का सवाल चाहे हल कर लें, लेकिन आर्थिक दृष्टि से कपड़े की पैदावार का सवाल हल नहीं कर सकते। वह सवाल एक दूसरे क्षेत्र से संबंध रखता है, इसलिए मैंने अर्ज किया कि इन सवालों को फिर से नई फ़िज़ां की रोशनी में सोचना होगा।
मौलाना आजाद- आखिर घूम-फिरकर वही बात आ जाती है कि इस वक्त करना क्या चाहिए? असली सोचने की चीज यह है कि बापू का मिशन किस तरह आगे बढ़े। इसमें ज्यादा बहस न हो।
जाकिर हुसेन- तालीमी संघ के बारे में अब तक कोई जवाब नहीं दिया गया।
मौलाना आजाद- सरकार तालीमी संघ को मदद देने का इरादा रखती है। सरकार तालीमी संघ से मदद चाहती है और तालीमी संघ को सहारा देने की ख्वाहिशमंद है। आपके काम के लिए कुरुक्षेत्र में एक नया मैदान है। वहां एक्स्परिमेंट करें।
विनोबा- जवाहरलाल जी को सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत में देखने की मेरी मनोदशा नहीं है। मैं उन्हें गांधीजी के कुटुंब का समझता हूं। जवाहरलाल जी और मैं कम से कम पच्चीस साल से एक ही कुटुंब के रहे हैं, लेकिन आज तक एक दूसरे से कभी नहीं मिले। आज ही उनका और मेरा व्यक्तिगत परिचय हुआ। यह दोष न मेरा है, न उनका। यह दोष तो उसका है, जिसका कुटुंब इतना विशाल था, इसलिए दोनों अपना-अपना काम करते हुए भी व्यक्तिगत तौर पर एक-दूसरे को नहीं जान सके। आज जबकि यह पहला मौका है कि वे और मैं एक साथ आये हैं, तो इस पहले मौके पर सरकारी प्रतिनिधि की हैसियत से उनको देखने का मेरा दिल नहीं होता।
उनकी दिक्कतें सही हैं। मैं उनकी मुश्किलों को ठीक तरह से महसूस करता हूं। उनका बोझ जब दूर से देखता हूं तो उनसे भी अधिक महसूस कर सकता हूं। उन्होंने कहा कि उनके सिर पर बोझ होने के कारण उनको कुछ सूझता नहीं। मैं अलग से देखता हूं तो मुझे इस बात का पता चलता है कि जिसके सिर पर बोझ होता है उसी को सूझता है, इसलिए सूझता भी उन्हीं को है। आपसे काम की बात एक ही हो सकती है, वह यह कि हम आपके हैं और आप हमारे हैं। आपकी मुश्किलें हमारी मुश्किलें हैं। हमसे आप क्या चाहते हैं? आप मार्गदर्शन करें या आप हुक्म दें तो भी हम काम करेंगे। काम की बात मुझे इतनी ही कहनी है।
एक बात और। सरकार की हालत देखते हुए ग्रामोद्योग बढ़ाने का उसे मौका ही नहीं मिला। सरकार मिलें बढ़ावे तो मैं उसके साथ झगड़ा नहीं करूंगा। मुझे सूझे तो मैं खादी को उसकी टांगों पर खड़ा करूंगा। अगर न कर सकूंगा तो उसमें मेरा दोष होगा, सरकार का नहीं। अंग्रेजों के बावजूद अगर हम खादी को बढ़ा सके, तो अपनी सरकार के जमाने में अवश्य बढ़ा सकेंगे, लेकिन इन सवालों पर मैं बहस नहीं करना चाहता। हम आपकी खिदमत में पड़े हैं, ऐसा आप समझें। आप जो काम करने को कहेंगे, उसके लिए हम अपने को समर्थ पायेंगे, तो उसे जरूर करेंगे। हम अपने को समर्थ न भी समझें, लेकिन आप कहें कि हम समर्थ हैं, तो भी हम उस काम में लग जायेंगे।
राजेन्द्र प्रसाद- बहनों और भाइयों! जिसके घर का मालिक गुजर जाता है और घर के सब लोग इकट्ठे होकर सोचने लगते हैं कि घर का काम कैसे चलेगा, कुछ-कुछ उसी तरह की हालत हम लोगों की है। गांधीजी ने सत्य और अहिंसा के जरिये तमाम लोगों के जीवन को ऊपर उठाने की कोशिश की। हम अपनी दिक्कतें लेकर गांधीजी के पास जाते थे, वे उन्हें हलका कर देते थे। अब वह काम मुश्किल हो गया है। मुल्क के सामने बड़े-बड़े सवाल हैं, जिनमें सबसे बड़ा वह है जिसके सबब से गांधीजी की जान गयी, लेकिन पिछले पांच-छ: महीनों में जो देखा, उसे गिरा हुआ आदमी भी बुरा मानेगा। औरतों पर हाथ उठाना, मासूम बच्चों को काट डालना, बीमारों और बूढ़ों पर रहम न करना, ये सारी बातें चाहे मुसलमानों ने की हों, चाहे हिन्दुओं ने या सिक्खों ने की हों, इतने बड़े पैमाने पर ऐसी हैवानियत की मिसाल इतिहास में और कहीं नहीं मिलेगी। गांधीजी इसी के खिलाफ लड़ रहे थे। इसी में उनकी जान गयी।
हमें खासतौर पर दो बातों पर विचार करना है। गांधीजी के विचारों का फैलाव इस देश में किस तरह करें और रचनात्मक संघ इस मकसद को पूरा करने में हमारी मदद कर सकते हैं या नहीं? अलग-अलग रहकर या मिलकर या फिर एक संघ के रूप में एक होकर।
दूसरा सवाल यह है कि गांधी विचार को मानने वालों का कोई संगठन हो या न हो? आज कई तरह की संस्थाएं और कई तरह के संगठन मैदान में हैं। सबसे बड़ी संस्था कांग्रेस है। आज की सरकार में और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं है। गवर्नमेंट में जो लोग हैं, वे हमारे हैं, हमारे विचार के हैं, हमारे भेजे हुए हैं। वे अपनी मर्जी से वहां नहीं बैठे हैं। कांग्रेस ने उन्हें बैठाया है। उनमें और हममें भेद नहीं है।
फिर भी सरकारी और गैर सरकारी इदारों में फर्क होता ही है, इसलिए उनके साथ हमारा क्या ताल्लुक हो, इसका फैसला कर लेना चाहिए। एक ऐसी जमात जरूर हो, जो अपने विचार और जिन्दगी से लोगों को बताये कि किस तरह बरतना चाहिए। हमें अपनी कोई अलग और खास गिने-चुने लोगों की जमात बनाकर नहीं बैठना है। यह कोई गांधीजी के चेलों का संप्रदाय बनाने की कोशिश नहीं है। मौजूदा रचनात्मक संघों को एक करना या कोई एक नया संघ कायम करना, ये सवाल भी अपने में बड़े तो हैं, लेकिन इंसानियत की हिफाजत करना सबसे अहम सवाल है। मैं विनोबाजी से निवेदन करता हूं कि वे इस मौके पर कुछ कहें।
विनोबा- सदर साहब, पंडितजी, भाइयों और बहनों, यद्यपि मैं गांधीजी के पास रहा हूं, तो भी उनका पाला हुआ एक जंगली जानवर हूं। ऐसे मनुष्य के लिए खड़े होकर कुछ कहना कितना कठिन है! फिर भी आज्ञा हुई है तो मन में जो विचार उठते हैं, वे आपके सामने रख देता हूं। हमारे बुजुर्ग नेता भी यहां बैठे हैं। उनसे मार्ग-दर्शन की हम आशा रखते हैं। बापूजी ने तो कई बार कहा था कि उनके पीछे पंडितजी ही उनके वारिस होंगे, इसलिए उनके मार्गदर्शन के तो हम हकदार भी हैं।
इतना बड़ा देश अपनी आजादी पाते ही फौरन इतना गिर जाता है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस देश की यह हालत क्यों हुई? हमारा दावा तो यह है कि हमने अपनी आजादी विशेष तरीके से हासिल की है, जैसे दूसरे देशों ने नहीं की। हम कामयाब हुए। दुनिया हमारा दावा मंजूर करती है, लेकिन ऐसा दावा करने वाले लोग एकाएक इतना कैसे गिर गये? इसका कारण मैं ढूंढ़ रहा हूं, लेकिन ठीक जवाब नहीं मिल रहा है। हम कारणों को जानेंगे तो उनका उपाय कर सकते हैं।
बापू ने अपनी जिन्दगी भर हमें यही सिखाया कि जैसे हमारे साधन होंगे, वैसे ही हमारे मकसद होंगे। यानी साधनों का रंग मकसद पर चढ़ता है। गांधीजी की हत्या के पीछे एक बड़ी जमात है, वह हत्या की योजना बनाती है, हत्या होने पर आनंद मनाने की तैयारियां करती है और उसके सारे आयोजन का हम लोगों को पता तक नहीं रहता। अगर हम साधन-शुद्धि का विचार छोड़ देते हैं तो क्या ऐसी जमात तारीफ के काबिल नहीं गिनी जायेगी? अपना मकसद पूरा करने के लिए चाहे जैसे साधन अगर मान्य समझे जाते हैं तो फिर किसका मकसद ठीक है और किसका बे-ठीक, यह कौन तय करेगा? हर एक को अपना मकसद ठीक ही लगता है।
गांधीजी का मुख्य विचार सत्य और शद्धि का था। मानव इतिहास में यह एक नई चीज थी। उन्होंने ट्रस्टीशिप शब्द का उपयोग किया। ऐसे शब्दों से जैसे कुछ लाभ होता है, वैसे नुकसान भी होता है। ट्रस्टीशिप शब्द के सारे असोसिएशन्स अच्छे नहीं हैं। हमारे यहां गरीबी इस हद तक है कि गरीब जनता को दूसरी तरह से उभाड़ना बहुत ही आसान है और फिर वह अहिंसा से ही काम लेगी, ऐसा नहीं कह सकते। इसलिए हमें निश्चय करना चाहिए कि ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का अमल करने की हम पूरी कोशिश करेंगे और ज्यादा जायदाद नहीं रखेंगे। इतनी जायदाद जायज और इतनी नाजायज, ऐसी कोई लकीर थोड़े ही खींच सकते हैं, ऐसा कह कर यह बात टाल देंगे तो आगे आने वाला खतरा अटल है। ट्रस्टीशिप शब्द की पावनता का आधार लेकर हमारा संसार हम वैसे ही चलावेंगे, तो अच्छा नाम भी दुर्नाम बन जायेगा।
हमारी एक बिरादरी स्थापना करने का यहां विचार हो रहा है। उसका नाम क्या हो, कौन-कौन उसमें दाखिल किये जावें, आदि चर्चा चली है। मैंने कहा कि मुझे नाम नहीं, काम चाहिए। कोई खास संघ स्थापित करने से क्या होगा? संघ में तो चंद लोगों का ही समावेश होता है।
एक भाई मुझसे पूछ रहे थे कि गांधीजी के स्मरण के लिए अशोक-स्तंभ जैसे स्तंभ खड़े किये जांय तो कैसा रहेगा?’ मैंने कहा, ‘जनता से जाकर पूछो कि वह अशोक के स्तंभों को कितना जानती है? जनता को अशोक के नाम का भी पता नहीं। इतिहास में कई राजा हो गये। उनमें अशोक भी हुआ। वह जरूर एक महान और दयालु राजा था, लेकिन जनता उसको नहीं जानती। तुलसीदास को जानती है। वैसे ही गांधीजी का जनता के हृदय में स्थान है। उनके स्मरण के लिए स्तंभों की क्या जरूरत है?
