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गांधीवादी अर्थनीति की बुनियाद

आदमखोर अर्थनीति से सेवा अर्थनीति की ओर

आर्थिक सरगर्मियों के विचार को हम इन पांच तरह की सूरतों से जाहिर कर सकते हैं – आदमखोर, लुटेरा, कारोबारी, गिरोहबंद और सेवा। इन सबके उसूल अलग-अलग हैं। आदमखोरों में खुदखोरी और हक का बोलबाला है और बिना पैदा किये खर्च किया जाता है। दूसरी सूरत में भी यही बात है, पर हिंसा कम है। तीसरी सूरत में पैदावार और खर्च दोनों हैं। चौथी सूरत गिरोहबंदी में खर्च कम, पैदावार ज्यादा है और पांचवीं में सेवा ही सेवा, जिसमें इनाम का कोई खयाल ही नहीं है।

अगर कोई पूछे कि गांधीवादी अर्थशास्त्र के क्या उसूल हैं, तो हम कहेंगे कि गांधी जी के लिए अर्थशास्त्र जीवन के एक तौर-तरीके का हिस्सा है। अर्थशास्त्र पर लिखी जाने वाली किताबों में जो आम कायदे-कानून बताये जाते हैं, वे किन्हीं उसूलों के मातहत होते हैं, लेकिन गांधी अर्थ-विचार में ऐसा नहीं होता। बस जीवन के दो उसूल हैं, जिनके मातहत गांधी जी के आर्थिक, सामाजिक, राजकीय और दूसरे सभी खयालात होते हैं। वे हैं सत्य और अहिंसा। इन दो कसौटियों पर जो चीज खरी नहीं उतरी, उसे गांधीवादी नहीं कहा जा सकता। अगर कोई सूरत ऐसी बन जाती है कि उससे हिंसा पैदा हो या उसमें झूठ की जरूरत पड़ जाय, तो बिना किसी लाग लपेट के हम उसे गैर-गांधीवादी कह सकते हैं। सबसे पहले हम यह विचार करेंगे कि गरज या मंशा कितनी तरह की होती हैं। इसके बाद इंसानी खानदान के मेम्बरों की आपस की नातेदारी पर विचार करेंगे और आखिर में तरह-तरह के कुदरती साधनों पर। फिर इसके बाद यह देखेंगे कि अपने रोजाना के जीवन में इन चीजों का मेल कैसे बैठाया जा सकता है।
गरज
अगर इन इंसानी खानदान को लें, तो अपने नजरिये के मुताबिक हम इसे पांच अलग जातों में बांट सकते हैं। यह चीज हमें जानवरों की मामूली जिन्दगी में भी मिलती है। मिसाल के तौर पर चीते को लीजिये, जो सबमें ज्यादा हिंसक और बेरहम है। यह अपनी माली जिन्दगी के लिए क्या करता है? अपना खाना कैसे पाता है? जानवरों को मार-मारकर खाता है। चीता कुछ पैदा नहीं करता, पैदावार के काम में रत्ती भर मदद नहीं पहुंचाता, बगैर पैदा किये सिर्फ लूटता है और खाता है। और चीता रहता कहां है? पहाड़ियों में, गुफाओं में, खंदकों में। इसलिए जहां तक चीते के रोजगार का सवाल है, वह आदमखोर है और इसके रहने-सहने का ढंग हिंसक है।

जेसी कुमारप्पा


बंदर को लीजिये। यह अपनी खुराक कैसे पाता है। इधर-उधर यह फल तोड़ा, वह पत्ती ली, यह नोचा, वह खाया, यानी लूट मचाता है। लेकिन बंदर अपनी खुराक देने वाले साधन को खत्म नहीं कर डालता, बस जो मयस्सर होता है, उसे ले लेता है। चीते और बंदर की मिसालों से दो रास्ते साफ समझ में आ जाते हैं। दोनों ही बिना कुछ पैदा किये खर्च करते हैं और जो सामने पड़ गया, उस पर गुजारा करते हैं। जरा दूर तक देखें, तो पता चलेगा कि दोनों की एक-सी हालत है, लेकिन जब यह सवाल आता है कि हिंसा कितनी हो रही है, तो दोनों में फर्क मालूम पड़ता है। चीता बंदर के मुकाबले कहीं ज्यादा हिंसक है। बंदर अपनी खुराक के साधन को तबाह नहीं करता। एक आदमखोर है, दूसरा लुटेरा। अपना फर्ज निभाने का उसमें कोई माद्दा नहीं है। वे खाना अपना हक समझते हैं, जिसके केन्द्र में है उनकी भूख और लालच।


