गांधी और पटेल
कांग्रेसी नेता किशोर मशरूवाला ने गांधी, पटेल और नेहरू के आपसी रिश्तों के बारे में कहा था, ‘गांधी और पटेल का रिश्ता भाई-भाई जैसा था, जब कि गांधी और नेहरू का रिश्ता पिता-पुत्र की तरह था। महात्मा गांधी ने राज्याभिषेक के समय वफादार और भरोसेमंद आदर्श छोटे भाई के बजाय पुत्र नेहरू को प्राथमिकता दी।’
आजादी के बाद जब प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव की बारी आई, तो पटेल और नेहरू का नाम आया। नेहरू गांधी जी की पसंद थे, इसलिए उन्हें ही प्रधानमंत्री का पद दिया गया, सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री बने।
पटेल और गांधी जी के संबंध हमेशा बहुत अच्छे रहे। गांधी जी के विचारों से पटेल बहुत प्रेरित और प्रभावित थे। गांधी और पटेल की पहली मुलाकात गुजरात क्लब में हुई थी। जब गांधी जी गुजरात क्लब पहुंचे, तो शुरुआत में पटेल ने गांधी जी की किसी बात में कोई रूचि नहीं ली, लेकिन जब उन दोनों ने आमने सामने बात की तो गांधी जी की भारत को आजाद कराने की निष्ठा से पटेल प्रभावित हुए। देखते ही देखते ही दोनों महान हस्तियों में घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गए। पटेल को गांधी के समर्पित शिष्य के रूप में देखा जाता है। ऐसा नहीं कि दोनों के बीच कभी मतभेद नहीं हुए। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी उनके बीच मतभेद हुए, लेकिन इससे उनके संबंधों में कोई खटास नहीं आई। गांधी और पटेल के बीच मूल्यों और मानदंडों में एकता थी। उनके बीच स्नेह और एक दूसरे के प्रति निष्ठा की भावना अंत तक बनी रही। विभाजन के बाद, गांधी जी ने पटेल से वादा लिया था कि नेहरू की नीतियों की वजह से वह अपने पद से इस्तीफा नहीं देंगे। पटेल ने गांधी से किए अपने वादे को अंत तक निभाया।
1932 में सांप्रदायिकता के सवाल पर गांधी जी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन का फैसला लिया था। गांधी जानते थे कि उनके इस फैसले का प्रभाव सीधा पटेल पर पड़ेगा। गांधी के अनशन की खबर से पटेल बहुत चिंतित थे, वे मानसिक तनाव से गुजर रहे थे। पटेल के बारे में यह खबर जेल में मौजूद महादेव देसाई ने जब गांधी जी को दी तो गांधी जी ने कहा, ‘मुझे पता है कि वल्लभ भाई जैसे आसाधारण व्यक्ति का साथ देने में मुझ पर भगवान की कितनी बड़ कृपा है।’
एक तरफ गांधी के अनशन से पटेल चिंता में थे, तो दूसरी तरफ गांधी भी पटेल के गिरते स्वास्थ्य को लेकर बहुत परेशान थे। इस स्थिति में गांधी जी ने पटेल को कई पत्र लिखे, जिसमें शुरू से अंत तक उनके स्वास्थ्य की ही चर्चा होती थी।
1934 में गांधी जी पर हुए शारीरिक हमले से पटेल बहुत चिंतित थे। इसकी रिपोर्ट बॉम्बे क्रॉनिकल में छापी गई थी। पटेल ने गांधीजी को लगभग दो महीने पहले चेतावनी दी थी कि पूना उनके लिए परेशानी का सबब बन सकता है, क्योंकि उन्हें पता था कि इस तरह का जहर पूना में फैलाया जा रहा है।
1937 में गांधी जी ने पटेल को एक पत्र लिखा, ‘मुझे पता था कि तुम बीमार पड़ने वाले हो। आप दूसरों के लिए सरदार हो सकते हो, लेकिन अपने स्वयं के दास से बेहतर नहीं लगते। यदि आप हर चीज में समय के पाबंद हैं और अपने दैनिक जीवन को नियंत्रित करते हैं, तो आप लंबे समय तक जीवित रहेंगे। इसे केवल केतली को काला कहने वाले बर्तन के रूप में खारिज न करें।’