जवाहरलाल नेहरू- राष्ट्रपति जी, बहनों और भाइयों! मालूम नहीं आप लोगों के दिल में कौन से विचार आ रहे हैं। मेरे दिल में यहां आकर तरह-तरह के विचार उठते हैं। जहां गांधीजी रहते थे, वहां इतना पहरा और पुलिस कहां तक मौजूं है? मैं परेशान हूं। अगर हमारी वजह से इतना सारा इंतजाम किया है, तो मैं शर्मिंदा हूं। सोचने लगता हूं कि हम जाना किस तरफ चाहते हैं, मगर बढ़ते किस तरफ जाते हैं। इधर हम हिंसा-अहिंसा की चर्चा करें और उधर मुझे लड़ाई की तैयारी करनी पड़ती है। रोज इस तरह के पेंच में पड़ जाते हैं। सुबह से आधी रात तक जैसे एक मशीन में पड़कर काम करते रहते हैं। सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती। मेरे दिमाग में कोई सफाई नहीं कि हम किधर जा रहे हैं– अपने मकसद की तरफ जा रहे हैं या दूसरी तरफ। मैं आपको सलाह क्या दूं? सिर्फ अपने दिमाग की परेशानियां आपके सामने रखे देता हूं।
इस वक्त बाहर से हमले का अंदेशा नहीं है। डर है आपस की हिंसा से, भीतरी लड़ाई से। पहले जब आजादी की लड़ाई चलती थी और हिंसा-अहिंसा के सवाल से दिमाग परेशान हो जाता था, तो बापू के पास चला जाता था। उनसे बहुत चर्चा और बहस करने के बाद मेरे दिल पर यह बात जम गयी कि अंग्रेजों के खिलाफ भी अगर हम हिंसा से काम लेंगे तो हमारी भलाई नहीं होगी। अंग्रेजों के खिलाफ तो थोड़ी-सी हिंसा कर पायेंगे, लेकिन वह हिंसा पलट कर जब आपस की हिंसा का रूप ले लेगी, तो फिर क्या होगा, इसकी कल्पना भी करना मुश्किल था। जहां आपस की हिंसा शुरू हुई कि फिर देश के टुकड़े टुकडे हो जायेंगे। वह आजाद नहीं रह पायेगा। आपस की हिंसा का दरवाजा अगर खुल जायेगा तो वह हिंसा कहीं नहीं रुकेगी। इसलिए हमको यह सोच लेना है कि अव्वल कौन-सी बात हो, दूसरी कौन-सी और तीसरी कौन-सी। पहली चीज पहले रखनी चाहिए।
हम क्यों कमजोर हो गये हैं, इस बात पर गौर करना जरूरी है। यह कहना आसान है कि पाकिस्तान और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कसूर है। लेकिन इससे हम कैसे छूट सकते हैं? आखिर हमारा भी तो कसूर है। हम परिस्थिति को संभाल न सके। हमने हिंसा का रूप देखा। सिलसिला-सा जारी हो गया। एक मंत्री की हैसियत से मैं उसका मुकाबला और किस तरह करता? मेरा फर्ज हो जाता है कि मैं उस हिंसा का सामना करूं। क्योंकि मैं देखता हूं कि अगर उसे न करूं तो हिंसा कहीं नहीं रुकेगी।
इस दृष्टि से विनोबाजी की बात बहुत माकूल थी। उन्होंने जो सवाल उठाया, वह दरअसल बुनियादी चीज है। राजनैतिक मैदान में हममें से हर एक लंबी चौड़ी दलीलें देता है, ऊंची-ऊंची बातें करता है, लेकिन अव्वल कौन-सी चीज हो, इसके बारे में किसी का दिमाग साफ नहीं है। अगर होता तो फिर खतरा नहीं रहता। जो उपाय हम काम में लाते हैं, उनके बारे में पहले कोई नहीं सोचता। बाद में पता चलता है कि वे अच्छे थे या बुरे। नतीजे से उपायों की अच्छाई या बुराई का फैसला किया जाता है, लेकिन बाद में पता चलने से क्या फायदा?
यह बहस पुरानी ही है कि अगर काम अच्छा है तो उसके लिए जिन अच्छे-बुरे उपायों का इस्तेमाल किया जाय, वे भी अच्छे हैं। जमाने से यह बहस चलती आ रही है, क्योंकि ये सवाल बड़े पेचीदा होते हैं। उनका हां या ना में जवाब नहीं मिलता। बहुत तकलीफ और दिमागी परेशानी उठाने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि गलत कदम उठाने का नतीजा बुरा ही होता है। बात बिल्कुल अदना-सी है, लेकिन उसके नतीजे बहुत गहरे हो सकते हैं। राजनीति में वक्ती फायदा देखा जाता है। जरूरत इस बात की है कि चाहे व्यक्ति को फायदा हो या न हो, जो कदम उठाया जाये वह सही कदम हो। जिन्दगी के तमाम क्षेत्रों में यह उसूल बुनियादी है। इसके बारे में अगर हमारा दिमाग साफ हो, तो सारे मामले सुलझ सकते हैं।
देखिये, आज दुनिया का हाल क्या है। हमारे आपके देखते-देखते दो लड़ाइयां हो चुकीं। मुमकिन है कि तीसरी जंग भी छिड़ जाय। उससे हम दूर रहना चाहें भी तो रह नहीं सकते। यों अलग रहें, तो भी दुनिया में लगी हुई आग की आंच से बच नहीं पायेंगे। सरकार के एक सदस्य के नाते मैं चुपचाप कैसे बैठ सकता हूं? मुझे अपने देश के बचाव की माकूल तैयारी करनी पड़ेगी। यह एक सवाल हमारे सामने है। हमारी नीयत तो अच्छी है, लेकिन हम किन अच्छे साधनों का इस्तेमाल करें, इसका फैसला करना आसान नहीं है। अगर नीयत अच्छी है तो दूसरी बातों को नजरअंदाज किया जाय, यह तो वही पुरानी बात है।
दूसरी बात जनता के ऊपर जो बोझ है, जो शोषण होता है, उसको हटाने का क्या तरीका हो? विनोबा जी ने सलाह दी कि हममें से हर एक को जरूरत से ज्यादा नहीं रखना चाहिए। गैर-जरूरी चीजों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उसूली और बुनियादी तौर पर उनकी राय ठीक है। हां, इसमें मतभेद हो सकता है कि जरूरी क्या है और गैर-जरूरी क्या है? बाज़ बातों पर आप मुझसे ज्यादा जानते हैं। उन्हीं में से यह भी एक बात है। मैं विनोबाजी की बात की ताईद करता हूं, लेकिन जरूरी और गैर-जरूरी का सवाल गहरा है, इसलिए इस मामले में किसी ठीक नतीजे पर हम नहीं पहुंच सकते और न कोई राय देने का अधिकार ही रखते हैं।
इन उसूली बातों के अलावा हमारे रोजमर्रा के सवाल हैं। उनका सामना हम न करें तो उत्तर भारत की फ़िज़ां काबू में नहीं रह सकती। डॉक्टर चोइथराम गिड़वानी का एक लंबा तार यहां पहुंचा है। वे कहते हैं कि इस कान्फॉरेंस को शरणार्थियों के सवाल की तरफ पहले ध्यान देना चाहिए। वह सबसे अहम सवाल है। जिस फ़िज़ां से शरणार्थियों का सवाल पैदा हुआ और गांधीजी की मौत हुई, उसकी पकड़ कैसे हो? फौज और पुलिस से उसका मुकाबला हम नहीं कर सकते। इंसान अपनी सेवा और त्याग से ही, कुरबानी और खिदमत से ही इसका रास्ता खोज सकता है। यह काम किस तरह से किया जाय, वह हमारे लिए गौरतलब सवाल है। आप चाहे दिल्ली में जाकर उसका मुकाबला करें या पंजाब में जाकर। कहीं भी क्यों न जायं, लेकिन इस सवाल को हल करना है। इस जहर को कब्जे में लाना है।
आखिर हिन्दुस्तान काबू से बाहर क्यों हुआ? इसकी बहुत सी वजूहात हैं। जहां तक कांग्रेस वालों का ताल्लुक है, कांग्रेस वाले चुनावों के झगड़ों में और अपनी सरकारें चलाने में इतने पड़े कि जनता की सेवा के लिए उन्हें समय ही नहीं रहता था। जनता और हमारे बीच एक दीवार खड़ी हो गयी, कांग्रेस का कद गिरता गया। कुछ खास-खास नेताओं का आदर और असर भले ही रह गया हो। कांग्रेस वालों के जाहिरा झगड़े लोगों के सामने आने लगे। वे सिर्फ ऊपरी काम करने में मशगूल रहे। सेवा का ख्याल किसी को न रहा, इसलिए उनके और जनता के बीच में दूसरे लोग आकर खड़े हो गये। हमारे सामने सवाल यह है कि कांग्रेस को कैसे सुधारें? आजादी हासिल करने का उसका ऐतिहासिक काम पूरा हो गया, लेकिन आगे के लिए क्या हो? इस मामले में हमारा दिमाग साफ होना चाहिए।
देश में जो जातीयता और हिंसा की लहर फैल रही है, उसका मुकाबला करना हम कांग्रेस वालों का काम है। यह जहर इतना फैला कि उसने हमें तबाह कर डाला। दुनिया के इतने बड़े आदमी की जान गयी। कहा तो यहां तक जाता है कि लोगों ने मिठाइयां खायीं और खिलायीं। बात सही हो या गलत, लेकिन जिस हवा में इस तरह के इलजाम भी किये जा सकते हैं, उस हवा में जहरीलेपन की हद हो गयी। इस कमीनेपन को, इस छोटेपन को, इसे ओछेपन को, इस नीचेपन को कैसे दूर करें? इसे देखकर मुझे सदमा पहुंचा। मैं सोच नहीं सकता था कि ऐसी बात होगी। पुराने आतंकवादी अफसरों और गोरों की हत्या करते थे, लेकिन यह तो निकृष्ट तरह की हिंसा हुई। इसे देखकर दिल टूट जाता है। इसे काबू में लाना सरकार की ताकत से बाहर है। यह कार्यकर्ताओं का काम है। उन्हीं का नौजवानों पर असर पड़ सकता है।
मैंने सिर्फ अपने दिमाग की परेशानियां आपके सामने रखी हैं। और मैं कर ही क्या सकता था? आज रात को फिर मुझे जाना है, फिर वही काम की मशीन शुरू हो जायेगी। मैं इतना ही कह सकता हूं कि आपके जो फैसले होंगे, उन्हें पूरा करने में मदद पहुंचाने की कोशिश करूंगा। आप मुझसे मार्गदर्शन न चाहें। मुझे भी अपने कैंप फॉलोअर्स में से एक समझियेगा।
मौलाना आजाद- जनाब सदर, हममें से ऐसा कौन है, जिसके दिल पर यह सूरतेहालात देखकर जख्म न लगा हो? इस मुल्क में जो लोग बसते हैं, उनमें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख सभी हैं। एक साल से जो तजुरबा हो रहा है, उससे हमारे, आपके, सभी के दिल को गहरी चोट लगी है। मुसलमानों के हाथ खून से लथपथ हैं तो हिन्दुओं के हाथ भी खून से लाल हैं और सिक्ख का हाथ भी रंगा हुआ है। कोई पनाह नहीं है। कैसा खतरनाक मर्ज है।
बापू की जिन्दगी हम सबके लिए एक रोशनी थी। जो ऐसे लोग हैं कि बापू की जिन्दगी में उनके कदमों से लगे हुए थे, क्या उन्हीं का यह काम नहीं है कि बापू की बतलायी हुई दवा लेकर वे मुल्क के हर गोशे में जायं? यह बोझ आपके कंधों पर पड़ा है। आप वही जाम, दवा का वही प्याला साथ में लें और बीमार हिन्दुस्तान को पिलायें।
दस-पंद्रह आदमियों की एक कमेटी बना लें। ऐसे आदमियों की जो बापू के कदमों के पास थे और बापू की बातों को पालते हैं। ये लोग बापू के तमाम कामों को कायम रखें और उन्हें शक्ति दें। ये तमाम संघ एक दूसरे के साथ जुड़े रहें और उनके अंदर की रूह को कायम रखें।
असल बात यह है कि वक्त चर्चा करने का नहीं, मैदान में आने का है। घर जल रहा है, आग सुलग रही है। कल तक बापू थे। आज रहनुमाई कौन करे? अगर आप बीच की चीज नहीं बनाते तो कोई चारा नहीं है। आपकी तरफ से हम किसी फतवे की उम्मीद नहीं रखते। आपको तो सलाह-मशविरा देना है। उनके उसूलों को समझने वालों की एक बीच की चीज, दस-पंद्रह आदमियों की, जिन पर आपको भरोसा हो, उनकी बना लीजिए। नाम, रूप चाहे जो हो। आपस में हमको बांधने वाला एक संगठन बना लें। काम फौरन शुरू करें।
राजेन्द्र प्रसाद- आम जलसे का काम यहां खत्म होता है। पंडित जवाहरलाल और मौलाना साहब को आप लोगों की तरफ से, उन्होंने जो रहनुमाई की उसके लिए, बहुत धन्यवाद देता हूं।
इसके बाद जवाहरलाल जी और मौलाना आजाद का सेवाग्राम से प्रस्थान होता है।
देवदास गांधी- लोगों को यह मालूम हो जाना चाहिए कि बापू के विचारों और सिद्धांतों के बारे में किससे पूछा जाय। इसलिए ऐसी एक अधिकारी समिति बनायी जानी चाहिए। सरदार से मेरी बात हुई तो उन्होंने कहा कि अगर मैं जाता तो एक बात कहता कि बापू के खास अनुयायियों और सरकार के बीच कोई चौड़ी खाई नहीं पड़नी चाहिए। इस बात को भी आप सोचें।
कृपलानी- बापू के शब्दों का अर्थ लगाने के बारे में किसी को अधिकारी न समझा जाय। इस बात में हर एक अधिकारी है। आप ऐसा करेंगे तो कैथॉलिक पंथ के समान बन जायेंगे।
विनोबा- बापू के विचारों के बारे में अधिकार-वाणी से व्यवस्था देने वाली किसी समिति की जरूरत नहीं है। हमारा जो संगठन बनेगा उसका एक मंत्री हो, इतना काफी है।
देवदास गांधी- हम यह प्रस्ताव करें कि रचनात्मक कार्य के एकीकरण के लिए एक समिति बनायी जाय और बापू के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए दस-पंद्रह आदमियों की एक छोटी कमेटी अलग बने।
झवेर भाई- यह क्या टेक्नीशियन्स और स्पिरीच्युअल्स की दो अलग-अलग समितियां हो गयीं?
