कलकत्ते से अमृतसर और उससे भी आगे पेशावर, पाकिस्तान तक जाने वाला देश के सबसे बड़े राजमार्ग, शेरशाह सूरी मार्ग या पुराने जीटी रोड पर चलते हुए जब आप चन्दौली जिले की सीमा 2 मिलती है दक्षिण से उत्तरवाहिनी होती हुई गंगा। काशी की नगर सीमा से थोड़ा आगे बढ़ते ही गंगा में वरुणा की धारा भी आ मिलती है। गंगा-वरुणा के इस संगम से जो त्रिकोण बनता है, वहां स्थित हैं काशी रियासत के पुराने किले के कुछ ध्वंसावशेष। यह इलाका किला कोहना के जंगलों से ढका हुआ है। इन जंगलों को कभी आनंद वन कहते थे। गया में बोध होने के बाद जब बुद्ध काशी आये, तो कुछ समय आनंद वन में ही विचरण करते रहे। राजघाट से सारनाथ तक फैले हुए इसी सघन वन में बैठकर उन्होंने अपने पांच शिष्यों को प्रथम उपदेश दिया था।
सभ्यता के विकास की मार प्राय: प्रकृति पर ही सबसे पहले पड़ती है। कालांतर में विकास के नाम पर सड़कों और भवनों का निर्माण बढ़ता गया और आनंद वन का आकार घटता गया। आनंद वन के अब दो हिस्से रह गये हैं। एक टुकड़ा कचहरी क्षेत्र में बचा हुआ है और दूसरा हिस्सा यहां राजघाट में। फैक्ट्रियों का कचरा, सीवर का मल-जल और शहरी कूड़े का अंबार लेकर जब वरुणा किला कोहना के इन जंगलों में प्रवेश करती है, तो रसायनों से झाग-झाग हुआ इसका पानी काला पड़ जाता है। यही सड़ा हुआ दुर्गंधयुक्त पानी गंगा को सौंपकर वरुणा गंगा में समा जाती है।
साधना केन्द्र में मनीषियों की सांसें बसी हैं
सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी के परिसर को साधना केन्द्र के रूप में जाना जाता है। इस प्रेरक भूमि पर पहली बार मैं 2005 में आया था। 2005 के अंतिम महीनों में ‘रोजगार को मूल अधिकार’ बनाने के लिए एक अभियान चलाया गया था। इसी सिलसिले में कोलकाता से दिल्ली तक ‘साइकिल-मार्च’ का आयोजन किया गया था, जिसका एक पड़ाव इस परिसर में था।
गहरी शाम को हम भभुआ से चलकर यहां पहुंचे थे। अविनाश भाई उस वक्त यहां की व्यवस्था की देखरेख कर रहे थे। यात्रा में 50 से ज्यादा साइकिलें थीं और लगभग 60 लोग थे। सबके रहने-खाने का अच्छा इंतजाम था। इसी दरम्यान हमें बताया गया कि इस धरती पर विनोबा, जयप्रकाश नारायण, शंकरराव देव, राधाकृष्ण बजाज, आचार्य राममूर्ति, नारायण देसाई, कृष्णराज मेहता जैसे तपस्वियों के पांव पड़े हैं। एक बारगी ऐसा लगा मानो, उनके पांवों की धमक की अनुगूंज हमें निर्देशित क1र रही है कि हमारी दिशा क्या हो। यहां की फिजाओं में उनके सांसों की गर्माह1ट आज भी कायम है, दीवारों पर उनके अक्स उकेरे गये हैं।
अब जब इस प्राणवान धरती को कोई ‘जमीन का टुकड़ा’ कहता है तो गहरा आघात लगता है। यह हमारे महान पूर्वजों की धरोहर है और इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है।
-अरविन्द अंजुम
संत विनोबा ने इन्हीं जंगलों में सर्व सेवा संघ परिसर की स्थापना एक परिवार के रूप में सहजीवन के उद्देश्य से की। सहजीवन और साधना के प्रयोग शुरू करने से पहले तब के बड़े सर्वोदय नेताओं ने साथ बैठकर इसके उद्देश्य, स्वरूप और कार्यक्रम आदि के बारे में सोचा और एक सर्वसम्मत नोट तैयार हुआ। इसी को आधार मानकर अगले साल भर इस दिशा में सम्मिलित प्रयास हुआ। कुछ कल्पनाएं स्पष्ट हुईं, कुछ नये अनुभव आये और वास्तविक परिस्थिति समझ में आयी। लक्ष्य की तरफ गति में किन-किन मर्यादाओं का पालन अथवा उल्लंघन हुआ, यह ध्यान में आया और इन सभी बातों का जिक्र साधना केन्द्र के प्रथम वार्षिक समारोह में किया गया। हर वर्ष के प्रारंभ में कार्ययोजना एवं कार्यक्रम के बारे में मिलकर सोचना, वर्ष के अंत में सोचे हुए पैमाने पर कार्यक्रमों का क्रियान्वयन संबंधी वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना तथा उसी आधार पर आगामी वर्ष की कार्ययोजना तैयार करना, एक नियम बन गया। सहजीवन, सह अध्ययन, अन्वेषण, संपर्क और साधना का यह यश निरंतरता के साथ चल पड़ा। विनोबा के शिष्य रहे कृष्णराज मेहता अपनी पुस्तक ‘अंत्योदय से सर्वोदय’ में साधना केन्द्र के बारे में तय किये गये स्वानुशासन प्रक्रिया का संपूर्ण ब्योरा देते हैं।
