आज का भारतीय समाज कई प्रकार के परस्पर-विरोधी विचारों में घिर चुका है। राजनीति में तो ऐसा होता ही आया था, लेकिन पूरा समाज ही आपस में परस्पर-द्वेष की भावना से ग्रसित होता जाए, यह एक नई बात हो रही है। इसमें प्रायः जुबानी मल्लयुद्ध चलता है। अलग-अलग अतिरेकपूर्ण ध्रुव बन जाते हैं, फिर एक-दूसरे को चिढ़ाने का खेल चलता है। ‘गोसेवा’ और ‘गोरक्षा’ के नाम पर भी ज्यादातर ऐसा ही होता दिखता है।
कोई एक पक्ष खोखली रटन लगाता रहता है— ‘गाय हमारी माता है’, तो दूसरा पक्ष उसे चिढ़ाते हुए कहता है— ‘फिर क्या सांड़ तुम्हारा पिता है?’ फिर कोई तीसरा पक्ष प्रकट होता है, जो गोवा या उत्तर-पूर्व में गोमांस खाने का ‘आनंद’ लेते हुए सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीर साझा कर देता है। अब जैसे ही उसकी सार्वजनिक लानत-मलानत शुरू होती है, तो उसके बचाव में कोई चौथा पक्ष आ जाता है, जो कहता है कि विदेशी सैनिक और एथलीट इसलिए इतने ताकतवर होते हैं, क्योंकि वे गोमांस खाते हैं।
इधर कोई आपादमस्तक गोबर से स्नान करते हुए बावले की तरह नाच रहा होता है, तो उधर कोई कैमरे के सामने नारंगी गमछी लपेटे बोतल में गोमूत्र भरकर गटक रहा होता है और जोश-जोश में तब तक गटकता ही जाता है, जब तक कि उसे उल्टी न आ जाए और उसकी हालत न खराब हो जाए। एक तरफ कोई सरकारी प्रोफेसर अपने रजोगुणी ठाट-बाट में उपले बनाने का हास्यास्पद प्रशिक्षण दे रहा होता है, तो दूसरी तरफ गांव में अपनी धुन में अत्यंत कुशलता से कंडे और उपले थाप रही किसी ग्रामीण महिला की वीडियो को मीम्स के रूप में सोशल मीडिया पर‘वायरल’ कर दिया जाता है।
तभी कहीं से खबर आ जाती है कि किन्हीं स्वयंभू ‘गौरक्षकों’ ने किसी मज़लूम की पीट-पीटकर हत्या कर दी। बाद में उस हत्या के आरोप से जमानत पर छूटे आरोपियों का कोई केन्द्रीय स्तर का राजनेता माला पहनाकर सार्वजनिक अभिनंदन कर रहा होता है। लेकिन फिर ऐसे ही राजनेताओं के सिर पर वे अनाथ बैल भी आ पड़ते हैं, जिन्हें उनकी चुनावी सभाओं में हांककर इकट्ठा कर दिया जाता है।
हम भारतीय लोग सार्वजनिक समस्याओं पर सार्वजनिक संवाद के मामले में इतने अगंभीर और इतने उच्छृंखल कभी नहीं रहे, जितने आज हो गए लगते हैं। आज विचारों के आदान-प्रदान की जगह उसका हिंसक टकराव होता है और ऐसे टकरावों की परिणति समाज में प्रत्यक्ष हिंसा या संबंध पूरी तरह से टूटने के रूप में हो रही है। इसलिए गोसेवा के मामले में भी कोई दूरगामी सोच और ठोस पहल के स्थान पर विभाजनकारी राजनीति ही ज्यादा हो रही है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत की मजबूती गांव, कृषि और कुटीर उद्योगों को सुदृढ़ करने से ही हो सकती थी और आज भी हो सकती है। गाय और बैल इस सबके केन्द्र में थे। गाय के दूध, दही और घी से पोषण, बैलों से अत्याचार रहित जुताई और ढुलाई, उनके गोबर से गैस, उपले, कंडे जैसे जलावन, गोबर और मूत्र से सेंद्रिय खाद और आखिरकार उनकी स्वाभाविक