कृपलानी- मतलब, आप दो अलग-अलग चीजें बनाने जा रहे हैं– एक प्रत्यक्ष रचनात्मक काम करने वाली संस्था और दूसरी बापू के सिद्धांतों के बारे में अधिकार से निर्णय देने वाली संस्था1 मुझे यह चीज बड़ी अटपटी मालूम होती है।
तुकड़ोजी महाराज- अगर आप बाकायदा मंडल और अध्यक्ष, सेक्रेटरी बनायें तो जगह-जगह वही सिलसिला चल पड़ेगा। तुकाराम महाराज के बाद तीन सौ साल में तीन सौ साठ मठ बन गये हैं, इसलिए कोई मंडल और उसके प्रेसिडेंट, सेक्रेटरी जैसी कोई चीज न बनायी जाय। नहीं तो जगह-जगह गांधीवाद के महंथ खड़े हो जायेंगे, लेकिन जिन पर हमारी श्रद्धा है, ऐसे कुछ आदमी मार्गदर्शन करने वाले हों।
शंकरराव देव- संगठन के रूप वगैरह का निर्णय करने का काम दस-पंद्रह आदमियों की समिति पर सौंप दिया जाय। हम इस तरह का प्रस्ताव करें कि ‘यह सम्मेलन सभापति जी से अनुरोध करता है कि वे सर्वोदय समाज के उद्देश्यों की पूर्ति तथा प्रचार के लिए एक उपसमिति नियुक्त करें।’
जैनेन्द्र कुमार- सारे रचनात्मक संघों के अध्यक्षों, राजेन्द्र बाबू, किशोरलाल भाई और विनोबा आदि की समिति बने और राजेन्द्र बाबू ही उसके अध्यक्ष हों।
राजेन्द्र प्रसाद- यह तो बड़ा अन्याय होगा।
शंकरराव देव- जब तक सूरज होता है, छोटे-छोटे दीपकों की जरूरत नहीं होती। उनके बाद फिर अंधेरा-सा हो रहा है। ऐसे समय में विनोबा की तरफ हमारी दृष्टि है।
विनोबा- बहनों और भाइयों, मैं एकांत में रहने वाला मनुष्य हूं। यद्यपि मेरे साथ कुछ साथी रहते हैं और मेरी मदद करते हैं, फिर भी मैं एकांतप्रिय ही रहा हूं। जेल में सब तरह के लोगों से संबंध आया। उनमें कांग्रेस वाले थे, समाजवादी थे, फॉरर्वर्ड ब्लॉक वाले थे, दूसरे भी थे। मैंने देखा कि ऐसा कोई खास पक्ष नहीं है, जिसमें दूसरे पक्षों की तुलना में अधिक सज्जनता दिखायी देती हो। जो सज्जनता गांधी वालों में दिखायी देती है, वह दूसरों में भी दिखायी देती है और जो दुर्जनता दूसरों में पायी जाती है, वह इनमें भी पायी जाती है। यह जब मैंने देखा तब इस निर्णय पर पहुंचा कि किसी खास पक्ष या संस्था में रहकर मेरा काम नहीं चलेगा। जेल से छूटने के बाद यह विचार मैंने गांधीजी के सामने रखा। उन्होंने अपनी भाषा में कहा, ‘तेरा अभिप्राय मैं समझ गया। तू सेवा करेगा, लेकिन अधिकार नहीं रखेगा। यह ठीक ही है।’
इसके बाद जिन-जिन संस्थाओं में मैं था, उनसे इस्तीफा देकर अलग हो गया। वे संस्थाएं मुझे प्राण-समान थीं। उनके उद्देश्यों और कार्यक्रमों को अमल में लाने की कोशिश बरसों से मैं करता आया था। उनसे अलग होते समय दु:ख जरूर हुआ, लेकिन आनंद का भी अनुभव किया। यदि इस नतीजे पर आया होता कि कोई भी संस्था जब बनती है, तब उसमें थोड़ी हिंसा तो आ ही जाती है, तो उतनी थोड़ी हिंसा की भी गुंजाइश मैं नहीं रखता और आप लोगों को यही कहता कि किसी भी संस्था में आप न जायें। सर्वोदय समाज ऐसी संस्था है, जहां कोई नियम नहीं है। इससे बहुत सारे खतरे मिट जाते हैं, इसीलिए मैं इसका समर्थन कर रहा हूं।
संघ न कहते हुए समाज शब्द रखा है वह साहित्यिक दृष्टि से नहीं रखा है। इसके पीछे विचार है। संघ शब्द में विशिष्ट अर्थ है। उसमें व्यापकता की कमी है। समाज व्यापक है और सर्वोदय शब्द के कारण उसकी व्यापकता परिपूर्ण हो जाती है।
इस प्रस्ताव के पीछे एक महानद्य विचार है। एक गांधी गया, उसकी जगह करोड़ों गांधी पैदा हों, ऐसी शक्ति उसमें है। इस प्रस्ताव में जो विचार है, वह क्रांति करने वाला है। आखिर ‘गांधीजी के सिद्धांत’ जिन्हें कहा जाता है, वे आये कहां से? क्या वे गांधी के बाप के थे? सिद्धांत किसी के बाप के नहीं होते। वे तो आत्मा के सिद्धांत थे। वही आत्मा आप में और मुझमें मौजूद है। इसलिए वे हम सबके सिद्धांत हैं। जो उन्हें मानता है, उसके वे सिद्धांत हैं। हम सत्य का आग्रह रखेंगे तो क्या गांधीजी कहते हैं, इसलिए? क्या गांधीजी के कारण सत्य की प्रतिष्ठा है? या सत्य के कारण गांधीजी की प्रतिष्ठा है?
गांधीजी से तो मैंने भर-भरकर पाया है, लेकिन उनके अलावा औरों से भी पाया है। जहां-जहां से जो मिला, वह मैंने मेरा कर लिया। अब वह सारी पूंजी मेरी हो गयी है।
गांधीजी के कोई सिद्धांत होते तो मृत्यु के बाद वे अपने साथ उन्हें ले गये होते, लेकिन वैसा नहीं है। सिद्धांत गांधीजी के नहीं हैं, बल्कि गांधीजी द्वारा प्रगट हुए हैं। उन्हें जब मैं ग्रहण करता हूं, तब वे मेरे ही बन जाते हैं। उन्हें लोगों के सामने रखते समय गांधीजी के नाम से रखने की जरूरत नहीं है।
इस प्रस्ताव में यह भी बात लिखी है कि सर्वोदय समाज के विचारों को मानने वाले अपने-अपने नाम पोस्टकार्ड द्वारा भेज दें, ताकि उनकी फेहरिस्त रखी जा सके। मैं नहीं समझा हूं, ऐसी फेहरिस्त का हम क्या करेंगे, फिर भी मैंने अनुमति दे दी। क्योंकि मैंने देखा कि उससे हमारे भाइयों को संतोष होता है। जिनके नाम दफ्तर में दर्ज नहीं है, लेकिन जो इसी काम को कर रहे हैं, वे भी इस समाज के सेवक हैं। प्रतिवर्ष जो मेला लगेगा, उसमें जिनके नाम दफ्तर में हैं, वे ही आयें ऐसा भी नहीं है। जो अपने नाम नहीं भी भेजेंगे और इस मेले में भी नहीं आयेंगे, लेकिन अपने स्थान पर ही काम करते रहेंगे, वे भी इस समाज के सेवक हैं। ऐसा व्यापक हमारा सर्वोदय समाज है। मेरा आपसे निवेदन है कि आपके सामने जो प्रस्ताव आया है, उसे आप मंजूर करें और उसका यथाशक्ति अमल करें।
शंकरराव देव- विनोबा का विचार शुद्ध है। संगठन के साथ न केवल थोड़ी हिंसा ही, थोड़ा-सा असत्य भी पैदा हो जाता है, इसलिए हम ऐसा संगठन बनाने की कोशिश करें, जिसमें असत्य और हिंसा की गुंजाइश कम से कम रहे। इस संगठन में कोई नियम, किसी तरह का बंधन या नियंत्रण नहीं रखा है। इसका कोई विधान नहीं, कोई कायदा नहीं है। यह संगठन अपने ढंग का है।
विनोबा ने हमारी जो मदद की है, वह अमूल्य है। उन्होंने हमारा पथप्रदर्शक बनने की उदारता बतलायी है। इसमें उनका त्याग है। उन्होंने कहा कि मैं अपने धर्म का पालन करते हुए तुम्हारी सहायता करूंगा। उनकी सम्मति न होती तो यह संघ न बनता। वे न होते तो वह इतना निर्दोष न बनता। इस समाज की आत्मा विनोबा हैं। उनसे मेरा निवेदन है कि यदि आपकी पूरी शक्ति न मिलेगी, तो नहीं चलेगा। गांधीजी के पश्चात आप ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। विनोबा की तरफ हमारी दृष्टि है। उनका समाज और समिति में न रहना दोनों के लिए श्रेयस्कर है, लेकिन वे ही आत्मा होंगे।
तुकड़ोजी महाराज- विद्वत्ता का अधिकार मुझे नहीं। यह भी नहीं कह सकता कि मैं गांधीजी के पास बरसों रहा, क्योंकि उनके पास मैं एक महीने से ज्यादा न रह सका। हमारे मंदिरों में गंदगी है। बापू तो रास्ते भी मंदिरों की तरह साफ करते थे। सफाई का काम जब हम पवित्र समझने लगेंगे, तब भंगी की गुलामी हट जायेगी। हमको गांधीजी की मूर्तियों के बदले हर गांव में साफ संडास बनाने चाहिए। इससे लोग सभ्य बनेंगे और गांव की पवित्रता बढ़ेगी। तीस जनवरी को जो मेला हो, वह ऐसा हो कि जिससे नास्तिक का भी दिल बदल जाय। पवित्र भावना लेकर लोग वहां पहुंचें।
कृपलानी- सभापति जी, बहनों और भाइयों, मैं नहीं जानता, मैं कहां हूं। कांग्रेस से निकल गया हूं, सरकार में हूं नहीं। सोशियलिस्ट मुझे गांधी वाला कहकर मुझसे दूर भगाते हैं, बाहर के लोग मुझे गांधी वाला समझते हैं, लेकिन यहां के बड़े-बड़े गांधी भक्तों में मैं नहीं हूं। मेरी खादी पर जाजूजी के सामने पानी फिर जाता है। मुझे पता नहीं कि मेरी जगह कहां है? मैं कहीं का भी नहीं हूं।
गुजरात विद्यापीठ में बापू की जयंती के समय महादेव भाई का भाषण हुआ। गांधीजी के संपर्क में आने से महादेव भाई के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन हुआ, यह उन्होंने बतलाया। मैं भी सोचने लगा कि क्या मुझमें भी कुछ अदल-बदल हुआ है? अपने भीतर झांकी डालकर देखा तो मालूम हुआ कि सिर्फ कपड़ा बदला है और कुछ नहीं बदला। मिल के कपड़े की जगह खादी आयी।
बिहार में हम लोग काम करते थे तो मेरे विद्यार्थी भी साथ थे। एक दिन देखा तो कुछ विद्यार्थियों के बदन पर कुर्ता नहीं था, सिर्फ छोटी-सी धोती और चादर थी। मैंने कारण पूछा। उन्होंने कहा कि बापू आजकल कुर्ता नहीं पहनते, इसलिए हम भी नहीं पहनते। मैंने उनसे कहा, ‘भूखे और नंगे आदमियों को देखकर कुर्ते से बापू के शरीर में जलन होती थी, आग-सी लग जाती थी, उससे बचने के लिए उन्होंने कुर्ता उतारकर फेंक दिया। तुम्हारे शरीर में वैसी जलन तो नहीं होती। तुम्हें कुर्ता फेंकने की क्या जरूरत?
