दुनिया में अनेक लड़ाइयां लड़ी गयीं, लेकिन गांधीजी के नेतृत्व में भारत की आज़ादी की लड़ाई जिस प्रकार अहिंसा के बल पर हुई, आज की युवा पीढ़ी को वह अकल्पनीय लगता है. गांधीजी के अन्दर धर्म, आध्यात्मिक ज्ञान, अहिंसा और सत्य इत्यादि का जो बल था, वह अनेक महापुरुषों और पुस्तकों की संगति से मिला था।
‘महात्मा के महात्मा’ पुस्तक पढ़ने के बाद पता चला कि गांधीजी को महात्मा बनाने में श्रीमदराजचंद्र का बड़ा योगदान था। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- यहां तो इतना ही कहना काफी होगा कि मेरे जीवन पर प्रभाव डालने वाले आधुनिक पुरुष तीन हैं- श्रीमदराजचंद्र ने अपने सजीव संपर्क से, टाल्सटॉय ने ‘दी किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू’ नामक अपनी पुस्तक से और रस्किन ने अनटु दिस लास्ट नामक पुस्तक से मुझे चकित कर दिया।
श्रीमदराजचंद्र से गांधीजी की पहली मुलाकात 6 जुलाई 1891 को डॉ़ प्राणजीवन दास मेहता के घर हुई। इसके बाद लगभग दो वर्षो तक दोनों के बीच सजीव और अंतरंग संगति का दौर चला। यह संबंध इतना आत्मीय और गहरा था कि गांधीजी घंटों उनके सामने बैठकर धर्म और आध्यात्मिक चर्चा करते थे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा और संस्मरणों में उनके लेखन, आचरण, व्यवहार, व्यक्तित्व और ज्ञान का ज़िक्र किया है। उनके बीच लम्बा पत्र व्यवहार भी रहा।
गांधीजी ने लिखा है- ‘राजचंद्र भाई अक्सर कहा करते थे कि धर्म तो बाड़ की तरह है, जिसमें मनुष्य कैद है। जिन्होंने मोक्ष की प्राप्ति को ही पुरूषार्थ माना है, उन्हें अपने भाल पर किसी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नहीं है। धर्म के झगड़ों से उनका जी ऊब उठता था, वे उसमें पड़ते ही नहीं थे। उन्होने सब धर्मों के गुणों को अच्छी तरह देख लिया था. जो जिस धर्म का होता, वे उसके सामने उसी धर्म की खूबिया बताने लगते थे। दक्षिण अफ़्रीका में रहते हुए मैंने उनके साथ जो पत्र व्यवहार किया था, उससे भी मैंने यही बात सीखी थी।’ श्रीमदराजचंद्र जैसे तपस्वी और मंत्रपुरुष को गांधीजी ने इसीलिए उस दौर के महानतम भारतीय की संज्ञा दी थी। गांधीजी ने उच्चतम आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए जिन अभियानों और आन्दोलनों को चलाया, उन्हें लोकस्मृति में निरंतर स्थापित करने की ज़रूरत है। गांधीजी सत्य के एकत्व को स्वीकार करते थे। उन्होंने अहिंसक क्रांति के माध्यम एवं साधन का भी अभिनव प्रयोग किया। उन्होंने कहा कि अहिंसक समाज का निर्माण हिंसा या दण्ड शक्ति के माध्यम से संभव नहीं है। वह तो सत्य, अहिंसा और प्रेम के माध्यम से ही संभव है।
अनादि काल से समाज में दो प्रकार की क्रांतियां हुई हैं। पहली आत्मज्ञान द्वारा उच्च चेतना में ले जाने वाली; बुद्ध, ईसा, महावीर, शंकर, सुकरात, मुहम्मद साहब, नानक, कबीर, श्रीमदराजचंद्र आदि जिसके प्रवर्तक रहे। दूसरी व्यवस्था परिवर्तन की क्रांतिया; फ्रांस, रूस, चीन आदि देश जनके उदहारण हैं। गांधीजी में दोनों का समन्वय है। हमें इसी धारा को आगे बढ़ाना है और अहिंसक समाज रचना का निरंतर अध्यवसाय करते रहना है। व्यक्तिगत अहिंसा की साधना, व्यक्ति को उच्च से उच्चतर चेतना की ओर ले जाती हैं। अहिंसा की सामूहिक साधना से समाज अपनी सामूहिकता में उच्चतर स्तर की ओर जायेगा। अहिंसक व्यक्तियों की संगति से अहिंसक समाज में प्रगति होगी।
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमें आत्मावलोकन करने की जरूरत है कि देश, समाज, दुनिया में प्रेम, भाईचारा, सत्य, अहिंसा इत्यादि मूल्यों को आमजन के बीच कैसे जिंदा रखें। ये विचार तभी जिंदा रह सकते हैं, जब हमारी कथनी-करनी का भेद दूर होगा। आज अगर हम गलत नीतियों का अहिंसात्मक तरीके से विरोध करें तो बाधाएं बहुत सी हैं, पर सफलता का यही एकमात्र रास्ता भी है.
वैश्वीकरण की शक्तियों के खिलाफ, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दोहन के खिलाफ, गांव व खेती को नष्ट करने की साजिशों के खिलाफ, लोकसत्ता को कमजोर करने की साजिशों के खिलाफ तथा परंपरागत समुदायों के विस्थापन व पलायन के खिलाफ खड़े होने तथा उन्हें अहिंसक क्रांति का मुख्य सामाजिक आधार बनाने की जरूरत है। यह अहिंसात्मक आंदोलन से ही हो सकता है। महापुरुषों के विचारों को धरातल पर कुछ करके ही जिंदा रखा जा सकता है।
-गौतम के गट्स
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