मृत्यु होने पर उनके चर्म और हड्डी का उपयोग— यह एक पूरा चक्र था, जिस पर किसानों का जीवन आधारित था और बहुत हद तक आज भी है, लेकिन ज़मीनी वास्तविकताओं और अनुभवों से कटे हुए मनुष्यों द्वारा दिशाहीन और केंद्रीकृत आर्थिक नियोजन की वजह से आज भारत एक विचित्र स्थिति में पहुंच चुका है, जहां पैदावार बढ़ाने के नाम पर एक तरफ खेती का जहरीला उर्वरकीकरण हुआ, वहीं दूसरी तरफ ट्रैक्टर, हार्वेस्टर और थ्रेशर आदि के जरिए जुताई, कटाई, ओसाई आदि का मशीनीकरण हुआ। इस पूरी योजना में क्या हुआ कि गाय और गोवंश को लेकर भी हमारी सोच एकदम मशीनी हो गई। गाय को केवल दूध देने की मशीन और बैल को फालतू मानने की स्थिति पैदा हुई। यह स्थिति स्वाभाविक रूप से पैदा होनी ही थी। जिन स्थानों पर बूढ़ी गायें और बैल मांस खाने के लिए इस्तेमाल हो सकते थे, वहां वे उस रूप में फालतू और आवारा होने से तो बच गए, लेकिन भावनात्मक स्तर पर देश के बाकी हिस्सों में गोवंश का राजनीतिक दोहन भी शुरू हो गया।
इस राजनीतिक दोहन के केंद्र में था शहरी और कस्बाई भारत का वह वर्ग जो गोमाता, बसहा और नंदी बैलों की मूर्तियों और तस्वीरों की पूजा तो करता था, लेकिन उसके वास्तविक विज्ञान और अर्थशास्त्र से अपरिचित था, उसने वास्तविक गोरक्षा की जगह राजनीतिक गोरक्षा का नफरती और हिंसक खेल शुरू कर दिया। परिणाम यह हुआ कि आज पारंपरिक गोपालकों के बीच भी गोपालन कम होता जा रहा है। गोरक्षा के नाम पर जो निजी सेनाओं के हाथों भीड़ हत्याएं हुई हैं, उनसे जनसामान्य में भी गोवंश मात्र के प्रति शंका, भय और घृणा तक का वातावरण बन चुका है। दूसरी तरफ गोपालन के व्यवसाय का जबसे घोर व्यावसायीकरण और औद्योगीकरण हुआ है, तबसे क्रॉस ब्रीडिंग के जरिए नस्ल सुधार, कृत्रिम गर्भाधान और एक स्थान पर बांधकर बाजारू पैकेटबंद चारा खिलाते रहने की प्रवृत्ति शुरू हुई। यहां तक कि दूध बढ़ाने के लिए हानिकारक इंजेक्शन का प्रयोग शुरू हुआ। दूहने तक के लिए मशीन का इस्तेमाल शुरू हुआ। जनसंख्या बढ़ने से दूध की मांग बढ़ी और दूध में तरह-तरह की मिलावट का धंधा शुरू हुआ। आज औद्योगिक, व्यावसायिक अथवा बाजारू दूध पूरी तरह से जहर और कैंसर का स्रोत बन चुका है।
इस सबके बीच गोविज्ञान के नाम पर एक अधकचरा छद्म-विज्ञान या स्यूडो साइंस भी विकसित हुआ है। देसी गाय के दूध और उससे तैयार मक्खन, घी और छाछ की विशिष्टता एक वास्तविकता है और उसके प्राकृतिक कारण हैं। इनका पोषकीय और औषधीय महत्व भी सर्वविदित है, लेकिन गाय के प्रति अशास्त्रीय भक्तिभाव के दोहन और तदाधारित राजनीतिक संगठन और लामबंदी की खिचड़ी बना दिए जाने के कारण वास्तविक गो-विज्ञान भी एक हास्यास्पद छद्म-विज्ञान बना दिया गया है, जिसका नमूना हमें जब-तब देखने को मिलता ही रहता है।
