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हत्यारी विचारधारा

जिन लोगों ने समकालीन भारतीय इतिहास को बनाने में रंचमात्र योगदान नहीं दिया, उनमें इतिहास को फिर से लिखने और स्थापित तथ्यों के साथ काल्पनिक प्रसंग जोड़कर इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ने की प्रवृत्ति तीव्र होती जा रही है। उन्होंने बापू को लगी तीन गोलियों के बाद अब चौथी गोली का कांसेप्ट उछाला है. वे यह सिद्ध करने की जुगत में हैं कि जब बापू की हत्या की गयी, तब वहां एक दूसरा अदृश्य बंदूकधारी भी मौजूद था, जिसने उनके अनुसार वास्तव में बापू को मारा और इस साजिश में ब्रिटिश हत्यारों के एक बहुत ही गुप्त समूह की भागीदारी थी, जिसे बापू की हत्या का जिम्मा सौंपा गया था।

30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या के तुरंत बाद, उनकी हत्या को सही ठहराने के लिए झूठ का एक महाभियान शुरू किया गया था। यह अभियान हिंदू चरमपंथी संगठनों आरएसएस और हिंदू महासभा द्वारा बहुत सफलतापूर्वक चलाया गया और आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा द्वारा इसको पूरा संरक्षण दिया गया। आज यह संरक्षण आधिकारिक तौर पर नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि वह विचारधारा, जो बापू की हत्या के लिए जिम्मेदार थी, अब भारत पर शासन कर रही है। चूंकि आधिकारिक तौर पर बापू को नकारना संभव नहीं है, इसलिए श्रद्धा का कपटी ढोंग किया जाता है. यह श्रद्धा नहीं, एक कपटपूर्ण दिखावा है, क्योंकि उनका हीरो तो बापू का हत्यारा है।


बापू की हत्या के तुरंत बाद बहुत व्यवस्थित ढंग से शुरू किया गया झूठ का वह अभियान अपने उद्देश्य में शानदार ढंग से सफल हुआ है। यदि झूठ का उतनी ही ताकत और उतनी ही तीव्रता से बार-बार विरोध न किया जाय, तो झूठ या आधा-अधूरा सच विश्वसनीयता हासिल कर लेता है. भारत में कुछ लोग अब यह भी मानते हैं कि नाथूराम गोडसे ने एक ऐसे व्यक्ति को हटाकर देश की महान सेवा की, जो देश का बहुत नुकसान करना चाहता था। इसके साथ ही बापू की हत्या को सही ठहराने के अभियान के साथ-साथ उन्होंने एक धार्मिक हिंदू राष्ट्र के विचार को वैध बनाने के लिए भी अभियान चलाया है। बापू के सपने का धर्मनिरपेक्ष, वर्गहीन, जातिविहीन भारत अब नफरत और पूर्वाग्रह से भरा एक दुःस्वप्न है।


अपनी अदालती गवाही में नाथूराम गोडसे ने एक बयान पढ़ा, जिसमें उसने बहुत भावुक तरीके से बताया कि कैसे बापू के कार्यों ने उसे उनकी हत्या करने का फैसला करने के लिए मजबूर किया, क्योंकि आखिर राष्ट्र को तो बचाना ही था। तब तक नाथूराम को ऐसी भाषा में महारथ हासिल नहीं थी, वह अपमानजनक, भड़काऊ और धमकी भरे लेखन के लिए ही जाना जाता था। लेकिन उसका यह बयान बहुत ही कुशलता से लिखा गया था। भाषा उत्कृष्ट थी, जोश और भावना से भरी हुई थी, श्रोताओं के दिलों को आकर्षित करने के लिए लिखी गई थी, और यही उसने किया। पंजाब उच्च न्यायालय में गांधी हत्याकांड के दोषियों की अपील पर सुनवाई करने वाले पीठासीन न्यायाधीशों में से एक न्यायमूर्ति खोसला ने सुनवाई के दौरान की अपनी स्मृतियाँ लिखते हुए उल्लेख किया कि जब नाथूराम ने अदालत में अपना बयान समाप्त किया, तो अदालत में एक जोड़ी आँख भी ऐसी नहीं थीं, जो नम न हो। अगर मैंने उस दिन अदालत में मौजूद लोगों को जूरी में बदल दिया होता, तो वे उसे निर्दोष घोषित कर देते और यह फैसला वे सर्वसम्मति से सुनाते। नाथूराम को ऐसी भाषा में महारथ हासिल नहीं थी। लाल किले के ट्रायल में उसके साथ एक सह-आरोपी भी था, जिसे इस तरह की भावनात्मक रूप से आवेशयुक्त भाषा पर महारथ हासिल थी। नाथूराम गोडसे के संरक्षक वीडी सावरकर, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे तीन मुख्य आरोपी थे, जिन्हें गांधी हत्याकांड में दोषी ठहराया गया था। बाद में सावरकर को छोड़ दिया गया, क्योंकि उसके खिलाफ अदालत को पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिले। बापू की हत्या के पीछे सावरकर की प्रेरणा ही नहीं थी, वह इस योजना में शामिल भी था। यह बाद में 60 के दशक के उत्तरार्ध में गठित जस्टिस कपूर कमीशन ऑफ इन्क्वायरी की जांच में साबित हुआ, जिसमें एक बड़ी और देशव्यापी साजिश के आरोपों की जांच की गई, जिसके परिणामस्वरूप बापू की हत्या हुई।


