बिरला-भवन, नयी दिल्ली,
30.01.1948
यदि जीवित रहा तो…
बापू और सरदार दादा बातचीत कर रहे थे।…काठियावाड़ के बारे में भी चर्चा हुई। इसी बीच काठियावाड़ के नेता रसिक भाई पारीख और ढेबर भाई भी आ गये। उन्हें बापू से मिलना था। लेकिन आज तो एक क्षण खाली नहीं है। फिर भी मैंने उनसे कहा कि ‘‘बापू से पूछकर समय तय किये देती हूँ।’’ बापू और सरदार दादा बातों में एकदम तल्लीन थे। मैंने पूछा तो कहने लगे, ‘‘उनसे कहो कि यदि जिन्दा रहा, तो प्रार्थना के बाद टहलते समय बातें कर लेंगे।’’ मैंने उनसे प्रार्थना के लिए रुक जाने को कहा। कारण यदि वे प्रार्थना के बाद तत्काल न मिल लेंगे, तो और कोई घुस ही जाएगा और फिर बातें न कर पाएँगे। वे रुक गये और बापू के कमरे में जा बैठे।
इसके बाद की डायरी मैं पहली फरवरी की रात में दो बजे लिख रही हूँ। क्या लिखूँ। समझ में ही नहीं आता! पूरे बिरला-भवन में रोने के सिवा कुछ भी नहीं है। अरे! क्या बापू सोये हुए तो नहीं हैं? मुझे इतनी देर तक लिखती देख उलाहना देने के लिए उठकर तो नहीं आएँगे? नहीं, नहीं, बापू! आप मेरी भूल क्षण भर भी क्षमा नहीं करते थे और आज इतने उदार हो गये? हाय, मुझ पर गजब ढा गया! मुझसे कहते थे, ‘‘इस यज्ञ में तू और मैं दो ही हैं। तू मुझे छोड़ सकती है, पर मैं तुझे नहीं छोड़ सकता।’’ लेकिन आज तो बापू! आप ही मुझे छोड़ गये! भाई कल आने वाले हैं। क्या मुझे सौंप देने के लिए ही तो चार दिन पहले उनको चिट्ठी नहीं लिखी? कुछ भी नहीं सूझता!…पंडितजी का वह बुक्का फाड़-फाड़कर रोना अच्छे-अच्छे धीर-गम्भीर लोगों का भी हृदय विदीर्ण कर देता है। नन्हा गोपू कह रहा है : ‘‘मनु बहन! दादा क्यों सोये हैं?’’
थाके न थाके छताये हो!
…बापू सरदार दादा के साथ बातचीत में इतने तन्मय हो गये थे कि दस मिनट देर हो गयी। इस गम्भीर वातावरण में उन्हें विक्षेप करने की किसी को भी हिम्मत नहीं हुई। आखिर मणि बहन ने हिम्मत की ही, क्योंकि यह सभी जानते थे कि यदि बापू को समय का ध्यान न कराया जाए, तो बाद में हम लोगों पर नाराज हो जाएँगे। बातें करते हुए ही बापू ने भोजन भी कर लिया। भोजन में चौदह औंस बकरी का दूध, चार औंस शाक का रस और तीन सन्तरे थे। बातें करते हुए उन्होंने कताई भी कर ली। बिना यज्ञ किये खाना चोरी का खाना माना जाता है। अत: वे बिना कताई किये रह ही कैसे सकते हैं? आज ब्रह्म मुहूर्त में कभी न कहलवाया हुआ यह भजन कि ‘थाके न थाके छताये हो, मानवी न लेजे विसामों’ मुझसे गवाया। क्या बापू उसे साकार करना चाहते रहे हैं? चाहे जो हो, पल भर भी विश्राम लिये बगैर अपनी ज्वलंत प्रवृत्ति का वेग और भी बढ़ा दिया। वे एकदम उठ खड़े हुए।
नर्सों का धर्म
मैंने अपने हाथ में रोज की तरह कलम, बापू की माला, पीकदानी, चश्मे का केस और जिस पर प्रवचन लिखती हूँ, वह नोटबुक ले ली। दस मिनट देर हो जाने के लिए बापू ने रास्ते में नापसन्दगी जाहिर की : ‘‘आप लोग ही तो मेरी घड़ी हैं न? फिर मैं घड़ी के लिए क्यों रुका रहूँ?’’ खासकर आजकल बापू घड़ी देखते ही नहीं। समयानुसार एक के बाद एक सारा काम यों ही कर लिया करते हैं। घड़ी को चाबी भी हम लोगों में से ही कोई दे दिया करता था। इसीलिए उन्होंने यह कहा। मैंने कहा कि ‘‘बापू! आपकी घड़ी बेचारी उपेक्षा से दुबली होती होगी।’’ इसी के उत्तर में उन्होंने यह बात कही। विनोद तो किया ही, पर साथ ही यह भी कहा कि ‘‘मुझे ऐसी देरी बिलकुल पसन्द नहीं।’’