साधना केन्द्र की स्थापना का उद्देश्य
तय किया गया कि प्राणिमात्र की मूलभूत और आंतरिक एकता का ज्ञान और प्रतीति (नॉलेज ऐंड कान्शसनेस ऑफ दि फंडामेंटल यूनिटी ऑफ लाइफ) इस केन्द्र की आधारशिला होगी। सेवा, जिसका प्रधान उद्देश्य समाज-परिवर्तन है, करते हुए तथा योजनापूर्वक स्वावलंबन साधते हुए जीवन का अनंत के साथ तालमेल और प्राणिमात्र के साथ एकता का प्रयत्न करने की साधना इसका लक्ष्य होगा।
साधकों ने महसूस किया कि एक साधना केन्द्र के बिना हम नये मानव और नये समाज के निर्माण के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकते। शारीरिक, मानसिक और वैचारिक परिवर्तन इसके बिना संभव नहीं हैं। अत: प्रेमपूर्वक क्रांति के कार्य में लगे हुए कार्यकर्ताओं के लिए यह स्थान साधना, सेवा, सह-अध्ययन और अन्वेषण का केन्द्र बने, यह कल्पना की गयी।
साधना केन्द्र की दिनचर्या
साधना केन्द्र में सहजीवन के लिए स्वानुशासन सहित आश्रम जीवन के अनेक नियम तय किये गये। रात साढ़े नौ बजे से भोर साढ़े चार बजे तक संपूर्ण शांति रखी जायेगी। इसके अलावा दिन में भी एक घंटा शांति का होगा। साधना केन्द्र में रहने वाले लोग दिन में कम से कम एक बार साथ बैठेंगे। वे अपने आंतिरक भावों की एकता का अनुभव तथा यूनिवर्सल फेथ का विकास कर सकें, इसके लिए उपासना को उपयोगी माना गया। उपासना का मुख्य स्वरूप मौन चिन्तन का होगा। मौन चिन्तन में दिशा और प्रेरणा मिले, इसके लिए यथासंभव बोधप्रद या भावप्रद भजन गाये जायेंगे। सफाई, रसोई, वस्त्र उत्पादन, खेती और गोपालन के दैनिक क्रम में श्रम कार्यों का नियमित आयोजन होगा। श्रम-कार्य, कार्य योजना और योजना व्यवस्था ऐसी हो कि चित्तशुद्ध रहे, उत्पादन बढ़ता रहे और काम करने में आनंद आये।
साधना
साधना की दृष्टि से हर व्यक्ति स्वतंत्र होगा। वह अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार साधना करता हुआ आगे बढ़ेगा। साधना की कोई विशिष्ट सामूहिक पद्धति नहीं होगी। व्यक्ति स्वेच्छा से परस्पर अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करेंगे, जिससे एक की साधना का लाभ सहज ही दूसरे को उपलब्ध हो सके। एकादश व्रत हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण के दीपस्तम्भ होंगे। पारस्परिक और सामाजिक व्यवहार में इन एकादश व्रतों के दाखिल होने से ही साधना प्रकट होगी।
पारिवारिक जीवन
साधना केन्द्र का पारिवारिक जीवन मुक्त एवं स्नेहमय रहे तथा आपसी व्यवहार मित्रतापूर्ण हो, ऐसी कोशिश रहेगी। परिवार के सदस्य सम्मिलित जीवन जियेंगे। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति परस्पर सहयोग द्वारा श्रम-जनित उत्पादन से करने की कोशिश करेंगे। स्वावलंबन में जो कमी रहेगी, उसकी पूर्ति वाह्य सहायता से हो जायेगी।
अध्ययन-अन्वेषण
केन्द्र पर अध्ययन, अन्वेषण का जो काम चलेगा, उसका मुख्य लक्ष्य समाज परिवर्तन और संगठन की अहिंसात्मक प्रक्रिया का आविष्कार होगा। मोटे तौर पर इस प्रवृत्ति के तीन अंग होंगे –
मुख्य उद्देश्य से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण विषय चुन लिए जायें। जिन-जिन विषयों के अध्ययन और अन्वेषण के लिए योग्य कार्यकर्ता मिलते जायें, उनके अन्वेषण का काम आरंभ किया जाये।
समय-समय पर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 2-4-6 सप्ताह केन्द्र पर रहने के लिए निमंत्रित किया जाये। उनके सहवास के लिए इच्छुक तथा उनके साथ सह-अध्ययन, सह-चिन्तन का लाभ उठाने की दृष्टि से 15 से 20 कार्यकर्ताओं की एक टोली उस अवधि में केन्द्र पर रह सके, इसका प्रबंध किया जाये।
