गांधी नोआखली से दिल्ली तक आग बुझाने में लगे थे और उनके हत्यारे उनकी हत्या का षड्यन्त्र रचने में। 20 जनवरी को गांधी जी का आख़िरी दिन तय किया था हत्यारों ने। गोपाल को वे इस योजना में शामिल नहीं करना चाहते थे। वे उससे केवल वह रिवाल्वर लेना चाहते थे, जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटने के बाद गोपाल ने वापस करने की जगह अपने गाँव में ज़मीन में गाड़ दिया था। लेकिन जब गोपाल को गांधी-हत्या की योजना का पता चला तो उसके भीतर का राक्षस जाग गया और उसने इसमें ख़ुद को शामिल करने की शर्त रख दी।
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जर्जर देह में तीन गोलियाँ जिस बरेटा रिवॉल्वर से उतार दी गईं, उसको लेकर आज भी कई रहस्य हैं। आश्चर्यजनक तो यह है कि इसे उपलब्ध कराने वाले या तो अदालत से बरी हो गए या फिर क़ानून की गिरफ़्त से ही बाहर रहे।
कहानी के पहले की कहानी
अब यह जानकारी आम है कि गांधी हत्या की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं। अफ्रीका से भारत लौटने के बाद 1934 में पूना में अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन के दौरान गांधी जी पर भारत में पहला सुनियोजित हमला हुआ था, इस हमले के पीछे भी गोडसे और आप्टे गैंग के लोगों का ही हाथ बताया गया था। 25 जून 1934 को पूना नगरपालिका के एक कार्यक्रम में जाते हुए उनके काफिले पर बम का धमाका किया गया, जिसमें नगरपालिका के मुख्य कार्याधिकारी, दो पुलिस वाले और सात अन्य लोग घायल हुए। अफ़रातफ़री का फ़ायदा उठाकर हमलावर भाग गए और ऐसा लगता है कि बाद में उन्हें पकड़ने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई। आचार्य जावड़ेकर ने अपनी किताब ‘जीवन रहस्य’ में लिखा है– ‘गांधी जी मानपत्र स्वीकार करने जा रहे थे, तब गांधी जी के हरिजन उद्धार के कार्य से क्रोधित, ख़ुद को सनातनी कहने वालों ने यह बम फेंका, पर गांधीजी बच गए। सनातनी हिंदुओं की धारणा थी कि गांधी-हत्या से ही सनातन धर्म सुरक्षित रहेगा।’ उनके अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन से बौखलाए सनातनी लगातार उनको निशाना बना रहे थे और गांधी जी भी इस बात से वाक़िफ़ थे। 15 फरवरी, 1933 को नेहरू को लिखे एक ख़त में उन्होंने लिखा था, ‘सनातनियों के ख़िलाफ़ लड़ाई अगर और अधिक मुश्किल हो रही है तो और मज़ेदार भी होती जा रही है। अच्छी बात यह है कि वे बड़े लंबे आलस्य से जाग गए हैं।‘
गांधी जी पर अगला हमला पंचगनी में हुआ, 22 जुलाई को दिन भर शहर में गांधी विरोधी नारे लगाने के बाद शाम को जब गांधी जी अपनी प्रार्थना सभा में थे, तो उन पर हमले की कोशिश हुई। मणिशंकर पुरोहित और भिल्लारे गुरूजी नामक दो युवकों ने हमलावर को पकड़ लिया। भिल्लारे गुरूजी ने तुषार गांधी को बताया था कि ‘19-20 लोग दिन भर गांधी विरोधी नारे लगा रहे थे, तब बात करने के लिए नथूराम गोडसे को गांधी जी ने बुलाया। गोडसे ने मिलने से इंकार कर दिया। शाम को गांधी जी की प्रार्थना सभा शुरू हुई। तब नेहरू शर्ट, पाजामा और जैकेट पहना हुआ एक युवक गांधी-विरोधी नारे लगाता हुआ जैकेट की जेब से जाम्भिया (छुरा) निकालकर गांधीजी की ओर लपका। मैंने और मणिशंकर पुरोहित ने उसे पकड़कर छुरा अपने क़ब्ज़े में कर लिया और उसे ज़मीन पर पटक दिया। गांधी जी ने उन्हें रोका और हमलावर से बुरा व्यवहार न करने को कहा। उन्होंने नथूराम से आठ दिन साथ रहने के लिए कहा, लेकिन उसने मना कर दिया। गांधी जी ने उसके बाद उसे जाने दिया। पूना से आने वाले युवकों के समूह में विष्णु करकरे, दिगंबर भड़गे और गोपाल गोडसे भी शामिल थे।’
कपूर आयोग ने इस घटना के निष्कर्ष के रूप में लिखा है- यह घटना केवल इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि ऐसे लोगों का एक वर्ग अस्तित्व में था, जो श्री मुंशी के इस विचार की पुष्टि करता है कि पूना में एक ऐसा वैचारिक समूह है, जो अतिरेकी रूप से गांधी का विरोधी है और जो राजनैतिक हत्याएं करने में झिझकता नहीं। (पेज 126, कपूर आयोग की रिपोर्ट भाग 1 का बिंदु 10.8)
