मेरी पहली श्रद्धा भगवान पर है। दूसरी श्रद्धा शिक्षकों पर तीसरी जनता पर है। भगवान हरेक पर रहम करता है। मनुष्य किसी का भी दु:ख नहीं देख सकता, यह भगवान की मनुष्य को बहुत बड़ी देन है। इसलिए मेरी पहली श्रद्धा भगवान पर है। शिक्षकों पर मेरी श्रद्धा इसलिए है, क्योंकि उनका आधार ज्ञान है। उनकी सत्ता ज्ञान-सत्ता है। समझाना, बुझाना, रिझाना सब ज्ञान के द्वारा। यह कल्याणकारी शक्ति है। दूसरे साधनों पर मेरा भरोसा नहीं है। शिक्षकों को गांव का ‘फ्रेंड-फिलासफर-गाइड’ बनना चाहिए। प्रेम से बच्चों को सिखायें। निरंतर कुछ-न-कुछ अध्ययन करते रहें। अखंड ज्ञान की उपासना हो। ये तीन काम शिक्षक करेंगे, तो उनकी शक्ति बढ़ेगी और उससे देश को लाभ होगा। जो ज्ञान वे लोगों को देंगे, वह भगवान का दिया हुआ है, हमारा कुछ नहीं, यह समझकर निरहंकार सेवा करेंगे, तो अंतरसमाधान लेकर जायेंगे।
गुरू और शिष्य दोनों मिलकर जो चिन्तन, मनन और सह-आचरण करते हैं, उसमें से दुनिया को अनुभवयुक्त ज्ञान मिलता है। जहां विचार-मंथन और प्रयोग दोनों एक हो जाते हैं, घुलमिल जाते हैं, उसे नयी तालीम कहते हैं। जहां कुछ विचार-मंथन चलता है, परंतु उसे आचरण का आधार नहीं मिलता है, वहां पर पुरानी तालीम चलती है, जो आज सर्वत्र चल रही है। आचरण है, प्रयोग है, परंतु विचार-मंथन, चर्चा आदि नहीं है, तो वह कर्मयोग है, जो आज असंख्य किसान सच्चाई से कर रहे हैं। परंतु इधर से किसान और उधर से तत्त्वज्ञानी, दोनों मिलकर जो चीज बनती है, वह है नयी तालीम के शिक्षक और विद्यार्थी।
तीसरी बात यह कि शिक्षक तटस्थ हों। तटस्थ-वृत्ति के बिना सृष्टि-रहस्य पाना संभव नहीं। चित्रकार को भी अपने चित्र की कल्पना नजदीक से ठीक नहीं आती है। उसके लिए उसको दूर जाकर देखना पड़ता है। शिक्षकों को दलीय राजनीति से दूर रहना चाहिए। इन दिनों विद्यार्थियों के दिमाग पर राजनीति का बड़ा आक्रमण है और वे विद्यार्थी हैं शिक्षकों के हाथ में। अगर शिक्षक भी राजनीति में रंगे हों और उनके सिर पर राजनीति का वरदहस्त हो, तब तो समझना चाहिए कि गंगा मैया समुद्र की शरण गयीं, लेकिन समुद्र ने उनको स्वीकार नहीं किया, तो जो हालत गंगा की होगी, वही हालत विद्या की होगी। विद्या शरण गयी आचार्यों के, परंतु उन्होंने उसकाे स्वीकार नहीं किया, राजनीति के ख्याल से ही सोचा। शिक्षकों का बहुत बड़ा अधिकार है, उनकी तो एक आध्यात्मिक हैसियत है। इसीलिए उनको राजनीति से मुक्त रहना चाहिए। शिक्षक के चित्त पर, बुद्धि पर और कोई बोझ नहीं होना चाहिए। न्यायाधीश पर किसी पक्ष की सत्ता नहीं चलती, वैसे ही शिक्षकों की हैसियत है। अस्पताल में डॉक्टर यदि पक्षीय राजनीति का खयाल करके रोगी की पक्षपातपूर्ण सेवा करेगा तो वह डॉक्टर अस्पताल की सेवा के लिए नालायक है। अगर शिक्षक राजनीति में पड़े हुए हैं तो समझना चाहिए कि वे कर्ता नहीं हैं, कर्म हैं। उनको करने वाले दूसरे कर्ता हैं, और वे उनके कर्म हैं। उनके हाथ में कर्तृत्व नहीं। वे कर्मणि प्रयोग हैं, कर्तरि नहीं। उस हालत में शिक्षक का अपना जो स्थान है, वह नहीं रहेगा।
अपनी हैसियत न भूलें
शिक्षकों को अपनी हैसियत पहचाननी चाहिए। शिक्षकों को ‘मैं कौन हूं’ का जवाब ढूंढ़ लेना चाहिए। शिक्षक होने के साथ-साथ ‘दूसरा भी कुछ’ होने की स्थिति रहेगी, तो शिक्षक के काम को न्याय नहीं मिलेगा। शिक्षक को अनूभूति होनी चाहिए कि मैं सबसे पहले शिक्षक हूं। शिक्षक का काम श्रेष्ठ काम है। देश की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति के समान बच्चे उनके हाथ में सौंपे जाते हैं। उन्हें जो कुछ संस्कार, विद्या, मार्गदर्शन मिलेगा, वह शिक्षकों के जरिये मिलेगा। इससे ज्यादा महत्त्व का दूसरा कोई काम हो नहीं सकता। इसलिए शिक्षक को अगर अपनी हैसियत समझनी है तो शिक्षक-धर्म के अनुसार उन्हें कुछ चीजें छोड़नी होंगी।
आजकल शिक्षक अपनी तनख्वाह बढ़ाने की मांग करते हैं, उन्हें इस तरह की मांग नहीं करनी चाहिए। वे गुरू हैं, अपनी गुरुता का उन्हें स्मरण रहना चाहिए। वे अपनी दयनीय हालत से ऊपर उठें।
आज तो शिक्षक की हैसियत ही क्या है? जैसे खेत जोतते वक्त किसान बैल से पूछता नहीं कि ‘अरे, बैल भाई, हम क्या बोयेंगे?’ यह तो किसान ही तय करेगा। वैसे ही भारत भर के शिक्षक आज ‘बैल भाई’ हो गये हैं। पढ़ाने के विषय, उसके घंटे, अभ्यास-क्रम आदि सब ऊपर से तय होकर आता है। शिक्षक सरकार से वेतन ले, उसमें मेरा कोई विरोध नहीं। सरकार के पास जो पैसा है, वह जनता का है और उसे जनता के काम में खर्च करना सरकार का कर्तव्य है। परंतु सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए।
आज इस तरह शिक्षकों की हैसियत बैल की है। उन्हें ‘नौकर’ की ‘पदवी’ प्राप्त हो गयी है। उसमें न तो उनकी बुद्धि का विकास होता है, न राष्ट्र बनता है। इसको हमें बदलना है। यही शिक्षा में क्रांति है। परंतु यह तब होगा, जब शिक्षक समझेंगे कि भारत की समाज-रचना बदलना हमारा धर्म है, हमारा कर्तव्य है। इसीलिए शिक्षकों को राजनीति से अलग रहना चाहिए। राजनीति का अध्ययन होना चाहिए, लेकिन मुख्य चिन्ता होनी चाहिए ‘जयजगत’ की। सारी दुनिया का भला करने की राजनीति का चिन्तन-मनन करना चाहिए। इसी में शिक्षकों का गौरव है। -विनोबा
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