चाँद बहन को दिल्ली में ही रखने की बात कही। ‘‘अभी खुराक की मात्रा थोड़ी-सी ही बढ़ायी है।’’ यद्यपि अनशन के बाद अनाज तो अभी शुरू करना ही नहीं है, ‘‘पर अब प्रवाही (तरल खाद्य) कम करना है’’ ये बातें करते हुए प्रार्थना-स्थल की सीढ़ियाँ चढ़े। कहने लगे : ‘‘प्रार्थना में दस मिनट देर हो गयी, इसमें आप लोगों का ही दोष है।’’ सरदार दादा दो-चार दिनों बाद आये थे और ऐसे गम्भीर प्रश्नों पर चर्चा कर रहे थे कि टोकने की हिम्मत ही नहीं हुई, यह भी बापू को पसन्द नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, ‘‘नर्सों का तो धर्म है कि साक्षात ईश्वर भी बैठा हो, तो भी वे अपना धर्म, अपना कर्तव्य पूरा करें। किसी रोगी को दवा पिलाने का समय हो गया हो और किसी भी कारण यह विचार करते रहें कि उसके पास कैसे जाया जाए, तो रोगी मर ही जाएगा। यह भी ऐसी ही बात है। प्रार्थना में एक मिनट की देर भी मुझे खल जाती है।’’
यह नियम-सा बन गया था कि प्रार्थना में जाते समय हम लोग ही बापू की लाठी का काम करती थीं। कभी हम लोग नाराज हो जाएँ और इस नियम के अनुसार लाठी बनना न चाहें, तो बापू हम लोगों को जबरदस्ती पकड़कर लाठी बना लेते थे। लौटते समय दूसरी लड़कियाँ रहती थीं।
हे राम!
बापू चार सीढ़ियाँ चढ़े और सामने देख नियमानुसार हम लोगों के कन्धे पर से अपने हाथ उठाकर उन्होंने जनता को प्रणाम किया और आगे बढ़ने लगे। मैं उनके दाहिनी ओर थी। मेरी ही तरफ से एक हृष्ट-पुष्ट युवक, जो खाकी वर्दी पहने और हाथ जोड़े हुए था, भीड़ को चीरता हुआ एकदम घुस आया। मैं समझी कि यह बापू के चरण छूना चाहता है; रोज ऐसा ही हुआ करता था। बापू चाहे जहाँ जाएँ, लोग उनका चरण छूने और प्रणाम करने के लिए पहुँच ही जाते थे। हम लोग भी अपने ढंग से उनसे कहा करते कि बापू को यह ढंग पसन्द नहीं। पैर छूकर चरण-रज लेने वालों से बापू भी कहा ही करते कि ‘‘मैं तो साधारण मानव हूँ। मेरी चरण-रज क्यों लेते हैं?’’ इसी कारण मैंने इस आगे आने वाले आदमी के हाथ को धक्का देते हुए कहा, ‘‘भाई! बापू को दस मिनट देर हो गयी है, आप क्यों सता रहे हैं?’’ लेकिन उसने मुझे इस तरह जोर से धक्का मारा कि मेरे हाथ से माला, पीकदानी और नोटबुक नीचे गिर गयी। जब तक और चीजें गिरीं, मैं उस आदमी से जूझती ही रही, लेकिन जब माला भी गिर गयी, तो उसे उठाने के लिए नीचे झुकी। इसी बीच दन-दन-दन एक के बाद एक तीन गोलियाँ दगीं। अँधेरा छा गया! वातावरण धूमिल हो उठा और गगनभेदी आवाज हुई। ‘‘हे रा—म! हे राम…’’ कहते हुए बापू मानो सामने पैदल ही छाती खोलकर चले जा रहे थे। वे हाथ जोड़े हुए थे और तत्काल वैसे ही नीचे जमीन पर आ गिरे। कितने ही लोगों ने उस समय बापू को पकड़ने का यत्न किया। आभा बहन भी नीचे गिर गयीं। एकदम उन्होंने बापू का सिर अपनी गोद में ले लिया। मैं तो समझ ही नहीं पायी कि आखिर यह क्या हो गया? यह सारी घटना घटते मुश्किल से ३-4 मिनट लगे होंगे। धुँआ इतना घना था। गोलियों की आवाज से मेरे कान बहरे-से हो गये। लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी।
हम दोनों लड़कियों का क्या हाल हुआ होगा, यह तो शब्दों में लिखा ही नहीं जा सकता। सफेद वस्त्रों पर से रक्त की धार फूट पड़ी। बापू की घड़ी में ठीक 5 बजकर 17 मिनट हुए थे। मानो बापू जुड़े हुए हाथों से हरी घास में पृथ्वी माता की गोद में अपार निद्रा में सो रहे हों और हमारे अनुचित साहस पर नाराज न होने पर माफ कर देने के लिए कह रहे हों।
