जनवरी 1948 का अंतिम सप्ताह गांधीजी के जीवन का अंतिम सप्ताह था और गांधी जी के महत्त्वपूर्ण उद्गारों से परिपूर्ण था। उनमें से एक में उन्होंने आखिरी बार, उस शान-शौकत के लिए हमारे उन्माद की निन्दा की, जिसके हम अपनी नव-अर्जित स्वाधीनता के नशे में शिकार हो गये हैं। उन्होंने कहा, जब कांग्रेस सत्तारूढ़ नहीं थी तब उसने लोगों के सामने सेवा, त्याग और सादगी का आदर्श रखा था। उन दिनों एक लाख रुपया भी एकत्र करना कठिन था। आज कांग्रेस सरकार के हाथ में करोड़ों रुपये हैं और वह जितना चाहे उतना धन एकत्र कर सकती है। मैं पूछता हूं कि क्या कांग्रेस यह धन ऐसा मानकर खर्च करेगी कि भारत में विदेशी राज्य हट कर स्वदेशी राज्य की स्थापना हुई ही नहीं है? कुछ लोगों का यह विचार दिखाई देता है कि भारत के नेताओं और राजदूतों को ऐसी शान से रहना और खर्च करना चाहिए, जो उनके स्वाधीन दरजे के योग्य हो और तड़क-भड़क में उन्हें स्वाधीन अमरीका और इंग्लैंड की बराबरी करनी चाहिए। वे समझते हैं कि विदेशों में भारत की शान बनाये रखने के लिए ऐसा खर्च करना जरूरी है। मैं ऐसा नहीं मानता। स्वाधीनता का वही अर्थ नहीं है, जो तड़क-भड़क या शान-शौकत का है। हमें उतने ही पैर पसारने चाहिए जितनी लंबी हमारी रजाई हो। अपनी दरिद्रता को छिपाना ठीक नहीं। भारत का दर्जा संसार में उसकी नैतिक श्रेष्ठता पर निर्भर करेगा, जो उसे अपने निष्क्रिय प्रतिरोध के कारण प्राप्त हुई है। इसमें अभी तक भारत का कोई प्रतिद्वन्द्वी खड़ा नहीं हुआ है। दूसरे देशों को, चाहे वे छोटे हों या बड़े, अपने शस्त्रास्त्र और सैनिक पराक्रम पर गर्व है। वही उनकी पूंजी है। भारत के पास केवल उसकी नैतिक पूरी है, जो खर्च करने से बढ़ती है। किसी शर्त पर कांग्रेस का यह दावा कायम नहीं रहेगा कि जब वह सत्तारूढ़ होगी तब आज के जीवन-मूल्यों में क्रांति कर देगी। लोग मंत्रियों की आलोचना करते हैं कि वे बड़ी बड़ी तनखाहें लेते हैं और कृत्रिम ब्रिटिश स्तर को कम करके उसे स्वाभाविक भारतीय स्तर पर नहीं ले आते। कांग्रेसियों और दूसरे लोगों के लिए वे सत्ता से बाहर रहकर जितना कमाते थे, उससे कहीं ऊंचे वेतन की आशा रखना एक फैशन हो गया है। जो व्यक्ति 150 रुपये मासिक में काम चला लेता था, वह 500 रुपये मांगने और उसकी आशा रखने में संकोच नहीं करता, मानो जब तक वे ऊंचा वेतन नहीं मांगेंगे और सिविल सर्विस के अधिकारियों का-सा रहन-सहन बनाकर वैसी ही पोशाक नहीं पहनेंगे, तब तक उनका सम्मान नहीं किया जायेगा। यह भारत की सेवा का सच्चा मार्ग नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी मनुष्य का मूल्य उसकी कमाई पर निर्भर नहीं करता। आत्मशुद्धि की प्रक्रिया, जिसमें सबको शरीक होना चाहिए, सही विचार और सही आचार की मांग करती है।
26 जनवरी 1948 को स्वाधीनता के बाद पहला स्वाधीनता-दिवस आया। उसने गांधीजी के मन में फिर यह सवाल पैदा कर दिया कि क्या यही वह स्वाधीनता है, जिसका सपना मैंने और कांग्रेस ने देखा था? उन्होंने कहा, ‘आज 26 जनवरी – स्वतंत्रता-दिवस है। जब तक हमारी आजादी की लड़ाई जारी थी और आजादी हमारे हाथ में नहीं आयी थी, तब तक इसका उत्सव मनाना जरूर कोई अर्थ रखता था। किन्तु अब आजादी हमारे हाथ में आ गयी है और हमने इनका स्वाद चख लिया है, तो हमें लगता है कि आजादी का हमारा स्वप्न एक भ्रम ही था, जो अब गलत सिद्ध हुआ है। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है।’
27 जनवरी को प्रात:काल गांधीजी मेहरौली के सालाना उर्स में जाने के लिए रवाना हुए। मेहरौली इतिहास में पृथ्वीराज की प्राचीन राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है। वहां ख्वाजा सैयद कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह शरीफ है। यह धर्मस्थान पवित्रता में जग-विख्यात ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की अजमेर वाली दरगाह के बाद दूसरे नंबर पर आता है। दंगों के दौरान यहां कुछ राक्षसी कृत्य हुए थे। हर साल यहां एक बड़ा धार्मिक मेला लगा करता था, जिसमें भारत भर से न सिर्फ मुसलमान बल्कि हिन्दू भी आते थे। सूफी पंथ में धार्मिक सहिष्णुता की ऐसी परंपरा और उदारता है। अशांत परिस्थितियों के कारण डर था कि शायद इस वर्ष उर्स का मेला न लगे। परंतु गांधीजी ने मेले की बात को अपना उपवास तोड़ने की एक शर्त बनाया था और सब दलों ने उसे पूरा करने की प्रतिज्ञा की