अब हम तीसरी हालत पर आते हैं, जिसमें फर्ज और हक का समतोल है। इसको हम ‘कारोबारी सूरत’ कह सकते हैं। इसमें आप पैदा करते हैं और फिर खर्च करते हैं। घरों के अंदर छोटी-छोटी चिड़ियों के घोसलों को देखिये। अपनी चोंच से वह तिनके, फूस, रूई वगैरह जमा करके घोसले बनाती हैं। चीता गुफा में रहता है, लेकिन चिड़िया अपना घोसला बनाकर रहती है। वह घोसला ऐसी जगह बनाती है, जहां बिल्ली न पहुंच सके। मेहनत और दूरंदेशी से तैयार की हुई अपनी पनाहगाह में उसे मजा आता है। यह हुआ पैदा करके खर्च करना। चिड़िया निजी माल का हक बरतती है, क्योंकि अगर दूसरी चिड़िया आये, तो वह चोंच मारकर उसे भगा देगी। इसमें हक और फर्ज मिले हुए हैं।


चौथी सूरत गिरोहबंदी की है, जिसमें शहद की मक्खी आती है। वह शहद किस तरह जमा करती है? वह यह नहीं कहती कि छत्ते में कोई खास छेद मेरा है। सारे गिरोह के फायदे के लिए वह जमा करती है। जब एक मक्खी शहद लाती है, तो छत्ते में लाकर रख देती है और सब मक्खियों के इस्तेमाल के लिए छोड़ देती है। वह अपने निजी खर्च के लिए नहीं, बल्कि सबके खर्च के लिए पैदा करती है। सारी मक्खियां एक खानदान की तरह रहती हैं। इसमें हक के जज्बे के बजाय, फर्ज का जज्बा तगड़ा है। पैदावार खर्च से ज्यादा है और बचत सबके काम आती है।


इसके बाद पांचवीं सूरत। हमने ऊपर घोसले बनाने वाली चिड़िया की चर्चा की है। मान लीजिए, उसको एक बच्चा हुआ। सुबह को वह निकल पड़ी, अनाज के दाने वगैरह जो मिले, सो जमा कर लाती है और लाकर अपने बच्चे को खिलाती है। वह यह नहीं कहती कि चीज मेरी लायी हुई है, इसलिए उसे निगल जाने का मुझ ही हक है। वह उस बच्चे के पास ले जाकर उसे खुद खिलाती है। क्या वह यह सोचती है कि बड़ी होने पर यह मुनिया मुझे बूढ़ी मां को खिलायेगी? नहीं, ऐसी कोई चीज नहीं है। वह जो देती है, उसे वापस पाने का कोई खयाल उसे नहीं होता। वह यह सब अपने फर्ज की बिना पर करती है। इसको हम मां-अर्थनीति या सेवा-अर्थनीति कह सकते हैं।


आर्थिक सरगर्मियों के विचार को हम इन पांच तरह की सूरतों से जाहिर कर सकते हैं – आदमखोर, लुटेरा, कारोबारी, गिरोहबंद और सेवा। इन सबके उसूल अलग-अलग हैं। आदमखोरों में खुदखोरी और हक का बोलबाला है और बिना पैदा किये खर्च किया जाता है। दूसरी सूरत में भी यही बात है, पर हिंसा कम है। तीसरी सूरत में पैदावार और खर्च दोनों हैं। चौथी सूरत गिरोहबंदी में खर्च कम, पैदावार ज्यादा है और पांचवीं में सेवा ही सेवा, जिसमें इनाम का कोई खयाल ही नहीं है।
इंसानी समाज में भी पैदावार और खर्च के यही तरीके हमें मिलते हैं। चोर और डाकू समाज के आदमखोर हैं, क्योंकि वे आदमियों को मार डालते हैं और दौलत पैदा करने के लिए कुछ काम किये बिना जो चाहते हैं, पा जाते हैं। सड़क पर कोई बच्चा जा रहा है, एक आदमी उधर से गुजरा, उसका सिर काटा और बदन से जेवर उतार कर चम्पत। यह समाज के आदमखोर हैं।
फर्ज कीजिये, आप रेल का टिकट खरीदने गये। आप कतार लगाकर खड़े हैं। पीछे से कोई आया, चुपके से आपकी जेब में से बटुआ निकाला और नौ दो ग्यारह। यह लुटेरों का काम है। लुटेरा इसी फिराक में रहता है कि उसकी हवा भी किसी को न लगे।
कारोबारी सूरत वालों में अच्छी मिसाल किसानों की है। वे जमीन जोतते हैं, बीज बोते हैं, सख्त मेहनत करते और अपनी मेहनत का खाते हैं। इंसान जब हैवानियत के दायरे से निकला, तो उसने पहले खेती ही पकड़ी। इस हालत में वह अपने हक और फर्ज दोनों समझता है और दोनों के बीच तालमेल रहता है। इसको हम सभ्यता का सबेरा कह सकते हैं। पहले वाली दोनों जंगली सूरतें हैं, सभ्यता की शुरुआत कारोबारी सूरत कायम होने पर ही होती है।


