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हृदय परिवर्तन का वह अद्भुत नजारा था, जब बागियों ने अपनी बंदूकें विनोबा के चरणों में रख दीं!

14 अप्रैल 1972 को हुआ ऐतिहासिक बागी समर्पण, आज स्वर्ण जयंती दिवस के रूप में याद किया जा रहा है। इस अवसर पर दस्यु समर्पण की पूरी कहानी पवनार आश्रम की गंगा दीदी की जुबानी यहां प्रस्तुत है।

हम वर्षों से अंगुलिमाल की कहानी सुनते आ रहे हैं। लेकिन इस जमाने में हमलोगों ने तो यह कहानी अपनी आंखों से प्रत्यक्ष ने देखी है। चंबल घाटी में डाकुओं ने विनोबा जी के सामने समर्पण किया। विनोबा जी की जिन दिनों  भूदान यात्रा चल रही थी, उन दिनों बाबा कश्मीर में यात्रा कर रहे थे। एक डाकू जेल में था, जिसे फांसी की सजा हुई थी। उसने विनोबा जी को पत्र लिखकर फांसी पर चढ़ने से पहले उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। विनोबा जी ने उससे बातचीत करने के लिए जनरल यदुनाथ सिंह को भेजा था। डाकू तहसीलदार सिंह का भी संदेश बाबा को आया कि हमारे साथी भी आपसे मिलना चाहते हैं।

विनोबा जी की यात्रा जब चंबल क्षेत्र में पहुंची, तब बाबा ने अपने संबोधन में कहा कि यह साधुओं का क्षेत्र है। जब मनुष्य को मानवता का स्पर्श होता है, तब वह साधु बन जाता है। यहां अनेक साधुओं का जन्म हुआ है। चंबल घाटी में विनोबा जी रोज प्रेम का संदेश देते हुए गलत रास्ता छोड़ने का आवाहन करते रहे। एक दिन नायक यदुनाथ सिंह ने बाबा से कहा कि मेरे साथ आप अपने किसी व्यक्ति को भेज दीजिए। बाबा ने यात्रा टोली में शामिल गौतम भाई को उनके साथ डाकुओं से मिलने के लिए भेजा। चंबल के गांवों की बाबा जब प्रदक्षिणा करते थे तो देखकर बहुत दुख होता था, क्योंकि गांव में एक भी जवान नहीं बचा था। उन सबको डाकुओं ने समाप्त कर दिया था। गांव की बहनें विधवा हो गई थीं और बच्चे अनाथ हो गए थे। उनके माता पिता आधार रहित हो गए थे।

उन्हें एक तरफ बागी और दूसरी ओर पुलिस परेशान करती थी। गांवों में अपार दुख का नजारा पसरा हुआ था। डाकू आते और रुपया, पैसा, अनाज सब छीनकर ले जाते. अगर नहीं देते तो मार डालते थे। बाबा ने देखा, मिट्टी के घरों में गोलियों के निशान इस बात की गवाही भी दे रहे थे। गांव के लोगों को बाबा विनोबा में आशा की एक किरण दिखाई दी। उन्होंने बाबा के सामने दिल खोलकर अपनी बातें रखीं। चारों ओर राक्षसी वृत्ति दिखाई दे रही थी।वहां तो कण-कण में आंसू थे। विनोबा जी सभी को सांत्वना देकर ढांढस बंधा रहे थे। वहां एक गांव की नहीं, बल्कि संपूर्ण क्षेत्र की यही कहानी थी।

विनोबा जी इस क्षेत्र के सर्वाधिक दुर्दांत मान सिंह की ससुराल उनसे मिलने गए। वहां भी बहनों और बच्चों की आंखों में आंसू ही थे। मान सिंह की पत्नी बाबा से मिलने आईं और अपनी कहानी बाबा को सुनाने लगी। वह अपने मायके में रहती थी। उसने कहा कि मायके वाले भी हमसे जाने को कहते हैं।आखिर बाबा मैं कहां जाऊं? मेरा एक ही लड़का था, उसे भी फांसी की सजा हुई है। मेरे एक लड़की है, उसके पति ने उसे छोड़ दिया। क्या करूं? एक दिन गांव में ग्रामीणों का खूब शोर होने लगा। बाहर निकलकर देखा तो लुक्का डाकू विनोबा जी से मिलने के लिए आया हुआ है। बाबा के पास जाकर वह बोला कि बाबा, मैं बंबई से आया हूं। मैने वहां रेडियो पर समाचार सुना कि बाबा चंबल घाटी में घूम रहे हैं, तो आपसे मिलने चला आया। चूंकि आप सभी को गलत रास्ता छोड़ने के लिए समझा रहे हैं। मुझे लगा कि मैं भी अपनी गलती आपके सामने मान लूं।