सर्वोदय के प्रयत्न में लगे हुए हजारों कार्यकर्ता देश भर में फैले हुए हैं। उनमें से अनेक अपने-अपने स्थानों पर रहते हुए भी अध्ययन, अभ्यास करने की इच्छा रखते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं के अध्ययन के लिए जो सामान्य विषय हो सकते हैं, उन विषयों के अध्ययन का व्यवस्थित क्रम तैयार किया जाये, ताकि कार्यकर्ताओं को आवश्यक मदद मिल सके।
उपर्युक्त तीन बातों के अलावा, सर्व सेवा संघ की ओर से शांति-सैनिकों के शिक्षण की जो योजना बने, उसके अनुसार शिक्षण का प्रबंध भी इस केन्द्र में हो सके, इसकी कोशिश की जाये। इन मर्यादाओं के साथ शुरू हुई साधना केन्द्र की गतिविधियां, समाज के आध्यात्मिक आचरण को दिशा देने वाला संबल बनीं और सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुए देश में समाज के निर्माण का जरिया बनीं। आचार्य विनोबा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, धीरेन्द्र मजूमदार, बिमला ठकार, दादा धर्माधिकारी, आचार्य राममूर्ति, नारायण देसाई, सिद्धराज ढड्ढा, ठाकुरदास बंग आदि गांधी विचार के अनेक साधक समय-समय पर यहां आये, यहां रहकर साधना की, पीढ़ियों को प्रशिक्षित किया और विचार तथा श्रम साधना का काम आगे बढ़ाया। आगे चलकर सर्वोदय विचार के सम्यक प्रचार व प्रसार की दृष्टि से साधना केन्द्र परिसर में सर्व सेवा संघ ने विधिवत अपने प्रकाशन की शुरूआत की। राधाकृष्ण बजाज की दूरदृष्टि और अथक प्रयासों के चलते स्वयं उनकी देखरेख में शुरू हुए प्रकाशन में गांधी विचार साहित्य का प्रकाशन शुरू हुआ और देश भर में भेजा जाने लगा।
जनवरी 1960 में देश के लगभग सभी गांधीजनों ने साधना केन्द्र परिसर में एक महीने रहकर युवाओं के प्रबोधन और प्रशिक्षण के काम में समय लगाया। उन्हीं दिनों एक सामाजिक शोध संस्थान की अपनी कल्पना के बारे में जेपी ने साथियों से चर्चा शुरू की थी। पकते-पकते यह बात इस हद तक पहुंची कि सर्व सेवा संघ की कार्यसमिति ने बाकायदा प्रस्ताव पारित करके गांधी विद्या संस्थान (गांधियन इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज) के लिए साधना केन्द्र परिसर में जमीन का एक हिस्सा जेपी को उपलब्ध कराया। यह 1961-62 का वर्ष था। बाद में गांधी स्मारक निधि के सहयोग से गांधी विद्या संस्थान का भवन तैयार हुआ और वहां शोध/अध्ययन प्रारम्भ हुआ।
अपने उरूज के दिनों में गांधी विद्या संस्था की गरिमा में चार चांद लगाने देश के ही नहीं, दुनिया के अनेक इंटेलेक्चुअल, स्कॉलर्स और अनेक विभूतियों ने यहां आकर काम किया और इस परिसर को, इस साधना भूमि को आपने व्यक्तित्व और विचार से समृद्ध किया।
साधना केन्द्र परिसर में जिस कुटिया में विनोबा रहते थे, वह शांति कुटीर आज भी मौजूद है। कुटिया के सामने वह प्रार्थना भूमि भी वैसी ही है, जैसी तब थी, जब यहां विनोबा की दैनिक प्रार्थनाएं होती थीं। गांधी विद्या संस्थान कानूनी संघर्ष का शिकार होकर रह गया। आज संस्थान के भवन पर सरकारी ताले लगे हैं और अंदर दुर्लभ पुस्तकों की लाइब्रेरी पर दशकों से धूल पड़ी हुई है। वह जीप, जिस पर जेपी चला करते थे, जीर्ण शीर्ण अवस्था में आज भी इसी परिसर में है। पिछले वर्षों में गांधी जी की एक आदमकद प्रतिमा की स्थापना प्रकाशन कार्यालय के सामने की गयी है। जिन खेतों में खेती होती थी, उन पर अब पेड़ खड़े हैं। सर्व सेवा संघ की जमीन के एक हिस्से पर जिला प्रशासन ने कब्जा कर रखा है। साधना केन्द्र के जिन आवासीय भवनों में कभी आचार्य राममूर्ति तथा नारायण भाई देसाई ने निवास किया, वे भवन आज भी परिसर में मौजूद हैं। इनमें अब दूसरे परिवार रहते हैं। एक भवन में अतिथि निवास की व्यवस्था है, साथ ही परिसर में आने वाले अतिथियों की सुविधा के लिए एक भोजनालय भी है। परिसर में श्री गांधी आश्रम का एक सेंटर तथा एक पोस्टऑफिस भी है। हाल के दिनों में प्रकाशन कार्यालय के बगल में जीटी रोड से सटे हिस्से में फूलों और पौधों की एक नर्सरी भी शुरू हुई है।
-प्रेम प्रकाश
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