गिरोहबंद अर्थनीति की मिसाल है – मिला-जुला हिन्दू परिवार। एक भाई केवल अपने लिए ही नहीं, सारे खानदान के लिए काम करता है। एक व्यक्ति काम तो करता है, लेकिन वह यह नहीं सोचता कि चूंकि मैंने खुद काम किया है, इसलिए कमायी हुई दौलत सिर्फ मेरी है। इसमें एकता का भाव रहता है और एक गिरोह के लिए काम करने का जज्बा रहता है।


सेवा-अर्थनीति – इसकी सबसे अच्छी मिसाल मां है। मां बच्चे के लिए काम करती है, लेकिन वह किसी ईनाम की तमन्ना नहीं करती – सेवा ही उसका इनाम है। इसी तरह से यह भेद हमें अपने जीवन में, सरकारों में, राष्ट्रों में मिलते हैं।


जीवन के आधार तरह-तरह के होते हैं। वह जीवन, जिसका आधार दूसरे लोगों की जान ले लेना या उनके हकों को मारना हो – जैसा साम्राज्यशाही में होता है – जंगली अर्थनीति का जीवन है। इस नीति से दूसरे मुल्क दबा लिये जाते हैं और ताकतवर मुल्क या दल कमजोरों के ऊपर बैठकर उन्हें चूसा करते हैं। यह आदमखोर अर्थनीति है। राजकाजी तौर पर हिन्दुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था। यह आदमखोर अर्थनीति की मिसाल है। दूसरों पर आर्थिक दबाव डालना, अमेरिका का जगह-जगह दखल देना, लुटेरी अर्थनीति की मिसाल है। पुराने जमाने में हमारे देश में जो खेती-अर्थनीति पर अमल किया गया है, वह कारोबारी अर्थनीति की मिसाल है। यह स्वावलंबी अर्थनीति है। गिरोहबंद अर्थनीति में बहुत हद तक सोवियत रूस और नाजी जर्मनी आ जाते हैं। इतिहास में हमको सेवा-अर्थनीति की मिसाल नहीं मिलती। मगर गांधी जी की कोशिश उसी लक्ष्य की ओर बढ़ने की थी।
ये पांचों सूरतें हमारे निज के रोजाना के काम में भी मिलती हैं। दूसरों पर हंसना आसान होता है, लेकिन जब हम अपने गरेबान में झांककर देखें, तो पता चलेगा कि हम खुद कभी तो चीते की तरह व्यवहार करते हैं, कभी बंदर की तरह, कभी कैसे, कभी कैसे। हम फूहड़पन से खाते हैं और तरह-तरह की चीजें फेंकते जाते हैं, तब हम चीते की जात में आते हैं। हर रोज रात को हमें चाहिए कि अपने से पूछें कि दिन में कतनी बार हमने चीते की तरह बर्ताव किया, कितनी बार कैसा। और अगर जवाब में यह मालूम हो कि हमारा झुकाव लगातार मां वाली सेवा-अर्थनीति की तरफ बढ़ रहा है, तो यह समझना चाहिए कि हम सभ्यता की तरफ जा रहे हैं, वरना यह समझना चाहिए कि हम जंगलीपन की तरफ बढ़ रहे हैं।


