भारतीय लोकतंत्र एक निर्णायक दौर से गुजर रहा है। उसे यह तय करना है कि उसे आम जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करना है या दुनिया के अन्य देशों की तरह उद्योगपतियों, पुलिस, सेना और अफसरशाही की संगठित तानाशाही को समर्थन देना है।
लोकतंत्र को संविधान की जरूरत पड़ती है। संविधान के बिना लोकतंत्र चलता नहीं। अन्य देशों की तरह भारत में भी संविधान बना। उस संविधान से लोकतंत्र का राष्ट्रवादी चरित्र ही विकसित हुआ। उसके चलते देश में उद्योगपति, अफसरशाही और सेना-पुलिस अधिक मजबूत हुए। उस समय राष्ट्रवादी चरित्र वाला संविधान देश की जरूरत थी। उस समय देश पाँच सौ टुकड़ों में बँटा था। देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण था। उसके चलते महात्मा गाँधी को आत्माहुति देनी पड़ी थी। उस समय राष्ट्र को जो संविधान मिला, वह राष्ट्र की जरूरत थी। इस संविधान ने भारत को एक संगठित राष्ट्र के रूप में विकसित किया। जब देश में राष्ट्रीय चेतना का विकास होता है, तब देश को चलाने के लिए उद्योगपति, अफसरशाही और सेना-पुलिस की जरूरत भी पड़ती है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
जो संगठित रहता है, ताकत उसी के पास रहती है। सेना-पुलिस और अफसरशाही लोकतंत्र में संगठित रहते हैं। अतः ताकत भी उन्हीं के पास होती है। वे सरकार के अंग होते हैं। सरकार को मिलने वाले राजस्व से उनकी आर्थिक जरूरतें पूरी होती है। उद्योगपति राष्ट्र के विकास की रीढ़ होते हैं और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होते हैं। सरकार भी उन्हीं के पैसे से चलती है, इसलिए देश की आर्थिक नीति पर नियंत्रण भी उन्हीं का होता है। अत: ये तीनों आर्थिक और कानूनी तौर पर मजबूत होते हैं।
संविधान में सर्वसम्मति और आम सहमति का कोई महत्त्व नहीं होता। सारे निर्णय अल्पमत और बहुमत के आधार पर तय होते हैं। हालांकि संविधान का निर्माण आम सहमति से हुआ है, इसलिए आम जनता, उनके राजनैतिक संगठन और उनके प्रतिनिधि असंगठित, बिखरे और कमजोर होते हैं। वे आपसी गलाकाट प्रतियोगिता में उलझे रहते हैं। उनका कोई स्वतंत्र आर्थिक आधार भी नहीं होता। उन्हें अपना राजनैतिक कारोबार चंदे से पूरा करना पड़ता है। अपने राजनैतिक संगठन की जरूरतें भी चंदे से पूरी करनी पड़ती हैं। चुनाव का महाभारत भी चंदे से लड़ना पड़ता है। चूंकि इन्हीं राजनैतिक संगठनों को सरकार भी चलानी पड़ती है, इसलिए राजनैतिक नेताओं के इर्द-गिर्द चमक-दमक दिखाई देती है। यही राजनैतिक दल नीतियों का निर्माण भी करते हैं। इन राजनैतिक दलों को कई तरह के वैधानिक दबावों का सामना करना पड़ता है, इसलिए राजनैतिक दल लोकतंत्र की उपरोक्त तीनों ताकतों के सामने बहुत कमजोर पड़ते हैं। इसके अलावा राजनैतिक दलों को हर पांच साल में आम जनता का सामना भी करना पड़ता है। लोकतंत्र की उपरोक्त तीनों महाशक्तियां उद्योगपति, अफसरशाही और सेना-पुलिस बहुत अमन-चैन की बंसी बजाते हैं। आम जनता के पास वोट देने के अलावा कोई काम नहीं रह जाता। लोकतंत्र में आम जनता ठगा सा महसूस करती