इस समूह के नायक थे हिन्दुत्व के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर। पांच माफीनामों के बाद काले पानी से रिहा होने के बाद 1937 से ही वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे और द्वितीय विश्वयुद्ध में कांग्रेस पर प्रतिबंध और इसके प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद रिक्त राजनैतिक स्पेस को भरने की कोशिशों में ब्रिटिश सेना में भर्तियों का जो अभियान उन्होंने चलाया था, उसमें गोपाल गोडसे और नारायण आप्टे, दोनों सेना में भर्ती हुए थे। हालांकि इन सबके बाद भी भारतीय जनता का समर्थन उन्हें नहीं मिला और युद्ध के बाद जब देश की आज़ादी सुनिश्चित हो गई तो शिमला में बातचीत के लिए भारतीय प्रतिनिधि तय करते हुए अंग्रेजों ने उन्हें कोई स्थान नहीं दिया।
तत्कालीन राजनीति में सावरकर महाराष्ट्र में अपने सीमित प्रभाव से आगे कभी नहीं बढ़ पाए, लेकिन गांधी जी को उन्होंने हमेशा प्रतिद्वंद्वी की तरह देखा और उनके प्रति अपनी कुंठा और नफरत को अपने शिष्यों में भी गहरे भरने की कोशिश की। गांधी जी की हत्या भले एक आदमी की बन्दूक से हुई हो, लेकिन उनका हत्यारा सावरकर के नेतृत्व वाला यही वैचारिक समूह था। यह वैचारिक समूह लगातार हिंसात्मक कार्यवाहियों में संलग्न था। 26 जून 1947 को पूना में एक बम विस्फोट हुआ था। इस सिलसिले में एनआर अठावले नामक व्यक्ति को पकड़ा गया तो उसने बताया कि ‘अग्रणी’ के नारायण आप्टे ने उसे ऐसा करने को कहा था। इस सिलसिले में आप्टे को 4 जुलाई 1947 को गिरफ़्तार भी किया गया था, लेकिन उसके बाद उस पर कोई नज़र नहीं रखी गई.
कहानी आखिरी षड्यंत्र और बरेटा रिवॉल्वर की
1947 आते-आते दिल्ली में साम्प्रदायिक तनाव की आहटें बढ़नी शुरू हो गई थीं। भंगी कॉलोनी के जिस मैदान में गांधी जी शाम को प्रार्थना सभा करते थे, उसी मैदान में सुबह आरएसएस के लोग शाखा लगाते थे। प्रार्थना सभाओं में लगातार विघ्न पहुँचाने की कोशिशें की जाती थीं। गांधी की प्रार्थना सभाओं में सभी धर्मों के प्रार्थना सन्देश पढ़े जाते थे, लेकिन मार्च महीने के आखीर में प्रार्थना सभा में जब मनुबेन ने इस्लामिक प्रार्थना शुरू की तो भीड़ में से दक्षिणपंथी संगठन से जुड़ा एक आदमी चिल्लाया कि वाल्मीकि मंदिर में मुस्लिम प्रार्थना नहीं हो सकती। गांधी जी ने कहा कि और किसी को आपत्ति नहीं है, इसलिए आप जाना चाहते हैं तो चले जाएं, लेकिन वह आदमी लगातार धमकियां देता रहा। ऐसे ही एक और सभा में उसी संगठन के कुछ लोगों ने कहा कि यह मंदिर भंगी लोगों का है। आप यहां से चले जाइए। गांधी जी ने शान्ति से जवाब दिया– मैं भी भंगी हूँ। जब गांधी जी उनके लगातार शोर मचाने के बावजूद अविचलित रहे तो उन पर हमला करने की कोशिश की गई। आश्चर्यजनक है कि इनमें से किसी को गिरफ़्तार करने की कोशिश नहीं की गई। दिगंबर भड़गे ने गांधी हत्याकांड के मुक़दमे में 27 जुलाई को जिरह के दौरान यह बताया था कि आप्टे और गोडसे दोनों भंगी कॉलोनी में गांधी जी की प्रार्थना सभा में प्रदर्शन करने वालों में शामिल थे।
देश दंगों की आग में सुलग रहा था। गांधी नोआखली से दिल्ली तक आग बुझाने में लगे थे और उनके हत्यारे उनकी हत्या का षड्यन्त्र रचने में। 20 जनवरी को गांधी जी का आख़िरी दिन तय किया था हत्यारों ने। गोपाल को वे इस योजना में शामिल नहीं करना चाहते थे। वे उससे केवल वह रिवाल्वर लेना चाहते थे, जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटने के बाद गोपाल ने वापस करने की जगह अपने गाँव में ज़मीन में गाड़ दिया था। लेकिन जब गोपाल को गांधी-हत्या की योजना का पता चला तो उसके भीतर का राक्षस जाग गया और उसने इसमें ख़ुद को शामिल करने की शर्त रख दी। योजना में एक शरणार्थी मदनलाल पाहवा, हिन्दू महासभा से जुड़े विष्णु करकरे और अवैध शस्त्रों के व्यापारी दिगम्बर भड़गे तथा उसके नौकर शंकर को भी शामिल किया गया। दिगम्बर ने दो और बंदूकों का इंतज़ाम किया था।
