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गांधी की आत्मकथा पढ़ने से मुकदमेबाजी का अंत

हिन्दी कथाकार राजेन्द्र यादव ने एक बार लिखा था कि यदि कोई व्यक्ति हावड़ा पुल पर खड़ा होकर जोर-जोर से कहने लगे कि यह पुल उसके दादा ने बनवाया था, तो कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो यह सिद्ध करने में लग जायेंगे कि सच में यह पुल उसके दादा ने ही बनवाया था। अंग्रेजों की भारतीयों के बारे में यह धारणा थी कि भारतीयों में कोई भी अफवाह फैला दो, वे बिना तथ्यों का परीक्षण किये, बिना सत्य-असत्य का विचार किये, मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। अपनी इसी समझ के चलते अंग्रेज गोमांस और सूअर के मांस का प्रयोग कर अनेक बार हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने में सफल रहे।

अंग्रेजों ने ही भारत में यह भ्रांति फैलायी कि यदि गांधीजी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक जाती। अंग्रेजों की यह कूटनीति थी कि कांग्रेस किसी भी तरह गांधीजी के विरुद्ध हो जाये और गांधीजी के खिलाफ विद्रोह कर जाये। इसी तरह देश में यह भ्रांति भी पैâलायी गयी कि गांधीजी ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया और नेहरू को प्रधानमंत्री बना दिया। अगर पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो देश का विभाजन न हुआ होता और कश्मीर आज समस्या न होता। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि नेहरू और पटेल के बीच प्रधानमंत्री पद के लिए कोई चुनाव नहीं हुआ था।

पं. नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद, ये सभी गांधी के अनुयायी और देश के सच्चे सेवक थे। गांधीजी कहा करते थे कि मेरे दो राजनीतिक पुत्र हैं – जवाहर और पटेल। नेहरू और पटेल के बीच कभी मनभेद नहीं रहा। जब नेहरू पर संकट आया तो पटेल ने उनका साथ दिया और जब पटेल पर मुसीबत आयी तो नेहरू उनके साथ खड़े रहे। जब गांधीजी की हत्या हुई तो कई ऊंगलियां पटेल पर भी उठीं कि वे ही इस हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। उन्होंने गांधी की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं की। तब पं. नेहरू उनके पक्ष में खड़े हुए और कहा कि उनके ऊपर लगाये गये आरोप मिथ्या तथा निराधार हैं। पटेल और नेहरू के बीच न तो प्रधानमंत्री पद के लिए कोई चुनाव हुआ और न इस मामले में उनके बीच कोई मतभेद थे। इस संबंध में जितनी भी धारणाएं फैलायी गयी हैं, वे सभी भ्रामक और निराधार हैं।

एक बार दिल्ली के राजघाट पर मेरी मुलाकात एक मुसलमान से हुई। मैंने गांधीजी के बारे में उसका विचार जानना चाहा तो वह एकाएक भड़क उठा कि वह तो मुसलमानों के विरोधी थे, हमेशा हिन्दुओं का पक्ष लेते थे। दूसरी तरफ हिन्दू कहते हैं कि वे मुसलमानों का पक्ष लेते थे। बिना इतिहास के पन्नों से गुजरे हम धारणाएं बनाने के आदी हैं। सत्य और ऐतिहासिक तथ्य कभी-कभी हमारी सुविधाओं के आड़े आने लगते हैं, इसलिए हम गढ़ी हुई और निहित स्वार्थों से भरी हुई धारणाओं के साथ हो जाते हैं। क्या कभी हमने यह जानने की कोशिश की कि जब नोआखाली में हिन्दू मारे जा रहे थे, तो उन्हें बचाने वहां कौन गया था? नेहरू या पटेल? जिन्ना या सावरकर? नोआखाली में मारे जा रहे हिन्दुओं को बचाने गांधी ही गये थे। वहीं, जब बिहार में मुसलमान मारे जा रहे थे तो वहां उन्हें बचाने कौन गया था? वहां भी गांधी ही गये थे।

