आज से लगभग 48 वर्ष पहले की एक साधारण-सी घटना, एक जुलूस या कहें, एक सभा में ऐसा क्या है कि हम उसे हर वर्ष और बार-बार याद करते हैं? हम, यानी ख़ास कर मुझ जैसे उस जुलूस में शामिल लोग, जो तब युवा थे. सच कहूं तो अब थोड़ा संकोच भी होने लगा है, मानो एक नॉस्टेल्जिया की तरह हम अतीत के किसी कालखंड को भूल नहीं पा रहे हैं. चूंकि हम उस दौर, उस आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर गर्व का अनुभव करते हैं, इसलिए एक कर्मकांड की तरह उसे याद कर लेते हैं. शायद यह सच भी है. मेरे और मुझ जैसों के लिए तो इसलिए भी खास है कि समग्र बदलाव के उस आंदोलन में थोड़ा-सा योगदान देने के अलावा हम अपने जीवन में खास कुछ कर भी नहीं सके, जिसे इस तरह याद कर सकें, लेकिन एक सच यह भी है कि ‘पांच जून’ आजाद भारत के इतिहास की एक खास तारीख बन चुकी है, इसलिए कि उसी दिन बिहार (झारखंड सहित) के विद्यार्थियों की चंद मांगों को लेकर जो आक्रोशजनित आंदोलन 18 मार्च, 1974 को शुरू हुआ था, उसने एक व्यापक, गंभीर और समाज परिवर्तन के आंदोलन का रूप ले लिया. इसलिए कि उसी दिन पटना के गांधी मैदान में आजादी के आंदोलन के एक वृद्ध हो चले नायक ने उसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आंदोलन करार दिया. तब वह महज विधानसभा भंग करने और सरकार बदलने का नहीं, समाज और व्यवस्था बदलने का आंदोलन बन गया.
मुझ जैसे लाखों युवा तो उस आंदोलन में यूं ही कूद पड़े थे. बिना यह जाने-समझे कि इससे हासिल क्या होगा. बस तत्कालीन सरकार के अहंकार और दमनकारी रवैये पर गुस्सा था. हालांकि आठ अप्रैल को ही जेपी के आंदोलन के समर्थन में आ जाने और पटना में एक मौन जुलूस का नेतृत्व करने से यह लगने लगा था कि कुछ अच्छा ही होगा.
पांच जून की उस ऐतिहासिक रैली, जिसे उस समय तक की पटना की सबसे बड़ी रैली माना गया था, के सिर्फ एक प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा. राजभवन से रैली की वापसी के दौरान एक विधायक के फ़्लैट से गोली चली. गोली पश्चिम चंपारण के विधायक फुलेना राय के फ़्लैट से चली थी. इत्तेफाक से तब हमारी टोली उसी स्थान पर थी. स्वाभाविक ही भारी उत्तेजना फैल गयी. जुलूस में शामिल लोग उस जगह जमा होने लगे. कभी भी कोई भी अनहोनी हो सकती थी. तभी माइक से जेपी की अपील सुनाई पड़ी, ‘आप सभी लोग चुपचाप शांति बनाये रखते हुए गांधी मैदान चले आयें.’ यह सुनते ही सभी शांत हो गये. यह था जेपी का असर. यदि उस समय हिंसा भड़क गयी होती, तो पता नहीं आंदोलन का स्वरूप क्या हो जाता! क्या पता उस दिन गांधी मैदान में वह सभा हो भी पाती या नहीं. बहरहाल, सभा हुई.
गांधी मैदान में जेपी, जिन्हें शायद उसी सभा में पहली बार ‘लोकनायक’ घोषित किया गया, एक शिक्षक की तरह बोलते रहे. आवाज में कोई उत्तेजना नहीं. मेरे पल्ले बहुत कुछ पड़ा भी नहीं या कहूं, उतने धैर्य से सुन ही नहीं सका. बस इतना समझ में आया कि यह कोई तात्कालिक या कुछ दिनों का मामला नहीं है…, कि इसमें लगना है तो लंबी तैयारी के साथ लगना होगा. शायद जीवन भर.
जल्द ही वह आंदोलन देशव्यापी होने लगा. उसका ताप केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार तक पहुंचने लगा, लेकिन इसके साथ-साथ यह भी हुआ कि समाज परिवर्तन के लक्ष्य पर सरकार बदलने का तात्कालिक उद्देश्य हावी होने लगा. पांच जून को जेपी ने गांवों से जुड़ने, जनता को जागरूक करने और लोगों को संगठित करने का जो दायित्व हमें सौंपा था, हम उस काम में ईमानदारी से नहीं लग सके.