थी। दिल्ली प्रशासन ने दरगाह के अहाते में और उसके आसपास सफाई करा दी थी और दरगाह में जो टूटफूट हुई थी, उसकी यथाशक्ति मरम्मत भी करा दी थी। दरगाह में जाने वालों को ले जाने और लाने के लिए एक विशेष बस सर्विस का प्रबंध कर दिया गया था। सनातनी हिन्दू और लड़वैया सिक्ख दोनों मुसलमानों के साथ भाईचारा बढ़ाने में एक-दूसरे से होड़ लगा रहे थे। उन्होंने मुसलमानों का फूलों से स्वागत किया और उनके लिए मुफ्त चाय की दुकानें खोल दीं। समाजसेवा के कार्यों में हिन्दू स्वयंसेवकों को मुसलमान स्वयंसेवकों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए देखकर बड़ी खुशी होती थी। कुछ दिन पहले किसी को कल्पना नहीं हो सकती थी कि एक मुस्लिम त्यौहार मनाने के लिए दिल्ली के हिन्दुओं, मुसलमानों और सिक्खों की भ्रातृत्व से भरी ऐसी विशाल भीड़ जमा होगी। सबसे अधिक आनंद और आश्चर्य की बात तो यह थी कि इस भीड़ में सैकड़ों हिन्दू और सिक्ख स्त्रियां भी मौजूद थीं। इस वायुमंडल से हिन्दू-मुस्लिम एकता के अच्छे से अच्छे दिनों की याद आती थी।
गांधीजी के साथ मेले में उनकी मंडली की तीन स्त्रियां भी गयी थीं। आमतौर पर स्त्रियों को दरगाह में एक खास हद से आगे नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि मुस्लिम धर्मस्थानों के अति पावन स्थान पर स्त्रियों को जाने देना इस्लामी परंपरा के विरुद्ध है। गांधीजी ने दरगाह के रक्षकों से कहा कि मेरी मंडली की स्त्रियां वहीं रुक जायेंगी, जहां इस्लामी रिवाज के मुताबिक उन्हें रुक जाना चाहिए। परंतु मैं बहुत खुश होऊंगा, अगर आप किसी मुसलमान को उनका रक्षक चुनें। किन्तु जो मुसलमान मित्र गांधीजी को वहां से ले गये थे, उन्होंने कहा कि इन्हें छोड़ जाने की जरूरत नहीं। हम इन्हें औरतें नहीं, महात्माजी की बेटियां समझते हैं। इस पर सारी मंडली दरगाह के भीतर ले जायी गयी। मिठाइयों से भरी हुई एक तश्तरी गांधीजी को भेंट की गयी। मिठाई उन्होंने अपने आसपास के लोगों में बांट दी। मुसलमानों में से एक ने अनुरोध किया कि गांधीजी की मंडली की महिलाएं मुस्लिम प्रार्थना फातिहा की आयतें गायें, जैसे वे रोज शाम की प्रार्थना-सभा में गाती हैं। उन्होंने खुशी से फातिहा गाया।
29 जनवरी का सारा दिन मुलाकातों से भरा रहा। शाम को गांधीजी बिलकुल थक गये थे। कांग्रेस कार्यसमिति के लिए कांग्रेस विधान का जो मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी उन्होंने ली थी, उसकी ओर इशारा करके उन्होंने आभा से कहा कि मेरा सिर चकरा रहा है, फिर भी मुझे इसे पूरा करना ही होगा। मुझे भय है कि आज मुझे देर तक जागना होगा।
सवा नौ बजे वे सोने के लिए उठे। बिस्तर पर लेटने के बाद वे आमतौर पर अपनी सेवा में रहने वालों को अपने थके हुए अंगों पर मालिश करने देते थे। अपने सुख के लिए नहीं, परंतु उनके संतोष के लिए। इससे दिन भर के भारी कार्यक्रम के बाद हल्की-सी चिन्ता-निवारक बातचीत का मौका भी उन्हें मिल जाता था। कभी-कभी वे मजाक भी कर लेते थे। लेकिन ये मजाक कभी अर्थशून्य नहीं होते थे। चलते समय अपने हाथ लड़कियों के कंधों पर रखने की आदत का जिक्र करते हुए वे बोले, ‘मैं लड़कियों को अपनी बैसाखी बनने देता हूं, किन्तु सच पूछा जाय तो मैंने किसी बात के लिए किसी पर निर्भर न रहने की आदत बना ली है। लड़कियां मुझे अपना पिता समझ कर मेरे पास आती हैं। मुझे यह अच्छा लगता है, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए इसका कोई अर्थ नहीं है।’
सेवाग्राम आश्रम में रहने वाली एक महिला गांधीजी से मिलने आयी थी। उसके दुर्बल स्वास्थ्य को देखकर गांधीजी ने उसे उलाहना दिया, ‘इससे मालूम होता है कि रामनाम ने तुम्हारे हृदय में पूरी तरह प्रवेश नहीं किया है। परंतु इसके लिए श्रद्धा की जरूरत है।’ उनके मन में एक बार फिर वह उत्कंठा पैदा हुई कि एक संपूर्ण कार्य के द्वारा उस श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रमाण संसार को दिया जाय, जो उनके भीतर ओतप्रोत थी और जिसे प्रकट करने के लिए उन्होंने जीवन-भर संघर्ष किया था। एक और आश्रमवासी से वे बोले, ‘मुझे कोलाहल के बीच शांति की, अंधकार के बीच प्रकाश की और निराशा के बीच आशा की खोज करनी पड़ेगी।’