गांधी और पटेल के बीच अनेक मामलों में अंतर के बाद भी मजबूत संबंध थे। लेकिन पटेल अपनी राय बिना किसी हिचकिचाहट के रखा करते थे और इस पर चर्चा किया करते थे। गांधीजी पटेल के स्पष्टवादी स्वभाव को जानते थे। वह हमेशा उनको लेकर सुरक्षात्मक थे। गांधी जी जानते थे कि पटेल अपने कई भाषणों में कठोर दिखाई दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में कई लोग उनके नेक इरादों, राष्ट्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति समर्पण पर शंका भी कर सकते हैं। कई बार पटेल द्वारा कठोर शब्दों में दिए भाषण पर गांधी जी ने भी आपत्ति जाताई थी। 25 अप्रैल 1935 को उत्तर प्रदेश में हुए किसान सम्मेलन में सरदार पटेल के अध्यक्षीय भाषण पर गांधी जी ने टिप्पणी करते हुए कहा, ‘लखनऊ में पटेल के भाषण का स्वर सही नहीं था।’
दोनों का लक्ष्य हमेशा से भारत की आजादी था। लेकिन कुछ ऐसे क्षण आए, ऐसी कई स्थितियां उत्पन्न हुईं, जहां दोनों के बीच मतभेद उत्पन्न हुए। लेकिन इन मतभेदों का इनके रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ा।
नेहरू और पटेल
यह सही है कि नेहरू और पटेल के बीच कई विंदुओं पर आपसी मतभेद थे, लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि इनके बीच एक दूसरे के लिए अप्रतिम स्नेह और सम्मान था। सरदार पटेल ने खुद ही अपनी मृत्यु से एक महीने पहले स्वीकार किया था, ‘मैं आपको बताना चाहता हूँ कि गांधीजी का जो विचार था कि नेहरू प्रधानमंत्री बनें, वह बहुत सही विचार था।’
गांधी जी की हत्या के बाद जब पटेल गृह मंत्री के पद से त्यागपत्र देना चाहते थे तो नेहरू ने अत्यंत भावुक स्वर में कहा, ‘बापू चले गए, अब भाई भी मुझे छोड़कर चले जाएंगे तो देश किसके सहारे चलेगा?’ यदि नेहरू पटेल को हटाना चाहते तो आसानी से उनका इस्तीफा स्वीकार कर सकते थे।
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘सरदार पटेल : अ लाइफ’ में लिखते हैं कि सरदार पटेल जब 12 दिसम्बर को (मृत्यु से तीन दिन पहले) बम्बई जा रहे थे, तो उन्होंने एनवी गाडगिल से कहा कि तुम मुझसे एक वादा करो कि तुम मेरी बात मानोगे। गाडगिल ने जब सहमति में सिर हिलाकर हाँ कहा, तब पटेल ने गाडगिल का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, ‘पंडितजी (नेहरू) के साथ जो भी मतभेद हों, उनको कभी अकेला मत छोड़ना।’
सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाई जाती है कि नेहरू ने न केवल पटेल, बल्कि उनके पूरे खानदान के साथ दुश्मनी निभाई, जबकि सच यह है कि सरदार पटेल के निधन के बाद उनकी बेटी मणिबेन पटेल, नेहरू के नेतृत्व में लड़े गए पहले और दूसरे आम चुनावों में कांग्रेस की तरफ से सांसद चुनी गयीं। मणिबेन के भाई दयाभाई पटेल को भी कांग्रेस ने तीन बार राज्यसभा में भेजा।