कलकत्ता में जब दंगा होने वाला था तो वहां उपवास करके शांति की स्थापना किसने की? गांधी जी ने की। शांति बड़ी कीमती वस्तु है। उन्मादी हिन्दुओं और कट्टर मुसलमानों ने जब-जब तलवार निकाली, उसकी हर चोट गांधी के सीने पर पड़ी और अंतत: जब गांधीजी की हत्या हो गयी तो भारत से पाकिस्तान तक एकदम शांति छा गयी। गांधीजी की मृत्यु ने पाकिस्तान में हिन्दुओं की और भारत में मुसलमानों की जान बचा ली। दरअसल गांधी को नहीं समझने की एक जिद है। हम उन्हें समझना चाहते ही नहीं। यदि सचमुच हम गांधी को समझना चाहते, तो उनकी भूमिका के दस्तावेज इतिहास में बिखरे पड़े हैं। गांधीजी के सार्वजनिक, सामाजिक और व्यक्तिगत चरित्र का प्रमाण खोजने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने खुद ही कह दिया कि यदि सत्य और ईश्वर में से किसी एक को चुनना हो, तो मैं हमेशा सत्य के साथ खड़ा मिलूंगा। जातियों, कौमों, स्वार्थों और मजहबों के नाम पर यदि कोई गांधी जी की सतही विवेचना ही करने पर आमादा हो, तो यह उसकी समस्या है, क्योंकि गांधी जी किसी एक व्यक्ति, कौम या मजहब के नहीं थे, वे समग्र रूप से सबके थे।

जब पाकिस्तान बनने की बात हुई तो मुसलमान गांधी जी को गाली देते थे कि वे पाकिस्तान नहीं बनने दे रहे हैं। वे अपशब्दों और गंदे शब्दों से भरे पत्र उनको भेजते थे। जब पाकिस्तान बन गया और मुसलमानों पर संकट आया तो कहने लगे कि गांधीजी, हम भी तो आपके ही हैं। जब-जब अवसर आया, तब-तब सभी ने गांधीजी को अपने हिसाब से चित्रित किया और उनसे सहयोग लिया। गांधीजी सबके दु:ख-दर्द के साथी थे। जाति-धर्म उनकी सोच के विषय ही नहीं थे। निहित स्वार्थी लोग तो अंबेडकर को भी उनके सामने खड़ा करते हैं। जब स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल बना और उसे गांधीजी के सामने पेश किया गया तो उन्होंने सिर्फएक व्यक्ति का नाम उसमें जोड़ा और वह थे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर। गांधीजी कहा करते थे कि बाबा साहब ने बहुत दु:ख-दर्द और कष्ट झेला है। वे समाज और देश के लिए अच्छा ही करने का प्रयास करेंगे।

दक्षिण भारत में जब दलितों ने कहा कि उन्हें मंदिर में जाने की अनुमति नहीं मिलती, तो उन्होंने कहा कि जब मेरे भाई-बहनों को मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं है, तो मैं भी किसी मंदिर में नहीं जाऊंगा। दलितों को सम्मान देने और लोगों में समानता का भाव पैदा करने के लिए गांधी जी ने दलित महिला को आश्रम में रखा, तो सभी आश्रमवासियों ने विरोध किया, परंतु गांधीजी ने शर्त रख दी कि जो दलित के हाथ का बनाया खाना नहीं खायेगा, वह आश्रम छोड़कर जा सकता है।

गांधीजी के रचनात्मक कार्यों में अस्पृश्यता उन्मूलन एक प्रमुख कार्य रहा है। एक दलित ने गांधीजी की आलोचना करते हुए कहा कि गांधीजी ने हमारा देश नहीं बनने दिया। यह फैलायी हुई भ्रांतियों की जाल है। गांधीजी के हाथों से जो देश बनना संभव था, वह तो वैसे भी नहीं बना। अलग-अलग विचारों का देश बनाना उनका मिशन नहीं था। जो देश अस्तित्व में आया, उसे बनाने के लिए उन्होंने अपनी आहुति तक दे डाली। अब भी जिन्हें शिकायत है, उन्हें बताना चाहिए कि देश वैâसे बनता? देश को बनाने वाले लोग कहां थे? देश को बनाने लायक कौन था? जब देश की आजादी की बात आयी तो सभी राजाओं ने अपना संगठन बना लिया और अंग्रेजों (माउंटबेटेन) से कहा कि हम सब आपके अधीन रहे हैं। आप जा रहे हैं तो हम सबको स्वतंत्र करके जाइये। सारे तो अपनी-अपनी स्वतंत्रता मांग रहे थे, देश कौन बना रहा था?