हमने जो यह खुलासा दिया है, कोई नयी चीज नहीं है, क्योंकि समाज के हिन्दू ढांचे में यह चीज मिलती ही है। इसमें म्लेच्छ, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण हुआ करते हैं। अगर आपकी तबीयत अपने भाई-बंदों की मदद करने की होती है, फिर चाहे आप जन्म से म्लेच्छ ही क्यों न हों, आप ब्राह्मण गिरोह के ठहराये जायेंगे। अगर आप जन्म के ब्राह्मण हैं और सरकारी नौकरी कर रहे हैं, तो जो मोटी तलब आपको मिल रही है, उसकी वजह से आप असल में म्लेच्छ बन जाते हैं। म्लेच्छ चीते वाली हालत पर हैं, शूद्र लुटेरे वाली पर, जो वैश्य ईमान से काम करते हैं, कोराबारी वाली पर। लेकिन जो वैश्य गलत नाप-तोल करते हैं, वे चीते वाली हालत के हैं। मिल वाले भी चीते जैसे हैं। अगर हम अपने समाज को इन पांच मोटे-मोटे भेदों में बांट लें, जिनका आधार काम से है, न कि जन्म से, तो यह बहुत मुमकिन है कि एक म्लेच्छ समाज की सेवा करते-करते ब्राह्मण बन जाये। गांधी जी की योजना यही थी कि इंसान को कदम-कदम पर म्लेच्छ वाली हालत से हटाकर ब्राह्मण वाली हालत पर ले जायें। एक आदमी की नैतिक और जिस्मानी तरक्की जितनी ज्यादा होगी, उसी लिहाज से वह इस तरफ बढ़ेगा। यही तालीम का मकसद है। जब हम ऐसी हालत पर पहुंच जायें कि हक रह ही न जाये और उसकी जगह फर्ज भर हो, तब हम ब्राह्मणपन या सेवा-अर्थनीति पर पहुंच जाते हैं।


कुदरती साधन
अब हम कुदरती साधनों के इस्तेमाल के सवाल पर आते हैं। इन साधनों के बारे में भी यह बात सही है कि जैसे-जैसे हम चीता-अर्थनीति से सेवा अर्थनीति की तरफ बढते जाते हैं, हिंसा की मात्रा कम होती जाती है। यही वह तरीका है, जिससे अहिंसा को बढाया जा सकता है। कुदरती साधनों को हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं – एक तो वह, जो कभी खत्म ही नहीं होते, जैसे दरिया में पानी का बहाव। नदी में से बाल्टी भर पानी निकाल लेने पर नदी की सतह वैसी की वैसी ही रहती है। हिसाब की नजर से और बहुत बारीकी से देखें, तो सतह जरूर कुछ कम होती है, लेकिन अमली तौर पर कम नहीं होती। वह जो गढ़ा बनता है, उसकी जगह भरने के लिए फौरन ही कुछ पानी आ जाता है। लेकिन जब एक गिलास में से थोड़ा सा पानी पीते हैं, तो सतह गिर जाती है। ऐसा क्यों? पहली सूरत में पूर्ति की कोई हद नहीं है और दूसरी सूरत में पूर्ति की हद बनी हुई है। इनको हम दरियाई अर्थनीति और तालाबी अर्थनीति के नाम से पुकार सकते हैं। इस तरह से हम सारी गांधी-अर्थनीति का अंदाज इस चीज से लगा सकते हैं कि अपने कामों में हम तालाबी अर्थनीति बरतते हैं या दरियाई। और फिर यह देखें कि इसमें हिंसा या अहिंसा कितनी पैदा हो रही है या पैदा हो सकती है।