साबरमती आश्रम में प्रार्थना की जगह बालू थी। दूसरी जगह आश्रम बना। वहां पास में नदी नहीं थी। दूर-दूर से बालू लाकर डाली गयी, क्योंकि बालू पर बैठे बिना प्रार्थना में दिल नहीं लगता। कई आश्रमवासी ठीक बापू की तरह उसी जगह घड़ी लगाते हैं। मुझे डर यह है कि बापू के नाम पर जो संस्था बन रही है, उसमें भी कहीं ऐसा ही न हो।
बापू का मार्ग चलाने का मतलब यह नहीं है कि हम उनकी नकल उतारें। कुछ लोग तो बापू की नकल उतारने में अपने को बापू से भी चढ़ा-बढ़ा दिखलाने की कोशिश करते हैं। एक तरह से दुनिया पर जाहिर करना चाहते हैं कि गुरु गुड़ रह गये, चेला चीनी बन गया। बापू ने अपनी उम्र में इस तरह का पवित्रता का अलगाव कभी नहीं दिखाया। हम खबरदार रहें। अपने को ऊंचा और पवित्र समझने वालों की एक जमात न बना लें। मैं कहना यह चाहता हूं कि हमें गांधीजी की स्पिरिट में काम करना है, किसी बाहरी चीज का अनुकरण नहीं करना है।
सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने वाले को समझ लेना चाहिए कि यह रास्ता शहीद होने का रास्ता है। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर जो कोई इफेक्टिव काम करेगा, वह एक न एक दिन मारा जायेगा। सत्य और अहिंसा का रास्ता दुनिया सह नहीं सकती। बापूजी की जीवनी को देखिये, उन्हें जब दूसरा कोई मारने के लिए तैयार नहीं होता था, तो वे अपनी आत्माहुति देने पर तुल जाते थे। अपने मारे जाने के मौके पैदा कर देते थे। आपको अपनी आहुति देने के मौके पैदा करने होंगे। आपकी किस्मत अच्छी होगी तो नहीं मारे जायेंगे, लेकिन शायद मारे जाने पर ही आपकी दैवी शक्ति सफल होगी। अगर कांग्रेस ने कुर्बानी का रास्ता छोड़ दिया तो उसका काम न चलेगा। यही बापू का सच्चा रास्ता है।
हरेकृष्ण मेहताब- बुद्ध के निर्वाण के बाद एक सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में बुद्ध-मार्ग पर चलने वालों ने अपने लिए कोई रास्ता निकाला, कुछ निर्णय किये। अभिधर्म कोश में उस सम्मेलन का वृत्तांत मिलता है। वहां बुद्धधर्म के आचार्य इकट्ठे हुए। चर्चा हुई कि बुद्ध भगवान असल में क्या चाहते थे। अपनी बात के समर्थन में हरएक ने बुद्ध भगवान का हवाला दिया। उस वक्त उन्होंने जो निर्णय किये, उनका जीवन के साथ कोई संबंध नहीं रहा। हमारे जीवन में से वे और उनके निर्णय दोनों खो गये। मुझे भय है कि बुद्ध के बाद जो हाल हुआ, ठीक वैसा ही कहीं हमारे साथ न हो। एक दूसरा अभिधर्म-कोश बन जायेगा। हमें इसके बारे में सतर्क रहना चाहिए।
राजेन्द्र प्रसाद- कुछ लोगों के विचार में इस प्रस्ताव में संशोधन जरूरी है। जिनके संशोधन हों, वे कृपा करके साढ़े ग्यारह बजे तक धोत्रे जी के पास दे दें।
इसके बाद बैठक स्थगित हो गयी।
राजेन्द्र प्रसाद- डॉ चोइथराम गिड़वानी का तार आया है। शरणार्थियों के प्रश्न के बारे में। दूसरा सवाल शांति सेना का है।
इसके बाद डॉक्टर चोइथराम गिड़वानी का तार पढ़ा गया, जिसका मुख्य विषय था कि पाकिस्तान के चालीस लाख लोगों को सहायता की जरूरत है।
राजेन्द्र प्रसाद- यह एक विकट प्रश्न है। प्रश्न बहुत बड़ा और गंभीर है।
कृपलानी- कल किशोरलाल भाई ने जवाहरलाल जी से पूछा था। जवाहरलाल जी जवाब देना भूल गये।
राजेन्द्र प्रसाद- जवाब दे भी नहीं सकते थे।
प्यारेलाल- कुरुक्षेत्र में हमारी परीक्षा होगी। वहां स्त्री, पुरुष, बच्चे बड़ी संख्या में हैं। बहुत मुसीबत है। उनकी जायज मांगे भी पूरी नहीं हो सकतीं। उनके दिल बहुत बिगड़े हुए हैं। उनके जीवन में किसी तरह का अनुशासन नहीं। स्वास्थ्य नहीं। विनोबाजी उन्हें मनोबल दे सकते हैं। विनोबाजी उनके साथ जिन्दा संपर्क स्थापित करें।
राजेन्द्र प्रसाद- पहले हमें यह पता चले कि कौन-कौन सी दिक्कतें हैं और उनको दूर करने में हम क्या कर सकते हैं।
सुचेता कृपलानी- असली सवाल शरणार्थियों को काम और घर देने का है। उनमें से सत्तर फीसदी हाथ का काम नहीं कर सकते, सिर्फ दुकानदारी कर सकते हैं। देहली में सबको दुकानें दें तो स्थानीय दुकानदारों में और प्रवासी दुकानदारों में आर्थिक संघर्ष होता है। जो दुकानदारी करना चाहें, उनके लिए हिन्दुस्तान भर में जगह-जगह दुकानें खुलवाने का इंतजाम होना चाहिए। शरणार्थियों के लिए जगह-जगह औद्योगिक केन्द्र भी खोलने चाहिए।
बालासाहब खेर- सिन्ध से बम्बई में बहुत से निर्वासित आये हैं। उनके बुरे हाल का वर्णन नहीं हो सकता। खेती का काम वे कर नहीं सकते। जिनके पास लाखों रुपयों की फैक्टरियां थीं, कारखाने थे, वे एक-एक कपड़े के साथ आये हैं। कोई ढाई-तीन लाख निर्वासित आये हैं। उनको जो-जो शारीरिक और आर्थिक कष्ट हुए, उसका असर उनके दिल पर हुआ है। जरा जरा-सी बात पर मिजाज बिगड़ जाता है। सेवकों को मारने दौड़ते हैं। उनको घर और काम देने में केन्द्रीय सरकार ही समर्थ हो सकती है।
राजेन्द्र प्रसाद- शरणार्थियों का प्रश्न जरूरी है। इसके लिए कल फिर मिलें। अब संशोधनों को ले लें।
देवदास गांधी- मैं समझता हूं कि यह समय ही नहीं, जब हम कोई समाज स्थापित करें। इससे दूसरों को संतोष होता है, इसलिए विनोबा ने कहा कि रहने दो। नामों की फेहरिस्त रखने की बात बिलकुल बेमतलब की है। समझ लीजिए दो सौ नाम आये या दो हजार ही आये, तो दुनिया पर क्या असर पड़ेगा? लोग समझेंगे कि गांधी वालों की संख्या मुट्ठी भर है।
मगनभाई देसाई- मैं देवदास भाई की बात का समर्थन करता हूं।
आर्यनायकम- मैं भी समझता हूं कि ऐसा कोई समाज बनना गलत है।
इसके बाद चर्चा स्थगित हो गयी।
गुलजारीलाल नंदा- हमारे उद्देश्य में सिर्फ निषेध की कल्पना नहीं होनी चाहिए, इसलिए उद्देश्य में ‘समूह और व्यक्ति को संपूर्ण विकास करने का अवकाश हो’ ये शब्द जोड़ दिये जायें।
प्यारेलाल- हम यह कहें कि इस समाज के नाम पर कोई चुनाव नहीं लड़ सकता।
राजेन्द्र प्रसाद- यह बात तो साफ ही है।
कृपलानी- तो चुनाव कैसे लड़ा जायेगा?