उन्हें कमरे में ले जाने तक दस मिनट तो लग ही गये। दुर्भाग्य से वहाँ कोई डॉक्टर भी नहीं मिला। सुशीला बहन की प्राथमिक चिकित्सा की पेटी में खोजने पर भी कोई खास दवा नहीं मिली। वे कहते ही थे कि ‘‘मेरा सच्चा डॉक्टर तो रामजी है।’’ हम अल्पात्मा लोग अपने स्वार्थ के लिए उन्हें जिलाने के निमित्त उनके अपने मात्र के लिए स्वीकृत इस सिद्धान्त को भ्रष्ट कर दें, शायद इसीलिए हमें उस समय कुछ सूझ नहीं पाया हो! सरदार दादा तो अभी अपने घर भी नहीं पहुँचे होंगे कि पीछे लौटे। हम लोग तो बुक्का फाड़-फाड़कर रो रहे थे, पर बापू को आज दया नहीं आ रही थी! किसी समय मुझ जैसी को उदास देखते, तो उसका कारण जानने के लिए पिल पड़ते और उसे जानकर ही छोड़ते थे, लेकिन आज तो बापू सब कुछ सहन किये जा रहे हैं!
सात बार की ऑटोमेटिक पिस्तौल की पहली गोली मध्य रेखा से साढ़े तीन इंच दाहिनी ओर नाभि से ढाई इंच ऊपर पेट में लगी। दूसरी मध्य रेखा से एक इंच दूर और तीसरी दाहिनी ओर छाती में मध्य रेखा से चार इंच दूर लगी थी। पहली और दूसरी गोली शरीर के आर-पार हो गयी थी और तीसरी फुफ्फुस में समा गयी थी। उसका ऊपर का कवच बाद में कपड़ों में मिला और आर-पार निकली हुई गोलियाँ तो प्रार्थना-स्थल पर ही मिलीं। अत्यधिक रक्त बहने के कारण चेहरा तो करीब दस मिनट में ही सफेद पड़ गया।
बापू नहीं रहे!
भाई साहब ने तो कलेजे पर पत्थर रखकर अस्पताल में फोन का ताँता ही लगा दिया। बाहर तो हजारों मानवों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। भाई साहब बड़ी मुश्किल से सरदार के बंगले से होकर विलिंगटन अस्पताल पहुँचे। लेकिन वहाँ से भी निराश होकर वापस लौट आये। इस बीच कन्हैयालाल मुंशी आ गये। सरदार दादा भी तुरत पहुँच गये। मणिबेन ने हम लोगों को ढाढ़स बँधाया। मुझे गीता-पाठ शुरू करने के लिए कहा। मणिबेन के आने से और उनके तथा सरदार दादा के आश्वासन की ममता भरी मदद मिलने से मैं अपने को थोड़ा-सा सँभाल पायी और गीता-पाठ शुरू कर दिया। मुंशीजी ने पाठ में पूरा साथ दिया। इसी बीच कर्नल भार्गव आ पहुँचे और उन्होंने बापू का परीक्षण शुरू कर दिया। दो मिनट तो सरदार दादा से लेकर हम सभी उत्सुकता भरी आश्वासन की एक लहर का अनुभव करने लगे। ऐसा लगा कि राहत की कुछ खबर सुनायी पड़े। किन्तु उन्हें तो देखते ही मालूम पड़ गया कि शरीर में अब कुछ जान नहीं। लेकिन कहावत है न कि डॉक्टर तो अन्त तक कुछ कहता ही नहीं। महापुरुष के प्रयाण का यह भयंकर समाचार देना इस डॉक्टर के लिए बापू को बेधने वाली भीषण गोली से भी कठोर था। इन्होंने मेरा तो ऑपरेशन बड़ी ही सावधानी से किया था। आज सुबह ही इनके और इनके नर्सिंग-होम के बारे में बातें हो चुकी थीं। समय बिताने के लिए इन्होंने दस-पन्द्रह मिनट लगा दिये और अन्त में कह ही दिया, ‘‘मनु बेटी! अब बापू नहीं रहे!’’…वज्र के प्रहार-सा यह समाचार सुनने के साथ ही जिस कमरे में रात में हम बच्चे और बापू किलकारियाँ भरते थे, वहीं भयंकर विलाप छा गया। देवदास काका, गोपू, दोनों सबसे छोटे लड़के और नन्हा पौत्र—सभी बापू की छाती पर कठिन वेदना से विलाप करने लगे। और पंडितजी तो…ओहो!…भगवन्, ऐसा दिन दुश्मन को भी देखने को न मिले! नन्हे बच्चे की तरह सरदार दादा की गोद में मुँह छिपाकर, बिलख-बिलखकर रोने लगे। फिर हम जैसों की तो बात ही क्या थी?
