आज से तक़रीबन 64-65 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले के कमलापुरा निवासी बहादुर सिंह कुशवाह जब लगभग 17-18 वर्ष की उम्र के थे, उस समय गांव में पंचों और सामंतों के प्रभाव और चौधराहट के कारण उनकी पुश्तैनी ज़मीन हड़प ली गयी। बहादुर सिंह के चाचा भी गांव के सामंतों के साथ मिल गए थे। ज़मीदारों की मिली भगत से उनके चाचा ने उनकी ज़मीन अवैध तरीकों से दबा ली। उसने गांव के पंच-पटेल, थानेदार और प्रशासन सब से कई बार न्याय के लिए गुहार की, लेकिन बहादुर सिंह को किसी से न्याय नहीं मिला।
1960 में चंबल के बीहड़ों में उन दिनों मान सिंह, तहसीलदार सिंह, लोकमान दीक्षित उर्फ़ लुक्का पंडित, फ़िरंगी सिंह, देवीलाल आदि बाग़ी सरकार के विरुद्ध बग़ावत करके हथियार उठाये हुए थे। बहादुर सिंह बताते हैं कि चंबल घाटी से जुड़े बाग़ियों की दबंगई का प्रभाव उन पर भी पड़ने लगा। इसी दौरान वे बाग़ी हरविलास और माधो सिंह के सम्पर्क में आए। उनको अपनी मज़बूरी बताई और माधो सिंह गैंग से जुड़ गए। उस समय उनकी उम्र तक़रीबन 17-18 वर्ष की रही होगी, जब उन्होंने शोषण और अन्याय से लड़ने के लिए बग़ावत और विद्रोह का रास्ता चुन लिया। इसके चलते उनकी ज़मीन हड़पने वाले उनके चाचा सहित विरोधियों की उनके द्वारा हत्या कर दी गई। बक़ौल बाग़ी बहादुर सिंह उस समय चंबल घाटी में मोहर सिंह और माधो सिंह की ‘चंबल-सरकार’ चलती थी।
दिल्ली, मध्यप्रदेश और राजस्थान सहित तीन राज्यों की पुलिस प्रशासन के लिए ये बाग़ी उन दिनों आंख की किरकिरी बने हुए थे। सरकार ने उस समय मोहर सिंह को 2 लाख व माधो सिंह को डेढ़ लाख का इनामी डाकू घोषित कर रखा था। उन पर 300 से अधिक हत्याओं, 500 अपहरण और सैंकड़ों लूट के केस दर्ज़ थे। माधो सिंह और मोहर सिंह की दबंगई की तूती पूरे उत्तर भारत में बोलती थी। मान सिंह गैंग के बाद पूरे चंबल में इन दोनों का हर तरफ़ ख़ौफ़ होता था। उनके पास उस समय तक के सारे आधुनिक हथियार थे, लेकिन समय के साथ चंबल घाटी की भी फ़िज़ा बदली। विनोबा भावे की प्रेरणा से मानसिंह गैंग के बाग़ियों ने बग़ावत का रास्ता छोड़कर आत्म समर्पण किया और समाज की मुख्य-धारा में लौटना शुरू किया। इसी बीच 13 मार्च, 1971 को पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में माधो सिंह गैंग के कल्याण उर्फ़ कल्ला सहित तक़रीबन एक दर्जन बाग़ी मारे गए। बाग़ियों का हौसला भी टूटने लगा था। सबसे पहले माधो सिंह, रामसिंह बनकर विनोबा भावे से मिले और उनके समक्ष आत्म-समर्पण की बात रखी। विनोबा जी ने जयप्रकाश नारायण के नाम एक ख़त देकर माधो सिंह को पटना भेजा। जेपी से मिलकर माधो सिंह ने सरकार के समक्ष आत्म-समर्पण का प्रस्ताव रखा, लेकिन जेपी ने बाग़ी माधो सिंह के समक्ष मोहर सिंह गुर्जर गैंग सहित चंबल घाटी के सभी बाग़ियों के आत्म-समर्पण की शर्त रखी। बाग़ी बहादुर सिंह बताते हैं कि मध्य प्रदेश के मुरैना ज़िले स्थित पगारा डैम पर जेपी और सुब्बाराव के प्रयासों से 14 अप्रैल, 1972 को 654 बाग़ियों ने गांधी सेवा आश्रम, जौरा में महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष हथियार डालकर, आत्म-समर्पण किया और सामान्य जीवन में लौट आए। राष्ट्रीय सेवा योजना से जुड़े सामाजिक कार्यकर्त्ता और सुब्बाराव के साथी रहे हनुमान सहाय शर्मा नायला बताते हैं कि इस घटना से बाग़ियों के सामान्य जीवन में लौटने के प्रयासों को और मज़बूती मिली। बाग़ियों को सजाएं भी हुईं, लेकिन कुछ वर्षों बाद उन्हें मूंगावली स्थित खुली जेल (बंदी सुधार गृह) में भेज दिया गया। सरकार के साथ हुए समझौते के तहत उनके व पीड़ित (बाग़ियों से प्रभावित) परिवारों के पुनर्वास की व्यवस्था की गई। बाग़ी बनने से पूर्व माधो सिंह कुछ साल तक फ़ौज में भी रहे। वे होम्योपैथी के अच्छे जानकार और बेहतरीन जादूगर भी थे। आत्म-समर्पण के बाद बाग़ी मोहर सिंह गुर्जर राजनीति में भी आए और भिंड ज़िले के मेहगांव क़स्बे से पालिका अध्यक्ष भी रहे। बाग़ी माधो सिंह की सन 1991 और मोहर सिंह की 2020 में मृत्यु हो गई।
उनके गैंग के 13-14 सालों तक सदस्य रहे बाग़ी बहादुर सिंह अब 83 साल के हो गए हैं। वे जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम में ही रहते हैं और विभिन्न सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं। वे कहते हैं कि समाज और व्यवस्था के हालात व्यक्ति को बाग़ी और विद्रोही बनाने को मज़बूर करते हैं। उन दिनों को याद करते हुए बाग़ी बहादुर सिंह कहते हैं, ‘मैंने ग़लत रास्ता चुना था, लेकिन जेपी और डॉक्टर सुब्बाराव के प्रयासों ने मेरे जैसे सैकड़ों बाग़ियों का अहिंसात्मक तरीक़ों से हृदय-परिवर्तन कर, उन्हें सामान्य जीवन लौटाया।’ बहादुर सिंह के परिवार में उनकी धर्मपत्नी जामता देवी, 3 लड़के और 2 लड़कियां हैं। बहादुर सिंह अब अपने गांव नहीं जाते हैं। वे गांधी सेवा आश्रम, जौरा को ही अपना घर मानते हैं। उनका सपना है कि डॉक्टर सुब्बाराव के भाईचारे और सद्भाव से जुड़े विचारों को और मज़बूती मिले। (बाग़ी बहादुरसिंह की लेखक से हुई वार्ता पर आधारित)
-बद्रीनारायण विश्नोई
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