विनोबा- यह कोई पार्टी थोड़े ही है, जो चुनाव लड़े? उसके लिए कांग्रेस है। कांग्रेस यदि सत्ता की राजनीति छोड़ सकती, तो यह समाज बनाने की जरूरत ही न होती।
हृदयनारायण चौधरी- ‘मेला’ शब्द के बदले ‘सम्मेलन’ शब्द हो। ‘मेला’ शब्द के साथ कुछ तमाशे की भावना जुड़ी हुई है।
राजेन्द्र प्रसाद- ‘मेला’ शब्द सोच-समझकर रखा गया है। ‘सम्मेलन’ रखेंगे तो उसके लिए प्रबंध करना होगा। ‘मेला’ शब्द ही ठीक है।
यह सूचना वापस ले ली गयी।
श्रीमन्नारायण- नाम में ‘समाज’ की जगह ‘मंडल’, ‘संघ’ या ‘संगम’ शब्द हो।
राजेन्द्र प्रसाद- समाज में बंधन की भावना कम से कम है। हमने हलके से हलका शब्द पसंद किया है। समाज शब्द ही बेहतर है।
श्रीमन्नारायण- उत्तर भारत में ‘समाजी’ शब्द का बुरा अर्थ होता है। कट्टर ‘आर्यसमाजी’ के लिए उस शब्द का प्रयोग करते हैं। लोग ‘गांधी-समाज’ कहने लगेंगे। ‘संघ’ या उससे भी बेहतर ‘संगम’ शब्द है। यों ‘समूह’ शब्द रखें तो भी मुझे हर्ज नहीं।
दिवाकर- ‘समूह’ जानवरों का भी होता है और ‘संगम’ में नदियों की कल्पना आती है।
राजेन्द्र प्रसाद- ‘समूह’ मनुष्यों का भी होता है। आखिर मनुष्य भी एक जानवर है, जीवधारी है।
यह सूचना वापस ले ली गयी।
स्वामी सत्यानंद- सदस्य के लिए कोई भी नियम न हो, यह तो ठीक नहीं। कोई बुनियाद तो हो। कुछ तो आधार हो। नहीं तो हमारे पैरों के नीचे धरती ही नहीं रहती। कम से कम इतना कहिये कि इस समाज का सदस्य किसी हालत में भी नरहत्या नहीं करेगा।
राजेन्द्र प्रसाद- आज कुछ ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि लोग नरहत्या को भी मामूली चीज, हलकी-सी बात समझने लगे हैं, लेकिन हम इसी को अपना नियम बना लेंगे तो कुछ ऐसा अर्थ निकलेगा कि नरहत्या से कुछ कम घातक की इजाजत मिल जाती है।
यह संशोधन नामंजूर हुआ।
काका कालेलकर- नरहत्या के सवाल से एक सवाल पैदा होता है। क्या सैनिक हमारे समाज के सभासद बन सकते हैं?
राजेन्द्र प्रसाद- इसका निर्णय तो वह स्वयं करेगा।
भाऊ धर्माधिकारी- रचनात्मक कामों की सूची में राजनैतिक कामों का समावेश क्यों नहीं किया गया?
राजेन्द्र प्रसाद- इसलिए कि समाज कोई राजनैतिक काम नहीं करेगा। व्यक्ति कर सकेगा।
कांति मेहता- क्या सरकारी अफसर हमारे सदस्य बन सकते हैं?
राजेन्द्र प्रसाद- जो अपने को मानें, वे सब हो सकते हैं।
विनोबा- एक सुझाव आया है कि ‘स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी के हक दिलाना’ की जगह ‘समाज में स्त्री पुरुष की परस्पर प्रतिष्ठा बराबर कराना’ ये शब्द हों।
सरलाबेन साराभाई- यह संशोधन मेरा है। ‘हक’ और ‘प्रतिष्ठा’ दोनों कहिये, ‘हक’ की बात हटानी नहीं चाहिए।
सुशील पै- हक तो चाहिए ही, लेकिन हक के साथ समभाव की भी बात हो। संशोधन में दोनों का समावेश करना चाहिए।
सरलाबेन साराभाई- आर्य संस्कृति में स्त्रियों का स्थान बहुत बड़ा है, लेकिन दुख की बात है कि समाज में उनका स्थान बहुत नीचा है। मैं यह नहीं कहती कि स्त्रियों को देवी समझकर पूजा जाये, लेकिन स्त्री-पुरुष दोनों में परस्पर प्रतिष्ठा की भावना और बराबरी का नाता हो, यह बात जरूरी है। इसलिए मूल प्रस्ताव में मेरी बात जोड़ दी जाय। उसके स्थान पर यह रखने का सुझाव नहीं है।
मश्रूवाला- कुछ बहनों ने ‘परस्पर समभाव’ ये शब्द सुझाये थे। कुछ बहनों का हक पर जोर था। ‘समान हक’ शब्द का लोग मजाक उड़ाया करते हैं। वे कहते हैं, ‘आखिर मां तो आपको ही बनना पड़ेगा’। बराबरी का अर्थ एकरूपता मान लिया जाता है। अधिकार की बात भी साफ कर देना जरूरी है। इसलिए मूल में जो शब्द हैं, उनको रखकर सरलाबेन के संशोधन को जोड़ लिया जाय।
आशादेवी आर्यनायकम- ‘अधिकार’ और ‘प्रतिष्ठा’ शब्दों के बारे में यह झगड़ा क्यों? स्त्री को प्रतिष्ठा तो प्रकृति से ही मिली है। मातृत्व के अधिकार से बड़ी प्रतिष्ठा और कौन-सी हो सकती है? इतना होते हुए भी समाज में स्त्री अगर पुरुष के बराबर प्रतिष्ठा न पाती हो तो वह उसका अपना दोष है।
संशोधन मूल में जोड़ दिया गया और ‘दिलाना’ शब्द निकाल दिया गया।
मुन्नालाल शाहा- मेरा संशोधन है कि ‘समाज’ का नाम बदल दिया जाय। ‘सर्वोदय’ शब्द बापू उस वक्त काम में लाये थे, जब उन्हें हिन्दी-उर्दू का फर्क मालूम नहीं था। आज वे होते तो हिन्दुस्तानी का कोई शब्द रखते। बापू के दिये हुए पुराने नाम संस्कृत के हैं; जैसे ‘गुजरात विद्यापीठ’, ‘राष्ट्रीय शाला’, ‘सत्याग्रह-आश्रम’ वगैरह। बाद के नाम हिन्दुस्तानी में रखे गये हैं; जैसे ‘तालीमी संघ’ आदि। नाम से भी प्रचार होता है। अम्तुस्सलाम पंद्रह साल बापू के पास रहीं। वे तक ‘सर्वोदय’ शब्द नहीं समझ सकीं। देहाती मुसलमान इसे कहां से समझ सकेंगे?
पंडित सुंदरलाल- हिन्दुस्तानी बोलचाल की भाषा है। हिन्दी और उर्दू दोनों बनावटी भाषाएं हैं। मेरी कुदरती हिन्दुस्तानी जीयेगी, तुम्हारी बनावटी हिन्दी, उर्दू दोनों मरेंगी। ‘उम्र’ के लिए ‘आयु’, ‘धरती’ के लिए ‘पृथ्वी’ यह सब कृत्रिम भाषा है।
कालेलकर- हिन्दुस्तानी में फलां शब्द आता है और फलां नहीं आता, यह कहने वाले हिन्दुस्तानी के ये पुरोहित कौन हैं? क्या हिन्दुस्तानी को संस्कृत शब्दों से परहेज है? संस्कृत कोई गुनहगार भाषा तो नहीं है। जो अच्छे शब्द होंगे, जनता जिनको अपनायेगी, वे टिकेंगे। जो जनता के गले से सहज नहीं निकलेंगे या सुंदर नहीं होंगे, वे नहीं ठहरेंगे। हमें सिर्फ उतने ही शब्दों का प्रयोग नहीं करना है, जिनको जनता समझती और बरतती है। नये-नये शब्द रूढ़ करके जनता की समझने की शक्ति भी बढ़ानी है। जिन शब्दों में विचार और भावना की ताकत होगी, वे जनता के हृदय में स्थान पायेंगे। जनता में जो शब्द प्रचलित हैं, उन्हीं को लेकर हम बैठ जायेंगे तो न हिन्दुस्तानी का विकास होगा न जनता का निर्णय हुआ कि ‘सर्वोदय’ शब्द रहेगा।
व्योहार राजेन्द्र सिंह- ‘हिन्दुस्तानी’ के बदले ‘हिन्दी’ रखा जाय। ‘हिन्दुस्तानी’ नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है।
कालेलकर- ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ नहीं है। उत्तर भारत के लोग और उनकी भाषा ‘हिन्दुस्तानी’ कहलाती रही। आज भी दक्षिण भारत के लोग उसे ‘हिन्दुस्तानी’ कहते हैं। हम दक्षिण के लोग शुरू से राष्ट्रभाषा को हिन्दुस्तानी के नाम से ही पहचानते आये हैं। उसका साहित्य भी है। बाद में उसके दो प्रवाह हो गये– हिन्दी और उर्दू। दोनों को मिलाने के लिए गांधीजी ने ‘हिन्दुस्तानी’ नाम पसंद किया। हिन्दुस्तान का भविष्य न हिन्दी के हाथ में है न उर्दू के, बल्कि हिन्दुस्तानी के हाथ में है।
संशोधन नामंजूर हुआ, ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द रखा गया।
कोंडा वेंकटप्पय्या- बापूजी राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सभी मामलों में सलाह और मार्गदर्शन देते थे। यह समाज भी उसी तरह राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक क्षेत्रों में शिक्षण दे। शिक्षण का समावेश सर्वोदय समाज के कार्यक्रमों में होना चाहिए।
मश्रूवाला- अध्यक्ष ने इसके बारे में पहले ही खुलासा किया है कि सर्वोदय समाज अपनी तरफ से कोई काम नहीं करेगा। यह तो एक भाईचारा है। सब संघों के एकीकरण से जो महासंघ या मिलापी संघ बनेगा, उसके दायरे में यह कार्य आ सकता है।
संशोधन वापस हुआ।
राजेन्द्र प्रसाद- शरणार्थियों का प्रश्न अब हम फिर से लेते हैं। यह मामला जरा टेढ़ा है। सरकार की मदद के बिना हम कुछ नहीं कर सकते हैं। न हमारे पास अख्तियार है, न पैसा है, न साधन-सामान है और न जमीन है। हमारा काम दूसरे किस्म का हो सकता है। एक तो लोगों का मोराल कायम रखना और दूसरे उनकी कठिनाइयां कम करना। शरणार्थियों में दो तरह के लोग हैं। खेती वाले और व्यापारी। खेती करने वालों को जमीन देनी होगी ओर पहली फसल होने तक मदद देनी होगी। जो लोग दुकानदारी ही कर सकते हैं, उनका सवाल थोड़ा मुश्किल है। पहले से हर शहर में व्यापारी हैं ही। तो फिर ये कैसे खपें? उनको अलग-अलग शहरों में बांटना होगा। नौकरी वालों का क्या किया जाय?