अफवाह यह भी फैलाई गई है कि कश्मीर समस्या नेहरू की देन है, जबकि सच्चाई यह है कि नेहरू की कूटनीति और प्रभाव का ही कमाल था कि कश्मीर का भारत में विलय संभव हो सका। नेहरू को कश्मीर से बेपनाह मोहब्बत थी। यदि नेहरू न होते तो आज कश्मीर हिंदुस्तान में नहीं होता। शीतयुद्ध के दौर में ब्रिटेन और अमेरिका ने पूरी ताकत लगा दी थी कि कश्मीर पाकिस्तान के हिस्से जाए, मगर दुनिया की तमाम ताकतों के सामने पंडित नेहरू जैसा कूटनीतिज्ञ चट्टान की तरह खड़ा रहा। वे हर कीमत पर कश्मीर हिंदुस्तान में चाहते थे, क्योंकि पाक, चीन, अफगानिस्तान से सटे और सोवियत संघ के नजदीक बसे कश्मीर की भौगोलिक स्थिति से नेहरू बखूबी वाकिफ थे। उन्हें पता था कि अगर कश्मीर हाथ से गया, तो पाकिस्तान को पिट्ठू बनाकर अमेरिका सोवियत संघ को मात देने के लिए कश्मीरी जमीन पर सैनिक तांडव करेगा, इसलिए कश्मीर पर नेहरू अडिग थे। नेहरू जी की वजह से ही आज जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है।
गांधी और नेहरू
गांधी और नेहरू आधुनिक भारत के वास्तुकार थे, लेकिन आज देश की सारी समस्याओं की जड़ नेहरू को बताया जा रहा है, क्योंकि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने जिस धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक व्यवस्था को आगे बढ़ाया और मजबूत किया, वह इनके घोषित हिन्दू राष्ट्र का प्रतिगामी था।
नेहरू पर कीचड़ उछालना इसलिए जरूरी है कि नेहरू ने इस देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमा दीं। चूंकि आरएसएस की आस्था लोकतंत्र में लेशमात्र नहीं है, इसलिए इसका नेहरू से डरते रहना एकदम स्वाभाविक है। खासकर 2014 के बाद नेहरू को नफरत के प्रतीक के रूप में गढ़ा गया है।
कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय 47 साल के गांधी और 27 साल के नेहरू की पहली मुलाकात 26 दिसंबर 1916 को तब हुई थी, जब नेहरू इलाहबाद से लखनऊ पहुंचे थे। वहां चारबाग स्टेशन के सामने उनकी पहली मुलाकात गांधी से हुई, जो अहमदाबाद से वहां पहुंचे थे। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गांधी जी ने अपना भाषण दिया। अपनी आत्मकथा ‘टूवर्ड्स फ्रीडम’ में नेहरू ने अपनी और गांधी जी की पहली मुलाकात के बारे में लिखा है, ‘गांधी जी से मेरी पहली मुलाकात 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में हुई थी। हम सभी दक्षिण अफ्रीका में उनकी ऐतिहासिक लड़ाई के प्रशंसक थे, लेकिन वे हमारे जैसे युवाओं से बहुत ही दूर, अलग और अराजनैतिक ही थे। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय राजनीति में हिस्सा लेने से मना कर दिया था, लेकिन जल्द ही चम्पारण में किसानों और मजदूरों के लिए उनके आंदोलन ने हम सभी में उत्साह भर दिया। हमने देखा कि वे अपने तरीके भारत में आजमाने के लिए तैयार थे और उन्हें सफलता का भरोसा भी दिख रहा था।’
गांधी जी से मुलाकात के पहले नेहरू 1912 में ब्रिटेन से बैरिस्टर बनकर लौटे थे और इलाहबाद हाईकोर्ट में वकील के तौर पर काम भी करने लगे थे, लेकिन पिता की तरह उनकी वकालत में रुचि नहीं थी। उस समय कांग्रेस में नरमपंथियों को बोलबाला था। वे कांग्रेस के कामकाज से और स्वतंत्रता आंदोलन की गति से संतुष्ट नहीं थे। फिर भी उनके मन में गांधी जी के प्रति शुरू से ही असीम आदर था।