अन्तिम स्मृति की प्रसादी
देखते-देखते लाखों की भीड़ जुट गयी। करीब घण्टेभर तक यह सब चलता रहा। आखिर सरदार दादा ने अपने लौहपुरुष के बाने के अनुरूप इस कठोरतम परीक्षा को भी पास करने में कोई कोर-कसर नहीं दिखायी। अकेले वे ही सभी को ढाढ़स बँधा रहे थे। बापू के चश्मे और चप्पल का कहीं पता न था। तारीख 30 को प्रार्थना में जाने से पूर्व बातचीत करते हुए बापू ने खुद ही अपने नख काटे और मुझे फेंकने के लिए दिये थे। लेकिन मैं रसिक भाई और ढेबर भाई से बातें करने में उलझी रही, इसलिए वे कागज पर के नख वैसे ही रह गये। मैंने उन्हें अनमोल रत्न की तरह उठाकर सन्दूक में रख दिया (उनमें एक अँगूठे का, एक उँगली का और एक छोटी उँगली का भी नख था।)। इसे मैंने आज उनके शरीर के अन्तिम स्मृति की प्रसादी के रूप में अपने पास सुरक्षित रख लिया।
हमारे बापू!
अन्त में लार्ड माउण्टबेटन सभी को शान्त करने लगे। बाहर की भीड़ पूज्य बापू का समाचार सुनने के लिए आतुर है, इसलिए सरदार दादा ने रेडियो पर सारी बातें प्रसारित कर दीं। पंडितजी तो बोल ही नहीं पाते थे। सारी हिम्मत बटोरकर बोले : ‘‘हमारे बापू…’’ फिर एक गहरी साँस छोड़कर सिसकते हुए कहा : ‘‘बापू अब हमारे पास नहीं रहे।’’…उस समय तो धरती भी काँप उठे, इस तरह जनता बिलख उठी।
अब कैसे करना!
आखिर जनता की असाधारण भीड़ देख छत पर से ही बापू का दर्शन कराने की व्यवस्था होने लगी। उस समय मैं किसी काम से बाहर निकली। पंडितजी ने एकदम मुझे पकड़ लिया और क्षण भर भूल गये, कहने लगे : मनु! आओ बापू को पूछो, अब कैसे करना! हे भगवन्!…ऐसे विद्वान, अपने देश और दुनिया के ऐसे महापुरुष…! मैं तो उनके साये में खुलकर रो पड़ी। वे भी उतने ही रोये। उस समय हम दोनों की स्थिति में इतनी एकात्म थी कि इतने बड़े पंडितजी भी मुझ जैसी नादान बालिका को आश्वस्त करने में असमर्थ सिद्ध हुए।
…इसी बीच विभिन्न देशों के राजदूत आते हुए दीख पड़े। उनके साथ पंडितजी भीतर आये। सतत गीता-पाठ करने में मैं ही प्रमुख थी। भाई साहब और काका सारी व्यवस्था करने के निमित्त बार-बार बाहर आते-जाते थे। सुशीला बहन तो थीं ही नहीं। और सबसे श्लोक कहते नहीं बनते थे। प्यारेलालजी भी व्यवस्था में लगे हुए थे। फिर पंडितजी कहने लगे, ‘‘मनु! और जोर से गीता-पाठ करो, शायद बापू जाग जाएँ!’’ इतने वैज्ञानिक विद्वान होकर भी वे क्षण भर को सब कुछ भूलकर बार-बार आते और बापू के शरीर पर हाथ फेरकर जाते थे, मानो स्वयं भूल तो नहीं कर रहे हों कि बापू सचमुच नहीं हैं।
महात्मा गांधी की जय!
