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गांधी-तत्व क्या है?

सत्य को खोजने और देखने का अधिकार हरेक को है। सत्य का निर्णय करने का हक जिस तरह गोडसे को है, उसी तरह गांधीजी को भी है। गोडसे को अपना हक मंजूर था, लेकिन गांधीजी का नहीं। इसलिए उसने गांधीजी की हत्या की। पर गांधीजी को जिस तरह अपना खुद का हक स्वीकार है, उसी तरह गोडसे का भी स्वीकार है। अत: अगर वे बच जाते तो उन्होंने यह उल्टा ही हठ किया होता कि गोडसे को सजा न दी जाय।

गांधी-विचार के एक नैष्ठिक साधक गांधीजी की विशेषता के विषय में चर्चा कर रहे थे। उनका यह आशय था कि गांधीजी की विशेषता यह नहीं है कि उन्होंने संसार को प्रतिकार का एक अनोखा तरीका बतलाया; बल्कि यह है कि वे मनुष्य की आत्मोन्नति के लिए सेवा और सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए द्वादश व्रतों का अनुशीलन अनिवार्य मानते हैं।

गांधीजी के तत्त्वज्ञान की यह व्याख्या स्वीकारने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। परंतु यह व्याख्या स्वीकार करने पर भी यह कहा जा सकता है कि सत्याग्रह या प्रतिकार का एक अभूतपूर्व तरीका गांधीजी ने दुनिया को दिखा दिया, यही उनकी विशेषता है। क्योंकि यह प्रतिकार का तरीका सेवावृत्ति में से ही निकला है। हिंसक प्रतिकार के अलावा साधारण रीति से प्रतिकार का यह तरीका सेवावृत्ति में से ही निकला है। संसार में साधारण रीति से प्रतिकार की तीन विधियां पायी जाती हैं।

1. सहनशीलता या अप्रतिकार- कोई हम पर अत्याचार करे, तो भी हम शांतिपूर्वक और प्रसन्नचित्त सहते चले जांय और अपनी सहनशीलता से उसका दिल पिघला दें।

2. क्षमा- हमारे साथ अन्याय कोई करे, तो हम केवल उसे बर्दाश्त ही न करें, वरन् सच्चे हृदय से और उदारतापूर्वक उसे क्षमा कर दें।

3. अपकार के बदले उपकार- अपने साथ बुराई करने वाले को हम केवल माफ न करें, बल्कि बुराई का बदला भलाई से चुकाकर उसका हृदय-परिवर्तन करने की चेष्टा करें।

गांधीजी ने जो तरीका ईजाद किया, वह इन सबका पूरक होते हुए भी अपनी अलग विशेषता रखता है। अन्याय या अत्याचार सह लेना, गुनाह माफ कर देना, हमेशा और हर हालत में उचित नहीं होता। कभी-कभी अन्यायी या अपराधी के हित के लिए उसे अन्याय या अपराध से बचाना भी जरूरी हो जाता है। ऐसे मौके पर भावरूप या विधायक प्रतिकार की आवश्यकता होती है। रोगी की सेवा-शुश्रूषा के लिए जितना रोग-निवारण का यत्न आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इस प्रकार का प्रतिकार भी है। रोग-निवारण के उपचारों से रोगी की जितनी सेवा होती है, उससे कहीं अधिक सेवा अपराधी की इस प्रतिकार से होती है। यह प्रतिकार केवल क्षमात्मक नहीं है। इसमें केवल अपकार के बदले उपकार की उदारता ही नहीं है। अहिंसक प्रतिकार के ये तीनों गुण सत्याग्रही प्रतिकार में अन्तर्हित हैं, लेकिन उसका विशेष गुण सेवा है। सत्याग्रही केवल क्षमा या तपस्या की वृत्ति से अन्याय को सहन नहीं करता, अन्यायी और अत्याचारी की आत्मोन्नति में सहायता देने के लिए, उसकी मनुष्यता के विकास में मदद पहुंचाने के लिए, उसकी सेवा करने के लिए प्रतिकार करता है।


गांधीजी के तत्त्वज्ञान का मूल स्रोत सेवावृत्ति अवश्य है, लेकिन अन्याय के प्रतिकार में भी सेवावृत्ति का विनियोग उसकी अपूर्व विशेषता है। अब तक तो अन्याय में प्रतिकार के दो ही शिष्ट-सम्मत हेतु माने जाते थे; एक शासन और दूसरा सामाजिक शुद्धि। शासन में सामाजिक प्रतिरोध और आतंक की भावनाएं मिली हुई होती थीं और जब कोई व्यक्ति या समूह शासन से भी दुरुस्त नहीं होता था तो उसे सामाजिक स्वच्छता के लिए नष्ट कर दिया जाता था। आजकल अपराधियों के विषय में भी शुचिता और सुधार की बातें की जाती हैं। यह सेवाधर्म का ही एक स्वरूप है। उसी सेवाधर्म का सामुदायिक प्रयोग गांधीजी सामाजिक और राजनैतिक प्रतिकार के क्षेत्र में कर रहे हैं। आत्मोन्नति और समाज-सेवा या यज्ञ और मोक्ष के समन्वय का उनका सिद्धान्त अपने संपूर्ण वैभव और उत्कर्ष में उनकी प्रतिकार-नीति में ही प्रकट होता है।

अभिमानी गांधी के, अनुयायी गोडसे के!