नाथूराम द्वारा प्रचारित झूठ और फिर बापू की हत्या को सही ठहराने के लिए दक्षिणपंथी प्रचार माध्यम कहते हैं कि नाथूराम को बापू की हत्या के लिए मजबूर किया गया था, क्योंकि ‘वे भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे’, ‘वे मुसलमानों के तुष्टिकरण में लिप्त थे’, ‘वे हिंदू विरोधी थे’, ‘उनकी चिंता मुसलमानों के लिए थी, वे हिंदुओं की दुर्दशा के प्रति उदासीन थे’, ‘उन्होंने भारत सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए मजबूर किया, ‘अगर उन्हें जीने दिया गया तो वे देश को कई टुकड़ों में तोड़ देंगे और पाकिस्तान को उपहार में दे देंगे’, ‘वे हिंदुओं को उनकी मातृभूमि पर ही वंचित कर देंगे। नाथूराम के अनुसार यही कारण थे, जिन्होंने भारतमाता को बचाने के लिए उसे बापू की हत्या करने को मजबूर किया था।

भस्मीभूत होने से पहले राष्ट्रपिता की पार्थिव देह: था बापू तुमने हमें गोद में उठा लिया, यह आने वाला कल सबको बतायेगा


यह सत्य है कि बापू ने देश के विभाजन की योजना को केवल भाग्य के रूप में स्वीकार किया था। जब उन्होंने देखा कि उनके अलावा हर कोई किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता चाहता है और विभाजन से बचने के लिए आगे लड़ने को तैयार नहीं है, तो उन्होंने हार मान ली। माउंटबेटन ने पहले सरदार पटेल को विभाजन योजना को स्वीकार करने के लिए राजी किया, फिर उन्होंने पंडित नेहरू को विभाजन योजना राजी कर लिया और अंत में उन्होंने बापू का सामना इस तथ्य से करवाया कि उनके दोनों सबसे भरोसेमंद लेफ्टिनेंटों ने उनकी योजना को स्वीकार कर लिया है, इसलिए उन्हें हठी नहीं होना चाहिए और इसका विरोध नहीं करना चाहिए। उन्हें अवगत कराया गया कि उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है और उनके पास अब कोई विकल्प शेष नहीं है। बापू ने बेहद अनिच्छा और टूटे हुए दिल से इसे स्वीकार कर लिया।