मृदुला साराभाई- मुझे पंजाब और बिहार में जो अनुभव हुआ, उसके आधार पर कुछ बातें कहना चाहती हूं। पंद्रह अगस्त से पहले बापू के साथ बिहार में रहने का मौका मिला। बंगाल और बिहार में जो कुछ हुआ, वह सिर्फ सांप्रदायिक नहीं था। उसमें एक पद्धति थी। एक व्यूहरचना के मुताबिक काम हुआ। धीरे धीरे द्विराष्ट्रवाद का बाकायदा विकास किया गया। पंद्रह अगस्त के बाद जो कुछ पंजाब में हुआ, उसकी सारी तैयारी पहले से हो रही थी। पंजाब में जो दावानल हुआ, वह वहां की जनता ने नहीं किया था। जिन लोगों को द्विराष्ट्रवाद के द्वारा पाकिस्तान बनाना था, उन लोगों ने व्यवस्थित रूप से इसकी तैयारी की थी। पंद्रह अगस्त के बाद और उससे पहले भी कांग्रेस अपना घर संभालने में लगी थी। जनता में जो शक्तियां जागृत हुई थीं, उनका उपयोग कांग्रेस नहीं कर सकी। बापू ने बिहार और नोआखाली में जिस प्रक्रिया से काम लिया, आज उसकी जरूरत है।
पंद्रह अगस्त के बाद दो सरकारें हुईं। दो नई सीमाएं कायम हुईं। अब वहां हमें फ्रॉन्टियर की मनोवृत्ति पैदा करनी है। हम अपने काबिल कार्यकर्ताओं को पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल की सीमाओं पर भेजकर लोगों का नीतिधैर्य बनाये रखने का काम करें। शरणार्थियों के बीच जो काम होगा, वह स्वावलंबन की बुनियाद पर होना चाहिए। हम उनको हमेशा के लिए शरणार्थी और परावलंबी नहीं रख सकते। अगर वे हमेशा दूसरों की मदद के मुहताज रहेंगे, तो उनका नीतिबल और मनोबल समाप्त हो जायेगा।
अम्तुस्सलाम- यहां से पाकिस्तान गये हुए मुसलमानों में से जो लौटने को तैयार हों, उनको लौटाने की कोशिश की जाय। जहां मस्जिदों या मंदिरों पर दूसरे मजहब वालों ने कब्जा कर लिया हो, वहां उन्हें लौटाने की तजवीज हो। भगाई हुई औरतों का भी सवाल है। इनमें से कुछ औरतों का जबर्दस्ती धर्मान्तरण करा लिया गया है। जो औरतें वापस आवेंगी, उनको गोली से उड़ा दिया जायेगा, इस तरह का प्रचार आरएसएस और आर्यसमाजी कर रहे हैं। जो भगाई हुई या धर्मान्तरित औरतें मिलें, उन्हें फिर से उनके घर वापस भेजना चाहिए। जो अल्पसंख्यक हों, उनको अपने-अपने मजहब पर कायम रहने की हिम्मत दिलानी चाहिए और यह कोशिश करनी चाहिए कि वह किसी लालच या डर की वजह से अपना मजहब न छोड़ें।
सुचेता कृपलानी- उन औरतों को समाज और घर में वापस लिया जाय, इसकी भी कोशिश होनी चाहिए।
मृदुला साराभाई- पूर्व पंजाब में करीब दो लाख मुसलमानों को हिन्दू बनाकर रखा गया है। दो बड़ी भारी रुकावटें हैं। एक तो आरएसएस और दूसरा अकाली दल। ये दोनों राजनैतिक दल हैं। वे पूर्व पंजाब को मुसलमानों से पूरी तरह सुरक्षित करना चाहते हैं। आप लोगों में से कुछ प्रभावशाली लोग वहां जावें, तब ये अड़ंगे दूर हो सकेंगे।
सुंदरलाल- अल्पसंख्यकों को दिलासा दिलाना है, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी संयुक्तप्रांत में पुलिस और मजिस्ट्रेट जो बदमाशी कर रहे हैं, उसका मुकाबला करना है। बहुत खतरे का काम है। बहुत नाजुक, मगर बहुत जबर्दस्त। एक इलाका बनाकर आदर्श बस्ती बसा सकते हैं। विनोबा जैसों की देखरेख में एक मॉडल बस्ती तैयार करें। मॉडल आबादी उसमें बसायें।
विनोबा- मैं कुछ कहना चाहता हूं। मैं उस प्रांत का हूं, जसिमें आरएसएस का जन्म हुआ। जाति छोड़ कर बैठा हूं। फिर भी भूल नहीं सकता कि उसकी जाति का हूं, जिसके द्वारा बापू की हत्या हुई। कुमारप्पा जी और कृपलानी जी ने फौजी बंदोबस्त के खिलाफ परसों सख्त बातें कहीं। मैं चुप बैठा रहा। वे दुख के साथ बोलते थे। मैं दुख के साथ चुप था। न बोलने वाले का दुख जाहिर नहीं होता। मैं इसलिए नहीं बोला कि मुझे दुख के साथ लज्जा भी थी। पवनार में मैं बरसों से रह रहा हूं। वहां पर भी चार-पांच आदमियों को गिरफ्तार किया गया है। बापू की हत्या से किसी न किसी तरह का संबंध होने का उन पर शुबाह है। वर्धा में गिरफ्तारियां हुईं, नागपुर में हुईं, जगह-जगह हो रही हैं। यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है। इसके मूल बहुत गहरे पहुंच चुके हैं। आरएसएस ठीक फासिस्ट ढंग का है। उसमें महाराष्ट्र की बुद्धि का प्रधानतया उपयोग हुआ है। चाहे वह पंजाब में काम करता हो या मद्रास में। सब प्रांतों में उसके सालार और मुख्य संचालक अक्सर महाराष्ट्रीय और अक्सर ब्राह्मण रहे हैं। गुरु जी भी महाराष्ट्रीय ब्राह्मण हैं। इस संगठन वाले दूसरों को विश्वास में नहीं लेते। गांधीजी का नियम सत्य का था। मालूम होता है, इनका नियम असत्य का होना चाहिए। यह असत्य उनकी टेक्नीक और उनकी फिलॉस्फी का हिस्सा है।
एक धार्मिक अखबार में मैंने उनके गुरुजी का एक लेख या भाषण पढ़ा। उसमें लिखा था कि हिन्दू धर्म का उत्तम आदर्श अर्जुन है, उसे अपने गुरुजनों के लिए आदर और प्रेम था, उसने गुरुजनों को प्रणाम किया और उनकी हत्या की, इस प्रकार की हत्या जो कर सकता है वह स्थितप्रज्ञ है। वे लोग गीता के मुझसे कम उपासक नहीं हैं। वे गीता उतनी ही श्रद्धा से रोज पढ़ते होंगे, जितनी श्रद्धा मेरे मन में है। मनुष्य यदि पूज्य गुरुजनों की हत्या कर सके तो वह स्थितप्रज्ञ होता है, यह उनकी गीता का तात्पर्य है। बेचारी गीता का इस प्रकार उपयोग होता है। मतलब यह कि यह सिर्फ दंगा फसाद करने वाले उपद्रवकारियों की जमात नहीं है। यह फिलॉसफरों की जमात भी है। उनका एक तत्त्वज्ञान है और उसके अनुसार निश्चय के साथ वे काम करते हैं। धर्मग्रंथों के अर्थ करने की भी उनकी अपनी एक खास पद्धति है।
गांधीजी की हत्या के बाद महाराष्ट्र की कुछ अजीब हालत है। यहां सब कुछ आत्यंतिक रूप में होता है। गांधी हत्या के बाद गांधी वालों के नाम पर जनता की तरफ से जो प्रतिक्रिया हुई, वह भी वैसी ही भयानक हुई, जैसी पंजाब में पाकिस्तान के निर्माण के वक्त हुई थी।
नागपुर से लेकर कोल्हापुर तक भयानक प्रतिक्रिया हुई। साणे गुरुजी ने मुझसे कहा कि मैं महाराष्ट्र में घूमूं। जो पवनार को भी न संभाल सका, वर्धा-नागपुर के लोगों पर असर न डाल सका, वह महाराष्ट्र में घूमकर क्या करता? मैं चुप बैठा रहा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है। जब हम जेल में जाते थे, उस वक्त उनकी नीति फौज और पुलिस में दाखिल होने की थी। जहां हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वहां वे पहुंच जाते। उस वक्त की सरकार इन सब बातों को अपने फायदे का समझती थी, इसलिए उसने भी उनको उत्तेजन दिया। नतीजा हमको भुगतना पड़ रहा है।
आज की परिस्थिति में मुख्य जिम्मेवारी मेरी है, महाराष्ट्र के लोगों की है। यह संगठन महाराष्ट्र में पैदा हुआ है। महाराष्ट्र के लोग ही उसकी जड़ों तक पहुंच सकते हैं। इसलिए आप मुझे सूचना करें, मैं आपका दिमाग साफ रखूंगा और अपने तरीके से काम करूंगा। मैं किसी कमेटी में कमिट नहीं दूंगा। आरएसएस से भिन्न, गहरे और दृढ़ विचार रखने वाले सभी लोगों की मदद लूंगा। जो इस विचार पर खड़े हों कि हम सिर्फ शुद्ध साधनों से काम लेंगे, उन सबकी मदद लूंगा। हमारा साधन-शुद्धि का मोरचा बने। उसमें सोशलिस्ट भी आ सकते हैं और दूसरे सभी आ सकते हैं। हमको ऐसे लोगों की जरूरत है, जो अपने को इंसान समझते हैं।
आर्यनायकम- मैं बंगाल में रहा और अब महाराष्ट्र में हूं। दोनों जगह की अच्छी से अच्छी बुद्धिशक्ति गलत रास्ते गयी है। बंगाल की बुद्धिमत्ता आतंकवाद में खप गयी और महाराष्ट्र की उत्कृष्ट बुद्धिशक्ति आरएसएस में चली गयी।
शंकरराव देव- चर्चा का विषय आरएसएस है या शरणार्थी है?