बापू के नाम से और उनके प्रति प्रेम के कारण जो लोग हिंसा या अत्याचार का सहारा लेते हैं, उनका हेतु शुद्ध और भावना पवित्र होती है। इस प्रकार का उनका तर्कशास्त्र होता है, लेकिन इसका निर्णय कौन करे कि अमुक हेतु शुद्ध है और अमुक हेतु अशुद्ध है? इसका उत्तर है कि हरेक अपनी-अपनी बुद्धि से इसका निर्णय करे। फिर सवाल उठता है कि क्या गोडसे भी अपनी बुद्धि से निर्णय करे? इस सवाल का जवाब निर्भयता के साथ यही देना होगा कि जी हां, गोडसे भी!

सत्य को खोजने और देखने का अधिकार हरेक को है। किसी भी व्यक्ति को दूसरों के इस अधिकार से इनकार नहीं करना चाहिए। सत्य का निर्णय करने का हक जिस तरह गोडसे को है, उसी तरह गांधीजी को भी है। गोडसे को अपना हक मंजूर था, लेकिन गांधीजी का हक मंजूर नहीं था। इसलिए उसने गांधीजी की हत्या की। पर गांधीजी को जिस तरह अपना खुद का हक स्वीकार है, उसी तरह गोडसे का भी स्वीकार है। अत: अगर वे बच जाते तो उन्होंने यह उल्टा ही हठ किया होता कि गोडसे को सजा न दी जाय। सत्य का निर्णय करने का अधिकार हरेक को है, इसलिए सत्य भी एक-दूसरे पर जबर्दस्ती नहीं लादा जाना चाहिए। बिना जबर्दस्ती, अपना तत्त्व दूसरों के गले उतारना गांधीजी का मार्ग है, न्याय का मार्ग है, अहिंसा का मार्ग है। अपनी बात को दूसरों के गले उतारने के लिए उसका गला ही घोंट देना या काट देना गोडसे का मार्ग है, जुल्म-जबर्दस्ती का मार्ग है, अत्याचार का मार्ग है। अत: गांधीजी का आग्रह यह रहा कि अच्छा हेतु, बुरे मार्गों से सफल होना असंभव है। अपनी बुद्धि के अनुसार महान और उदात्त हेतु सामने रखो; लेकिन साथ ही उस हेतु की सिद्धि के लिए किसी पर जुल्म या जबर्दस्ती न करने की मर्यादा का पालन करो। गांधीजी के प्रति अभिमान या प्रेम के कारण अगर हम ज्यादती या अत्याचार करने लग जांय, तो हम अभिमानी तो होंगे गांधीजी के, पर अनुयायी साबित होंगे गोडसे के। हाथ में ‘हिन्द स्वराज’ लेकर विपक्षी के पेट में चरखे का तकुआ भोंकने वाला गांधीवादी असल में गोडसे तंत्र का ही अनुयायी है!

गांधी-विडम्बना का मार्ग

सत्य को खोजने और तय करने का हक हरेक को है, इसलिए ऐसी शेखी कोई न बघारे कि सत्य का ज्ञान केवल उसी को हुआ है। इस तरह की शान दिखाने वाले को ‘वेद-वाद-रत’ कहते हैं। वह वेदों के अर्थ की बहस करने में ही तल्लीन हो जाता है। दूसरों को नीचे गिराने में ही उेस कृतकृत्यता का अनुभव होता है। इन ‘वेदवादी’ लोगों की तरह ही जिन्हें यह अभिमान हो कि गांधीजी का अर्थ केवल वे ही जानते हैं, तो वे ‘गांधीवादी’ हैं! उनका यह दावा होता है कि वे जो कुछ करेंगे, वह शास्त्रपूत है और जो लोग उनसे अलग ढंग से बर्ताव करेंगे, उनके बर्ताव को वे शास्त्रदुष्ट व अशुद्ध समझते हैं। ऐसी गांधीवादियों का अगर कोई पक्ष या पंथ स्थापित हुआ तो इससे भयंकर ‘गांधी-विडम्बना’ और क्या हो सकती है?

गांधी-विचार का वैशिष्ट्य
गांधीजी के मतों और विचारों का अर्थ लगाने की ठेकेदारी किसी के पास नहीं है। गांधीजी के खास वारिस, उनके विचारों के ठेकेदार कोई नहीं है। जिसे जो सत्य प्रतीत हो, जो हितकारी मालूम हो, उसका अमल वह पहले अपने जीवन में करे और अपनी मिसाल तथा तर्क द्वारा औरों का मत परिवर्तन करने की कोशिश करे, यही गांधीजी की शिक्षा का निचोड़ है। सत्य और हित का प्रचार करने के लिए जुल्म-जबर्दस्ती और हिंसा का प्रयोग करना बुद्धिपूर्वक एवं प्रयत्नपूर्वक टालते रहें तो गांधीजी के मार्ग की रक्षा होगी, अन्यथा नहीं। यही है विचार-स्वातंत्र्य और मत-स्वातंत्र्य। यही लोकतंत्र की बुनियाद है। सत्य की खोज एवं आचरण को जब तक अहिंसा के साथ नहीं जोड़ दिया जाता, तब तक विचार-स्वातंत्र्य अमल में आना संभव नहीं। अहिंसा के आग्रह का अर्थ ही है- साधन शुद्धि का आग्रह। वही बापूजी का विशेष संदेश है। उससे भिन्न गांधी-विचार की अन्य कोई विशेषता नहीं है।

(‘गांधी की दृष्टि’ से)

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