है। उद्योगपति, अफसरशाही और पुलिस-सेना सरकार की असली ताकत होते हैं। राजनैतिक नेता को उसी के बल पर सरकार चलानी पड़ती है। आर्थिक नीतियों पर सरकार का नियंत्रण रहता है। विकास के नाम पर भारी उद्योगों का विकास होता है और आम आदमी बेरोजगारी का शिकार होता है। जहाँ बेरोजगारी है, वहीं मँहगाई और भ्रष्टाचार आता है। तीनों अन्योन्याश्रित हैं। आम जनता मुफ्त के सरकारी अनाज पर जीती है। उसके पास आय का कोई साधन नहीं होता।
देश में शांति व्यवस्था कायम करना पुलिस की जिम्मेदारी मानी जाती है। पहले पुलिस न्याय विभाग के आदेश की प्रतीक्षा करती थी, परंतु अब न्यायिक आदेश की प्रतीक्षा नहीं करती। जेसीबी और पुलिस, तानाशाही का प्रतीक बनती जा रही है। लोकतंत्र का रहा-सहा कसर अफसरशाही पूरा कर देती है। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र का वास्तविक अधिकार किसके पास है। भारतीय लोकतंत्र में यह परेशानी लोकतंत्र के राष्ट्रवादी चरित्र के कारण पैदा हुई है। यह व्यवस्थागत दोष है।
हमने लोकतंत्र की इकाई राष्ट्र को माना है। अब हमें लोकतंत्र की मूल इकाई गांव को बनाना है। बेरोजगारी खत्म करने की जिम्मेदारी ग्रामसभा पर डालनी पड़ेगी। ग्राम की समस्त चल-अचल सम्पत्ति पर स्वत्वाधिकार ग्रामसभा को और सर्वाधिकार परिवार को देना पड़ेगा। नागरिकों को उपभोक्ता के साथ साथ उत्पादक भी बनाना पड़ेगा। बेरोजगारी अपने आप खत्म हो जायगी। इसके लिए गाँव की आन्तरिक आर्थिक व्यवस्था खड़ी करनी पड़ेगी। ग्रामसभा के अधिकृत प्रतिनिधि के ऊपर गांव की आन्तरिक शांति व्यवस्था की जिम्मेदारी देनी पड़ेगी और उसे दण्डाधिकारी का कानूनी अधिकार भी देना पड़ेगा। इससे पुलिस की तानाशाही से आम जनता को मुक्ति मिल जायगी।
ग्राम सभा के अधिकृत दण्डाधिकारी को जरूरत महसूस होगी, तब वह गांव में पुलिस बुलायगा। हर गांव में नागरिकों का जन्म रजिस्टर होगा, उसके आधार पर ग्रामसभा नागरिक प्रमाण पत्र जारी करेगी। इससे अफसरशाही की तानाशाही कमजोर होगी। ग्रामसभा का प्रत्येक निर्णय सर्वसम्मति या आम सहमति से होने पर गांव के नागरिक संगठित होंगे। उससे गांव की एकता खण्डित नहीं होगी। गांव मजबूत होगा, तब अपने प्रतिनिधियों से आम जनता को पूछताछ करने की शक्ति भी प्राप्त होगी। भारत के मनीषियों को मालूम था कि लोकतंत्र के वर्तमान संस्करण के कारण तीनों प्रकार के खतरे पैदा हो सकते हैं, इसलिए सत्ता की राजनीति में न पड़कर उन्होंने देश में सामाजिक आन्दोलन खड़ा किया और अपने प्रयासों से ग्रामस्वराज्य की बुनियाद खड़ी कर दी। वह ग्रामदान अभियान के नाम से प्रसिद्ध है। ग्रामदान फार्मूले में इन तीनों प्रकार की समस्याओं का हल है।
अगर हम भारत के ग्रामदान के फार्मूले के आधार पर संविधान में संशोधन कर ग्रामसभा को अधिकार प्रदान करते हैं, तो गांव के नागरिक राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर संगठित, स्वाश्रयी और स्वावलंबी हो सकते हैं, तभी देश में वास्तविक मायने में लोकतंत्र स्थापित होगा।
-सतीश नारायण
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