राजेन्द्र प्रसाद- दोनों मिले हुए हैं।
जाकिर हुसेन- मैं समझता हूं, अब बहस काफी हो चुकी है। हम अपने प्रस्ताव को टुकड़ों में बांट दें। जैसा कि विनोबा जी ने कहा, हम अपने सब मेम्बरों से कहें कि वे सब कामों में अच्छे तरीके बरतें। अच्छे कामों में बुरे तरीके बरतने से भी बुरा फल निकलता है। मकसद अच्छा हो और जरिये भी अच्छे हों। शरणार्थियों को फिर से बसाने के सवाल की तरफ तालीमी संघ, चरखा संघ की तवज्जो दिलायें। कमेटी से कहें कि ये अच्छे जरिये कौन से हो सकते हैं, इसका फैसला करें। हमारी कमेटी सरकार के साथ मिलकर काम करे।
सुंदरलाल- जाकिर साहब ने जो मसौदा सुझाया, वह अपने में ठीक है, लेकिन हमारा असली सवाल कम्यूनल वायरस के जहर से लड़ने का है।
मृदुला साराभाई- सरहद पर नये सवाल पैदा हो रहे हैं। जैसी हवा पंजाब में है, वैसी अगर मुल्क में फैलेगी, तो सारे मुल्क को खा जायेगी। कुछ तो करें।
शंकरराव देव- हम कोई कमेटी कायम न करें। सरकार काम कर रही है। कांग्रेस की अपनी समिति है ही।
राजेन्द्र प्रसाद- कमेटियां तो काफी मौजूद हैं। जरूरत होगी तो और भी कायम कर लेंगे। असली जरूरत आदमियों की है। बिहार का यही अनुभव है। बिहार पर जब भूकंप की विपत्ति आयी, तब सब तरफ से लोग वहां पहुंचे। सिर्फ पैसे ही नहीं, आदमी भी आये। उनकी बुद्धि, कार्यकुशलता और तजुरबा हमारे काम आया।
सुचेता कृपलानी- शांति प्रचार का काम मामूली स्वयंसेवक नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त आरएसएस की समस्या का मुकाबला करना है। विनोबाजी जैसे कोई महान व्यक्ति मिलें, तो इस काम में जान आ सकती है।
शंकरराव देव- मेरी समझ में इस काम के लिए सर्वोदय समाज की मर्यादा का उल्लंघन करना ठीक न होगा। सीधे समाज की तरफ से कोई काम न हो।
अम्तुस्सलाम- इसमें गलतफहमी है। सर्वोदय समाज का काम इखलाकी है। शरणार्थी अपने-अपने मजहब में और अपनी-अपनी जगह पर डंटे रहें, इसके लिए उनमें जान पैदा कर ना सर्वोदय समाज का काम हो सकता है।
कृपलानी- बापू ने पुरानी चीजें हमारे सामने रखीं। मेरी समझ में उन्होंने पुरानी चीजों को क्रांतिकारी चीजें बना दिया। क्रांतिकारी जमाने की मांग को पूरा करने का एक तरीका है। जिस जमाने की जो क्रांति प्रेरणा होती है, उसे पूरा करने वाली चीज क्रांतिकारी साबित होती है। गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, उस वक्त जमाने की मांग परदेसी राज को हटाने की थी। यही उस वक्त की क्रांति प्रेरणा थी। परदेसी राज हटाने की कोशिश करने वाले दो तरह के थे। नरम दल वाले और गरम दल वाले। दोनों का तरीका क्रांतिकारी नहीं था। दूसरा तरीका बमवादियों का था। हिन्दुस्तान की परिस्थिति में बम-गोले का तरीका दूर तक नहीं ले जा सकता था। महात्मा का अहिंसक तरीका उससे अधिक क्रांतिकारी था। क्योंकि वह तरीका जमाने की मांग से मेल रखता था। बम का तरीका बेमौजू था। इसलिए लोगों को निडर न बना सका। गांधीजी का अहिंसक तरीका बम के तरीके से भी पुरअसर साबित हुआ।
मैं सन सत्रह, अठारह, उन्नीस और बीस में इतिहास का प्रोफेसर था। चरखा रखना बेवकूफी की बात समझता था। मेरी वृत्ति, शिक्षा-दीक्षा, सब कुछ उसके खिलाफ थी, लेकिन उस बुड्ढे ने चरखे का संबंध क्रांति के साथ जोड़ दिया, तो मुझे चरखा लेना ही पड़ा।
और तो और, प्रार्थना भी क्रांतिकारी हो गयी। मैं एक अच्छा आदमी हूं, इसलिए मैं प्रार्थना में नहीं जाता था, लेकिन हमारा नेता राजनैतिक बातें प्रार्थना में ही करता था1 वह प्रार्थना में क्रांति लाया। भंगी का काम इस देश में कौन-सा सभ्य आदमी करता? लेकिन उसने उसे भी स्वराज्य के काम के साथ जोड़ दिया।
उन्नीस सौ तीस में बुड्ढे ने कहा, नमक बनाओ। मोतीलालजी हंसते थे, लेकिन फैक्ट्स को डिमॉलिश करने वाला विजन गांधी के पास था। गांधी साबरमती से पैदल निकला। बुलक-कार्ट मेंटैलिटी वाला यह आदमी भला बैलगाड़ी में तो चलता। लेकिन यह तो पैदल चला। दांडी के समुद्र के किनारे उसने नमक नहीं, रेवोल्यूशन मैन्युफैक्चर किया – इन्किलाब बनाया। मगनवाड़ी में हमको नीम की कड़वी पत्ती खिलायी। खली तक खिलाई। हमने चुपचाप खाई। करते क्या? स्वराज जो चाहते थे। इन बातों के पीछे क्रांति की प्रेरणा थी।
अब इन चीजों में वह जान क्यों नहीं है? इसलिए कि क्रांति की पुरानी प्रेरणा खत्म हो गयी। जिस उद्देश्य से हमने उन्हें अपनाया था, वह उद्देश्य पूरा हो गया। अब हमें इन प्रवृत्तियों को ‘ओल्ड डेम्स ऐक्टिविटी’ नहीं बनाना है। हमको क्रांतिकारियों से अब सुधारवादी नहीं बनना है।
स्वदेशी के जमाने में हमने देश की आर्थिक उन्नति का कारण बतलाया। वह बात लोगों के दिल में नहीं जमी। जब उसका मेल अंग्रेजों को भगाने के साथ लगाया गया, तो स्वदेशी के आंदोलन से देश सुलग उठा। अब अंग्रेज चले गये। अब आपको आज की परिस्थिति में क्रांति की नई व्याख्या करनी होगी।
विकेन्द्रीकरण के सिवा जनतंत्र की बात झूठ है। केन्द्रीकरण से नौकरशाही आती है। ब्यूरोक्रेसी या टेक्नोक्रेसी दोनों लोकसत्ता की समानरूप से दुश्मन है। जहां जनतंत्र नहीं, वहां अहिंसा नहीं। हम जवाहरलाल नेहरू से कहेंगे कि अगर आपको असली जनतंत्र से गरज है, तो केन्द्रीकरण का लालच छोड़ना होगा।
एक बात और। हमारे देश में एक-एक आदमी अकेला बहुत अच्छा काम कर लेता है। अपनी बराबरी वालों के साथ काम करने की कला हम लोगों में नहीं है। कुमारप्पा, जाजूजी, नायकमजी, ये सब डिक्टेटोरियल टाइप के आदमी हैं। उनके दफ्तर में उनके सामने कोई चूं भी नहीं कर सकता। हमको एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने की कला बढ़ानी है। हम बाहर के आदमियों से मोहब्बत का रिश्ता जोड़ते हैं, लेकिन साथियों से बात करने की भी फुरसत नहीं। गांधीजी से एक बड़ी भूल हुई। उन्होंने हमसे कहा कि अपने दुश्मनों से प्रेम करो। यहां तो भाइयों से भी प्रेम नहीं करते। मुझमें भी यह नुक्स है। मैंने अपनों से प्रेम करना नहीं सीखा।
रचनात्मक संघों के संचालक अगर एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर काम करने लगेंगे, तो हमारे बीच भीतरी मुहब्बत ओर सहयोग कायम होगा। इस एक ही संघ से भाईचारे का काम भी हो सकेगा।
कुमारप्पा- आचार्य कुपलानी ने अपनी अनुपम और उपहासात्मक पद्धति से हमारे सामने क्रांतिकारक सिद्धांत रखे हैं। क्रांतिकारक इसलिए कि हम दूसरी दिशा में चले गये हैं। पहियों को वापस घुमाना होगा।
ईसा कम उम्र में मरे। जब उनकी मृत्यु हुई, उस वक्त उनके सत्तर शिष्य थे। उन्होंने समझा कि अब तो सूरज डूब गया। हमारा मसीहा जाता रहा। ये सत्तर शिष्य येरूशलम में एक गुप्त कोठरी में जमा हुए। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यहां हम कंटीले तारों की बाड़ में इकट्ठा हुए हैं। हमने बिल्कुल गलत रास्ता पकड़ा है। हम दुनिया से घबराते हैं, अपनी परछाई से डरते हैं। जवाहरलाल जी का यहां आना हमारी अयोग्यता का प्रत्यंतर है। हमने भीतर से कोई ताकत पैदा नहीं की। हमारा दीया बुझ गया।
स्वराज मिलने और गांधीजी की मृत्यु के बाद हम अपने को अंधेरे में पाते हैं। हमें नहीं सूझ पड़ता कि अब स्वराज्य के साथ क्या करें? यही अवसर है जब कि हम रचनात्मक कार्य से नई प्रेरणा पा सकते हैं। हममें से हरएक को अहिंसक एटम बम बनना चाहिए।
जनतंत्र का अर्थ राजनैतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण है। हम सरकार में नहीं जाना चाहते। सरकारी कुर्सियों पर नहीं बैठना चाहते। सरकार हमारे पास आये और मार्गदर्शन तथा सत्ता मांगे। सारे मंत्री गांधीजी के कदमों के पास आते थे। हम भी अपनी अल्पशक्ति के अनुसार वह शक्ति प्राप्त करें।
जनपद सारा उजाड़ हो गया है। केन्द्रीकरण के कारण अन्न, वस्त्र, सभी कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गया है। लोगों को रोटियों के लाले पड़े हैं। तन ढंकने के लिए कपड़ा नहीं है। चरित्र काफूर हो गया है। नैतिक भावना का, सहानुभूति का, कहीं पता नहीं है। सारी चीजें, सारी बातें, हवा हो गयी हैं। हम पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है, इसलिए हमको आंतरिक शक्ति का विकास करना चाहिए।
विनोबा- पुलिस-बंदोबस्त के अंदर हमारी यह परिषद हो रही हे, यह कितने दुख की बात है। इससे व्याकुल होकर कुमारप्पा तो कुछ देर परिषद में गैरहाजिर रहे, लेकिन उनके साथ सहानुभूति रखते हुए भी मैं मानता हूं कि इसके सिवा चारा नहीं था। इसका अधिक से अधिक दुख पंडित जवाहरलाल जी को हुआ है, जिसे उन्होंने अपने भाषण में प्रकट भी किया। उन्होंने कहा कि अहमदनगर के किले में हम कैद थे, लेकिन तब हम आजाद थे। कैद अब महसूस होती है। लेकिन अगर इस चीज को वे सहन नहीं करेंगे और पहले जैसे खुले घूमने लगेंगे, तो मैं कहूंगा कि आप मेरे जैसे नालायकों के प्रतिनिधि बनने योग्य नहीं हैं। क्योंकि मैं तो ऐसा मनुष्य हूं, जो अपने गांव वालों को भी नहीं संभाल सकता।
सारा दोष आरएसएस वालों पर रखने से हमारा काम नहीं होगा। वे तो हमसे भिन्न विचार रखने वाले हैं, लेकिन उनमें भी कुछ भले और त्यागी लोग तो पड़े ही हैं। उनका हमें आदर भी करना चाहिए। दोष तो हमें अपना ही देखना चाहिए। 1942 में हमने क्या किया? छिपे तरीके काम में लाये, हिंसा भी की। और यह सारा गांधीजी के नाम पर किया। इतना ही नहीं, बल्कि उसका बचाव भी किया। ऐसा यदि है, तो हमसे भिन्न विचार रखने वाले उसी तरह के छिपे और हिंसात्मक तरीकों से काम करें तो हम उन्हें क्या कहें?
बापू की हत्या की जिम्मेवारी हमारे ऊपर है। बापू ने बार-बार हमसे कहा कि अपने साधन शुद्ध रखो। हम उस बात में ऊपर-ऊपर से तो ‘हां’ भरते गये। लेकिन उसके अनुसार हमने अपना जीवन नहीं बदला। ऐन मौके पर तो हमने असत्य और हिंसा से ही काम लिया। उसी का फल भगवान हमें चरखा रहा है, ऐसा मैं मानता हूं।
पंडित जी ने अपने भाषण में एक बात बहुत ही सहजता से कही। उन्होंने कहा कि जब बापू हमसे यह कहते थे कि अंग्रेजों के साथ अहिंसा से ही लड़ो, तब उनकी बात से मैं सहमत हो गया। क्योंकि मैंने सोचा कि यदि अंग्रेजों से लड़ने के निमित्त हिंसा को हिन्दुस्तान में स्थान मिला, तो उनके चले जाने पर वह हिंसा सारे हिन्दुस्तान को खा जायेगी। कितनी सरल दलील है यह।
अहिंसा के पालन में रियायत की मांग क्यों होती है? अहिंसा की शर्त कड़ी क्यों लगती है? मान लो कि हमें इमारत बनानी है। साइंस कहता है कि दीवार 90 डिग्री अंश में ही खड़ी करनी होगी। तब क्या उसकी शर्त हम कड़ी मानेंगे? जब हम जानते हैं कि इमारत 90 डिग्री अंश में खड़ी नहीं करते हैं तो गिर जाती है, तो हम ऐसा थोड़े ही कहते हैं कि 85 डिग्री या 80 डिग्री अंश में क्यों न खड़ी की जाय?
