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इस धरती को बचायें कैसे?

जलवायु परिवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय वार्ता

हमारे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बेतहाशा बढ़ रही हैं, जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है. इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं. समुद्र का स्तर बढ़ रहा है. रेगिस्तान बढ़ रहे हैं, घने जंगल कम होते जा रहे हैं और इस तरह विकास हावी होकर सभ्यता के विनाश की ओर बढ़ रहा है. अब सवाल है कि ये सब हो क्यों रहा है. किन कारणों से ग्रीनहाउस गैसें बढ़ रही हैं. इसके कई कारण हैं. कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता, शहरीकरण और औद्योगिक इकाइयों का बढ़ना तथा हरियाली का लगातार घटना. अंधाधुंध शहरीकरण, जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, वह पृथ्वी की जलवायु का काल बन रही है. जलवायु परिवर्तन के दौर में सतत विकास का मुद्दा समाज, उद्योग, कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसके लिए एक सामूहिक व्यवहार-आधारित आंदोलन की जरूरत है, जो लोगों को देश की समृद्ध, प्राचीन और स्थानीय परंपराओं से जोड़कर पर्यावरणीय जीवनशैली की तरफ आकर्षित कर सके. भविष्य में यह एक बड़ा मुद्दा बनने वाला है. इन हालात में धरती को कैसे बचाएं, यह चिंता लेकर दुनिया के लगभग दो सौ देश इकट्ठा होते हैं, इस साल भी हुए और हफ्ते भर विमर्श किया. हमने क्या खोया और क्या पाया, उसका एक विश्लेषण देखें.

यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के सत्ताइसवें सम्मेलन (कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज या सीओपी-27) का आयोजन 7 से 20 नवंबर को शर्म अल-शेख, मिस्र में हुआ, जो दीर्घकालिक जलवायु नीति के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित हुआ, लेकिन कई मायनों में निराशाजनक भी रहा। हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) पर सीओपी-27 समझौता महत्वपूर्ण है, लेकिन बैठक में कई अन्य जरूरी मुद्दों पर बात नहीं हुई। इस महत्वपूर्ण बैठक ने कमजोर और विकासशील देशों की चिंताओं को दूर करने की कोशिश की, लेकिन स्वच्छ ऊर्जा की ओर आवश्यक सहयोग या धन जुटाने के लिए कोई रोडमैप प्रदान नहीं किया।

सीओपी-27 में भारत का पक्ष प्रस्तुत करते केन्द्री मंत्री भूपेन्द्र यादव

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हानि और क्षति के संबंध में विकासशील देशों की आवाज पिछले किसी भी COP की तुलना में अधिक प्रमुखता से उठायी गयी। पिछले वर्ष वार्ता के अंतिम दिनों में धनी देशों ने इस तरह के प्रस्तावों को ख़ारिज कर दिया था। चीन, यूरोपीय संघ और कुछ अन्य विकसित देश पहली बार हानि और क्षति कोष के समर्थन में सामने आए; जैसे-जैसे सीओपी का दूसरा सप्ताह करीब आ रहा था, यहाँ एक नाटकीय परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। जॉन केरी ने घोषणा की कि अमेरिका भी सैद्धांतिक रूप से इस तरह के कोष के निर्माण का समर्थन करेगा। इस तरह अमेरिका ने अपनी लंबे समय से चली आ रही विरोध की नीति को पलट दिया। सीओपी-27 में स्पष्ट विजेता जलवायु के प्रति संवेदनशील विकासशील देशों का समूह था, जो जलवायु प्रभावों के खिलाफ एक विशेष कोष बनाने में सफल रहा। दशकों तक, वे एक ऐसी समस्या के खिलाफ अपनी लाचारी जताते रहे, जो उन्होंने कभी पैदा ही नहीं की थी। वे दुनिया के अमीर देशों के खिलाफ थे, जिन्होंने इस विषय को लगातार शिखर सम्मेलन के एजेंडे पर रखने से भी इनकार कर दिया था। नया नुकसान और क्षति कोष पेरिस समझौते (2015) के तहत, जिम्मेदारी के न्यायसंगत बंटवारे की दिशा में पहला सैद्धांतिक कदम है। भविष्य में यह कैसे विकसित होगा, कहना मुश्किल है। इतना तो तय है की जलवायु नुकसान और क्षति का मुद्दा विवादास्पद रहने वाला है, जाहिर है, आने वाले समय में कुछ देश इस संकल्प से पीछे हट जायेंगे।

पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं में 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 33-35% तक कम करना शामिल था। पेरिस समझौते से पहले कुछ जलवायु वार्ताओं में, इस मुद्दे पर बहस ने वार्ता को लगभग विफल कर दिया था। विवाद इस बात को लेकर रहा है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े ‘नुकसान और क्षति’ के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार, अर्थात वातावरण में ग्रीन हाउस गैस के संचित स्टॉक में सबसे बड़ा योगदान वाले देश कौन हैं, और इन्हें विकाशशील देशों को कैसे भुगतान करना चाहिए, जिससे छतिपूर्ति की जा सके। यह तो सबको पता है की इस वक़्त संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और अन्य बड़े धनी देश जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं।