वैसे तो नेहरू पर गांधी जी का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ा, लेकिन नेहरू ने पहली मुलाकात से ही गांधी जी को बहुत सम्मान की निगाह से देखना शुरू कर दिया था। नेहरू की विचारधारा पर गांधी का बहुत प्रभाव रहा। नेहरू के जीवन में गांधी जी की भूमिका उतार चढ़ाव वाली रही, लेकिन नेहरू ने कभी भी गांधीजी के साथ अपने रिश्ते को मतभेदों की भेंट चढ़ने नहीं दिया। दोनों के बीच इन मतांतरों को लेकर खुलकर बातचीत होती रही, लेकिन नेहरू ने गांधी का साथ और सम्मान कभी नहीं छोड़ा।
1920 में नेहरू ने असहयोग आंदोलन में बड़ी सक्रियता के साथ भाग लिया और जेल भी गए। जब चौरीचौरा घटना की वजह से गांधी जी ने आंदोलन रद्द कर दिया, तो उनका देश भर में विरोध हुआ, लेकिन नेहरू पूरी तरह से गांधी जी के साथ खड़े रहे। गांधी के प्रभाव से जवाहरलाल नेहरू में क्रांतिकारी बदलाव आए। कई लोग नेहरू को गांधी के परम भक्त के रूप में देखते हैं या फिर दोनों के बीच की असहमतियों को रेखांकित कर उनके बीच अंतर को दिखाने का प्रयास करते हैं।
1920 के दशक के अंतिम सालों में नेहरू देश के स्वतंत्रता आंदोलन की धीमी गति से साफ तौर पर असंतुष्ट दिखे। वे चाहते थे कि कांग्रेस को स्वराज की जगह पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना चाहिए। नेहरू के विचारों में मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव दिखा। पहली बार यहां गांधी से नेहरू बहुत ही अलग दिखे, लेकिन फिर भी वे गांधीवादी ही होते गए।
गांधी जी को जब भी मौका मिला, उन्होंने नेहरू की तारीफ की, उनके प्रति चिंता जताई और सख्ती से उन्हें आगाह भी करते रहे। देश का इतिहास बदल देने वाले गांधी और नेहरू के बीच कुछ मौकों पर वैचारिक मतभेद भी हुए, लेकिन अपने आखिरी पत्र में गांधीजी ने उन्हें यह कहकर आशीर्वाद दिया कि हिंद के जवाहर बने रहो। गांधी ने 1926 में ही नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
कई बार दोनों की चिट्ठियों में स्वतंत्रता आंदोलन की गति पर भी आपसी मतभेद साफ दिखाई देते हैं। गांधी जी ने संदेह भी जताया कि वे दोनों अलग हो सकते हैं, लेकिन नेहरू ने ऐसा होने नहीं दिया। उन्होंने कभी खुल कर गांधी जी का विरोध नहीं किया, बल्कि अपने गांधीवादी होने की पहचान को हमेशा अक्षुण्ण रखा।
गांधी एवं नेहरू के मध्य अनेक विन्दुओं पर मतभेद थे। मुख्य मतभेद धार्मिक विषय पर था। गांधी अध्यात्मवादी थे, जबकि नेहरू भौतिकवादी थे। गांधी धर्म को नैतिकता के रूप में, जबकि नेहरू धर्म को संप्रदाय के रूप में देखते थे। गांधी की धर्म सम्बन्धी अवधारणा आदर्शवादी एवं अध्यात्मवादी थी, जो भारत की तत्कालीन परिस्थितियों में लोगों को अव्यावहारिक लगती थी। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म पर ही आधारित था। इसलिए नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता का मार्ग अपनाया। नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों के प्रति तटस्थता है। अर्थात् धर्म एक वैयक्तिक विषय है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, अपने धर्म के पूजागृह तथा अपने धर्म के समुदाय बनाने का अधिकार है, राज्य को इस सन्दर्भ में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। नेहरू ने गांधी के सर्वधर्म समभाव को भी धम॑निरपेक्षता में समाहित कर लिया, जिसका अभिप्राय है कि राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं।