हमारे साधन सच्चे ही होने चाहिए, यह एक क्रांतिकारी सिद्धांत है। उसके साथ शरणार्थियों की सेवा को इस प्रस्ताव में जोड़ दिया है। बुरे साधनों का नतीजा ही ये शरणार्थी हैं। साधन शुद्धि का संकल्प करते, अगर हम उनकी सेवा में लग जाते हैं तो हमारे जीवन में क्रांति हो जाती। और हमारे जीवन में जब क्रांति होगी तो अंत में सारी दुनिया में होगी।
प्रफुल्लचंद्र घोष- मैं कुमारप्पा के प्रस्ताव की ताईद करता हूं। कृपलानी ने कहा कि हमारी आर्थिक योजना का क्रांति के साथ मेल होना चाहिए। शोषण-विहीन समाज की प्रतिष्ठा के लिए इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
हम एक दूसरे की टीका-टिप्पणी में समय नष्ट न करें। इस योजना का मकसद गांवों को रहने लायक बनाना है। आज हमारे शहर रहने लायक नहीं रह गये हैं। वहां धूम्र है, धूल है और भीड़-भड़क्का है। शोषण का तो कोई ठिकाना नहीं। नब्बे फीसदी काम शोषण से चलते हैं। कुमारप्पाजी की सूचना के अनुसार हमारे कार्यकर्ताओं को ग्राम समुदायों की एक-एक इकाई लेकर बैठ जाना चाहिए। रचनात्मक कार्य के द्वारा ग्रामों का रूप और रौनक बदल देनी चाहिए। जहां तालीमी संघ के स्कूल खुलेंगे, वहां दूसरे स्कूलों की कोई जरूरत नहीं रहेगी।
विनोबा- काम करते करते तालीम पाना ही तो हमारी शिक्षण-दृष्टि है। इसलिए शरणार्थियों के काम में लग जाने की अगर तैयारी होती है, तो कार्यकर्ताओं को शिक्षण देने का प्रश्न अच्छी तरह हल हो सकता है। शरणार्थियों की सेवा का काम समाप्त होने पर फिर अपने-अपने प्रांतों में ये लोग उत्तम विद्यालय चला सकेंगे। इसलिए क्षणिक उत्साह से नहीं, पूरा सोच समझकर और साधनों के बारे में दृढ़ निष्ठा बनाकर हम इस काम में लग जांय, तो देश का और दुनिया का बहुत भला होगा। देश पर आयी हुई महान आपत्ति भी सम्पत्ति का रूप लेगी। जो भाई-बहन इस काम में सहयोग देना चाहते हैं, वे अपना नाम दे दें।
सुचेता कृपलानी- शरणार्थियों का खून खौल रहा है। उनका मसला तय न हुआ तो शांति न रहेगी। वे बदला लेने के लिए उबल रहे हैं। अशांति का असली कारण राजनैतिक है। वातावरण में जबर्दस्ती जहर फैलाया गया है। इसी जहर के कारण बापू की हत्या हुई। सरकार इस जहर को हटाये भी कैसे? सरकारी नौकरियों में आरएसएस के आदमी हैं। आरएसएस के मामूली कार्यकर्ता जेल भेजे गये हैं, लेकिन उनके बहुत से असली आदमी सरकारी नौकरियों में बैठे हुए हैं। सरदार पटेल ने खुद कॉन्स्टिट्यूअंट एसेंबली में कहा कि आरएसएस वाले सरकारी नौकरियों में भी घुस गये हैं।
शरणार्थी गांधीजी को और नेताओं को कोसते हैं। कहते हैं, तुमने हमें स्वराज का रास्ता दिखलाया, हमें तबाह किया। एक किस्सा है। एक दिन शरणार्थियों ने बापू पर गालियों की बौछार की। कहने लगे, ‘तेरी वजह से हम बरबाद हो गये। तेरे कारनामों ने हमें चौपट किया। अब तू ही हमें बसा दे’। बापू ने कहा, ‘इनके दिल का जहर जबान से निकल रहा है। इसका मैं बुरा नहीं मानता।’ हम सभी अपराधी हैं। पन्द्रह अगस्त से पहले पश्चिम पंजाब से भागने वाले लोगों को हमने रोका। इस आशा से कि पंद्रह अगस्त के बाद झगड़ा-टंटा खतम हो जायेगा, हम उन्हें बचा लेंगे, लेकिन नहीं बचा सके। प्रांतों में शरणार्थियों के खिलाफ हवा पैदा हो रही है। अगर हम शरणार्थियों के लिए घरों का इंतजाम नहीं करेंगे तो देश में शांति स्थापना का प्रश्न हल नहीं होगा।
हम एक मजबूत शांतिसेना, बापू की सेना खड़ी करें। शांति का काम और शरणार्थियों का काम साथ-साथ जाता है। स्वराज के बाद सबसे प्रमुख और पहला काम शरणार्थियों का है।
सुंदरलाल- सुचेता बहन और मृदुला बहन जैसी जांबाज स्त्रियां अपनी पूरी ताकत लगाकर काम कर रही हैं। मैंने मुसलमानों और हिन्दुओं के बड़े से बड़े कैम्प देखे। उनकी शारीरिक, आर्थिक और मानसिक दुर्दशा देखकर दिल बैठ गया। सहानुभूति उमड़ आयी। मैं आपसे क्या कहूं? ये आदमी नहीं, ये चलती-फिरती लाशें हैं।
आबादी की अदल-बदल एक ऐसा मसला है, जिसे हम नहीं हल कर सकते। सरकार भी नहीं हल कर सकती। दुनिया की किसी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर ऐसा प्रयोग नहीं किया है। इतनी बड़ी आबादी को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह बसाना कोई हंसी-खेल नहीं है।
शरणार्थियों को बसाने और उनका कष्ट निवारण करने का काम तो हम केवल अपना कर्तव्य पालन करने के लिए ही कर सकते हैं, लेकिन यह दूसरा काम हमारा खास काम है। हम उन शहरों और मंडियों में जायें, जहां आदमियों ने आदमियों का गला काटा। वहां द्वेष की अग्नि कुछ धीमी पड़ी है, मगर बुझी नहीं है। किसी भी वक्त हवा के जरा से झकोरे से फिर सुलग सकती है। हम वहां जाकर प्रेम के साथ लोगों को समझा-बुझाकर इस आग को ठंडा करें।
विनोबा ने इस सम्मेलन में जो कहा, वह पते की बात थी। मैं उनका एक-एक शब्द पूरे ध्यान से सुन रहा था– सुन ही नहीं रहा था, अमृत की तरह पी रहा था। मेरा जी नहीं भरता था, इस सम्मेलन में आकर मैंने विनोबा को पाया।
दादा धर्माधिकारी- स्वागत-समिति की ओर से धन्यवाद देने का काम मुझे सौंपा गया है। हमारे लिए राजेन्द्र बाबू समन्वय की मूर्ति हैं। सरकार अपनी विपत्ति में उन्हीं की शरण लेती है। अन्न की समस्या आज सबसे कठिन समस्या है। राजेन्द्र बाबू को मंत्री बनाकर उन्हें वही विभाग सौंपा गया। कांग्रेस में जब कठिन समय आया, तब अध्यक्ष के आसन पर उन्हीं को बिठाया गया। यह राजेन्द्र बाबू की अद्वितीय विशेषता है। विधान परिषद के अध्यक्ष के नाते हमने उनका एक रूप और देखा। हमको सिपाहियत में सज्जनता मिलानी है। राजेन्द्र बाबू इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। मैं उन्हें धन्यवाद देने की ढिठाई नहीं करूंगा। आप सबकी तरफ से नम्रभाव से उन्हें प्रणाम करता हूं।
हमारे दूसरे उपकारकर्ता जवाहरलाल जी हैं। वे इस देश के अद्भुत और अनोखे नेता हैं। सच्चाई और प्रामाणिकता का ऐसा सुंदर संगम और कहीं देखने को नहीं मिलता। एक राष्ट्र की बागडोर संभालने वाले धुरंधर राजनेता और प्रधानमंत्री में इतनी सत्यनिष्ठा और सहृदयता आप जवाहरलाल जी में ही पाइयेगा। वे बाहर-भीतर एक-से हैं। उनका बाह्यांग जितना सुंदर है, अंतरंग उतना ही सुहावना है। उनके भाषण में शोक के साथ उत्साह भी था। उनके साथ मौलाना साहब भी तशरीफ लाये। उनके सुलझे हुए विचार हमें सुनने को मिले। हम एहसानमंद हैं।
यहां जो भाषण हुए, वे सभी महत्त्वपूर्ण और उद्बोधक थे, लेकिन दादा कृपलानी के भाषण का खास उललेख करता हूं। विनोदवृति जागृत करके बोध दिलाना कोई आसान काम नहीं है। बापू ने एक बार लिखा था कि अगर मेरी विनोदवृति जाती रहे, तो मैं आत्महत्या कर लूंगा। जब हम गंभीर होकर मुंह बनाकर बैठ जाते हैं, तब विनोद की आवश्यकता होती है। कृपलानी जी के भाषणों में पौष्टिक पकवानों के साथ जायकेदार व्यंजन भी थे। स्त्रियों के प्रश्न पर बड़ी दिलचस्प चर्चा हुई। स्त्रियां हर समारोह में शोभा और सुंदरता लाती हैं, लेकिन हमारे सम्मेलन में उन्होंने काफी जोश का भी परिचय दिया। हम उनके आभारी हैं।
राजेन्द्र प्रसाद- अब सम्मेलन का काम खत्म होने पर आया है। पता नहीं मुझे सभापति क्यों बनाया गया, लेकिन मुझे आज्ञा माननी पड़ी, इसलिए सभापति बन गया हूं। एक बार जो सभापति बन जाता है, उसके हाथ में अधिकार आ जाता है। वह जब चाहे बोल सकता है, जितना चाहे बोल सकता है, दूसरों को बोलने से रोक भी सकता है, लेकिन आप अपने दिल में डर न रखें कि मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करके आपका ज्यादा वक्त लूंगा। थोड़े से समय में ही अपनी बात खत्म कर दूंगा।
देश भर में आज जो समस्याएं खड़ी हुई हैं, पूरी लगन व ताकत लगाकर, उनको हल करना भी बहुत बड़ी रचनात्मक प्रवृत्ति है। देश में जो नैतिक ढिलाई आ गयी है, सरकारी और गैरसरकारी कार्यकर्ताओं में जो नैतिक भ्रष्टाचार घर कर रहा है, उसको हटाना बहुत बड़ा काम होगा। हमने जो प्रस्ताव किये हैं, उन पर अमल करने की जिम्मेवारी हम पर अपने आप आ पड़ती है।
लोग अपने-अपने स्थानों पर अलग-अलग स्मारक बनाने की सोच रहे हैं। सभी को अपने-अपने घरों में स्मारक बनाने की इच्छा हो, तो आश्चर्य नहीं है। लेकिन इस तरह से हमारी शक्ति बिखर जायेगी। हमको अपनी शक्ति बटोरनी है। गांधीजी का सबसे बड़ा स्मारक तो वे खुद ही हैं। उनको यह देश भूल थोड़े ही सकता है? हमारे लिए वे हिन्दुस्तान की शक्ति के प्रतीक थे।
लोग गाँधी जी के स्मारक बनाना चाहते हैं। कई लोग मूर्तियां लगाना चाहते हैं। एक जगह से इटली से मूर्तियां मंगाने की इजाजत मांगी गयी है। हमने कहा, यह गलत बात है। मूर्तिकार इस काम से नफा उठाने की इच्छा न रखें। बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनवाने में सारा पैसा खर्च हो जायेगा। छोटी मूर्तियां बनाने में फायदा नहीं। कुछ लोग हॉल वगैरह बनवाने की बात सोचते हैं। इसमें भी दिक्कतें हैं। बड़े-बड़े हॉल के लिए काफी रुपये चाहिए। छोटी इमारत सार्वजनिक काम के लिए उपयोगी नहीं होगी। तालीमी संघ का स्कूल, रचनात्मक कार्य का कोई केन्द्र या नई जिन्दगी को बनाने का कोई तरीका स्मारक के रूप में खड़ा किया जा सकता है।
किसी न किसी को सभापति बनना ही होता है। मेरा तो यह पेशा ही हो गया है, इसलिए मुझे तलब कर लेने में आसानी थी। आप मुझसे यह आशा न करें कि सर्वोदय समाज के संचालन का भार मैं उठाऊंगा। बाकी जो काम आप सौंपेंगे, उसे जरूर करूंगा। सर्वोदय समाज का हर एक सदस्य अपना स्वतंत्र महत्त्व रखता है। आप यह जगह छोड़ने से पहले अपने दिल में कोई निश्चय करके जायें।
-गोपालकृष्ण गांधी
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