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गांधीवादी या मार्क्सवादी होना नादानी है – अफलातून

मैं यह मानता हूं कि गांधीवादी या मार्क्सवादी होना नादानी है और गांधीवाद विरोधी या मार्क्सवाद विरोधी होना भी नादानी है। गांधी और मार्क्स के अनमोल खजानों से सीखने लायक बहुत कुछ है, बशर्ते व्यक्ति और काल विशेष मात्र से संदर्भ और निष्कर्ष न निकाले जाएं।’

डॉ राममनोहर लोहिया को गुजरे हुए 54 साल पूरे हो गए हैं। जिस वर्ष वे गुजरे, आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई। भाषा, समानता, सादगी, बड़े लोगों की आय और खर्च पर पाबंदी जैसी सोशलिस्ट पार्टी की नीतियों को जनता से प्रबल समर्थन मिला था। संविद सरकारों ने घाटे का धंधा होने के कारण खेती में लगान माफी लागू की, भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोग गठित किए तथा ओडिसा जैसे राज्य में लोकपाल की नियुक्ति भी हुई। संयुक्त विधायक दलों में स्वतंत्र,जनसंघ और जन कांग्रेस के अलावा प्रसोपा, संसोपा और कम्युनिस्ट पार्टियां भी थीं। कांग्रेस को सत्ता से हटाने की जरूरत पर जोर देते हुए लोहिया ने कहा था, ‘जनसंघ की पहाड़ भर सांप्रदायिकता से कांग्रेस की एक बूंद सांप्रदायिकता अधिक खतरनाक है, क्योंकि वह सत्ता में है। उसी प्रकार कम्युनिस्टों की एक पहाड़ भर गद्दारी कांग्रेस की एक बूंद गद्दारी से कम खतरनाक है, क्योंकि कम्युनिस्ट सत्ता में नहीं हैं। लोहिया के इसी समीकरण के अनुसार देखें तो फिलहाल एक पहाड़ सांप्रदायिकता वाले दल के सत्ता में आने के बाद देश और समाज के लिए खतरा पहले से अधिक बढ़ गया है।

लोहिया के अपने शब्दों में , ‘1942 -43 की अंग्रेजों के खिलाफ खुली बगावत के दौरान समाजवादी या तो जेलों में बंद थे अथवा पुलिस द्वारा सतत तलाशे जा रहे थे। कम्युनिस्ट विदेशी आकाओं की संगत में लोक-युद्ध छेड़े हुए थे। उसी दौर में मैं मार्क्स के सिद्धांतों को लागू किए जाने के प्रसंगों में व्यापक अंतर्विरोधों को देख कर विस्मित था। मेरे मन में मार्क्स के सिद्धांतों में सच को खोज निकालने तथा झूठ को ध्वस्त करने की एक उत्कट इच्छा पैदा हो गई। अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास और दर्शन इन चार आयामों पर विचार करना था। अभी आर्थिक पक्ष आधा ही पूरा किया था कि पुलिस के हत्थे चढ़ गया।

तब से अध्ययन और अभिव्यक्ति की इस शैली  में मेरी रुचि नहीं बची है। किसी व्यक्ति-विशेष को केंद्र में रख कर कोई राजनैतिक क्रिया – कलाप तय नहीं किया जा सकता। स्वीकृति तथा अस्वीकृति अंधविश्वास के कम-बेसी दरजे मात्र हैं। मैं यह मानता हूं कि गांधीवादी या मार्क्सवादी होना नादानी है और गांधीवाद विरोधी या मार्क्सवाद विरोधी होना भी नादानी है। गांधी और मार्क्स के अनमोल खजानों से सीखने लायक बहुत कुछ है, बशर्ते व्यक्ति और काल विशेष मात्र से संदर्भ और निष्कर्ष न निकाले जाएं।’

लोहिया ने इस नजरिए से मार्क्स की सीमा को रेखांकित किया। समतावादी अर्थशास्त्री और सामयिक वार्ता के पूर्व संपादक सुनील ने लोहिया के इस अवदान का निचोड़ इन शब्दों में रखा है, ‘कार्ल मार्क्स ने हमें बताया कि किस प्रकार पूंजीवाद का पूरा ढाँचा मजदूरों के शोषण पर टिका है। मजदूर की मेहनत से जो पैदा होता है, उसका एक हिस्सा ही उसको मजदूरी के रूप में दिया जाता है, शेष हिस्सा ‘अतिरिक्त मूल्य’ होता है , जो पूँजीपति के मुनाफे का आधार होता है। यही मुनाफा पूँजीवादी विकास का आधार होता है। मार्क्स ने कल्पना की थी कि औद्योगीकरण के साथ बड़े बड़े कारखानों में बहुत सारे मजदूर एक साथ काम करेंगे। वर्ग चेतना के विकास के साथ वे संगठित होंगे, ज्यादा मजदूरी पाने के लिए आन्दोलन करेंगे। लेकिन मुनाफा और मजदूरी एक साथ नहीं बढ़ सकते। यही वर्ग संघर्ष बढ़ते बढ़ते क्रांति का रूप ले लेगा और तब समाजवाद आएगा। मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पश्चिम यूरोप, जहाँ पूँजीवादी औद्योगीकरण सबसे पहले व ज्यादा हुआ है, वहीं क्रांति सबसे पहले होगी।’