राजनीतिक स्थिति पर नजर डालते हुए वे सोचने लगे कि जिन कांग्रेसियों ने आजादी की खातिर घोर परिश्रम किया था, बड़े-बड़े बलिदान दिये थे और जिन पर अब स्वाधीनता का भार आ गया है, वे पद और सत्ता के लोभ में क्यों फंस रहे हैं? यह चीज हमें कहां ले जायेगी? यह कब तक रहेगी? क्या ऐसा करके हम जगत में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रख सकेंगे? मैं कहां खड़ा हूं? इस बेचैनी के बीच अबाधित शांति प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा?’ और फिर अपार दु:ख के स्वर में उन्होंने इलाहाबाद के प्रसिद्ध उर्दू कवि नजीर की ये सुपरिचित पंक्तियां सुना दीं।
है बहारे बाग दुनिया चन्द रोज,
देख लो इसका तमाशा चन्द रोज।
थोड़ी ही देर में उन्हें खांसी का तेज दौरा हुआ। जब उसे कम करने के लिए उन्हें पेनिसिलीन की गोलियां चूसने को कहा गया, तो उन्होंने अंतिम बार रामनाम की शक्ति से ही अच्छा होने का अपना निश्चय दोहराया। उनका एक सेवक उनके सिर में तेल मल रहा था। उससे उन्होंने कहा कि ‘यदि मैं लंबे समय की बीमारी से अथवा किसी फोड़े-फुसी से भी मरूं, तो लोगों को नाराज करने का खतरा उठाकर भी संसार के सामने यह घोषणा करना तुम्हारा धर्म होगा कि जैसा ईश्वर-परायण मनुष्य होने का मैं दावा करता था, वैसा सचमुच मैं था नहीं। अगर तुम ऐसा करोगे तो मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। यह भी याद रखो के अगर कोई आदमी गोली मार कर मेरे प्राण ले ले, जैसे किसी ने उस दिन बम से मेरे प्राण लेने की कोशिश की थी, और मैं कराहे बिना उस गोली का सामना करूं और रामनाम लेते हुए मेरे प्राण निकल जायं, तो ही मेरा दावा सच्चा साबित होगा।’
30 जनवरी, 1948 के विधि-निर्मित दिन गांधीजी सदा की भांति प्रात: 3.30 बजे जाग गये। उनकी मंडली में से एक साथी प्रार्थना के लिए नहीं उठा। इसका उन्हें दु:ख हुआ। अपने साथी की इस तुच्छ-सी भूल का कारण उन्होंने अपनी ही किसी त्रुटि को माना। प्रात:कालीन प्रार्थना के बाद वे अपनी गद्दी पर बैठकर कांग्रेस के पुनर्संगठन पर अपने उस नोट का मसौदा पूरा करने लगे, जो वे पिछली रात पूरा नहीं कर पाये थे।
गांधीजी की तबीयत सुबह की सैर के लिए निकलने जितनी अच्छी नहीं थी। इसलिए वे थोड़ी देर कमरे के भीतर ही इधर-उधर टहलते रहे। अपनी खांसी को शांति करने के लिए पिसे हुए लौंग के साथ ताड़गुड़ की गोलियां लिया करते थे। लौंग का चूर्ण खतम हो गया था। इसलिए मनु उनके साथ टहलने में शरीक होने के बजाय थोड़ा-सा चूर्ण तैयार करने बैठ गयी। उसने गांधीजी से कहा कि ‘अभी आकर साथ हो जाती हूं। नहीं तो रात को जरूरत पड़ने पर जरा-सा भी चूर्ण नहीं रहेगा।’ गांधीजी को यह पसंद नहीं था कि कोई अपना तात्कालिक कर्तव्य छोड़कर आगे की चिन्ता करे और अनिश्चित भविष्य का प्रबंध करे। उन्होंने मनु से कहा, ‘कौन जानता है रात पड़ने से पहले क्या होगा अथवा मैं जीता भी रहूंगा या नहीं?’ यह भी कहा, ‘अगर रात को मैं जीवित रह गया, तो तुम आसानी से चूर्ण तैयार कर सकती हो।’
रोज के समय पर मालिश के लिए अतिथि-गृह के मेरे कमरे से गुजरते हुए उन्होंने मुझे कांग्रेस के नये विधान का मसौदा दिया – वह राष्ट्र के नाम उनका आखिरी वसीयतनामा था – और मुझसे कहा, ‘इसे सावधानी से पढ़ लो और कोई बात रह गयी हो तो उसे जोड़ देना। मैंने इसे भारी तनाव में तैयार किया है।’
मालिश के बाद गांधीजी ने मुझसे पूछा, ‘क्या तुमने मसौदे को दोहरा लिया?’ और नोआखाली के मेरे अनुभवों तथा प्रयोगों के प्रकाश में मुझसे एक नोट इस विषय पर तैयार करने को कहा कि मद्रास में अन्न-संकट के खतरे का सामना कैसे किया जाय। वे बोले, ‘खाद्य-मंत्रालय घबरा रहा है, परंतु मेरी राय यह है कि अगर लोग अपने साधनों का अच्छी तरह और किफायत से उपयोग करना सीख लें, तो मद्रास जैसे प्रांत को – जहां प्रकृति की कृपा से नारियल और ताड़ की, मूंगफली और केले की इतनी बहुतायत है और इतने प्रकार के कन्द और मूल मौजूद हैं – भिक्षापात्र लेकर घूमने की जरूरत न पड़े।’
