एक समय ऐसा था, जब रिश्ते-नाते, तीज-त्यौहार, विवाह-शादी, सभा-बैठक, सम्मेलन-कार्यक्रम, मित्रता-दोस्ती, मिलने-जुलने, आने-जाने की तैयारी और योजना महीनों तक बनती रहती थी। फिर पखवाड़े, सप्ताह, दिनों, घंटों से होते हुए मिनटों में सिमट गई। इसे विकास कहा गया। तकनीकी, विज्ञान और यंत्रों ने इसे आगे बढ़ाया। आज हम कहां खड़े हैं और आगे कहां जा रहे हैं, थोड़ी देर रुक कर, चिंतन-मनन, विचार तो कर लें। अपने अतीत की कुछ याद तो कर लें।
पहले घर-परिवार, आस-पड़ोस, गली-मोहल्ले के लोग, मित्र-मंडली, रिश्तेदार आदि दूर या नजदीक से आते और काम संभालते। परस्पर चर्चा, संवाद, संपर्क, बातचीत, काम का बंटवारा होता। योजना, तैयारी होती। साझा संस्कृति थी। एक दूसरे के सहारे, साथ, सहयोग, सहकार के बिना चलने की कल्पना करना ही दुश्वार था। कहावतें-मुहावरे भी सुनाये जाते थे। अकेले रहेगा तो कोई छप्पर उठाने भी नहीं आएगा। मौत पर कांधिए भी नहीं मिलेंगे। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
समाज, समूह और सामूहिकता लोगों की आवश्यकता थी। मिल-जुलकर काम करने का आनंद, मौज, सुख, मजा, आदत, मानस, भाव, सोच,समझ, माहौल और वातावरण था। समय की मांग भी थी। इसके बिना काम करना आसान भी नहीं था। परस्परावलंबन की सहज आवश्यकता महसूस होती थी। काम करने और करवाने में हक महसूस किया जाता था। आग्रहपूर्वक किसी को काम बताना सहज प्रक्रिया थी। काम पर नहीं बुलाने पर लोग अपनी तौहीन समझते थे। इंतजार करते थे। बिना बुलाए अपनापन मानकर खुद चले जाते थे, औरों को भी साथ ले जाना अपना कर्तव्य मानते थे।
धीरे-धीरे हम तथाकथित तौर पर विकसित होने लगे। विकास के नाम पर नई-नई बातें, सोच, यंत्र, व्यवस्थाएं खड़ी होने लगीं। सामूहिकता सीमित, संकुचित होने लगी। धीरे-धीरे आदतें बदलने लगीं, बदली जाने लगीं। प्रचार-प्रसार, विज्ञापनों, साधन-सुविधाओं और यंत्रों ने मानसिकता बदलने में जोरदार मदद की। परस्परावलंबन से परावलंबन की ओर कदम तेजी से बढ़ने लगे। व्यापकता से सीमाएं और संकुचन बढ़े, समूह के स्थान पर हम परिवारों में ठहरे, परिवार से व्यक्ति तक पहुंचे। अपने काम-काज भी ठेके पर होने लगे। अब किसी इवेंट-मैनेजमेंट की आवश्यकता होती है, तो ठेकेदारी प्रथा चल पड़ी है। जीवन से लेकर मौत तक के क्रियाकलाप अब पैसा फेंको, तमाशा देखो की तर्ज पर पहुंच गए हैं।
परस्पर साझा-संस्कृति, वार्तालाप, संवाद, संपर्क, सहयोग, सहकार की आवश्यकता समापन की ओर बढ़ रही है। अब कंपनियों को ठेके दो और इवेंट मैनेजमेंट करवाओ। थीम सामने रखो, बजट बताओ और फिर आपके लिए सोचने, समझने, करने का काम कोई और करेगा। आप केवल संख्या, बजट, काम बताओं और मजे करो। अब तो मौत, अस्थि संस्कार तक के लिए भी सारी व्यवस्था करने वाली कंपनियाँ तैयार हैं। आप पैसा तैयार करके रखिए बस। आपको कोई तनाव, दबाव, मनाव, चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। कोई साथ है या नहीं, यह चिंता मत करिये, येन-केन प्रकारेण केवल पैसा बनाओ और फिर कंपनी को ठेका देकर मौज करो, आपकी व्यवस्था अब ठेके पर है।
हम कहां जा रहे हैं। यह अभी से सोच-समझ कर आओ लौट चलें, उस अविकसित दुनिया में, जहां सांझ है, प्रेम है, अपनापन है, संवेदना है, भावना है, संवाद है, संपर्क है, सहयोग है, सहकार है, समय है, सुख दुःख है, कहा-सुनी है, लाभ-हानि है, मैं भी जहां हम है, परस्परावलंबन है। आओ लौट चलें।
-रमेश चन्द्र शर्मा
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