बापू मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं करते थे


जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर भारत की सामाजिक वास्तविकताओं के सामने खुद को खड़ा किया, तब उन्हें भारत की गुलामी का कारण समझ में आया। उन्होंने समझा कि देश गुलाम इसलिए था, क्योंकि विभिन्न समाजों को धर्म, जाति और वर्ग के आधार पर विभाजित किया गया था। जैसे ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली, उन्होंने महसूस किया कि उन्हें दो प्रमुख समुदायों, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता के पुल बनाने होंगे. इसी उद्देश्य से उन्होंने खिलाफत को बहाल करने के लिए उनकी लड़ाई में मुसलमानों के साथ गठबंधन करने का फैसला किया। लेकिन यह पहली बार नहीं था, जब किसी नेता ने मुस्लिम संवेदनाओं को हवा दी हो। बापू से पहले, मुसलमानों को स्थानीय निकायों में उनकी आबादी से अधिक अनुपात में प्रतिनिधित्व की पेशकश की गई थी, यह प्रस्ताव राजनीतिक परिदृश्य पर बापू के उभरने से बहुत पहले लखनऊ संधि में पेश किया गया था और इसकी पुष्टि की गई थी। यह मुसलमानों को मुख्य धारा में लाने और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से किया गया था। लखनऊ समझौते पर बातचीत हुई और मुस्लिम नेतृत्व के साथ इस मुद्दे पर गांधी ने नहीं, बल्कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सहमति व्यक्त की। इसके बाद अगर किसी पर मुस्लिम तुष्टीकरण की प्रक्रिया शुरू करने का आरोप लगाया जाना जरूरी ही था, तो वह लोकमान्य तिलक का नाम होना चाहिए था, बापू का नहीं।

बापू की शव-यात्रा में उमड़ा जन सैलाब


बापू न तो मुस्लिम समर्थक थे और न ही हिंदू समर्थक


उनकी चिंता इंसानों के लिए थी, दंगों में वे हिंदुओं या मुसलमानों को बचाने के लिए नहीं गए, वे हिंसा को रोकने और इंसानों की रक्षा व देखभाल करने गए। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर जब वे कलकत्ता में रुके थे, तो वे नोआखली जा रहे थे, जो पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बनने वाला था, क्योंकि उन्हें वहां रहने वाले हिंदुओं की चिंता थी। उन्होंने उनसे उनकी सुरक्षा का वादा किया था। अगस्त 1946 में लीग के डायरेक्ट एक्शन के दौरान सुहरावर्दी, कलकत्ता में शेष मुसलमानों की सुरक्षा के बारे में चिंतित थे, इसलिए उन्होंने बापू से संपर्क किया और उनसे मुसलमानों को बचाने का अनुरोध किया। बापू जानते थे कि सुहरावर्दी पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के सूत्रधार थे, इसलिए उन्होंने उन्हें यह प्रस्ताव दिया कि अगर सुहरावर्दी ये वादा करें कि वे बनने वाले पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेंगे और उनमें से एक को भी नुकसान नहीं होगा, तो बापू कलकत्ता में मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। इस प्रस्ताव में यह चेतावनी थी कि अगर नोआखली और टिपेरा या पूर्वी पाकिस्तान में कहीं और, एक भी हिंदू को नुकसान पहुंचाया गया, तो बापू बिना शर्त आमरण अनशन पर चले जाएंगे, जिसका मतलब है कि वे स्वेच्छा से मौत को गले लगा लेंगे। इस तरह बापू न केवल मुसलमानों को बचाने के लिए कलकत्ता में ही बने रहे, बल्कि उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की सुरक्षा भी सुनिश्चित की। आज अगर बांग्लादेश में हिंदुओं की एक छोटी-सी आबादी है तो वे उन्हीं लोगों के वंशज हैं, जिनकी सुरक्षा तब बापू ने सुनिश्चित की थी। हाँ, चरम दक्षिणपंथी हिंदुओं के हाथ बापू से नाराज़ होने का एक कारण लग गया था। उन्होंने उन्हें कलकत्ता में मुसलमानों का नरसंहार करने के अवसर से वंचित कर दिया था। इतनी बेलगाम हिंसा के दौर के बाद बापू देश के इस पूर्वी हिस्से में शांति लाने में कामयाब रहे। इस घटना को माउंटबेटन ने कलकत्ता के चमत्कार के रूप में देखा और बापू को वन मैन आर्मी कहकर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। बापू ने इंसानों को हिंदू या मुसलमान के रूप में अलग नहीं किया, उन्होंने उच्च जाति के हिंदुओं और हरिजनों को विभाजित नहीं किया, उनके लिए वे सभी इंसान थे।