जब चीजों की पूर्ति कम है, तो उसको लेने की होड़ में हिंसा पैदा होगी। इसलिए अगर हमारा आर्थिक संगठन ऐसा है कि तालाबी अर्थनीति वाले साधनों का ज्यादा सहारा लेना पड़ता है, तो हिंसा ही बढ़ेगी। लोहा ज्यादा तादाद में नहीं मिलता है। यह तालाबी अर्थनीति में आता है। अगर हम समाज में अहिंसा फैलाना चाहते हैं, तो लोहे का इस्तेमाल कम होना चाहिए और लकड़ी का ज्यादा, जो दरियाई अर्थनीति में आती है। पेट्रोल तालाबी अर्थनीति में है। जैसे-जैसे यह कम होता जाता है, इसके इस्तेमाल से झगड़े पैदा होते जाते हैं। आज हमारे समाज में जो हिंसा बढ़ रही है, उसकी वजह यही है, कि देश के देश दरियाई अर्थनीति को छोड़कर तालाबी अर्थनीति की तरफ जा रहे हैं। पेट्रोल की तरह कोयला भी तालाबी अर्थनीति में है। घोड़ा, बैल और गाय दरियाई अर्थनीति में आते हैं। जब इंग्लैंड घोड़ा अर्थनीति पर चलता था, तो वहां के लोग घोड़े से हल चलाते थे, घोड़े से ढुलाई का काम करते थे। उस वक्त वहां पर हिंसा आज के मुकाबले बहुत कम थी। औद्योगिक क्रांति के पहले अंग्रेज सिर्फ रसोई बनाने के लिए कोयला इस्तेमाल करते थे। भाप की ताकत पता चलने के बाद कोयला इंग्लैंड की अर्थनीति का सहारा बन गया और इस तरह इंग्लैंड ने दरियाई अर्थनीति की जगह तालाबी अर्थनीति अपनानी शुरू कर दी। इसी का नतीजा है कि डेढ़ सौ बरसों से इंग्लैंड में हिंसा बढ़ रही है।


हिन्दुस्तान में गाय को एक पवित्र जानवर समझा गया है, क्योंकि वह हमारी अर्थनीति का केन्द्र है। इसी वजह से उसे बढ़ा-चढ़ाकर इतनी ऊंची पदवी दी गयी है। ट्रैक्टर की खेती तालाबी अर्थनीति की श्रेणी में आती है। यह लोहे और इस्पात से बनता है और इसे चलाने के लिए पेट्रोल या तेल की जरूरत पड़ती है। चीजों को पैदा करने के लिए जो भी हथियार या औजार हम इस्तेमाल करेंगे, उनसे आखिर में हिंसा या अहिंसा उसी मात्रा में पैदा होगी, जिस मात्रा में हम तालाबी या दरियाई अर्थनीति को अपनायेंगे। चरखा दरियाई अर्थनीति में आता है, लेकिन कपड़े की मिल तालाबी अर्थनीति में।


गरमी वाली बिजली का इस्तेमाल तो सोलह आने तालाबी अर्थनीति है। पानी वाली बिजली भी ज्यादातर तालाबी अर्थनीति है, उसमें केवल पहिया भर पानी की ताकत से चलता है। पानी वाली बिजली की योजना में ज्यादातर खर्च सरंजाम व मशीनरी में बैठता है और इसलिए वह बहुत हद तक तालाबी अर्थनीति में है। इस तरह कुल मिलाकर देखें, तो यही कहना पड़ेगा कि बिजली के इस्तेमाल को तालाबी अर्थनीति में शामिल करना चाहिए। छप्पर या फूस की छत वाली मिट्टी की झोपड़ी दरियाई अर्थनीति में है। सीमेंट और पक्के माल से बनी इमारतें तालाबी अर्थनीति में आती हैं। दरियाई अर्थनीति स्थाई चीज है, क्योंकि इसमें कोई होड़ नहीं मचती, जिससे हिंसा या मारकाट पैदा हो, लेकिन तालाबी अर्थनीति स्थाई नहीं है।


खेती में काम आने वाला हमारा मामूली हल दरियाई अर्थनीति में है। माना कि इसमें थोड़ा सा लोहा लगता है, लेकिन लोहे का इस्तेमाल हम उसी मिकदार में कर सकते हैं, जिसमें वह कुदरत से मिलता है। मिट्टी के झोपड़ों में लोहे की कीलें लगा सकते हैं। हमारी मंशा सिर्फ यह है कि तालाबी अर्थनीति का इस्तेमाल जिस तादाद में इंतहाई दरजे को बढ़ जाता है, उसी हिसाब से समाज में हिंसा भी बढ़ जाती है। अपने समाज का ढांचा खड़ा करने में हम दरियाई अर्थनीति की जितनी ज्यादा मदद लेंगे, हिंसा उतनी ही कम होगी। लेकिन तालाबी अर्थनीति का जितना ज्यादा सहारा लेंगे, हिंसा उतनी ही बढ़ेगी।


