पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के गंभीर परिणामों का सामना कर रही है, मगर भारत में यह मसला अब भी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। आबादी के लिहाज से भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इसी महीने से विधानसभा चुनाव शुरू हो रहे हैं। हालांकि इस बार भी जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण का मुद्दा राजनीतिक विमर्श से गायब है।
प्रदूषण की समस्या को लेकर वैश्विक फलक पर गहरी चिंता जाहिर किए जाने के बावजूद यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता और उत्तर प्रदेश का मतदाता जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ सोच रहा है या नहीं, इस विषय पर जलवायु परिवर्तन पर केन्द्रित संचार थिंक टैंक क्लाइमेट ट्रेंड्स ने एक वेबिनार आयोजित कर विशेषज्ञों की राय जानी और प्रदूषण के मुद्दे को कैसे जन चर्चा का विषय बनाया जाए, इस पर व्यापक विचार विमर्श किया गया।
वर्ल्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) इंडिया में वायु गुणवत्ता शाखा के प्रमुख डॉक्टर अजय नागपुरे ने कहा कि कोई भी मसला तभी राजनीतिक मुद्दा बनता है, जब वह आम लोगों का मुद्दा हो। समस्या यही है कि प्रदूषण अभी तक आम लोगों का मुद्दा नहीं बन पाया है। अभी तक यह मुद्दा सिर्फ पढ़े-लिखे वर्ग का ही मुद्दा है। अगर हम वास्तविक रूप से धरातल पर देखें और आम लोगों से उनकी शीर्ष पांच समस्याओं के बारे में पूछें तो पाएंगे कि प्रदूषण का मुद्दा उनमें शामिल नहीं है। उन्होंने दिल्ली में किए गए एक सर्वे का जिक्र करते हुए बताया कि हमने इस सर्वेक्षण के दौरान लोगों से पूछा था कि ऐसी कौन सी 5 चीजें हैं जिनसे आप नाखुश हैं। जलवायु परिवर्तन उन पांच चीजों में शामिल नहीं था। प्रदूषण जब जनता का ही मुद्दा नहीं होगा, तो यह राजनीतिक मुद्दा कैसे बनेगा? लोग डायबिटीज और ब्लड प्रेशर से होने वाली मौतों के बारे में तो जानते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि इन दोनों के बराबर ही मौतें जलवायु परिवर्तन के कारण भी होती हैं।
डॉक्टर नागपुरे ने कहा कि जिस तरह से प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है, उस तरह से हम लोगों को इस बारे में बता नहीं पा रहे हैं। हमें समझना होगा कि कोई वैज्ञानिक वायु प्रदूषण का समाधान नहीं कर सकता। यह किसी एक तबके का काम नहीं है। वैज्ञानिक हमें वायु प्रदूषण का कारण बता सकते हैं और थोड़ा बहुत समाधान भी सुझा सकते हैं, लेकिन उसे जमीन पर उतारना तो हम सभी का काम है। वैज्ञानिक जरूर वायु प्रदूषण की समस्या के गंभीर परिणामों से अवगत हैं, लेकिन धरातल पर मौजूद लोगों के मुद्दे अलग हैं। हमें एक सुव्यवस्थित रवैया अपनाना होगा और आम लोगों को साथ लेकर प्रदूषण के गंभीर परिणामों के बारे में बातचीत करके उन्हें जागरूक करना होगा। जिस दिन प्रदूषण का मुद्दा जन चर्चा और जन सरोकार का मुद्दा बनेगा, उसी दिन यह राजनीतिक मुद्दा भी बन जाएगा और राजनीतिक पार्टियां इसे अपने घोषणापत्र में शामिल करने को मजबूर हो जाएंगी।