फिर उन्होंने स्नान किया। स्नान करके निकलने पर वे बहुत ताजे दिखायी दिये। पिछली रात की उनकी थकान गायब हो गयी थी और वे अपनी सदा की उज्ज्वल प्रसन्नता से परिपूर्ण थे। उन्होंने आश्रम की लड़कियों को उनके कमजोर स्वास्थ्य के लिए उलाहना दिया। जब किसी ने उनको बताया कि सेवाग्राम आश्रमवासिनी एक बहन, जो उस दिन चली जाने वाली थी, किसी सवारी के न होने से गाड़ी चूक गयी, तो वे बोले, ‘वह स्टेशन पर पैदल क्यों नहीं चली गयी?’ यह बात वैसे ही नहीं कह दी गयी थी। वे प्रत्येक व्यक्ति से आशा रखते थे कि वह सिपाही की तरह प्रत्येक विशेष स्थिति का सामना उपलब्ध साधनों से ही करे। वे जिसे भी कोई काम सौंपते थे, उसे बराबर यह सूचना करते रहते थे, ‘इसमें भूल न हो।’ सुविधाओं के अभाव का या अमल करने की कठिनाई का बहाना वे कभी नहीं मानते थे। दांडी के ऐतिहासिक नमक-कूच से दो वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के अपने एक दौरे में जब एक बार मोटरों का पेट्रोल खतम हो गया, तो गांधीजी निश्चित समय पर जरूरी कागजात लेकर 13 मील दूर के निकटतम रेलवे स्टेशन के लिए पैदल चल देने को तैयार हो गये थे।
इसके बाद उनका वजन लिया गया तो वह 109 पौण्ड निकला। बंगला लिखने का अपना दैनिक अभ्यास पूरा करने के बाद उन्होंने 9.30 बजे सुबह का खाना खाया। उसमें उबला हुआ साग, 12 औंस बकरी का दूध, चार पके टमाटर, चार संतरे, कच्ची गाजरों का रस और अदरख, खट्टे नींबू तथा घृतकुमारी का काढ़ा था। खाते-खाते उन्होंने वे परिवर्धन और परिवर्तन पढ़ लिये, जो मैंने कांग्रेस-विधान के मसौदे की प्रत्येक धारा में किये थे और पंचायत के नेताओं की संख्या में मूल मसौदे की गणना-संबंधी एक भूल सुधार दी।
पिछले दिन उन्होंने मुझे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पास उनके कुशल समाचार पूछने को भेजा था और डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पास भी एक संदेश के साथ भेजा था। मुखर्जी उस समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल के मंत्री थे। संदेश में एक हिन्दू महासभाई कार्यकर्ता की प्रवृत्तियों की ओर उनका ध्यान दिलाया गया था, जो लोगों को कुछ कांग्रेसी नेताओं की हत्या के लिए उकसाने वाले अत्यंत जहरीले भाषण दे रहा था। क्या हिन्दू महासभा के नेता की हैसियत से डॉ. मुखर्जी अपने अधिकार का उपयोग करके ऐसे उग्र भाषणों को रोक नहीं सकते? डॉ. मुखर्जी का उत्तर पंगु और असंतोषजनक था। मालूम होता है उन्होंने ऐसे गैर-जिम्मेदार भाषणों और प्रवृत्तियों से पैदा होने वाले खतरे की गंभीरता को बहुत कम आंका और यह नहीं सोचा कि थोड़े ही समय में उनकी कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जब मैंने डॉ. मुखर्जी का जवाब गांधीजी को सुनाया, तो उनके माथे पर बल पड़ गये।
उसके बाद मैंने गांधीजी को नोआखाली के ताजे समाचार सुनाये, जो मुझे डॉ. मुखर्जी से मिले थे। इस पर नोआखाली की चर्चा छिड़ गयी। पिछले दिन मैंने गांधीजी से पूछा था कि कश्मीर के प्रश्न पर दोनों देशों में युद्ध की संभावना हो, तो नोआखाली में काम कर रहे हम लोगों से आप क्या करने की आशा रखेंगे? नोआखाली के हिन्दू-निवासी बहुत पहले ही भारत चले आते, यदि उन्हें हमारी बात पर भरोसा न होता और वहां हमारी उपस्थिति से उनमें विश्वास की भावना न रहती। मान लीजिये कि हम सबको युद्धबंदी बनाकर नजरबंद छावनियों में रख दिया जाय, तो उनका क्या हाल होगा, जिन्होंने हम पर विश्वास किया है? क्या औरतों को बेइज्जती का खतरा उठाने के लिए छोड़ दिया जाय? क्या ऐसी परिस्थिति में समय रहते उनके योजना-बद्ध निष्क्रमण के लिए काम करना बेहतर न होगा – खासकर इसलिए कि पाकिस्तान अब विदेशी प्रदेश है? उत्तर में उन्होंने लिखा, ‘मैंने जो कुछ कहा वह तुम्हारे दिल और दिमाग को जंचता हो, तो जब तक तुम आजाद हो तब तक लोगों को अपनी रक्षा आप करना सिखाते रहो। अगर अहिंसा का मिशन पूरा करते-करते तुम्हारी मृत्यु आ जाय, तो उसका आलिंगन करना। अगर वे लोग तुम्हें जेल में डाल दें, तो आमरण अनशन करना। जिनमें यह क्षमता हो, वे नोआखाली में डटे रहें और स्त्रियों के साथ होने वाले किसी भी व्यवहार से विचलित न होकर मौत का सामना करें। कायरों की तरह पीठ तो हरगिज नहीं दिखानी चाहिए।’
मैंने अपनी कठिनाई फिर उनके सामने रखी, ‘नजरबंद छावनी में हम तो सुरक्षित रहेंगे। तब हम स्त्रियों को भाग्य के भरोसे कैसे छोड़ सकते हैं?’ उनका दृढ़ उत्तर था, ‘मौत से तो बचा नहीं जा सकता। जैसे कार्यकर्ताओं को करने या मरने के लिए तैयार करना पड़ेगा। दोनों ही खतरे से भाग नहीं सकते। क्या सशस्त्र युद्ध में कभी-कभी पूरी के पूरी बटालियनों का सफाया नहीं हो जाता? इसके सिवा, जो लोग छावनियों के भीतर होंगे उनमें यदि आमरण अनशन की क्षमता होगी, तो वे बाहर की घटनाओं के नि:सहाय साक्षी नहीं रहेंगे। बाहर रहकर भी वे इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते। संभव है, इस प्रकार अंत में बहुत थोड़े कार्यकर्ता रह जायं, परंतु दुर्बलों को बलवान बनाने का दूसरा कोई उपाय नहीं है।’