गोरक्षा के नाम पर हिंसा कोई नई बात नहीं है। यह गांधीजी के सामने ही शुरू हो गई थी और इसलिए उन्होंने ‘गोरक्षा’ शब्द तक से परहेज करना शुरू कर दिया था। फिर गांधीजी और विनोबा ने इसकी जगह ‘गोसेवा’ शब्द चलाया, लेकिन बाद में विनोबा ने ‘गोसेवा’ शब्द को भी आगे बढ़ाकर ‘गो-उपासना’ शब्द चलाया था। गाय की यह उपासना कैसी हो, इस पर विनोबा कहते हैं—“गो-सेवा के काम में दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक तो वह जो हिंदुओं के मस्तिष्क और खून में है, अर्थात् गाय के प्रति पूज्यबुद्धि। गाय की जितनी उपेक्षा और करुणाजनक स्थिति इस देश में है, वैसी शायद ही किसी दूसरे देश में हो। यह सब पूज्यबुद्धि के अभाव में हो रहा है, ऐसा हम नहीं कह सकते। फिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसका कारण क्या है? कारण यही है कि वह पूज्यबुद्धि शास्त्रीय नहीं है। शास्त्ररहित श्रद्धा से काम नहीं होता।
…हमें बचपन में सिखाया गया था कि अस्पृश्य को छूने से जो अपवित्रता आ जाती है, वह गाय को छू लेने से दूर हो जाती है। जो जड़ बुद्धि एक मनुष्य को अपवित्र मानने को कहती है, वही एक पशु को मनुष्य से भी पवित्र मानने की बात कहती है। इस युग में यह बात मानने योग्य नहीं कि गाय में सभी देवताओं का निवास है और दूसरे प्राणियों में अभाव है। इस प्रकार की अतिशयतापूर्ण मूर्तिपूजा को मूढ़ता ही कहना होगा।
…हम गाय को पूज्य मानते हैं यह जाहिर ही है, लेकिन पश्चिम में गोपालन कम नहीं होता, हमसे कई गुना ज्यादा अच्छा काम वे करते हैं। बहुत स्वच्छता रखते हैं और गाय को बहुत अच्छी तरह से रखते हैं। उनकी गायें मजबूत होती हैं। वे बहुत ध्यानपूर्वक यह काम करते हैं। हमारे यहां हम वह नहीं कर पाते। हम गाय को पूज्य मानते हैं, प्रिय नहीं मानते हैं।”
लेकिन ऐसा भी नहीं था कि विनोबा पश्चिमी (यूरोपीय और अमेरिकी) रीति से गोपालन की सीमाओं को नहीं समझते थे। पश्चिम का समाज पूरी तरह से भौतिकता और उपयोगितावादी दृष्टि से ही प्रकृति का शोषण करना जानता है, इसलिए वे कहते थे कि गाय के प्रति भारतीयों की खोखली पूज्यबुद्धि और पश्चिम के लोगों की निरी आर्थिक बुद्धि दोनों ही दृष्टि अपूर्ण और अनर्थकारी है। विनोबा के शब्द हैं—
“इन दो दृष्टियों में सदा झगड़ा होता रहा है। झगड़े का कारण है कि एक तरफ मूढ़ता है और दूसरी तरफ केवल आर्थिक दृष्टि है। केवल आर्थिक दृष्टि रखेंगे तो उसका अर्थ होगा कि जब तक गाय दूध दे, तब तक उसका पालन किया जाये और ज्यों ही वह दूध देना बंद कर दे, उसे काटकर खा लिया जाये। चमड़े की दृष्टि से भी कत्ल की गई गाय का चमड़ा अधिक उपयोगी होगा। पश्चिम वाले यही करते हैं। जब तक गाय दूध देती है, तब तक उसका पालन वे प्रेमपूर्वक करते हैं। उसे खिलाते हैं और दया-दृष्टि से भी काम लेते हैं और ज्यों-ही वह दूध देना बंद कर देती है, उसे मार डालते हैं। इसमें भी वे कह सकते हैं कि उनकी दृष्टि दया की ही है।”
तो फिर गाय, गोवंश और गोसेवा के प्रति हमारी दृष्टि क्या हो? विनोबा कहते थे कि हमारी दृष्टि समाजवादी हो। गोसेवा के प्रति ‘समाजवादी दृष्टि’ विनोबा की अद्भुत खोज थी। वे कहते हैं—