जो योजना बनी थी, उससे साफ़ है कि आप्टे ख़ुद पर और गोडसे बंधुओं पर कोई ख़तरा नहीं आने देना चाहता था। इस योजना के तहत सर्वेंट क्वार्टर के भीतर मदनलाल और गोपाल को छिपकर बैठना था और सीमेंट की जालियों से मदनलाल को हथगोला फेंकना था तो गोपाल को उससे मचे शोरगुल में गोली चला देनी थी। वहीं सामने से गांधी हत्या की ज़िम्मेदारी दिगंबर भड़गे और शंकर किस्तैया को दी गई। मासूम शंकर न गांधी जी को जानता था न उन वजहों को, जिनके कारण उन्हें मारने की योजना बनी थी। आप्टे और नथूराम को हाथ में हथियार भी नहीं लेना था और बस भीड़ में खड़े होकर सबको निर्देश देने थे। ज़ाहिर था कि सोचा यही गया था कि इस हंगामे के बाद सब भीड़ का फ़ायदा उठाकर निकल जाते और फंसते भड़गे और किस्तैया। लेकिन भड़गे यह चाल समझ गया था और वह एन मौक़े पर बिना बंदूक के गया। मदनलाल ने हथगोला फेंका, भगदड़ मची लेकिन गोलियां नहीं चलीं। सब भाग गए, मदनलाल पकड़ा गया लेकिन पुलिस इस षड्यन्त्र का भंडाफोड़ करने में असफल रही।
इसके बाद हत्या की ज़िम्मेदारी गोडसे ने अपने हाथ में ली और बेहतर हथियार के इंतज़ाम के लिए हिन्दू महासभा से जुड़े ग्वालियर के दत्तात्रेय परचुरे से मिलने का निश्चय किया। 28 जनवरी को गोडसे आप्टे के साथ दिल्ली आया और यहाँ से दिल्ली-बम्बई एक्सप्रेस पकड़कर आधी रात को दोनों ग्वालियर पहुंचे। वहां से तांगा लेकर वे लश्कर में परचुरे के आवास पहुंचे तो परचुरे सोने जा चुका था। आधी रात को उनके आने से, पहले तो वह थोड़ा नाराज़ हुआ, लेकिन जब पता चला कि वे गांधी हत्या के लिए हथियार के इंतज़ाम में आये हैं, तो सुबह इंतज़ाम करा देने का वादा करके फिर से सोने चला गया। अगले दिन शाम तक गंगाराम सखाराम दंडवते के माध्यम से उन्हें इटली की बनी 9 एमएम ऑटोमेटिक बरेटा पिस्तौल और सात कारतूस मिल चुके थे। पैसे होने के बावजूद आप्टे ने 500 की जगह सिर्फ़ 300 रूपये दिए और बाक़ी बाद में देने का वादा करके रात लगभग दो बजे दोनों बम्बई-अमृतसर एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए लौटे। इसी बरेटा रिवॉल्वर से गांधी जी की हत्या हुई थी।
रिवॉल्वर का रहस्य
यह रिवॉल्वर इटली की बनी हुई थी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद किसी सैनिक के हाथों ग्वालियर पहुंची थी। ग्वालियर स्टेट में उन दिनों हथियार रखना प्रतिबंधित नहीं था, इसलिए इसके मालिक पर कोई मुक़दमा नहीं चल सकता था। परचुरे की गिरफ़्तारी हुई, लाल क़िले में चले मुक़दमे में उसे सज़ा भी हुई, लेकिन अपील के बाद पंजाब उच्च न्यायालय में चले मुक़दमे में वह तकनीकी आधारों पर छूट गया। उसका वकील यह साबित करने में सफल रहा कि ग्वालियर में मजिस्ट्रेट के सामने उसके बयान को दर्ज कराने में तकनीकी ग़लतियां हुई हैं।
लेकिन बड़ी बात यह है कि इस मुक़दमे में गंगाराम सखाराम दंडवते, गंगाधर जाधव और सूर्यदेव शर्मा का भी नाम था। ये वे लोग थे, जिन्होंने यह रिवॉल्वर उपलब्ध कराने में भूमिका निभाई थी। लेकिन वे कभी भी गिरफ़्तार नहीं किये गए और उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। आश्चर्यजनक है कि इनके बारे में कहीं कोई ख़बर नहीं मिलती, जबकि कम से कम दंडवते ग्वालियर में हिन्दू महासभा में सक्रिय रहा। यही वजह है कि जो कयास लगते हैं, उसमें ग्वालियर के महाराजा सहित कई महत्त्वपूर्ण लोगों पर सवाल उठते हैं, ज्ञातव्य है कि परचुरे के पिता ग्वालियर राज्य के बड़े अधिकारी और महाराजा के कृपापात्र रहे थे।
-अशोक कुमार पाण्डेय
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