विनोबा जी ने पूछा कि तुम्हें रास्ते में पुलिस ने नहीं पकड़ा? उसने कहा कि मुंबई इतना बड़ा शहर है कि वहां पुलिस कैसे हमें ढूंढ पाती। इसके बाद जनरल यदुनाथ सिंह और गौतम भाई भी अपने साथ ग्यारह डाकुओं को लेकर आ गए। इन सभी ने विनोबा के चरणों में अपनी बंदूकें समर्पित कर दीं और आगे से गलत काम न करने का संकल्प लिया। जिन्होंने आज समर्पण किया वे सब इनामी डाकू थे, इन सबके पास दूरबीन वाली बंदूकें थीं। बाबा के सामने अपना अपराध कबूलने के बाद सभी के जेल जाने का समय आया। बाबा ने इन सभी को चार दिन अपने साथ यात्रा में रखा। इसका उन सब पर बहुत असर हुआ। सभी को अपने-अपने घर भी भेजा कि जाकर अपने परिवार वालों से मिलकर आओ।

सबको जेल भेजने से पहले बाबा की यात्रा में चल रही बहनों ने सभी को प्रेम की प्रतीक राखी बांधी। इससे पहले सभी डाकुओं ने रामचरितमानस का पाठ भी किया और सर्वधर्म प्रार्थना भी हुई। हमारे यहां परंपरा है कि राखी बांधने के बाद थाली में कुछ डालना होता है। एक डाकू के पास छः रुपए थे, वे पैसे उन्होंने थाली में रख दिए। सभी ने बाबा के चरणस्पर्श किए। बाबा ने कहा कि रामहरि कहते कहते जाओ और वहां भी भगवान का नाम लेते रहना। उनमें से एक डाकू का नाम दुर्जन सिंह था। बाबा ने उसका नामकरण सज्जन सिंह के रूप में किया। सभी की आंखों से गंगा जमुना बह रही थी। जनरल यदुनाथ सिंह सभी को जेल लेकर पहुंचे। बाबा अपने आश्वासन के मुताबिक दूसरे दिन जेल पहुंचे। बाबा ने सभी को समझाते हुए कहा कि जहां भी रहो, वहां आश्रम बनाओ। अपनी वाणी में खोटापन मत आने दो।

इसके बाद बाबा चंबल के क्षेत्र में दस बारह दिन और रहे। वहां के पत्रकारों ने बाबा से पूछा कि क्या डाकुओं का ह्रदय परिवर्तन हुआ। तब विनोबा जी ने कहा कि यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन अहिंसा के चमत्कार से मेरा ह्रदय परिवर्तन तो हो ही गया है। जब बाबा ने ब्रह्मविद्या मंदिर में क्षेत्र सन्यास ले लिया, तब चंबल क्षेत्र का एक डाकू बाबा से मिलने पवनार, वर्धा आया. उसने कहा कि बाबा, हम लोग भी समर्पण करना चाहते हैं। आप वहां चलिए। विनोबा जी ने अपने क्षेत्र सन्यास की परिस्थिति बताते हुए उन्हें जयप्रकाश नारायण के पास भेजा, जिन्होंने 14 अप्रैल 1972 को  चंबल पहुंचकर सुब्बाराव के महात्मा गांधी सेवा आश्रम, जौरा जिला मुरैना में उनका समर्पण कराया।

आज उसी ऐतिहासिक घटना की स्वर्ण जयंती का पावन दिन उसी जौरा आश्रम में  मनाया जा रहा है। इस मौके पर पीवी राजगोपाल ने कहा कि यदि देखा जाए तो यह घटना हिंसा मुक्ति, प्रतिकार मुक्ति और शोषण मुक्ति अभियान की जननी रही है। आज हिंसा प्रतिहिंसा में आगे बढ़ रही है। इस दुनिया को गांधी के सिद्वांतों की बहुत ही जरूरत है। दुनिया में गांधीवाद और अणुबम के बीच टकराव हो रहा है। अणुबम के समर्थक और अस्त्र-शस्त्र निर्माता व विक्रेता कम्पनियां गांधीवाद को समाप्त करना चाहती हैं, जिससे समाज, देश व दुनिया में हिंसा बढ़े और उनको अपने कारोबार में फायदा मिले। समाज में जहाँ एक तरफ हिंसा, नफरत, अत्याचार व शोषण करने वालों की संख्या में बढोत्तरी हो रही है, तो दूसरी तरफ अहिंसा, प्रेम, करुणा व भाईचारे के लिए काम करने वालों की कमी होती जा रही है।

महात्मा गांधी सेवा आश्रम जौरा के सचिव रनसिंह परमार ने कहा कि चम्बल के बागी आत्मसमर्पण ने दुनिया को संदेश दिया कि गांधीवाद के बल पर हदय परिवर्तन से समाज को हिंसामुक्त किया जा सकता है। 1972 में आश्रम परिसर में लोक नायक जयप्रकाश नारायण के समक्ष हथियार डालकर आत्मसमर्पण करने वाले बागियों में जीवित बचे बहादुर सिंह, अजमेर सिंह, सोबरन सिंह, घमण्डी, सोनेराम तथा भिंड के गंगा सिंह, राजस्थान की कपूरी बाई और उत्तरप्रदेश के अनेक बागी व उनके परिजन भी इस अवसर पर जौरा आ रहे हैं। आज विनोबा सेवा आश्रम बरतारा भी अपने साथियों के साथ चंबल घाटी के आत्मसमर्पण को याद कर रहा है।

 

 

Co Editor Sarvodaya Jagat

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  • अद्भुत आलेख ! सराहनीय

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