नोआखाली मैं रचनात्मक अहिंसा के कुछ प्रयोग करता रहा था। उनमें से कुछ को मैंने गांधीजी की आज्ञा से ‘हरिजन’ में लेखबद्ध किया था। उनका जिक्र करते हुए वे बोले, ‘मैं स्वयं ये सब बातें करने के लिए कितना उत्सुक रहा हूं। जरूरत इस बात की है कि हम मौत का डर छोड़ कर जिनकी सेवा करें, उनके हृदय को जीत कर उनका स्नेह प्राप्त करें। तुमने यह काम किया है। प्रेम के साथ तुमने ज्ञान और परिश्रम को जोड़ दिया है। दूसरों को भूल जाओ। अगर एक आदमी – उदाहरणार्थ केवल तुम ही – अपना कर्तव्य पूरी तरह और अच्छी तरह अदा करे, तो दूसरे सब उसमें आ जाते हैं। मैंने तुम्हें बता दिया कि मुझे तुम्हारी यहां जरूरत है। मुझसे दूर रहकर तुमने और मैंने बहुत-कुछ खोया है। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मैं दुनिया को देना चाहता था, परंतु नहीं दे सका; क्योंकि मैं तुम्हें नोआखाली में छोड़ आया था। फिर भी मुझे लगता है कि सब बातों को देखते हुए हानि के बजाय लाभ ही अधिक हुआ है। तुम नोआखाली में जो कुछ कर रहे हो, वह मेरी दृष्टि से अधिक मूल्यवान है।’
मैंने गांधीजी से पूछा कि अगर नोआखाली के अधिकारी स्थानीय बदमाशों और उनके बदनाम सरगनों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करें, तो हमें क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा कि इसका मार्ग यह है कि हम सरगनों से साहस और श्रद्धा के साथ मिलें और मन में जरा भी कटुता या क्रोध न रखकर उनके बुरे काम उन्हें समझा दें। उनके साथ बात करने में कोई कमजोरी नहीं दिखानी चाहिए या इधर-उधर की बातें नहीं होनी चाहिए। मुंह देखी कहने की नीति अपनाने से काम नहीं चलेगा। यदि तुम्हारे हृदय में प्रेम के सिवा कुछ नहीं है, तो तुम्हारी बात उन्हें जंच जायेगी। इसके बाद उन्होंने अपनी प्रस्तावित पाकिस्तान यात्रा की योजना की रूपरेखा मेरे सामने रखी और कहा, ‘तुम नोआखाली जा सकते हो और वहां की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर समय पर लौट सकते हो, ताकि मेरे साथ पाकिस्तान चल सको।’ मैंने उनसे कहा कि तब तो मुझे नोआखाली के लिए आज ही रवाना हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘नहीं, तुम मेरे वर्धा के लिए रवाना होने के बाद ही जा सकते हो। इसका अर्थ यह है कि शायद 2 फरवरी को जा सकते हो।’ यह भी मुझे जरा असाधारण-सी बात लगी। वे कभी किसी से अपने कर्तव्य के स्थान पर विलंब से लौटने की बात नहीं कहते थे।
साढ़े दस बजे वे आराम करने के लिए अपनी खटिया पर लेट गये और नींद आने से पहले अपना दैनिक बंगला पाठ तैयार करते रहे। जब वे जागे तो उन्होंने सुधीर घोष को देखा, जो हाल ही में हैदाराबाद से लौटे थे। सुधीर ने और बातों के साथ-साथ ‘लंदन टाइम्स’ की एक कतरन और एक अंग्रेज मित्र के पत्र के कुछ अंश गांधीजी को पढ़कर सुनाये, जिनसे प्रकट होता था कि किस प्रकार कुछ लोग सरदार पटेल और पंडित नेहरू के मतभेदों से लाभ उठाकर उन्हें बढ़ाने के लिए सतत प्रचार कर रहे थे – एक ओर वे सरदार को संप्रदायवादी बताकर उनकी निन्दा कर रहे थे और दूसरी ओर पंडित नेहरू की प्रशंसा का ढोंग रच रहे थे। गांधीजी बोले, ‘मैं इससे अच्छी तरह परिचित हूं। इसकी चर्चा मैं अपने एक प्रार्थना-प्रवचन में पहले कर चुका हूं। मैं सोच रहा हूं कि इस विषय में और क्या किया जाय।’
तीसरी पहर किसी जरूरी काम से मैं शहर जाने वाला ही था कि दिल्ली के मौलाना लोग आ पहुंचे। उनके साथ अपनी सेवाग्राम और पाकिस्तान की सोची हुई मुलाकात की चर्चा करते हुए गांधीजी ने उनसे कहा कि यदि मैं प्रस्तावित तारीख को सेवाग्राम नहीं जाता हूं, तो मेरी सारी योजनाएं गड़बड़ा जायेंगी। मौलाना बोले कि हम अपने लिए आपको रोकना नहीं चाहते, क्योंकि हम जानते हैं कि आप जहां भी होंगे, वहां हमारे लिए काम करते रहेंगे। इस बीच हम आपको बता सकेंगे कि आपके उपवास के फलस्वरूप जो वचन दिये गये हैं, उनका कैसा पालन हो रहा है। हमें आशा है कि आप 14 फरवरी तक दिल्ली लौट सकेंगे। गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘मुझे 14 तारीख तक यहां लौट आने की आशा जरूर है। परंतु विधाता की और कुछ इच्छा हुई तो बात दूसरी है। परंतु मुझे यह भरोसा नहीं कि मैं परसों भी दिल्ली छोड़ सकूंगा। सब कुछ ईश्वर के हाथ में है।’