जेपी का उस दिन का भाषण बहुप्रचारित है, जिसमें उन्होंने पहली बार सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष किया था. कहा था- ‘मित्रों, आंदोलन की चार मांगें हैं- भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोजगारी का निवारण हो और कुशिक्षा में परिवर्तन हो. लेकिन समाज में आमूल परिवर्तन हुए बिना क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा या कम हो जायेगा? मंहगाई और बेरोजगारी मिट जायेगी या कम हो जायेगी? शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन हो जायेगा? नहीं. यह संभव नहीं है, जब तक कि सारे समाज में एक आमूल परिवर्तन न हो. इन चार मांगों के उत्तर में समाज की सारी समस्याओं का उत्तर है. यह सम्पूर्ण क्रांति है मित्रों.’ फिर उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के मुख्य आयाम भी बताये, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक, शैक्षणिक और नैतिक क्रांति. साथ में यह भी कहा कि डॉ लोहिया ने जिस सप्त क्रांति की बात कही थी, यह सम्पूर्ण क्रांति भी लगभग वही है. अब इसमें लोहिया के नर-नारी समता का मूल्य जोड़ दें तो बदलाव का आयाम और स्वरूप लगभग स्पष्ट हो जाता है. जेपी बीच-बीच में यह तो कहते ही थे कि क्रांति का कोई ब्ल्यू प्रिंट नहीं होता, हर क्रांति अपना स्वरूप और तरीका खुद तय करती है. हां, यह निर्विवाद था और है कि जेपी की और अब हमारी कल्पना की सम्पूर्ण क्रांति शांतिमय होगी. बिहार आंदोलन के इस नारे में भी यह स्पष्ट था कि ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा.’
आंदोलन आगे बढ़ता और फैलता गया. सरकार आंदोलन को बलपूर्वक दबाने, कमजोर करने-तोड़ने के हर संभव प्रयास करती रही. इसी क्रम में चार नवम्बर, 1974 को पटना में जेपी पर लाठी तक चली. सत्ता सचमुच बौरा गयी थी. इंदिरा गांधी ने आरोप लगाया कि आंदोलन अलोकतांत्रिक है…, कि जेपी एक निर्वाचित विधानसभा और सरकार को भंग करने की अनुचित मांग का समर्थन कर रहे हैं. जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया, कहा कि ठीक है, हम चुनाव में ही दिखायेंगे कि जनता किसके साथ है.
जाहिर है, उसके वाद आंदोलन पर राजनीतिक रंग भी कुछ ज्यादा ही हावी हो गया. उसके बाद 12 जून, 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द करने के फैसले के बाद तो देश का वातावरण ही बदल गया. निश्चय ही आंदोलन के दबाव और देश में फैलते उसके प्रभाव के काण ही इंदिरा गांधी पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का ऐसा दबाव पड़ा कि उन्होंने 25 जून की रात देश में इमरजेंसी लगा दी. जेपी सहित विपक्ष के लगभग तमाम नेता गिरफ्तार हो गये. उसके बाद जो हुआ, सब इतिहास में दर्ज है. बाद में हमने यह बात बहुत शिद्दत से महसूस की कि यदि जेपी की इच्छा और उनके निर्देशों के अनुरूप हम गाँवों से जुड़ सके होते, तो इमरजेंसी में भी वैसी दहशत और खामोशी नहीं दिखती, जो दिखी.
1977 में केंद्र, उसके बाद फिर अनेक राज्यों में सत्ता तो बदली, पर बहुत कुछ नहीं बदला. कम से कम जेपी की कल्पना के अनुरूप तो नहीं ही बदला. तब से अब तक देश-दुनिया में बहुत बदलाव हो चुका है, लेकिन इसे सकारात्मक नहीं कह सकते. आज तो देश और भी निराशाजनक दौर से गुजर रहा है. बिना घोषणा के तानाशाही के लक्षण दिखने लगे हैं.
आज बहुतों को लग सकता है कि जो आंदोलन अंततः निष्प्रभावी और विफल साबित हुआ, उसे याद क्यों रखें! अपने अतीत के इस स्वर्णिम पन्ने को इसलिए याद रखा जाना चाहिए कि उस आंदोलन से निकली विभिन्न धाराओं ने भारतीय राजनीति की दशा-दिशा को गहरे प्रभावित किया, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. उस आंदोलन से युवाओं की शक्ति स्थापित हुई. लोकतंत्र मजबूत हुआ. दोबारा इमरजेंसी लगने की आशंका लगभग निरस्त हुई. मानवाधिकार को मान्यता मिली. उस आंदोलन से निकले समूहों ने देश भर में जनता के सवालों को उठाने, उन्हें संगठित करने का काम जारी रखा. जल-जंगल-जमीन के सवाल को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बनाया.
लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज जो राजनीतिक समूह देश की सत्ता और राजनीति पर प्रभावी है, वह भी खुद को जेपी और उस आंदोलन का वारिस होने का दावा करता है. यह समूह उस आंदोलन के मूल्यों के उलट एक संकीर्ण हिंदुत्व के विचार से लैस है और येन केन प्रकारेण उसे देश पर थोपना चाहता है. लोकतंत्र के नाम पर असहमति और सवाल पूछने के अधिकार को वह नकारता है. यदि वे अपनी मंशा पूरी करने में सफल हो गये, तो यह उस आंदोलन की बहुत बड़ी पराजय होगी. इससे उसका नकारात्मक होना भी सिद्ध होगा. ऐसा न हो, यह दायित्व उन लोगों पर है, जो खुद को ‘सम्पूर्ण क्रांति’ धारा का असली वारिस मानते हैं, जो इस संकीर्णता और धर्मोन्माद की राजनीति को गलत मानते हैं, जो इस देश को विषमता और अन्याय से मुक्त, समानता, बंधुत्व और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित लोकतंत्रात्मक देश बनाना चाहते हैं. आज यदि हम ऐसा करने का संकल्प ले सकें, तभी ‘पांच जून’ को याद करना सार्थक होगा.
-श्रीनिवास
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