“भारतीय समाजवाद कहता है कि मनुष्य-समाज के साथ-साथ गाय को भी अपने कुटुंब में स्थान दीजिए, उससे पूरा काम लीजिए और उसे पूरा-पूरा रक्षण भी दीजिए, इसलिए भारतीय समाजवाद ने मनुष्य के साथ गाय को भी समाज का एक अंग मानने का निर्णय किया। परंतु यह करके उसने एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी अपने सिर पर ले ली है।”
जब खेती में ट्रैक्टरों के प्रवेश की शुरुआत हुई, तभी यह भय बढ़ा था कि फिर बैल अनुपयोगी हो जाएंगे, फिर भारी असंतुलन और गड़बड़ी शुरू होगी, लेकिन विनोबा इस पर दो-टूक कहते थे कि यदि ट्रैक्टर लाते हो तो फिर गाय और बैल को काटकर खाने का भी इंतजाम करो और यदि ऐसा नहीं कर सकते तो फिर भारतीय समाजवादी दृष्टि से विचार करो।
वे कहते हैं—“जिस भारतीय समाजवाद ने गाय को कुटुंब में स्थान दिया, उसने यदि कोई पाप किया हो, तो बैलों को छोड़कर ट्रैक्टर ही लाना चाहिए और जब गाय दूध देना बंद कर दे तो उसे खा जाना चाहिए। गोवंश की वृद्धि के लिए जितने सांड़ों की जरूरत हो, उतनों को छोड़कर शेष सभी बछड़ों को भी मार डालना चाहिए। अगर रूढ़ि के कारण कोई गाय नहीं खाता हो, तो वह भ्रम समझा जाये और यदि इस अनादि काल से चली आयी रूढ़ि को हिंदू लोग न छोड़ सकें, तो गाय दूसरों के हवाले कर दी जाये। वे उसे खा जायेंगे। यही आज हो भी रहा है। हम स्वयं अपनी गायें कसाइयों को बेचते हैं। वे यदि गायों को काटते हों तो हमारी हिंदू बुद्धि कहती है कि उस पाप का स्पर्श हमें नहीं होता।
…बैलों को खाने का निश्चय करेंगे, तभी पश्चिम के समान अपने समाज की रचना आप कर सकेंगे। अगर बैलों को खाना नहीं है तो निश्चित है कि बैलों से ही खेती करवानी होगी और सारे समाज की रचना उसी के आधार पर होगी। अब कौन-सी समाज-रचना को अपनाना है, इसका विचार कर लीजिए। यह सामान्य दया का प्रश्न नहीं, एक व्यापक प्रश्न है।”
विनोबा कहते थे कि गोसेवा बोझ समान नहीं होनी चाहिए। सेवा और उपयोगिता में विरोधाभास नहीं होना चाहिए। इसलिए वे कहते हैं—“देश के विभिन्न भागों में गो-सदन कायम किये जाएं और देश में जितने भी कमजोर तथा बेकार पशु हैं, उनको वहां रखा जाए तथा उनके मल-मूत्र, चमड़ा और हड्डियों का उपयोग किया जाये। जिस गाय के दूध पर हम पलते हैं, उसकी कृतज्ञता के तौर पर रक्षा करें, उसे सहज मौत आने दें। मृत्यु के बाद उसके चमड़े का और खाद का अच्छा उपयोग किया जाये। उसका मूल्य भी जरूर हासिल करें।”
साथ ही इसके लिए जरूरी होगा कि हम सब अपने जीवन में हर प्रकार का सजगतापूर्ण संयम भी धारण करें। विनोबा के शब्द हैं—“अध्यात्म को खोकर हमारा आधिभौतिक ज्ञान बढ़ेगा, तो हम कहीं के भी नहीं रहेंगे। गाय को बचाने के लिए संयम से रहना होगा। हिंदुस्तान में प्रति व्यक्ति एक एकड़ जमीन भी नहीं है। आगे जनसंख्या बढ़ेगी, तो जमीन और कम पड़ेगी। फिर बिना बैल की खेती करनी होगी। दूध पीने से भी मुक्त होना पड़ेगा। बिना दूध कैसे चलें, इसके प्रयोग करने पड़ेंगे। गाय को हटाकर घास का दूध बनाना पड़ेगा। मतलब, मनुष्य को अगर गाय-बैल के साथ रहना हो, तो उसे संयम से रहना होगा। …अगर यह नहीं करना हो, तो गाय को खाना होगा। …यदि यह सारी साधना नहीं होगी, तो आगे चलकर हिंदू धर्म भी कहेगा कि गाय हमारी दुश्मन है।”
