पिछले कुछ महीनों से हेट स्पीच को लेकर लगातार बयानबाजी का सिलसिला जारी है। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन बी लोकुर ने भी इस विषय पर खुलकर अपनी राय जाहिर की है। उन्होंने एक तरफ हेट स्पीच को लेकर नेताओं को खरी-खरी सुनाई है तो दूसरी तरफ इस मुद्दे पर अदालतों की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं। यह एक गंभीर विषय है और इसे सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित सभी लोगों को पूरी संवेदनशीलता के साथ लेने की जरूरत है। हेट स्पीच पर बोलते हुए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से नेताओं को भी निशाने पर लिया। जस्टिस लोकुर ने कहा कि एक मंत्री लिंचिंग के आरोपी को माला पहनाते हैं। क्या अब ऐसे लोगों का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जायेगा? यदि ऐसे लोग भी उचित व्यक्ति माने जायेंगे, तो उचित होने का अर्थ ही अलग हो जायेगा। कम से कम कानून के छात्र के रूप में तो मैं यही मानता हूं। हमने दिल्ली में एक मंत्री को ‘गोली मारो’ कहते सुना। यह गोली मारना, उकसाना ही तो है! गौर फरमाने की बात यह है कि अदालतों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया किस रूप में दी? सबसे पहले तो हमें यह समझने की जरूरत है कि हेट स्पीच है क्या?
यही वह फैक्ट है, जो हिंसा का आधार बनता है. जस्टिस लोकुर ने कहा कि जब आप किसी पत्रकार को कुछ कहने या कुछ लिखने के लिए जेल में डालते हैं, तो अन्य पत्रकारों पर भी उसका असर होता है। इसी तरह जब आप किसी गैर सरकारी संगठन पर छापेमारी करते हैं तो उसका असर सारे स्वयंसेवी संगठनों पर होता है। इसी तरह जब आप हेट स्पीच में लिप्त होते हैं, तो इसका परिणाम हिंसा के रूप में भी हो सकता है। आगे चलकर यही हेट स्पीच क्राइम का आधार बनता है। सुल्ली डील्स, बुल्ली बाई को आप क्या मानते हैं? उन्होंने हेट स्पीच का उदाहरण देते हुए बताया कि आपको याद होगा, 2012 में म्यांमार में हुई हिंसा की कुछ तस्वीरों को असम में हिंसा के सबूत के तौर पर बांटा गया था। परिणाम क्या निकला, देश के उत्तर-पूर्व के कुछ नागरिक हिंसा के शिकार हो गए। एक अनुमान के मुताबिक उत्तर-पूर्व से लगभग 50,000 लोग अपने गृह राज्यों को वापस चले गए। हाल के दिनों में सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई ऐप पर मुस्लिम महिलाओं की नीलामी का मामला सामने आया है। इसमें कोई हिंसा नहीं है, तो क्या यह हेट स्पीच नहीं है? क्या आप कह सकते हैं कि ऐसा करना सही है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है?
जरूरी है हेट स्पीच की परिभाषा
हकीकत यह है कि हमारे पास हेट स्पीच की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है और हमें इसकी जरूरत है। 1969 में इंडियन पैनल कोड में संशोधन किया गया था। इसके बावजूद भारत में अदालतें क्या कर रही हैं? खेद की बात है कि हमने हिंसा की अवधारणा को हेट स्पीच में लाने की कोशिश तो की, पर आगे क्या हुआ, किसी को कुछ नहीं पता. जिनके पास इसके अमल की जिम्मेदारी थी, उन्होंने कुछ किया या नहीं, कौन पूछेगा? यह हमारे सामने उपस्थित अहम सवाल है। इसलिए मेरा मानना है कि हेट स्पीच की सुनिश्चित परिभाषा तय करने का वक्त आ गया है। इसमें विलंब करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। जस्टिस मदन बी लोकुर ने 1977 में वकालत की शुरुआत की थी। 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने वाले चार जजों में से वे एक थे। वे 31 दिसंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत हुए थे। जस्टिस लोकुर कश्मीरी पंडितों, निराश्रित विधवाओं, मृत्युदंड, फेक एनकाउंटर, जैसे अनेक मामलों में महत्वपूर्ण फैसले सुना चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस लोकुर फिजी की सुप्रीम कोर्ट में भी जज नियुक्त हुए थे।
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