गांधी एवं नेहरू के मध्य दूसरा आंशिक मतभेद बड़े उद्योगों एवं व्यापक उत्पादन पर था। गांधी इसके विरोधी थे, लेकिन नेहरू को तत्कालीन भारत की समस्याओं का ज्ञान था। भारत जैसी विशाल देश की जनसंख्या के लिए बुनियादी आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान; बिना बड़े उद्योगों और व्यापक उत्पादन के संभव नहीं था। नेहरू तत्कालीन परिस्थितियों को भली-भांति समझते थे। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं यथार्थवादी था। लेकिन गांधी की नीतियां दूरगामी थीं। इसलिए नेहरू ने भारत निर्माण में आधारभूत संरचना को ध्यान में रखते हुए बड़े उद्योगों एवं व्यापक उत्पादन की व्यवस्थाएं की। लेकिन उन्होंने गांधी के सुझाव को पूर्णतः अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने लघु उद्योगों की नीतियों को भी स्वीकार लिया। यद्यपि यह ध्यान देने योग्य है कि यदि नेहरू ने लघु उद्योगों के विकास पर भी उतना ही बल दिया होता तो भारत का विकास और तीव्र गति से हुआ होता तथा आज आर्थिक विषमता जैसी समस्याएं उत्पन्न नहीं होतीं।
गांधी और नेहरू दोनों की एक समृद्ध विरासत रही है। यह विरासत भारत के लिए बेशकीमती है। आज वही विरासत देश को आगे बढ़ने का मार्ग दिखा रही है। इसी विरासत पर गर्व करके हमने अपनी एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखा है। गांधी और नेहरू अपने पीछे जो विरासत छोड़ गए हैं, राजनीतिक या सामाजिक महत्व से कहीं ज्यादा उनका सांस्कृतिक महत्व है। गांधी जी एक विचार हैं, जो न केवल भारत को सही मार्ग दिखा रहे हैं, बल्कि दुनिया को भी वे ऐसे रास्ते पर ले जा सकते हैं, जहां से एक समृद्ध और सुसंस्कृत दुनिया का निर्माण हो सकता है। पंडित नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता रहे हैं। आजादी के बाद उन्होंने देश की जो बुनियाद रखी, उसी पर आज देश विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है।
ऐसा नहीं था कि केवल निजी और सामाजिक जीवन तक ही गांधीजी के आदर्श विचार सीमित रह गए थे। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर जीवन के विभिन्न पक्षों में भी गांधी जी के इन विचारों को आजमाया गया। गांधीजी का आदर्श समावेशी समाज का निर्माण रहा है।
लोग कहते थे कि आजादी पानी है तो सत्य और अहिंसा से काम नहीं चलेगा। फिर भी गांधी जी ने यह साबित करके दिखाया कि आजादी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर भी हासिल की जा सकती है। गांधी ने अहिंसा को शौर्य के शिखर की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था कि ज्ञानपूर्वक कष्ट सहना ही अहिंसा का मतलब है। अन्याय की इच्छा के नीचे दबकर घुटने टेक देना अहिंसा का अर्थ बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया को गांधी जी ने अहिंसा के जरिए यह संदेश दिया कि जीवन को अहिंसा के नियम के मुताबिक जीकर कोई एक अकेला व्यक्ति भी अपने सम्मान, अपनी आत्मा और अपने धर्म के बचाव के लिए बड़े से बड़े साम्राज्य की पूरी ताकत को चुनौती दे सकता है। अहिंसा और सविनय अवज्ञा जैसे अहिंसात्मक हथियार जो गांधी जी ने प्रयोग में लाए थे, आज पूरी दुनिया में इन्हें आजमाया जा रहा है।
-सच्चिदानन्द पाण्डेय
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