यह पूछने पर कि आपके सेवाग्राम पहुंचने की तारीख की सूचना का तार भेज दिया जाय, उन्होंने कहा, ‘तार पर रुपया बरबाद क्यों किया जाय? मैं अपने प्रार्थना-प्रवचन में तारीख की घोषणा कर दूंगा। वे लोग तार पहुंचने से भी पहले सेवाग्राम के अखबारों में देख लेंगे।’
दोपहर को डेढ़ बजे उन्होंने पेट पर मिट्टी की पट्टी रखवायी। धूप तेज थी, इसलिए उन्होंने मुंह पर छाया करने के लिए नोआखाली के किसानों वाला बांस का टोप सिर पर रख लिया। एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या यह सच है कि आप 1 फरवरी को सेवाग्राम जाने वाले हैं? गांधीजी ने पूछा : ‘ऐसा कौन कहता है?’ पत्रकार ने उत्तर दिया, ‘अखबारों में खबर है।’ गांधीजी बोले, ‘हां, अखबारों ने घोषणा की है कि गांधी पहली तारीख को जा रहा है। लेकिन मैं नहीं जानता वह गांधी कौन है।’
मिट्टी की पट्टी उतर जाने पर मुलाकातें फिर शुरू हो गयीं। गांधीजी से मिलने आने वालों में सीलोन के डॉ. डीसिल्वा और उनकी पुत्री भी थीं। लड़की ने उनके हस्ताक्षर लिये। शायद गांधीजी ने अपने जीवन में अंतिम हस्ताक्षर यही दिये थे। उसके बाद एक फ्रांसीसी फोटोग्राफर आया और उसने गांधीजी को एक चित्रावली भेंट की। उसके बाद दूसरी मुलाकातें हुईं। मैं शहर गया उस समय ‘लाइफ’ पत्रिका की मार्गरेट बर्क-व्हाइट गांधीजी से भेंट कर ही रही थीं।
4 बजे मुलाकातें खतम हुईं। इसके बाद गांधीजी सरदार पटेल के साथ अपने कमरे में चले गये और कातते-कातते उनसे एक घंटे से अधिक बातचीत करते रहे। सरदार के साथ उनकी पुत्री भी आयी थी। गांधीजी ने सरदार से कहा कि यद्यपि पहले मैंने अपना यह विचार प्रकट किया था कि दोनों में से एक अर्थात आप या जवाहरलाल मंत्रिमंडल से हट जायं, लेकिन अब मैं निश्चित रूप से इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि दोनों का वहां रहना अपरिहार्य है। आप दोनों की जरा-सी भी फूट इस स्थिति में विनाशकारी सिद्ध होगी। मैं इस विषय पर शाम की प्रार्थना-सभा में भी बोलूंगा। पंडित नेहरू प्रार्थना के बाद मुझसे मिलेंगे, तब उनसे भी इस प्रश्न की चर्चा करूंगा। जरूरत हुई तो सेवाग्राम जाना मैं स्थगित कर दूंगा और तब तक दिल्ली नहीं छोड़ूंगा, जब तक आप दोनों के बीच की दरार अंतिम रूप से मिट नहीं जायेगी।
सरदार के लिए यह गांधीजी का अंतिम आदेश बन गया। पंडित नेहरू के साथ उनका मतभेद बाद में भी बना रहा, परंतु दोनों को मिलाकर रखने वाला वफादारी का बंधन अटूट हो गया। गांधीजी की मृत्यु के बाद एक बार मुझे सरदार के पास गांधीजी के सौंपे हुए मुसलमानों के कुछ मामलों में न्याय प्राप्ति के लिए जाने का अवसर मिला। सरदार ने खुले दिल से सहायता की और कुछ लोगों को राहत दिलवायी। कुछ और मामलों में उन्होंने मुझे पंडित नेहरू के पास जाने को कहा। मैंने पंडित नेहरू को थोड़ा आवेगपूर्ण पत्र लिखा और मसौदा सरदार को दिखाया। वे बोले, ‘बहुत अच्छा, भेज दो।’ मैं सरदार के कमरे से निकला ही था कि पंडित नेहरू अंदर आये। उनका चेहरा पीला, चिन्तित और कई रातों के जागरण से निस्तेज दिखायी दिया। मैं इस विचार को बरदाश्त नहीं कर सका कि उन पर जो भार पड़ रहा था, उसे और बढ़ाऊं। मैंने सहज बोध से अपना तैयार किया हुआ मसौदा रद्द कर दिया। ज्यों ही पंडित नेहरू गये, सरदार उसी कमरे में चले आये जहां मैं था। उन्होंने पूछा, ‘तुमने जवाहरलाल को वह पत्र भेज दिया?’ मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं।’ ‘अच्छा, तो उसे न भेजो। तुमने देखा, जब वे अंदर आये तो उनका चेहरा कैसा था? वे चिन्ता के भार से बुरी तरह दबे हुए हैं। …’ मैंने उन्हें दिखाया कि मसौदे पर लाल पेंसिल से ‘रद्द किया’ लिखा है। वे निश्चिन्त होकर लौट गये।
सरदार और पंडित नेहरू के बीच विचारधारा का संघर्ष गांधीजी के निधन के पश्चात् भी चलता रहा, परंतु वस्तुस्थिति के गंभीर बनाने वाले प्रभाव ने तथा देश के कल्याण के लिए दोनों की संपूर्ण निस्स्वार्थ निष्ठा ने – जिसके लिए दोनों प्रतिज्ञा-बद्ध थे – व्यवहार में दोनों की कार्य-पद्धति को लगभग एक-सा बना दिया। जहां तक मुझे मालूम है, अपने साथी के प्रति रही बुनियादी वफादारी में सरदार की ओर से रत्ती भर भी फर्क नहीं आया और पंडित नेहरू समय के नरम बनाने वाले प्रभाव के साथ ज्यों-ज्यों उन पर प्रशासन की चिन्ताएं और बोझ बढ़ते गये, त्यों-त्यों सरदार के अद्वितीय गुणों की कदर करने लगे। ढाई वर्ष बाद और अपने नियम से तीन ही