वाराणसी में एक बार फिर मंदिर-मस्जिद विवाद शुरू हो गया है. काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के केंद्र में है. अधिकांश सामाजिक लोगों की चिंता उस अनुभव के चलते है, जो बाबरी मस्जिद के घटनाक्रम को लेकर हुआ था. उसमें भी मुख्य चिंता हिंसा को लेकर है. सांप्रदायिक हिंसा, राज्य द्वारा हिंसक बल प्रयोग और धार्मिक सम्प्रदायों के बीच एक दूसरे के प्रति विश्वसनीयता का लगातार क्षय और इस सबके चलते सामान्य लोगों के जीवन का असंगठन, छोटी कमाई वालों की कमाई टूटना और समाज में निराशा का प्रसार. ये बड़ी चिंता के विषय हैं.
16 मई की शाम को इस विषय पर वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बैठक विश्व ज्योति केन्द्र, नदेसर में हुई. विषय के सामाजिक, राजनैतिक, संवैधानिक और धार्मिक पक्ष पर लोगों ने अपनी-अपनी राय रखी और सुझाव दिए कि स्थानीय समाज को क्या और कैसी पहल करनी चाहिए, जिससे ध्रुवीकरण और हिंसा की संभावना को कम किया जा सके. मोहल्लों में जाकर राजनीतिक और धार्मिक नेताओं से मिलकर बात करना, शांति जुलूस निकालना, पर्चे बाँटना, जगह-जगह सर्व धर्म प्रार्थनाएं आयोजित करना और वाराणसी में चल रहे मुकदमे में इंटरवीनर के रूप में अपनी भागीदारी बनाना जैसे सुझाव सामने आये. सभी पर राय मशविरा हुआ. अलग-अलग लोगों ने अपने विचार सामने रखे. इस बात पर काफी जोर दिया गया कि वाराणसी के समाज की यह विशेष ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपने शहर में होने वाली हर ऐसी गतिविधि में भाग लेकर शांति की सभी संभावनाएं सक्रिय तौर पर तलाशे. उपरोक्त सुझावों के साथ ही यह भी कहा गया कि इस सिलसिले में राजनीति, धर्म, कानून और स्थानीय समाज शक्ति के स्रोत व केंद्र हैं. इन सभी के आपसी संवाद से ही हल तय हो सकता है. ऐसा संवाद कायम हो, इसकी कोशिश स्थानीय समाज को ही करनी होगी.
कानूनी सवाल पर ज्यादा बात हुई. क्योंकि वीडियोग्राफी के आदेश और उसके बाद की सुनवाई और आदेश के सन्दर्भ में कई लोगों का यह कहना था कि यह अदालत संवैधानिक व्यवस्थाओं का सम्मान भी नहीं कर रही है. लोगों ने कहा कि हम शासन–प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं, डॉक्टर को ईमानदारी बरतते देखना चाहते हैं, शिक्षक को ठीक से पढ़ाते हुआ देखना चाहते हैं और न्यायाधीशों को निरपेक्ष भाव से संविधान की व्यवस्था का पालन करते हुए देखना चाहते हैं. ये सब सही समाज की कल्पना के अंतर्गत आते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है. सभी संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर आर्थिक और राजनीतिक दबाव बने रहते हैं, जिसके चलते जिसे हम न्यायसंगत मानते हैं, वह नहीं हो पाता. स्वराज वह व्यवस्था और विचार है, जिसमें हम अपेक्षा कर सकते हैं कि राजनीतिक और आर्थिक दबाव में आकर गलत काम करने की मजबूरियां अथवा लालच न पैदा हों. यह देश ब्रिटिश राज, राजतन्त्र और लोकतंत्र, सभी को लम्बे समय तक देख चुका है. बात थोड़ी दूर की मालूम पड़ सकती है, लेकिन फौरी समाधान के साथ-साथ वैसी ही समस्याएं, ध्रुवीकरण की स्थितियां और हिंसा की संभावना तथा वास्तविक हिंसा बार-बार होते हुए देखी जा रही है. इसलिए दूर का ही क्यों न हो, लेकिन स्थाई सम्भावनाएँ खोजने का काम साथ-साथ चलाना चाहिए. धार्मिक, राजनैतिक, न्यायिक और सामाजिक तबकों के बीच बातचीत में यह पूर्व शर्त होनी चाहिए कि हिंसा मंज़ूर नहीं है और संवाद तब तक जारी रहेगा, जब तक कोई समझौता न हो जाये. यह संवाद इसी अर्थ में व्यावहारिक होगा कि यह नैतिकता की बात करेगा, समाज में प्रचलित व्यवहार के मानदंडों और नैतिक मूल्यों यानि सही-गलत की मान्यताओं को समुचित स्थान देगा.
हिंसा को नामंज़ूर करने वाली राजनैतिक व्यवस्था की इस देश में परम्परा रही है. यह स्वराज की परम्परा है. ऐसा नहीं है कि राजनीति और शासन हिंसा मुक्त रहा हो, लेकिन स्वायत्तता और स्वशासन की व्यापक परम्पराएँ अंग्रेजों के आने से पहले तक तो थीं ही. इन्हें ही स्वराज की परम्परा कहते हैं. स्वराज के विचार और व्यवस्थाओं पर व्यापक बातचीत शुरू होगी तो विकट समस्याओं के फौरी हल खोजने में भी मदद होगी, नये सन्दर्भ बनेंगे, नये विचार सामने आयेंगे और ताकत के नए स्रोत भी नज़र आयेंगे. यह बैठक बुलाने वालों में पारमिता, रामजनम, मुनीज़ा खान, मनीष शर्मा, फादर आनंद, फरमान हैदर और प्रवाल सिंह के नाम प्रमुख हैं. सुनील सहस्रबुद्धे ने बैठक की अध्यक्षता की और रामजनम ने संचालन किया. बैठक में करीब 40 व्यक्तियों ने भाग लिया.
–सुनील सहस्रबुद्धे
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