‘यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज धरकर बैठे रहेंगे, तो सभ्यता की चपेट में आये हुए लोग खुद की जलायी हुई आग में जल मरेंगे. पैगम्बर मोहम्मद साहब की सीख के मुताबिक यह शैतानी सभ्यता है. हिन्दू-धर्म इसे निरा ‘कलयुग’ कहता है.’ ये शब्द महात्मा गांधी के हैं. वे हिन्द स्वराज में तब की यूरोपीय सभ्यता के विषय में ऐसा कहते हैं.
आज सवाल यह है कि भारतीय सभ्यता के हालात क्या हैं? क्या वह भी अतिसभ्यों की पैरवी करते हुए दबे, कुचले, निचले पायदान के व्यक्ति को ‘असभ्य’ बता रही है? भारत में तो वैसे भी यह होता ही आया है. एक बड़ा तबका असभ्य करार दिया जाता है, जबकि दूसरा कुछ लोगों का ही, लेकिन ताक़तवर तबका सभ्य और एलीट बताया जाता है.
गांधी मानते हैं कि ऐसी सभ्यताएं कुछ समझदार लोगों के भी केवल धीरज धरकर बैठे रहने से पनपती हैं, फलती-फूलती हैं. क्योंकि इन सभ्यताओं का कोई आलोचक पैदा नहीं होता. ‘क्रिटीक’ का कल्चर ही समाप्ति की कगार पर है. किसी का भी सभ्य होना इस बात की तस्दीक करता है कि वह किसी-न-किसी को असभ्य मानेगा. सभ्यता ही असभ्यता को जन्म देती है. असभ्यता अपने दर्शन का निर्माण स्वयं कर लेती है.
जो भेड़-चाल चले, देखा-देखी में कम आमदनी होते हुए भी महँगे शौक रखे, मौके मिलने पर लाखों के कपड़े पहने, दस में से नौ लोगों को कोट-पैंट पहना देखकर खुद भी वही पहने, तब वह सभ्य कहलायेगा और कपड़ों, भाषा तथा जीवन-पद्धति में भिन्नता किसी को असभ्य बना देगी. असभ्यता का दर्शन कई चीजों से संचालित होता है. पूँजी का न होना, आपको दुनिया की नज़र में असभ्य बना सकता है, क्योंकि कम पूँजी से आपका पहनावा आम होगा, खान-पान व रहन-सहन आम होगा और आज आम होना ही असभ्य होना है. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कई पहलू हैं, जो इस दर्शन को संचालित करते हैं व इसके कारण बनते हैं.
यदि हम खुद से पूछें कि गांधी किसकी नुमाइंदगी करते हैं, तो जवाब मिलेगा कि गांधी असभ्यों की नुमाइंदगी करते हैं. हर वह व्यक्ति, जो ‘सभ्य’ होने की परिभाषा में फिट नहीं बैठता, गांधी ने उसका साथ दिया, उसकी नुमाइंदगी की. ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी जाति और अपने धर्म वालों से खतरा तक मोल लिया. अंततः इसी ने एक बड़े खतरे का रूप लेकर गांधी की जान भी ले ली.
गांधी अधीर नहीं थे. अधीरता में उनका विश्वास नहीं था. समाज के लिए जो असभ्य हो, वह गांधी के लिए असभ्य नहीं होता था. क्योंकि गांधी उस प्रक्रिया से परिचित थे, जो बिखराव और अलगाव पैदा करती है, जो एक को ऊँचा और दूसरे को नीचा बनाती है. ‘उतावली से आम नहीं पकते, दाल नहीं चुरती’, गांधी ऐसा मानते हैं. उतावलेपन में गांधी ने कभी कोई फैसला नहीं लिया, कोई बात नहीं कही, कोई तर्क नहीं दिया.
‘तभी बोलो, जब वह मौन से बेहतर हो’, गांधी ऐसा कहते थे. गांधी ठहरकर, गुनकर, बहुत सोचकर बोलते और लिखते थे. इसकी वजह थी कि गांधी एक बड़ी लड़ाई के हिस्सा थे, यह लड़ाई केवल बड़बोलेपन से नहीं लड़ी जा सकती थी. गांधी ने डर को खत्म किया, खुद के भीतर से और जनता के भीतर से भी. उन्होंने जेल और मृत्यु का डर खत्म कर दिया. असभ्यों को बताया कि उन्हें सभ्यों से डरने की आवश्यकता नहीं है, चाहे आपकी असभ्यता जाति की वजह से हो, धर्म, प्रान्त या लिंग की वजह से हो. अपने लेखन में उन्होंने वैश्विक, सामाजिक और व्यक्तिगत पहलुओं पर बात रखी. मिल इंडस्ट्री, क्लास वॉर, पंचायती राज, प्रेस से लेकर साफ-सफाई, खान-पान और सेक्स एजुकेशन पर भी लिखा. अनछुए लोगों और अनछुई बातों को छूना, व उनके बारे में बताना गांधी का प्रिय शगल था.