महीने पहले गांधीजी की जन्मगांठ के एक अयोजन में 2 अक्टूबर, 1950 को सरदार पटेल ने इन्दौर के अपने एक स्मरणीय भाषण में कहा : ‘‘हमारे नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। बापू ने अपने जीवनकाल में उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसकी घोषणा कर दी। बापू के तमाम सिपाहियों का धर्म है कि वे बापू के आदेश का पालन करें। जो उस आदेश को हृदयपूर्वक उसी भावना से स्वीकार नहीं करता, वह ईश्वर के सामने पापी सिद्ध होगा। मैं बेवफा सिपाही नहीं हूं। मैं जिस स्थान पर हूं उसका मुझे कोई खयाल नहीं है। मैं इतना ही जानता हूं कि जहां बापू ने मुझे रखा था वहीं अब भी मैं हूं।’
साढ़े चार बजे आभा गांधीजी का शाम का खाना लाई। वह लगभग सुबह के जैसा ही था। प्रार्थना का समय निकट आ रहा था। परंतु सरदार की बातें अभी तक समाप्त नहीं हुई थीं। बेचारी आभा घबरा रही थी, क्योंकि वह जानती थी कि गांधीजी समय की पाबंदी को कितना महत्त्व देते हैं – खासतौर पर प्रार्थना के समय के बारे में। परंतु बीच में बोलने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। अंत में उससे रहा नहीं गया और उसने गांधीजी की घड़ी उठाकर उनका ध्यान खींचने के लिए उनके सामने रख थी। परंतु इससे भी कुछ न हुआ। उसकी परेशानी को देखकर सरदार की पुत्री ने कुशलतापूर्वक हस्तक्षेप किया। गांधीजी ने प्रार्थना-भूमि पर जाने की तैयारी करने के लिए उठते हुए सरदार से कहा, ‘अब मुझे तेजी से भाग जाना होगा।’ रास्ते में उनकी एक सेविका ने उन्हें बताया कि काठियावाड़ के दो कार्यकर्ता मुलाकात का समय मांग रहे हैं। गांधीजी ने जवाब दिया, ‘उनसे कह दो कि प्रार्थना के बाद आ जायं। मैं जीवित रहा तो उस समय उनसे मिलूंगा।’
फिर वे प्रार्थना-भूमि की दिशा में चले। उनके दोनों हाथ आभा और मनु के कंधों पर थे और वे उनके साथ हंसते और विनोद करते आगे बढ़ रहे थे। आभा ने तीसरे पहर उन्हें कच्ची गाजर पीसकर खिलायी थी। उसका जिक्र करते हुए उन्होंने उसे उलाहना दिया, ‘तो मुझे तू पशुओं का आहार खिला रही है।’ आभा ने उत्तर दिया, ‘बा इसे घोड़ों की खुराक कहती थीं।’ गांधीजी ने जोड़ा, ‘यह कितनी बड़ी बात है कि जिसे कोई छूना भी नहीं चाहेगा, उसी को मैं स्वाद लेकर खाता हूं।’ आभा ने विनोद किया, ‘बापू, आपकी घड़ी उपेक्षित अनुभव कर रही होगी। आप तो उसकी ओर देखते भी नहीं।’ उन्होंने व्यंग्य किया, ‘क्यों देखूं, जब तुम लोग मेरे समय की रक्षक हो?’ आभा ने कहा, ‘लेकिन आप तो समय-रक्षकों की तरफ भी नहीं देखते?’ गांधीजी हंस दिये। जब वे उस चबूतरे की सीढ़ियों पर चढ़ गये, जहां प्रार्थना होती थी, तो बोले, ‘मुझे दस मिनट की देर हो गयी। देर से आने में मुझे घृणा होती है। मैं ठीक पांच बजे प्रार्थना में उपस्थित रहना पसंद करता हूं।’ यह बातचीत एकाएक बंद हो गयी, क्योंकि गांधीजी ओर उनकी ‘बैसाखियों’ के बीच यह मौन समझौता था कि ज्यों ही वे प्रार्थना-भूमि में प्रवेश करें, सारे मजाक और बातचीत बंद हो जानी चाहिए – प्रार्थना के सिवा और कोई विचार मन में नहीं रहने चाहिए।
भीड़ ने हटकर गांधीजी के जाने और मंच तक पहुंचने के लिए रास्ता दे दिया। जब गांधीजी ने भीड़ के अभिवादन का उत्तर देने के लिए दोनों लड़कियों के कंधों पर से अपने हाथ हटाये, उसी समय कोई आदमी दाहिनी ओर से भीड़ को चीरता हुआ आगे आया। मनु ने उसका हाथ पकड़ कर उसे रोकना चाहा, परंतु उसने मनु को जोर से झटक दिया और प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़कर गांधीजी के सामने झुकते हुए अपने सात कारतूस वाले पिस्तौल से एक के बाद एक तीन गोलियां चलायी। उसने वार इतने निकट से किया था कि चलायी हुई गोलियों में से एक बाद में गांधीजी के कपड़ों की तहों में पायी गयी। पहली गोली पेट में दायीं तरफ नाभि से ढाई इंच ऊपर और मध्य रेखा की दाहिनी ओर साढ़े तीन इंच पर लगी। दूसरी गोली मध्यरेखा से एक इंच दायीं ओर सातवीं पसली के नीचे लगी और तीसरी गोली स्तनाग्र से एक इंच ऊपर और मध्यरेखा से चार इंच दूर वक्ष की बायीं ओर लगी। पहली और दूसरी गोलियां पीठ को पार करके बाहर निकल गयीं। तीसरी फेफड़े में जाकर बैठ गयी। पहली गोली लगने पर गांधीजी का जो पैर उठ रहा था, वह नीचे हो गया। दूसरी और तीसरी गोलियां चलीं तब तक गांधीजी पैरों पर खड़े ही थे। इसके बाद वे जमीन पर लुढ़क गये। उनके मुंह से निकले अंतिम शब्द थे, ‘राम ! राम !’