बापू ने पाकिस्तान को 55 करोड़ का तोहफा नहीं दिया


जब विभाजन को स्वीकार कर लिया गया तो राज्य की अचल संपत्तियों के साथ-साथ नकदी सहित सभी संपत्तियों को दो नए राष्ट्रों के बीच विभाजित किया जाना था। हर विषय पर गहन मंथन हुआ और सहमति के आधार पर इन्हें सर्वसम्मत अनुपात के अनुसार विभाजित किया गया। राज्य के पास मौजूद नकदी का संयुक्त कोष भी विभाजित करना पड़ा, अंग्रेजों ने इस विषय पर दोनों देशों की अंतरिम सरकारों को आपस में फैसला करने के लिए छोड़ दिया। जब पाकिस्तान के गठन के दिन तक कोई समझौता नहीं हो सका, तो 13 अगस्त 1947 को पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपये की एक राशि तदर्थ तौर पर इसलिए दे दी गई, ताकि नये नये बने राष्ट्र के प्रशासन का काम चलता रह सके। आगे की बातचीत अब दो स्वतंत्र राष्ट्रों के बीच होनी थी। अंतत: आपसी सहमति से दोनों इस समझौते पर पहुंचे कि पाकिस्तान का हिस्सा 75 करोड़ रुपये निकलता है। 20 करोड़ का भुगतान पहले ही किया जा चुका था, इसलिए अब पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिए जाने शेष थे। यह दो स्वतंत्र राष्ट्रों के बीच एक हस्ताक्षरित द्विपक्षीय संधि थी, जिस पर दोनों द्वारा सहमति व्यक्त की गई थी। इस संधि पर दोनों सरकारों के चार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए थे, उस संधि पर बापू के हस्ताक्षर नहीं थे। भारत, पाकिस्तान की दोनों सीमाओं से होने वाली शरणार्थियों की भारी आमद और उनके पुनर्वास में लगने वाली भारी लागत से अवगत था। कश्मीर से पाकिस्तान की बदतमीजी की खबरें भी आने लगी थीं, इससे भारत में पाकिस्तान के खिलाफ काफी गुस्सा और आक्रोश था। उधर पाकिस्तान ने भारत के साथ संधि पर हस्ताक्षर करने की घोषणा एक विजेता के तौर पर की. भारतीयों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. यह भारत सरकार के लिए शर्मिंदगी का विषय बन गया। इसके बाद द्विपक्षीय संधि को भंग करने की आवाजें उठने लगीं। यहां तक कि कैबिनेट के भीतर से भी द्विपक्षीय समझौते से मुकरने और जब तक दोनों देशों के बीच सभी मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता, तबतक पाकिस्तान को बिल्कुल भुगतान न करने का सुझाव आया। इसका एक मतलब यह निकलने जा रहा था कि आज़ाद होने के बाद भारत अपनी पहली ही अंतरराष्ट्रीय द्विपक्षीय संधि का अनादर करने वाला है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के बीच यह एक गंभीर वादे या दिए हुए वचन से मुकरने जैसा था। यह कदम न तो कानूनी रूप से टिकाऊ था और न ही नैतिक रूप से सही था। माउंटबेटन ने दिल्ली और उसके आसपास की बिगड़ती कानून-व्यवस्था की स्थिति और उस सम्बन्ध में अपनी चिंता के बारे में बापू को बताया कि अगर नफरत की आग ने दिल्ली को भस्म कर दिया, तो भगवान भी भारत को नहीं बचा पाएंगे। उसी शाम 12 जनवरी को, अपने प्रार्थना भाषण में बापू ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये का भुगतान करने की अपनी ही प्रतिज्ञा का उल्लंघन करने के भारत सरकार के फैसले पर अपनी नाराजगी व्यक्त की और कहा कि एक तो विभाजन के लिए सहमत होना ही एक पाप था, दूसरे अब अपने ही वादे का उल्लंघन करके भारत उस पाप को और बढ़ा देगा। इसके बाद उन्होंने राजधानी में बढ़ती हिंसा और आगजनी पर अपना दुख जताया. उन्होंने घोषणा की कि घृणा के कृत्यों को रोकने और अपने लोगों के दिल से जहर निकालने के लिए, वह अगली सुबह से आमरण अनशन शुरू करने जा रहे हैं। इस घोषणा से तत्कालीन सरकार यह सोचकर बहुत खुश थी कि अब अगर उसे पाकिस्तान को भुगतान करना भी पड़ा तो भारत के खिलाफ पाकिस्तान के छेड़े युद्ध को वित्तपोषण का दोष सरकार पर नहीं आएगा. इसके लिए उन्हें एक बलि का बकरा मिल गया था।
बापू के अनशन के दूसरे दिन बिड़ला हाउस में, जहाँ वे उपवास कर रहे थे, सरकार ने घोषणा की कि वह पाकिस्तान को तयशुदा 55 करोड़ की राशि ट्रांसफर कर रही है। अब नाराजगी और गुस्से को उसका शिकार मिल गया था। जब नाथूराम गोडसे के छोटे भाई और गांधी हत्याकांड में सह-दोषी गोपाल गोडसे ने अदालत में अपने भाई की गवाही के आधार पर एक पुस्तक प्रकाशित की, तो उसने इसे ‘पंचवन कोटि चा बाली’ यानी ’55 करोड़ का शिकार’ शीर्षक दिया; हाँ, बापू 55 करोड़ के शिकार हुए थे, लेकिन वे इसके लिए दोषी नहीं थे।