गांधी नितांत समाजवादी थे. कहते थे कि कुछ गिने-गिनाये लोगों के पास सम्पत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो, ऐसा मैं चाहता हूँ. जब मशीनों और यंत्रों पर उनसे बात की गई, यह मानते हुए कि गांधी यंत्रों के ख़िलाफ़ हैं और उन्हें बनाने वाले कारखानों की भी मुख़ालिफ़त करते हैं, तब वे जवाब देते हैं कि मैं इतना कहने की हद तक तो समाजवादी हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ, उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो. उसका उद्देश्य लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का हो. मैं तो यह चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो. धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है, वह रुकनी चाहिए.
रामचंद्रन पूछते हैं कि क्या आप तमाम यंत्रों के ख़िलाफ़ हैं? तब गांधी कहते हैं कि वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं यह जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? गांधी कारखानों व यंत्रों से अधिक उन मालिकों के ख़िलाफ़ थे, जिनका मालिकाना हक़ था मजदूरों का शोषण करना. मजदूरों को कम वेतन और दिहाड़ी मिलती थी, गांधी इसके विरुद्ध लड़े. हम ध्यान रखें कि मजदूर भी असभ्य कौम कहलाई जाती है, पर गांधी उसके साथ हैं, उसके हक़-हुक़ूक़ के लिए लड़ रहे हैं. अंग्रेजों के लिए भारतीय असभ्य, जमींदारों के लिए किसान असभ्य, मिल-मालिकों के लिए मजदूर असभ्य. इन सभी असभ्यों की लड़ाई को गांधी ने अपनी लड़ाई माना. गांधी ने खुद को भी असभ्य माना.
रेलगाड़ी, डॉक्टर और वकील सभी की खामियां बताने वाले गांधी खुद भी एक वकील थे. सम्भवतः एक असभ्य वकील, जो दलीलों से अधिक सुलह में विश्वास रखता था. गांधी के आने से पहले कांग्रेस का आज़ादी का आंदोलन भी चंद सभ्यों का ही आंदोलन था, गांधी ने इसे असभ्यों का आंदोलन बनाया. किसानों, मजदूरों, कामगारों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों को इस आंदोलन से जोड़ा. न सिर्फ़ हिंदुस्तान, बल्कि दक्षिण अफ्रीका में भी उन्होंने यही किया, जिसने उनकी क्रांति की बुनियाद रखी. ट्रांसवाल में क्या हो रहा था, जेल में गांधी क्या कर रहे थे, किसके लिए लड़ रहे थे, क्या पढ़ रहे थे, यह सब आपको बताएगा कि गांधी के जीवन में असभ्यों की क्या अहमियत थी.
गांधी निडर हैं. पूछते हैं अंग्रेजों से कि आप कभी खेतों में गए हैं? मैं आपसे यक़ीनन कहता हूँ कि खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि आप अंग्रेज वहाँ सोने में आनाकानी करेंगे. गांधी देहात के नेता ज़्यादा बने, शहर के कम. नगरों-विहारों से उनका बहुत लेना देना नहीं था. नगर सभ्य है, सभ्य लोग वहाँ के रहवासी हैं. देहात असभ्यों का ठीहा है. तभी गांधी को देहात पसन्द है, देहात के लोग, देहात के हक़, देहात की लड़ाई, देहात की क्रांति पसन्द है. तमाम बैरिस्टरों से भरी पार्टी में गांधी ने देहात को जगह दिलाई, आम आवाज़ का ज़रिया बने.
सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ अपनी एक कविता में लिखते हैं– साँप!/ तुम सभ्य तो हुए नहीं,/ नगर में बसना/ भी तुम्हें नहीं आया./ एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?)/ तब कैसे सीखा डँसना,/ विष कहाँ पाया?
अज्ञेय भी गांधी की तरह मानते हैं कि विष शहरों-नगरों से ही प्राप्त हो सकता है. ज़ाहिर है कि गांधी ने जो बातें कहीं, लिखीं, मानीं, वह और लोगों ने भी आगे चलकर मानीं, या तो गांधी से सीखकर या खुद से समझकर.