केन्द्र सरकार के नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की स्टीयरिंग कमेटी के सदस्य और आईआईटी कानपुर में प्रोफेसर एसएन त्रिपाठी ने कहा कि हमें यह समझना होगा कि क्लीन एयर का मुद्दा भारत में बमुश्किल सात-आठ साल से ही उठना शुरू हुआ है। भारत का नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम अभी ढाई साल का बच्चा है। यानी भारत के स्तर पर अभी यह कार्यक्रम ढाई साल से ही शुरू हुआ है। उन्होंने कहा कि यूपी में मैंने पाया है कि स्थानीय स्तर पर अब यह बात समझी जाने लगी है कि हमें इस मुद्दे पर कुछ काम करना होगा। अब चीजें कुछ सही दिशा में हो रही हैं। हाल ही में कानपुर में वायु गुणवत्ता निगरानी के करीब 5 नए केंद्र स्थापित किए गए हैं और पूरे उत्तर प्रदेश में 100 से ज्यादा ऐसे स्टेशन बनाए गए हैं। चर्चा का बिंदु यह है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर आम लोगों के स्तर पर जागरूकता है या नहीं। मेरा मानना है कि जनता अब काफी जागरूक है।
टाइम्स ऑफ इंडिया, लखनऊ के स्थानीय संपादक प्रवीण कुमार ने जलवायु परिवर्तन के राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाने के कारणों के व्यावहारिक पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान विकास के बारे में बात जरूर होती है, लेकिन क्या वोट देते वक्त वाकई यह कोई मुद्दा बन पाता है? उत्तर प्रदेश में अक्सर जाति और धर्म के मुद्दे ही हावी होते हैं। उन्होंने कहा कि प्रमुख राजनीतिक दलों को जलवायु परिवर्तन को मुद्दा बनाना चाहिए, मगर पहले वे अपने चुनाव घोषणापत्र में इसे शामिल तो करें। सबसे पहले तो राजनीतिक दलों को प्रभावित करने की जरूरत है ताकि वे इस मुद्दे को गंभीरता से लें। राजनीतिक दलों को सिर्फ इस बात की फिक्र होती है कि फलां मुद्दे से उन्हें वोट मिलेगा या नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल और अन्य तौर-तरीके अपनाने की बात जरूर की जाती है, लेकिन वास्तव में कोई भी व्यक्ति इस दिशा में पहल नहीं करता।
एक सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश के करीब 47% लोग मानते हैं कि उनके शहर में हवा की गुणवत्ता अच्छी नहीं है, जबकि 73% लोगों को लगता है कि वाहनों से निकलने वाला धुआं इसका प्रमुख कारण है। इसके अलावा 65% लोगों ने कहा कि निर्माण कार्य स्थलों और सड़कों से उड़ने वाली धूल इसका प्रमुख कारण है। इसके अलावा 61% लोगों ने कहा कि शहरों में मौजूद उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषणकारी तत्वों की वजह से वायु प्रदूषण हो रहा है। वहीं 38% लोगों ने माना कि कोयले से चलने वाले बिजली घरों की वजह से ऐसा हो रहा है। सर्वे के मुताबिक 64% लोगों ने कहा कि सरकार वायु प्रदूषण को कम करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए। इसके अलावा 60% लोगों ने कहा कि लोगों को इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। वहीं, 58% लोगों ने कहा कि थर्मल पावर प्लांट्स पर निर्भरता में कमी लाई जाए। सर्वे के अनुसार 75% लोगों ने कहा कि उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में वायु प्रदूषण को मुद्दा बनाया जाना चाहिए। वहीं 86% लोगों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। 47 प्रतिशत लोगों ने इसे बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा माना। सिर्फ 10% लोगों ने कहा कि यह महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है। इसके अलावा 57% लोगों ने माना कि जलवायु परिवर्तन का प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। वहीं, 38% लोगों ने कहा कि वे इस बारे में पक्के तौर पर नहीं कह सकते।
पर्यावरण वैज्ञानिक डॉक्टर सीमा जावेद ने कहा कि जनता के बीच जितनी जानकारी पहुंचती है, लोगों में उतनी ही ज्यादा जागरूकता फैलती है। उतना ही ज्यादा वे उस चीज की रोकथाम के लिए कदम उठाते हैं। तंबाकू के खिलाफ चलाए गए अभियान में लोगों को काफी हद तक यह विश्वास दिला दिया गया कि तंबाकू से कैंसर होता है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने तंबाकू के इस्तेमाल से परहेज करना शुरू किया। जागरूकता फैलने की वजह से ही कानूनी बंदिशें लागू की गईं कि कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान नहीं कर सकता। जब कोई मुद्दा जन सरोकार का मुद्दा बनता है तभी राजनेता उसे प्राथमिकता देते हैं।