पैदावार
जरूरत दो तरह की होती है – बुनियादी (असली) और ऊपरी (मसनूई)। बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जितनी ज्यादा चीजें पैदा की जायेंगी, हिंसा उतनी ही कम होगी। ऐश-आराम की यानी ऊपरी जरूरत की जितनी ज्यादा चीजें पैदा की जायेंगी, हिंसा उतनी ही बढ़ेगी। अगर एक तरफ लोगों को भूखों मारें और दूसरी तरफ ऐश-आराम का सामान तैयार करते रहें, तो हिंसा पैदा होगी। अनाज जैसी बुनियादी जरूरत की चीज की जगह तम्बाकू जैसी ऊपरी जरूरत की चीज पैदा करने का यह लाजिमी नतीजा होगा कि हिंसा का पलड़ा भारी पड़े। आर्थिक संगठन के रूप को देखकर यह आम तौर से बताया जा सकता है कि उस संगठन से हिंसा पैदा होगी या उससे लोगों को अमन-शांति और खुशहाली मिलेगी। हम तो यह चाहते हैं कि सत्य और अहिंसा की तरफ ले जाने वाले उसूलों पर (गांधी अर्थनीति में नैतिक बातों का लिहाज करना पड़ेगा, यह हम मानकर चल रहे हैं) तेजी के साथ अमल किया जाये। बुनियादी जरूरत की चीजें ज्यादा और ऐश-आराम की कम पैदा करने से अहिंसा के फैलने की संभावना ज्यादा है। अगर हमें अपने समाज के अंदर सत्य और अहिंसा फैलाना है, तो इन उसूलों का हमें खयाल रखना होगा और इन्हीं की बिना पर काम करना होगा।


पैदावार के तरीके
चीजें पैदा करने के दो जुदा-जुदा तरीके होते हैं। हम इन दो तरीकों में से किसी एक से उन्हें पैदा कर सकते हैं। जैसा तरीका अपनायेंगे, उसी लिहाज से उसूल भी जुदा-जुदा होंगे। हम पहले पैदावार पर विचार करेंगे और खर्च पर बाद में करेंगे। मान लीजिये, मां अपने बच्चों के लिए कुछ बना रही है, तो वह कैसे क्या करती है? उसका मकसद क्या है और उस चीज के तैयार करने का उसका तरीका किसी दूसरे तरीके से कितना जुदा है? फर्ज कीजिये, उसे हलुवा बनाना है, तो समझदार मां यह करेगी कि अच्छा गेहूं लेकर उसे खुद चक्की पर बारीक पीस लेगी, ताकि आटा समूचा बना रहे, वह न उस पर पॉलिश करेगी और न कोई दूसरा पोषण तत्त्व इसमें से निकालेगी। दूसरे मानों में, जो कुछ भी गेहूं में है, उसे वह सुरक्षित रखेगी। फिर अगर उसके पास अपनी गाय है, तो उसके दूध से बनाये दही को खुद मथकर मक्खन या घी बनायेगी। चक्की चलाना मुश्किल काम है और घी बनाना एक मुसीबत। वह बाजार से वनस्पति या सस्ता घी क्यों नहीं खरीद लेती? वह यह सब तकलीफ इस वजह से बर्दाश्त करती है कि उसका मकसद है अपने बच्चों की परवरिश करना। उसे अपने बच्चों की भलाई में बहुत जबरदस्त दिलचस्पी है। जब वह यह देखती है कि मेरे बच्चों को इससे फायदा पहुंचता है, तो वह सारी मेहनत पूरी तरह वसूल समझती है। वह यह सब फर्ज और प्रेम के भाव से करती है। अगर वह होशियार मां है, तो खुराक के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेगी और यह समझ लेगी कि इन चीजों को कैसे तैयार किया जाये, जिससे उनकी खुराक-मान बरबाद न हो। उसे यह संतोष रहता है कि बच्चों के लिए जो कुछ ज्यादा से ज्यादा मैं कर सकती थी, मैंने किया। इसका नाम है खुद के इस्तेमाल की खातिर पैदावार।
हलुवा दूसरे लोग भी पकाते हैं, सिर्फ मां ने इस काम को करने का एकाधिकार थोड़े ही लिया है। हलवाई भी यह काम करता है। उसका मकसद क्या होता है? यह जरूर है कि उसका मकसद यह है कि कुछ चीज वह पैदा करे; लेकिन उसका असली मकसद उन चीजों का पैदा करना नहीं होता, बल्कि यह होता है कि ग्राहक की जेब में जो पैसा है, वह मेरी जेब में आ जाय और इसकी कामयाबी के लिए वह आसान से आसान रास्ता ढूंढता है। इसलिए वह सब तरह की हरकतें करेगा। जितना कम खर्च हो, उतना ही उसका फायदा। वह इस बात का पता लगायेगा कि सस्ता आटा कहां मिलेगा, चाहे वह घुनों के खाये गेहूं का ही क्यों न हो और जो कम से कम दाम पर मशीन पर पीसा गया हो। वह पता लगायेगा कि सस्ते से सस्ते किस्म का तेल या घी या कुछ दूसरी मिलावट की चीजें कहां मिलेंगी। अगर हलुवे की सुगंध ठीक नहीं है, तो कुछ गुलाबजल छिड़क लेता है या कोई रंग मिला देता है, ताकि वह देखने में खुशनुमा मालूम हो। उसके गंध और रंग मिला देने से ऐसी खुशबू आने लगती है कि दूसरी गंधें उड़ जाती हैं। इस हलुवे को जो खायेगा, उसे दस्त आये बिना नहीं रहेंगे। लेकिन हलवाई को इससे क्या मतलब। शायद इस तरह कुछ पैसा ग्राहक की गांठ से डॉक्टर के पास भी पहुंच जाये। इसका नाम है व्यापार के लिए पैदावार।