बापू की हत्या को सही ठहराने वाले झूठ के अभियान को सफलतापूर्वक अंजाम देने के बाद, चरमपंथियों ने अब हत्या के बारे में भ्रम फैलाने का अभियान भी शुरू कर दिया है। जिन लोगों ने समकालीन भारतीय इतिहास को बनाने में रंचमात्र योगदान नहीं दिया, उनमें इतिहास को फिर से लिखने और स्थापित तथ्यों के साथ काल्पनिक प्रसंग जोड़कर इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ने की प्रवृत्ति तीव्र होती जा रही है। अब वे ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने बापू को लगी तीन गोलियों के बाद अब चौथी गोली का कांसेप्ट उछाला है. वे यह सिद्ध करने की जुगत में हैं कि जब बापू की हत्या की गयी, तब वहां एक दूसरा अदृश्य बंदूकधारी भी मौजूद था, जिसने उनके अनुसार वास्तव में बापू को मारा और इस साजिश में ब्रिटिश हत्यारों के एक बहुत ही गुप्त समूह की भागीदारी थी, जिसे बापू की हत्या का जिम्मा सौंपा गया था। वे ये कहकर इतिहास की दिशा बदलना चाहते हैं कि नाथूराम गोडसे द्वारा प्वाइंट ब्लैंक रेंज से बापू के सीने में मारी गई तीन गोलियों से बापू की जान नहीं गयी, उनकी हत्या तो बेरेटा ऑटोमैटिक गन से की गयी। इस तरह की काल्पनिक योजनाओं से कुछ भी प्रमाणित नहीं होता। गांधी हत्या की पुन: जांच का आदेश देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी याचिका सच्चाई की खोज करने के लिए नहीं है। यह दक्षिणपंथियों द्वारा बापू की हत्या के बारे में झूठ फैलाने, लोगों को भ्रमित करने और फिर भ्रम और अविश्वास का लाभ उठाकर एक सुविधाजनक, काल्पनिक और मनगढ़ंत कहानी गढ़ने की एक कपटी साजिश है।


भारत रोज अराजकता के एक अँधेरे गड्ढे में गिरता जा रहा है, यह देश को अस्थिर करने और इस अराजकता का लाभ उठाकर एक नई व्यवस्था स्थापित करने के लिए एक भव्य योजना का सुनियोजित हिस्सा है। कपूर आयोग ने बापू की हत्या में इस तरह की साजिश का पता लगाया था, उस समय बापू की हत्या ने देश को झकझोर दिया था और सरकार को दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों की योजनाओं को विफल करने के लिए सख्त कदम उठाने के लिए प्रेरित किया था। बापू की हत्या ने उस नये नवेले राष्ट्र को बचा लिया, जिसकी आज़ादी की लड़ाई उन्होंने लड़ी थी। अफसोस, आज हमें बचाने के लिए हमारे पास बापू नहीं हैं।

तुषार गांधी

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