किन्तु मार्क्स की भविष्यवाणी सही साबित नहीं हुई। क्रांति हुई भी तो रूस में, जो अपेक्षाकृत पिछड़ा, सामंती और कम औद्योगीकृत देश था। इसके बाद चीन में क्रांति हुई, वहाँ तो औद्योगीकरण नहीं के बराबर हुआ था। चीन की क्रांति तो पूरी की पूरी किसानों की क्रांति थी, जबकि मार्क्स की कल्पना थी कि सर्वहारा मजदूर वर्ग क्रांति का अगुआ होगा। पश्चिमी यूरोप में पूँजीवादी औद्योगीकरण के दो सौ वर्ष बाद भी क्रांति नहीं हुई। पूँजीवाद भी इस दौर में नष्ट होने के बजाय, संकटों को पार करते हुए, फलता फूलता गया।

मार्क्सवाद की इस उलझन को सुलझाने का एक सूत्र तब मिला, जब 1943 में डॉ. राममनोहर लोहिया का निबन्ध ‘अर्थशास्त्र : मार्क्स के आगे’ प्रकाशित हुआ । इसे दुनिया के गरीब व पिछड़े मुल्कों के नजरिए से मार्क्सवाद की मीमांसा भी कहा जा सकता है। लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद का मूल आधार पूंजीवादी देशों में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण नहीं, बल्कि उपनिवेशों के किसानों, कारीगरों और मजदूरों का शोषण है। यही ‘अतिरिक्त मूल्य’ का मुख्य स्रोत है। इसी के कारण पूंजीवादी देशों में मुनाफा मजदूरी का द्वन्द्व टलता गया, क्योंकि दुनिया के विशाल औपनिवेशिक देशों की लूट का एक हिस्सा पूंजीवादी देशों के मजदूरों को भी मिल गया। यह संभव हुआ कि मजदूरी और मुनाफा दोनों साथ साथ बढ़ें। इसीलिए पश्चिमी यूरोप में क्रांति नहीं हुई। इसी के साथ लोहिया ने लेनिन की इस बात को भी काटा कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अन्तिम अवस्था है। लोहिया ने कहा कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का प्रारंभ और विकास एक साथ हुआ। बिना साम्राज्यवाद के पूंजीवाद का विकास हो ही नहीं सकता। मार्क्स की ही एक शिष्या रोजा लक्समबर्ग की तरह लोहिया ने बताया कि पूंजीवाद के विकास के लिए एक बाहरी उपनिवेश जरूरी है, जहाँ के बाजारों में माल बेचा जा सके और जहाँ से सस्ता, कच्चा माल और सस्ता श्रम मिल सके। इसी विश्लेषण के आधार पर लोहिया ने कहा कि असली सर्वहारा तो तीसरी दुनिया के किसान मजदूर हैं। वे ही पूंजीवाद की कब्र खोदेंगे।’

समतावादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने लोहिया के इस सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए स्थापित किया कि देश के भीतर आंतरिक उपनिवेशों की लूट से भी यह आधुनिक, औद्योगिक सभ्यता टिकी हुई है। सुनील ने इसी क्रम में यह स्थापित किया कि आंतरिक उपनिवेश सिर्फ भौगोलिक इलाके ही नहीं हैं, अपितु खेती-किसानी जैसे अर्थव्यवस्था के क्षेत्र विशेष भी हैं।

संसदीय लोकतंत्र, रचनात्मक कार्यक्रम और अहिंसक संघर्ष को लोहिया ने ‘वोट, फावड़ा, जेल’ के लोकप्रिय प्रतीकों के माध्यम से पेश किया था। इन पचास सालों के समाजवादी राजनीति के तजुर्बे और कमजोरियों से उबरने के लिए सुनील ने लोहिया के नारे में दो और तत्व जोड़ने की बात कही- संगठन और सिद्धांत। यह मुट्ठी भर राजनैतिक कर्मी हैं, जिन्होंने लोहिया के राजनैतिक और आर्थिक विश्लेषण को आगे बढ़ाने का काम किया।

किशन पटनायक का मानना था, ‘लोहिया इस माने में दुर्भाग्यशाली थे कि राजनैतिक सत्ता हासिल करने वाले और राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने वाले उनके शिष्यों ने अवसरवाद की पूर्ति के लिए लिए ही लोहिया के नाम का उपयोग किया। बौद्धिक दिवालियापन तथा अभूतपूर्व अनुर्वरता इस अवसरवादिता  का लाजिमी परिणाम है। इसी वजह से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर किसी मूलगामी कार्रवाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।  राजनीति के मोर्चे पर जनशक्ति के निर्माण के लिए धीरज के साथ काम करने का स्थान गालीगलौज और नौटंकी ने ले लिया है। समाजवादी ,खास तौर पर लोहियावादी किस्म के, परले दरजे के दंभी, स्वार्थी, व्यक्तिवादी हो गये हैं तथा आत्मालोचना व परस्पर राय-मशविरे के लिए जन्मजात तौर पर अयोग्य हैं। साथ बैठ कर अपनी विफलताओं पर विचार विमर्श करने में भी वे असमर्थ हैं।’

उम्मीद नई पीढ़ी के लोहियावादियों से बचती है। इस नई पौध को ‘अर्थशास्त्र : मार्क्स से आगे’ तथा ‘इतिहास चक्र’ में व्यक्त लोहिया की विश्व दृष्टि से परिचित कराना होगा। इस नई पीढ़ी को यह ध्यान में रखना होगा कि उत्तराधिकारी प्रायः अनुयायी नहीं होता । चाहे वह अपने को विनीत भाव से शिष्य कहलाये । उत्तराधिकारी लकीर का फ़कीर नहीं होता। पूर्वानुवर्ती लोकनेताओं के द्वारा निर्दिष्ट दिशा में वह नए मार्ग प्रशस्त करता है और पगडंडियां खोजता है।  स्वामी विवेकानंद, लोहिया, किशन पटनायक और सुनील जैसे लोग उत्तराधिकारी होने के उपर्युक्त मानदण्ड पर खरे उतरते हैं और प्रेरणा देते हैं।

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