यह कुदरती बात है कि हर काम की छाप उसके करने वाले और उसकी शख्सियत पर पड़ती है। जो आदमी जहां तक तरक्की करता है, वह अपने काम से ही करता है। महज रेडियो का बटन घुमा देने से कोई संगीत नहीं सीख सकता। इसके लिए तो उसे बैठकर किसी बाजे पर अभ्यास करना पड़ेगा, इतना अभ्यास करना पड़ेगा कि उसके पड़ोसी भी ऊब जायें। उंगलियों के पुट्ठे और आंख व कान की नसों को, सबको एक तार में काम करना पड़ेगा। इसी अभ्यास से कोई संगीतज्ञ बनता है, केवल रेडियो सुनने से नहीं।


हर काम का अपना जवाबी असर या अमल होता है। इस तरह हलुवा पकाने के इन दो तरीकों का भी जवाबी असर होता है। इसका असर मां पर क्या पड़ता है? खुराक के बारे में उसकी जबरदस्त जानकारी का नतीजा यह होगा कि वह जिस्म और उसकी जरूरतों के बारे में खूब अच्छी तरह समझती-बूझती है और वह जो यह करती है, वह अपने बच्चों के प्यार की खातिर करती है। इसी वजह से वह एक अच्छी मां या औरत बनती है।


जहां तक हलवाई की बात है, वह कम से कम देना और ज्यादा से ज्यादा लेना चाहता है। दूसरे लफ्जों में इसे डकैती कहते हैं। जो आदमी जितना ज्यादा मुनाफा कमा ले, उतना ही ज्यादा कामयाब व्यापारी या पूंजीपति समझा जाता है। बढ़ते-बढ़ते यह चीज इस हद तक पहुंचती है कि आदमी को खसोटकर सोलह में सोलह आने बचा लिये। पेशे के तौर पर करने से यह डकैती की शक्ल बन जाती है। यह वही जहनियत है, जो हलुवा बनाने वाले हलवाई में होती है, जिससे लालच और गैर जिम्मेदारी बढ़ती है। नतीजा यह होता है कि समाज में आदमखोर लोग पैदा होते हैं, जो एक दूसरे को लूटा करते हैं। बड़े या कौमी पैमाने पर जब यह चीज की जाती है, तो विश्वव्यापी लड़ाई खड़ी हो जाती है। मिठाई वाले अर्थशास्त्र से झूठी शान व नाम और हिंसा पैदा होती है, लेकिन पैदावार के मां वाले तरीके उसके अंदर प्रेम व सच्चाई बढ़ाते हैं, हालांकि मेहनत ज्यादा पड़ती है। एक कारखाने वाला जहां व्यापार के लिए पैदा करता है, वहां मां घर के खर्च के लिए पैदा करती है। मां के काम का आधार स्वावलंबी अर्थनीति है, लेकिन जब हम महाजनी अर्थनीति पर चलते हैं, तो हम हलवाई की तरह व्यवहार करने लग जाते हैं और आखिर में डकैत बन जाते है। (‘गांधी अर्थ-विचार’ से)

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