उन्होंने कहा कि किसी भी नेता के वोट बैंक आमतौर पर ग्रामीण लोग होते हैं, इसलिए जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूकता को ग्रामीण स्तर तक ले जाना होगा, ताकि उस स्तर पर भी प्रदूषण का मुद्दा जन जन का मुद्दा बने। तभी इस दिशा में व्यापक बदलाव आएगा और यह राजनीतिक मुद्दा बन सकेगा।
डॉक्टर सीमा ने कहा कि मौसम की चरम स्थितियों ने भी वायु प्रदूषण को विचार विमर्श के केंद्र में ला दिया है। उत्तराखंड में हुई कई आपदाओं ने जलवायु परिवर्तन की तरफ इशारा किया है। इस बार उत्तर प्रदेश में मौसम का मिजाज बदल गया। ऐसा कहा जाता था कि मकर संक्रांति के बाद ठंड कम होने लगेगी, लेकिन ठीक इसका उल्टा हो रहा है। मौसम के बदलते मिजाज का फसलों पर असर पड़ता है, इसलिए यह अच्छा अवसर है कि किसानों और ग्रामीणों को प्रदूषण के मुद्दे पर और जागरूक किया जाए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में समीक्षा अधिकारी करुणानिधान श्रीवास्तव ने कहा कि जब तक हम खुद नहीं समझेंगे कि हमें अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है, तब तक कुछ नहीं होगा। उन्होंने कहा कि राजनेता और चुनाव लड़ने वाले लोग हमारे बीच से ही आते हैं। अगर आम नागरिक ही प्रदूषण के प्रति जागरूक नहीं होंगे तो हम हमारे बीच से आने वाले राजनेताओं में वह चिंता कैसे पैदा कर सकते हैं।
काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरमेंट एंड वॉटर में सीनियर प्रोग्राम लीडर शालू अग्रवाल ने कहा कि बिजली क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य सभी लोगों तक गुणवत्तापूर्ण, किफायती और सतत बिजली पहुंचाना है। सिर्फ विद्युतीकरण को ही देखें तो 2015 में ग्रामीण यूपी में 57% लोगों के पास बिजली के कनेक्शन थे। 2020 में जब हमने दोबारा सर्वे किया तो यह बढ़कर 90% हो गया। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में 2016 में जहां औसतन 9 घंटे बिजली आती थी, वहीं अब यह बढ़कर 16 घंटे हो गया है, मगर बिजली कंपनियों की हालत में सुधार नहीं हो रहा है। उन्हें हर साल लगभग 30% का घाटा हो रहा है। यह बहुत बड़ा वित्तीय नुकसान है, कहीं ना कहीं इसका प्रभाव जनता पर ही पड़ेगा।
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में ऊर्जा वित्त विश्लेषक कशिश शाह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन बहुत बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को हर साल 40 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करनी होगी, मगर इस वक्त हम सिर्फ 15 से 20 गीगावाट क्षमता ही स्थापित कर पा रहे हैं।
उन्होंने प्रेजेंटेशन देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा बिजली खपत करने वाला राज्य है जहां देश में उत्पादित कुल बिजली के 10% हिस्से के बराबर खपत होती है। इस राज्य में बिजली की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है। सिर्फ वार्षिक मांग ही नहीं बल्कि पीक डिमांड भी 23.8 गीगावॉट के स्तर पर पहुंच चुकी है। मगर उत्तर प्रदेश अपने अक्षय ऊर्जा उत्पादन संबंधी लक्ष्यों के मामले में बिजली की उच्च मांग वाले अन्य राज्यों के मुकाबले पीछे है।
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