गांधी मुसलमानों के साथ रहे. उनकी हक़ की भी लड़ाई उन्होंने लड़ी. आज़ादी के बाद दर्दनाक बंटवारे और उससे उपजे दंगों में गांधी ने मुसलमानों और हिंदुओं दोनों को बचाने की भरसक कोशिश की. दंगे रोके, हिंसा खत्म कराई. आजीवन मज़लूम के साथ ही खड़े रहे. दलितों के हक़ में व छुआछूत के ख़िलाफ़ लड़ते हुए उन्होंने अंबेडकर को प्रभावित किया, तो मुसलमानों के लिए बात करते हुए मौलाना आज़ाद व मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेताओं को भी. हिन्दू-धर्म व सनातन दर्शन पर पढ़ते-सीखते और बात करते श्रीमद राजचन्द्र एवं अन्य आध्यात्मिक संतों को प्रभावित किया, तो औरतों, गरीबों और उपेक्षितों के लिए लड़ते हुए समाजवादी व कई वामपंथी नेताओं को भी.
दक्षिण भारत के वॉल्टेयर कहे जाने वाले पेरियार से हमारे मतभेद हो सकते हैं, मतभिन्नता हो सकती है, लेकिन किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह हम उन्हें नकार नहीं सकते. पेरियार ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी- ‘अगर कोई बड़ा देश छोटे देश को दबाता है, तो मैं छोटे देश के साथ खड़ा रहूँगा. अगर उस छोटे देश का बहुसंख्यक धर्म वहाँ के अल्पसंख्यक धर्म को दबाता है, तो मैं अल्पसंख्यक धर्म के साथ खड़ा होना पसंद करूँगा. अगर उस अल्पसंख्यक धर्म की जातियाँ किसी जाति को दबाती हैं, तो मैं उस जाति के साथ खड़ा रहूँगा. अगर उस जाति में कोई मालिक अपने कामगार का उत्पीड़न करता है, तो मैं उस कामगार के साथ खड़ा रहूँगा. अगर वो कामगार घर जाकर अपनी पत्नी को पीटता है, तो मैं उस औरत के साथ खड़ा रहूँगा. मेरे मुख्य दुश्मन उत्पीड़न और अत्याचार हैं.’
ऐसा लगता है जैसे पेरियार और गांधी यहाँ एक हो जाते हैं. इसीलिए आश्चर्य नहीं होता कि गांधी की हत्या के बाद पेरियार ने देश का नाम भारत से बदलकर ‘गांधी देसम्’ अथवा ‘गांधीस्तान’ रखने की बात कही थी. उन्होंने देश के तमाम नेताओं नेहरू, पटेल और राजेंद्र प्रसाद को इस बाबत पत्र भी लिखे. वे यह भी चाहते थे कि हिन्दू धर्म का नाम बदलकर ‘गांधी-धर्म’ रख दिया जाए.
असभ्यों की नुमाइंदगी करने वाले महात्मा गांधी से उनसे मतभेद रखने वाले लोग भी प्रेम करते थे, क्योंकि मतभेद रखने वाले लोग भी गांधी की निश्छलता से परिचित थे. वे गांधी के कर्म पर सवाल उठा सकते थे, हृदय पर नहीं. जानते थे कि गांधी का दिल बहुत बड़ा है. इतना कि उसमें उनके आलोचक भी समा जाते हैं. लेकिन एक विचारधारा, जिसे आलोचना का ‘अ’ भी नहीं मालूम था, उसने गांधी की उसी हृदय को ढँकती छाती में गोली मार दी. असभ्यों का नेता एक सभ्य बंदूक से मार दिया गया. मरा तो उसके साथ असभ्यता भी मरने लगी. क्या किसान, क्या मजदूर, समूची अवाम रोने लगी.
रिचर्ड एटनबरो द्वारा 1982 में निर्देशित फ़िल्म ‘गांधी’ में महात्मा गांधी की शव-यात्रा के दौरान माइक से गूंजती हुई यह आवाज़ सुनिए– ‘महात्मा गांधी किसी सेना के कमांडर नहीं थे. न ही किसी देश के शासक थे. न उनकी पहुँच विज्ञान के क्षेत्र में थी, न कला के क्षेत्र में थी, लेकिन तब भी आज के दिन दुनिया भर के शासक और लोकनायक इस खद्दरधारी काले आदमी को, जिसने अपने देश को आज़ादी दिलाई, श्रद्धांजलि अर्पित करने आये हुए हैं.’
जवाहरलाल नेहरू कहते हैं कि हमारे जीवन से प्रकाश चला गया. गांधी सबके जीवन का प्रकाश बन जाते हैं. उस एक असभ्य नेता के चले जाने से सभ्यता में अंधेरा छा जाता है. देहात, दलित, और देश की लड़ाई कुछ देर के लिए थम जाती है. और हमें पता चलता है कि लड़ाइयाँ भी अपने नेता के चले जाने पर फफक कर रो देती हैं.
-आयुष चतुर्वेदी
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