आज विनोबा की भविष्यवाणी सच साबित हो रही है। आज भारत के गोपूजक समाज में ही गोवंश के प्रति इतनी क्रूरता बढ़ी है कि वे ‘आवारा पशु’ की श्रेणी में आ चुके हैं। मंदिर में जाकर बसहा और नंदी की मूर्ति की पूजा करते हैं, लेकिन रात भर जागकर उसी बैल से अपने खेतों की रक्षा करते हैं। किसान और उनके बच्चे दिन के समय भी उन्हें खदेड़-खदेड़कर परेशान रहते हैं। कई जगह उन पर एसिड डाल दिया जाता है। कहीं उनकी पूंछ में आग लगा दी जाती है। मनुष्य के घर में यदि बेटी पैदा हो गई तो घर में मातम छा जाता है, लेकिन गाय के यदि बछड़ा पैदा हो गया तब मातम पसर जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में हम देखते हैं कि गाय के बछड़े को प्रायःभूखा रखा जाता है। उसे अपनी माता का दूध तक नहीं पीने दिया जाता। वह अपनी माता का दूध पीने के लिए कराहता है, छटपटाता है, लेकिन गोपालक का हृदय नहीं पसीजता। सारा थन झंझोड़ लेने के बाद ही उसे एक-दो घूँट किसी तरह नसीब होता है। फिर एक समय के बाद उसे ऊंचे पहाड़ों के जंगल में छोड़ आया जाता है, जहां वह तेंदुए का शिकार बनता है या फिर किसी और तरह से मृत्यु का शिकार होता है। और यदि फिर भी बचकर गांव वापस आ गया तो लावारिस बैलों के विशाल झुंड का हिस्सा बनकर तरह-तरह की यातनाएं सहता है।
आज नई पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा जब गायों के प्रति इतनी क्रूरता देखता है तो उसे उस दूध से घृणा हो जाती है। दुनिया भर में तेजी से फैलती ‘वीगन’ संस्कृति यानी दूध और दुग्ध-उत्पादों तक से रहित, पूर्ण शाकाहार इसी का परिणाम है। लोग नारियल का दूध बना रहे हैं, सोयाबीन और बादाम का दूध बनाकर पी रहे हैं, लेकिन गाय का दूध नहीं पीना चाहते। बाकी मिलावट का स्तर यह है कि भारत सरकार ही कह रही है कि 70 फीसदी दूध जहरीला होने के स्तर तक मिलावटी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तो इतना तक कह रहा है कि 2025 तक भारत की 87 फीसदी आबादी केवल जहरीले दूध और डेयरी प्रोडक्ट की वजह से कैंसर जैसी घातक बीमारियों की चपेट में होगी।
इस तरह गाय और पूरा गोवंश ही आज कई स्तरों पर पिस रहा है। वह एक साथ मूढ़तापूर्ण पूज्यबुद्धि, क्रूरता, अप्रासंगिकता,प्राणघाती व्यावसायिकता, हिंसक राजनीति, घृणा और यहां तक कि कार्टून, व्यंग्य और चुटकुलों तक का विषय बन चुका है। आज यदि भारत गोसेवा के मामले में कोई रचनात्मक समाधान चाहता है तो उसे अपने उन पूर्वजों के कंधों पर बैठकर इस प्रश्न को देखना होगा, जिन्होंने इस पर समग्रता से विचार किया था और आगे का रास्ता भी बताया था।
-अव्यक्त
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