गांधीजी ने तो नोआखाली में हिन्दुओं को बचाया, बिहार में मुसलमानों को बचाया, कलकत्ता में दोनों को बचाया। यहां तक कि मरने के बाद भी दोनों देशों में बड़ी संख्या में लोगों की जान बचायी। गांधी ने कब देश विभाजन की बात की? अगर देश में गांधी का अहिंसक आंदोलन न होता तो वैसे ही लाखों लोग मारे जाते, और वे हिन्दू और मुसलमान ही होते।

यह अंग्रेजों की चाल थी। गांधीजी को तो वे डिगा नहीं सकते तो अन्य लोगों को गांधीजी से अलग कर दिया जाय। एक समय तो कांग्रेस ही गांधी के खिलाफ माउंटबेटन का प्रयोग करने लगी थी। देश के बड़े-बड़े लोगों और नेताओं ने वायसराय से कहा कि अगर भगत सिंह को फांसी नहीं दी जायेगी तो देश में शांति बनी रहेगी। लेकिन अंग्रेजों ने सोचा कि यदि इस बीच भगत सिंह को फांसी दे दी जाये तो गांधी के खिलाफ देश में विद्रोह पैâल जायेगा।

अंग्रेज सरकार या वायसराय गांधी की जेब में नहीं थे कि गांधीजी कहते और भगत सिंह की फांसी रुक जाती। अगर अंग्रेज इतना ही गांधीजी की बात मानते, तो वे तो रोज ही कहते थे कि हमें स्वराज दे दो। उनकी बात मान ली जाती। हम उन देशद्रोहियों को भूल जाते हैं, जिन्होंने भगत सिंह के साथ गद्दारी की और हम यह भी भूल जाते हैं कि खुद भगत सिंह का अपने मुकदमे के बारे में क्या विचार था। फांसी से बचाने का प्रयास करने पर तो वे अपने पिता के खिलाफ भी हो गये थे।

जिस गांधी में अंग्रेजों ने ईसामसीह का प्रतिबिम्ब देखा, बौद्ध धर्मावलंबियों ने बुद्ध को देखा, फ्रांस के लोगों ने संत फ्रांसिस को देखा, यूनान के लोगों ने सुकरात को देखा, कबीरपंथियों ने कबीर को देखा, उस गांधी को हम गाली देने में लगे हैं। एक बार की बात है। दो सगे भाई एक मुकदमा लड़ रहे थे। बहुत दिनों तक लड़ने के बाद एक दिन बड़ा भाई जज के पास गया और बोला कि मेरा छोटा भाई जो कह रहा है, वही सही है। दूसरे दिन छोटा भाई जज के पास गया और बोला कि मेरे बड़े भाई जो कह रहे हैं, वही सही है। जज को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसा क्या हुआ कि दोनों ऐसा कह रहे हैं। जज ने दोनों भाइयों को अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ऐसा क्या हुआ जो तुम लोग ऐसा व्यवहार कर रहे हो। उन्होंने कहा कि हमने गांधीजी की आत्मकथा पढ़ ली है और उन्हें जान लिया है। यह सुनकर जज रोने लगा और बोला कि अगर हमारे देश के लोगों ने गांधी को पढ़ा और समझा होता तो देश की आज अलग ही स्थिति होती।

हमें गांधी जी का विचार पढ़ना है, उनको जानना है, समझना है, जिससे समाज से जाति-धर्म का बंधन खत्म हो जाये। भाई-भाई का वैर खत्म हो जाये। इस गांधी जयंती के अवसर पर मेरा आप सबसे आग्रह है कि अगर हम अपने देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बढ़ाना चाहते हैं, आपसी भाईचारा बढ़ाना चाहते हैं तो गांधी जी को पढ़िये, उन्हें समझिये, उनके विचारों को अपनाइये और उसका प्रचार-प्रसार कीजिये।

-मदन मोहन वर्मा/चित्रा वर्मा

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