और कैमरे वालों का तो पूछना ही क्या है? छत पर मंच बनाया गया और बापू का शव लाया गया। उसे देख छोटे-बड़े, अबाल-वृद्ध सभी की आँखों से अविरल अश्रुधाराएँ बह पड़ीं, मानो चारों ओर से बारिश हो रही हो। ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारों से आकाश गूँज उठा। देखते-देखते जनता की श्रद्धांजलियों के साथ फूलों और पैसों का ढेर ही लग गया। सर्वधर्मों की समानतापूर्वक प्रार्थना जारी थी।
दो बजे बापू की देह को नहलाने के लिए बाथरूम में ले जाने वाले थे। लेकिन अच्छा हुआ कि पूज्य शान्ति कुमार भाई आ पहुँचे। वे पूज्य बा के अन्तिम समय में भी उपस्थित थे और आज बापू के भी! उन्होंने हिन्दू धर्मानुसार अन्त्यविधि करायी, यानी अर्थी बनाना, गाय के गोबर से सारी जमीन लीपना आदि। यदि वे यह सब न बतलाते, तो साधारणत: हममें से कोई भी यह नहीं जानता था।
यह घड़ी भी उतनी ही भयंकर थी। बापू की देह बाथरूम में लायी गयी। एक-एक कपड़ा उतारा गया। बापू की ऊन की ऑस्ट्रेलियन शाल गोली से छिद गयी थी और तीन जगह जल भी गयी थी। धोती और चादर भी खून से सराबोर थीं।
बापू की देह पटरे पर सुलायी गयी। रक्त बहते हुए चरण ‘भाई एकलो जाणे रे’ गीत की इस कड़ी को साकार कर रहे थे। काका और हम सब इस तरह आर-पार बिंधे हुए बापू के शरीर को देख फूट-फूटकर रो रहे थे, फिर भी क्रूर विधाता को दया नहीं आयी! हमारी हृदय-विदारक चीखों से किसे क्योंकर दया आये? कारण हम लोग अत्यन्त पापी थे, फिर विधाता की दया की आशा कैसे रख सकते हैं? कड़कड़ाती सर्दी में हिम-सा ठण्डा पानी बापू की देह पर छोड़ने की कौन हिम्मत करेगा?…
बापू को नहलाकर पटरा कमरे के बीच रखा गया। उस पर सफेद खादी की चादर बिछायी गयी और बापू की देह को सुलाया गया।
‘कर ले सिंगार!’
भाई साहब ने उनके गले में सूत का हार और उनकी रामनाम जपने की माला पहनायी। गले में और छाती पर चन्दन-केसर का लेप किया गया। मस्तक पर कुंकुम तिलक लगाया गया। सिर की बाजू पत्तियों से ‘हे राम’ और पैर की बाजू ‘ॐ’ लिखा गया। सारा कमरा गुलाब और अन्य सुगन्धित फूलों से इतना सुवासित हो उठा था, मानो अर्थी सिर्फ फूलों से ही बनी हो। देखते-देखते साढ़े 3 का घण्टा बजा। आज मुझे जगाने के लिए बापू के प्रेमभरे हाथ का स्पर्श न हो पाया। आज भाई साहब को उठाते हुए ‘व्रजकिशन’ की पुकार सुनायी नहीं पड़ती थी। सभी ने कहा, ‘‘नियत समय पर ब्रह्म मुहूर्त में प्रार्थना की जाए।’’ आज हम लोगों को आदेश देकर ‘नम्यो’ कहने वाले बापू की आवाज नहीं थी। ‘दो मिनट की शान्ति’ कौन कहेगा?
और ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ से आरम्भ कर सारी प्रार्थना बड़ी मुश्किल से शुरू की। ‘कर ले सिंगार’ भजन गाया और फिर ‘वहाँ से नहीं आना होगा…’। क्या बापू के इस पवित्र और तेजस्वी चेहरे का पुन: कभी भी दर्शन न होगा? ये प्रेम भरी आँखें! यह आश्रयदायी वात्सल्य! यह मुक्त हास्य! अजीब निडरताभरी विशाल छाती और इस चमकते श्वेत चर्म वाले बापू का कभी भी दर्शन न होगा? राग तो है आसावरी, पर है तो भयंकर निराशा ही!
फिर लोगों की असह्य भीड़ हो जाने से बापू की देह ऊपर लायी गयी। देश-विदेश के दूत एवं प्रतिनिधि और सरकारी नौकर भारतीय शान्ति के सम्राट के अन्तिम दर्शन के लिए पहुँच गये थे।
(मनु बहन की पुस्तक ‘बापू की अंतिम झांकी’ से)
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