उपसंहार
गांधीजी के अवसान से दुनिया के सब वर्गों में और आम लोगों में व्यापक शोक, गमगीनी और व्यक्तिगत आघात का जैसा भाव उत्पन्न हुआ, वैसा शायद ही अन्य किसी व्यक्ति के अवसान से उत्पन्न हुआ होगा। हमारे लिए अब दुनिया में कुछ बाकी नहीं रहा, ऐसी भावना से भारत में कुछ लोग गांधीजी के अवसान के आघात से मर गये और कुछ लोगों ने आत्महत्या का प्रयास किया। दुनिया के सभी भागों से सहानुभूति, समवेदना तथा प्रशंसा के संदेशों की वर्षा हुई। इंग्लैंड के राजा और रानी, प्रेसिडेंट ट्रुमैन, श्रीमती रूजवेल्ट, पोप पायस, कैन्टरबरी के आर्च-बिशप, दलाई लामा, फ्रांस के राष्ट्रपति तथा विभिन्न राज्यों के प्रमुख शासकों और बड़े-बड़े अधिकारियों द्वारा भेजे हुए संदेश आये। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा समिति ने महात्मा गांधी को अंजलि अर्पण करने के लिए अपनी कार्रवाई बीच में ही रोक दी। संयुक्त राष्ट्र संघ स्थित इंग्लैंड के प्रतिनिधि फिलिप नोएल-बेकर ने ‘गरीब से गरीब, सबसे निचले वर्ग के लोगों तथा अत्यन्त अभागे लोगों के मित्र’ के रूप में गांधीजी का उल्लेख करके कहा, ‘उनकी सबसे महान सिद्धियां तो अभी आगे हमारे सामने आने वाली हैं।’ संयुक्त राष्ट्र संघ का ध्वज आधा झुकाया गया।
इस महान संकट के तीन दिन बाद पं. नेहरू ने भारत की संविधान सभा में कहा, ‘महापुरुषों के कांसे और संगमरमर के स्मारक खड़े किये गये हैं, परंतु विश्व शक्ति धारण करने वाला यह महापुरुष ….. लाखों-करोड़ों लोगों के हृदय में निवास करता है और अनंत काल तक निवास करता रहेगा। ….. आने वाले युगों में, हमारे युग से शताब्दियों और शायद सहस्राब्दियों बाद लोग इस पीढ़ी के बारे में सोचेंगे, जिसमें ईश्वर का यह दूत इस पृथ्वी पर विचरण करता था।’
नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका पर्ल बक ने महात्मा के अवसान को ‘दूसरा क्रूसारोहण’ कहा था। जापान स्थित मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मेकार्थर द्वारा दी हुई श्रद्धांजलि विशेष अर्थसूचक है, सबसे अधिक इसलिए कि वह एक व्यवसायी सैनिक योद्धा द्वारा दी गयी है। गांधीजी को अपने जमाने से बहुत ही आगे जीने वाला एक पैगम्बर बताकर उन्होंने कहा, ‘संस्कृति के विकास में – यदि इस संस्कृति और सभ्यता को जीवित रहना है – सब लोगों को गांधीजी की इस मान्यता को अंत में स्वीकार करना ही पड़ेगा कि झगड़े वाले प्रश्नों को पशुबल के सामुदायिक उपयोग द्वारा हल करने की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर केवल गलत ही नहीं है, बल्कि उसके अपने ही भीतर आत्मविनाश के बीज भी मौजूद हैं।’
गांधीजी के अवसान से उत्पन्न हुए संसार-व्यापी प्रत्याघात का अभूतपूर्व लक्षण यह था कि जो लोग गांधीजी से कभी मिले नहीं थे या जिन्होंने गांधीजी को कभी देखा नहीं था, ऐसे लोगों ने भी सारी दुनिया में वियोग का दु:ख अनुभव किया था। फ्रांस के लियो ब्लूम ने कहा, ‘गांधी को मैंने कभी देखा नहीं था। … उनकी भाषा मैं नहीं जानता, उनके देश में मैंने कभी पैर नहीं रखा, फिर भी मैं ऐसी वेदना और शोक अनुभव करता हूं, जैसे मैंने अपना कोई अत्यन्त निकट का प्रियजन खो दिया हो। इस असाधारण पुरुष के अवसान से सारा जगत शोक-सागर में डूब गया है।’
अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले समस्त राष्ट्र और जातियां इस बात को सहज भाव से स्वीकार करती थीं कि गांधीजी हमारे ध्येय के प्रबल समर्थक थे और हमारी आकांक्षाओं के प्रतीक थे। जोसेफ मिटकेल, जॉर्ज पाडमोर तथा रिचर्ड हार्ड आदि हबशी नेताओं ने कहा, ‘स्वतंत्रता के खातिर लड़ रहे अफ्रीकन लोगों के लिए गांधीजी का जीवन-कार्य सदा ध्रुवतारा तथा प्रेरणा रूप बना रहेगा।’ अमेरिकन हबशी स्त्रियों का नेतृत्व करने वाली मेरी बेथुन ने कहा, ‘ऊष्मा प्रदान करने वाली महान ज्योति बुझ गयी है। … उनकी आत्मा आकाश के तारों को छूने की तथा बंदूकों, संगीनों या रक्तपात के बिना संसार को जीतने की उत्कट आकांक्षा रखती थी। हम धरती की माताएं जेट विमानों की गर्जना, अणुबम के विस्फोटों तथा जंतुयुद्ध की अज्ञात भयंकरताओं से कांप रही हैं; महात्मा का सूर्य जहां अपना संपूर्ण प्रकाश फैला रहा है, उस पूर्व की तरफ हमें आशाभरी नजरों से देखना चाहिए।’ ‘दि न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा, ‘गांधी अपने पीछे विरासत के रूप में अपनी आध्यात्मिक शक्ति छोड़ गये हैं, जो यथासमय आधुनिक शस्त्रास्त्रों तथा हिंसा के क्रूर सिद्धांत पर विजय प्राप्त करेगी।’ न्यूयार्क के ‘पीएम’ नामक पत्र में अल्बर्ट ड्यूश ने लिखा, ‘गांधी के अवसान के संबंध में इस प्रकार भक्तिभावपूर्ण प्रतिक्रिया प्रकट करने वाले संसार के लिए अभी भी कुछ आशा बाकी है।’
-पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, प्यारेलाल
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