हाल में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में लावारिस मवेशियों का मुद्दा बड़े जोर-शोर से उठाया गया। इस सरकार द्वारा संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी का कानून लागू करने के कारण किसानों की दिक्कतें बढ़ गई है। अभी तक नीलगायें खेती का सफाया कर रही थीं, अब छोड़ दिए गए गाय और बैल खेती का नुकसान कर रहे हैं। जहां एक तरफ सांड़ के हमले से कई लोग घायल हुए हैं, वहीं सांड़ कब हमला कर देगा, इससे हर कोई भयभीत है। सरकार ने संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी का कानून तो लागू कर दिया, लेकिन इन गाय-बैलों का क्या किया जाए, इसका कोई इंतजाम अभी तक सरकार नहीं कर पायी है। सरकार कहती है कि गांधी-विनोबा ने भी संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी कानून की मांग की थी, हमने तो उस पर अमल ही किया है।
1883 में महात्मा ज्योति बा फुले ने ‘शेक-यांचा असूड’ नाम की किताब लिखकर संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी की मांग की थी। उन्होंने लिखा कि अंग्रेजों के कारण गोवंश का कत्ल बड़े पैमाने पर हो रहा है। इस कारण एक तरफ खाद की कमी हो रही है, तो दूसरी तरफ हल के लिए बैल भी कम पड़ रहे हैं। जब तक संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी नहीं होती, तब तक खेती और किसान के बचने की कोई संभावना नहीं है। यह कहते हुए उन्होंने संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी की मांग की थी। इसके बाद यही मांग लोकमान्य तिलक ने भी की। उन्होंने लिखा कि स्वराज्य मिलते ही मैं पहली कलम से गोरक्षण का कानून लागू कर दूंगा। गांधी जी ने भी संपूर्ण गोरक्षण की बात की थी, लेकिन गांधी जी ने कानून का आग्रह नहीं रखा, क्योंकि इस देश में एक बहुत बड़ा समाज गाय-बैल के मांस पर ही निर्भर करता है। वैसे भी समाज पर जबरन कोई कानून थोपने के वे हमेशा खिलाफ रहे।
हमें यह समझ लेना होगा कि महात्मा फुले, लोकमान्य तिलक, विनोबा और महात्मा गांधी संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी की मांग खेती और किसान को बचाने के लिए कर रहे थे, न कि जीवदया या धर्म की दृष्टि से, लेकिन वर्तमान सरकार संपूर्ण गोहत्याबंदी का कानून धार्मिक कारणों से लायी है। यह कानून लाने के पीछे उनका मकसद न खेती बचाना है। न किसान को बचाना है! इस कानून का दुरुपयोग वे तथाकथित गोरक्षकों, दलितों और मुसलमानों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए करना चाहते हैं।
गांधी जी ने गोसेवा और गोरक्षा का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा था कि गोशाला से गोसेवा होगी और चर्मालय से, अर्थात मरे हुए गाय- बैलों की खाल निकालने से गोरक्षण होगा। अगर हम मरे हुए गाय-बैलों की खाल नहीं निकालते हैं, तो चमड़े के लिए गाय-बैलों का कत्ल करना नहीं रुकेगा। इसका मतलब ही है कि एक मृत गाय या बैल की खाल उतारना एक गाय या बैल को कत्ल से बचाना है। आज जो लोग गोरक्षक बनकर मॉब लिंचिंग कर रहे हैं, वे गोरक्षक तो नहीं ही हैं, गोसेवक भी नहीं हैं। उन्हें मरे हुए गाय-बैलों की खाल उतारने का काम करना चाहिए। क्या यह काम करने के लिए वे तैयार है?
गांधी जी के विचारों से प्रेरणा लेकर 1934 में महाराष्ट्र के गोपालराव वालुंजकर ने मरे हुए गाय-बैलों की खाल उतारने का काम शुरू किया। ऐसे लोगों का खाल उतारने के काम में लगना, जाति उन्मूलन की तरफ एक कदम बढ़ाने के समान था। मरे हुए गाय-बैलों की खाल निकालने का काम, जब तक उच्च वर्णों के लोग नहीं करते, तब तक निचले तबके के लोगों का इन कामों से छुटकारा नहीं होगा और जाति उन्मूलन का काम भी सपना ही रह जायेगा।
हमें यह भी समझ लेना होगा कि जब गांधीजी संपूर्ण गोहत्याबंदी कानून की मांग कर रहे थे, उस समय भारत की खेती संपूर्णत: गोबर की खाद और बैल पर निर्भर थी। अगर गाय-बैलों का कत्ल नहीं रुकता, तो उसका विपरीत परिणाम खेती और किसान पर होने वाला था। लेकिन आज ट्रैक्टर और फ़र्टिलाइज़र आ गये हैं। इस कारण किसान को आज न तो बैल की जरूरत है, न गोबर के खाद की। आज खेती बैलों पर निर्भर नहीं है। गांव गांव में गाय-बैलों के लिए छोड़ी गयी गोचर की जमीन पर भी आज लोगों ने अपने घर बना लिए हैं। ऐसी स्थिति में बैल को बचाना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए सर्वोदयी, जो संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी की मांग कर रहे हैं, उनको भी इस मांग पर दोबारा विचार करना होगा। हम अहिंसा का विचार रखते हैं, शाकाहार की बात करते हैं, ऐसे स्थिति में हमें संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी के बारे में निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है। हमें किसान को बचाना है या गाय बैल को बचाना है, यह एक धर्म संकट हमारे सामने खड़ा है! लेकिन फिर भी निर्णय तो लेना ही होगा!!
-वि.प्र.दिवान
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