आधुनिक भारत की तीन महान शख्सियतों की विश्वदृष्टि एकदूसरे की कितनी पूरक रही है, इतिहास इसका गवाह है। उनका जीवन और कार्य, विश्वास, भोजन, पोशाक और लोगों की मजहबी पहचान के नाम पर बहुसंख्यकवाद और विभाजनकारी विचारों के जहरीले प्रसार का सामना कर रहे भारत की नियति को आकार देने के लिए पहले से कहीं अधिक महत्व रखता है।
अंबेडकर, गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य नेताओं के उतने ही कटु आलोचक थे, जितने हिंदू धर्म के। उनकी पुस्तक ‘रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म’ यदि उन्होंने इक्कीसवीं सदी के भारत में लिखा होता, तो आज उनको कटु आलोचना का सामना करना पड़ता। उनका लेखन कई हिंदू देवी-देवताओं, हिंदू धर्म की मान्यताओं और प्रस्तावों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से भरा हुआ है। उन्होंने मनुस्मृति को जला दिया था, क्योंकि यह पुस्तक महिलाओं की अधीनता को सही ठहराने, दलितों को निम्नतम दर्जा देने और उनके शोषण को तर्कसंगत बनाने के लिए बेतुके तर्क देती है। हिंदू धर्म में प्रचलित अस्पृश्यता की प्रथा और इसकी वर्गीकृत सामाजिक असमानता ने उन्हें बड़ी संख्या में उनके अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया। हालाँकि, कई बार कई जगह उन्होंने कौटिल्य लिखित मनुस्मृति और अर्थशास्त्र सहित कई हिंदू शास्त्रों के कई प्रावधानों को उद्धृत भी किया, जिसमें एक ही बार विवाह करने की प्रथा और महिलाओं द्वारा संपत्ति रखने के अधिकार को निर्धारित किया गया था। उन्होंने नेहरू के मंत्रिमंडल में भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया और उसका संचालन किया। इस मसौदे ने हिंदू महिलाओं के संदर्भ में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को अनिवार्य किया। उस विधेयक का संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने विरोध किया था, भले ही वे हिंदू थे।
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी उस बिल के खिलाफ आवाज उठाई थी, उन्होंने नेहरू और पटेल से आगे जाकर इसे पास न करने का आग्रह किया था। नेहरू इसे पारित करने के इच्छुक थे, लेकिन कांग्रेस के कुछ रूढ़िवादी हिंदू सदस्यों ने विधेयक का विरोध किया। इस भारी विरोध के कारण विधेयक पारित न हो सका। अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के पारित न होने के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराते हुए कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
यद्यपि महात्मा गांधी ने हमेशा उनके मन की कड़वाहट को हमेशा समझा और उनके खिलाफ कभी कोई दुर्भावना नहीं पाली। 1930 के दशक के दौरान अम्बेडकर पूना विधानसभा के सदस्य थे। सत्रावधि के दौरान उस विधानसभा के प्रत्येक सदस्य को रहने और खाने के खर्च के लिए 10 रुपये प्रतिदिन दिए जाते थे। गांधी जी ने लिखा कि जहां अधिकांश सदस्य किसी दोस्त या रिश्तेदार के घर में रहकर उस पैसे को जेब में डालते थे, अंबेडकर ने उस राशि को अपने लिए आवास की व्यवस्था करने में खर्च किया, क्योंकि तब कोई भी उन्हें अछूत मानकर रहने की सुविधा नहीं देता था। महात्मा गांधी ने तब यह तीखी टिप्पणी की कि अगर अम्बेडकर हिंदुओं और हिंदू धर्म को मारने आएंगे, तो मैं उनसे कहूँगा कि तुम्हारी तलवार के लिए यह रही मेरी गर्दन, क्योंकि मैं एक सवर्ण हिंदू हूं और अपनी जातीय पहचान के कारण अंबेडकर को दी गई पीड़ाओं का मैं भी उतना ही दोषी हूं। यह टिपण्णी गांधी द्वारा अम्बेडकर के प्रति उच्च सम्मान प्रदर्शित करती है।
गांधी और अंबेडकर दोनों ने जातिक्रम में दलितों की स्थिति को गुलामी से भी बदतर बताया। अस्पृश्यता की घृणित प्रथा और उसे समाप्त करने की आवश्यकता पर इससे उनके विचारों की पूरकता प्रकट होती है।
केवल एक अवसर पर; 1955 में राज्यसभा में दिए गए अपने एक भाषण में अम्बेडकर ने महात्मा गांधी की प्रशंसा की थी। यह एकमात्र भाषण था, जहां उन्होंने पहली बार स्वीकार किया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लोग महात्मा गांधी के सबसे करीबी और प्रिय थे, इसलिए नमक पर एक उपकर लगाया जाना चाहिए और इससे होने वाली आय का उपयोग महात्मा गांधी ट्रस्ट फंड बनाने के लिए किया जाना चाहिए, ताकि पूरे भारत में दलितों के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए बंजर भूमि के सुधार हेतु इसका उपयोग किया जा सके, ऐसी पुनर्निर्मित भूमि उन्हें उनकी आजीविका के लिए दी जानी चाहिए।
जिस तरह से उन्होंने भारतीय समाज के वंचित वर्गों, दलितों, गरीबों और महिलाओं के स्तर को उठाने के लिए कार्य किया, उसने उन्हें भारतीयों के बहिष्कृत और वंचित वर्गों के सबसे बड़े नेताओं में से एक बना दिया।
अंबेडकर हिंदू धर्म के विद्रोही बच्चे थे और बुद्ध की तरह जाति का विनाश करके सामाजिक परिवर्तन लाने और भाईचारा स्थापित करने के लिए बाद में वे एक दयालु विद्रोही में तब्दील होते गए। वह चाहते थे कि सारे धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हों। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह चाहते थे कि धर्म उपनिषदों से प्रेरणा प्राप्त करे। अम्बेडकर ही थे, जिन्होंने अपनी कटुता के बावजूद मेल-मिलाप और समझ को बढ़ावा दिया और अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कानून और न्यायशास्त्र का इस्तेमाल किया। संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा कि यदि संविधान में निहित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक पद्धति को छोड़ दिया जाय तो अराजकता व्याप्त हो जाएगी। उन्होंने कहा कि केंद्र में मौजूद शक्तियों के इशारे पर बहुसंख्यकवाद द्वारा भारत के विचार को खतरे में पड़ने से बचाने के लिए राजनीतिक शासन और नागरिक समाज दोनों की ओर से संवैधानिक पद्धति को बनाए रखना महत्वपूर्ण है।
-एसएन साहू
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