चीन दुनिया के बड़े उत्सर्जक के रूप में महत्वपूर्ण है, लेकिन अभी वह ग्रीनहाउस गैसों के वायुमंडलीय भंडार में सबसे बड़ा योगदानकर्ता नहीं है, संयुक्त राज्य अमेरिका का उत्सर्जन सबसे ज्यादा है। जलवायु नुकसान मौजूदा समय में जमा हो रहे कुल कार्बन स्टॉक का नतीजा है, किसी एक वर्ष में हुए उत्सर्जन का नहीं। हालाँकि, आर्थिक विकास और अन्य कारकों की सापेक्ष दरों के आधार पर, चीन एक या दो दशक में ग्रीनहाउस गैसों के स्टॉक में सबसे बड़ा योगदानकर्ता बन सकता है। COP-27 में चीन की घोषित स्थिति यह थी कि वह नुकसान और क्षति कोष का समर्थन तो करता है, लेकिन एक विकासशील देश के रूप में वह कोष में किसी भी योगदान के लिए जिम्मेदार या तैयार नहीं है। वैसे, एक विकासशील देश के रूप में चीन की परिभाषा यूएनएफसीसीसी के तहत गैर-अनुबंध देशों की 1992 की सूची से जुड़ी है, जब चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 400 डॉलर से कम थी, तब से अबतक चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 33.30% बढ़ी है, जिसे चीन द्वारा प्रासंगिक नहीं माना जाता है। सीओपी-27 में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बहुत सारी बहसें और घटनाक्रम हमारे सामूहिक और सतत विकास के मायने तय करेंगे, लेकिन मेरे विचार में जो बाइडेन और शी जिनपिंग के मेल-मिलाप और लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना इस बैठक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान और क्षति का मुद्दा इस साल के सीओपी-27 का प्रमुख फोकस रहा। 195 देशों के वार्ताकारों द्वारा सीओपी-27 का सबसे नाटकीय और विवादास्पद निर्णय तथाकथित ‘नुकसान और क्षति’ के लिए एक कोष की स्थापना करने का था। यह मुद्दा 1991 में पहली बार सामने आया था, जब प्रशांत क्षेत्र में एक छोटे से द्वीप राष्ट्र वानुअातु ने समुद्र के बढ़ते स्तर के परिणामस्वरूप पैदा होने वाली समस्याओं में मदद करने के लिए संयुक्त राष्ट्र कोष के निर्माण का सुझाव दिया था। तीस वर्षों से लगातार कई बैठकों में इस धारणा पर कार्रवाई में देरी हुई है, जिसे पेरिस समझौते में भी शामिल किया गया था। ‘नुकसान और क्षति’ जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रभावों को संदर्भित करता है। भले ही उत्सर्जन कल शून्य हो जाए, वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के लंबे समय तक प्रभावी बने रहने के कारण, आने वाले कई दशकों तक नुकसान जारी रहेगा, विशेष रूप से कार्बन डाइऑक्साइड का (जो उत्सर्जन के 100 से अधिक वर्षों तक वायुमंडल में बनी रहती है) उत्सर्जन को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित लक्ष्य के माध्यम से पेरिस समझौता एक प्रभावी ढाँचा बनाने में असफल रहा है। विकासशील देशों के लिए विकसित देशों द्वारा 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता कागज़ी रही है।

G-20 शिखर सम्मेलन में बाइडेन-जिनपिंग की मुलाकात
नवंबर-2016 में जब डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए थे, तब से एक बड़ा सवाल यह रहा है कि अमेरिका और चीन एक जलवायु-प्रभावी सह-नेतृत्व में फिर से कब लौटेंगे। ग्लासगो में पिछले साल हुए सीओपी-26 में यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न था। ओबामा प्रशासन के दौरान पेरिस समझौते में अमेरिका और चीन काफी हद तक एक साथ आने को राजी हुए थे, लेकिन बाद में कार्बन उत्सर्जन के जिम्मेदार ये दो बड़े देश पीछे हट गए। शर्म अल-शेख में आयोजित सीओपी-27 के दौरान सबसे महत्वपूर्ण घटना बाली, इंडोनेशिया में छह हजार मील दूर हुई, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 14 नवंबर को G-20 शिखर सम्मेलन के दौरान मुलाकात की। बैठक में इन्होंने हाथ मिलाया और तीन घंटे तक बातचीत की। इस महत्वपूर्ण मुलाकात में उन्होंने अन्य विषयों के साथ, जलवायु सहभागिता पर अपनी वापसी का संकेत दिया, जो अंतर्राष्ट्रीय प्रगति के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच बैठक की चर्चा तेजी से COP-27 में संबंधित वार्ता टीमों के प्रमुखों- संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉन केरी और चीन के शी झेनहुआ तक पहुंच गई। वे लंबे समय से दोस्त हैं, लेकिन अगस्त से दोनों सरकारों के बीच मौजूद समस्याओं के कारण जलवायु परिवर्तन पर चर्चा या सहयोग में शामिल नहीं थे। बाली में बाइडेन-शी की बैठक के बाद, जॉन केरी और शी झेनहुआ दोनों के बयानों ने संकेत दिया कि दोनों देश फिर से सहयोग शुरू करेंगे। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन नीति पर सह-नेतृत्व की वापसी भी हो सकती है, जिसे चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका ने पहले स्वीकार किया था और जो पेरिस समझौते के सफल अधिनियमन के लिए नितांत आवश्यक था। दीर्घकालिक जलवायु नीति के लिए सीओपी के दौरान चीन- अमेरिकी जलवायु सहयोग सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

वैश्विक उत्सर्जन में भारत की स्थिति
दुनिया की आबादी का 17% होने के बावजूद, भारत वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 7% उत्सर्जन ही करता है। 2019 के उत्सर्जन आंकड़ों को देखे तो पता लगता है कि चीन विश्व ग्रीन हाउस गैसों का 27% उत्सर्जन करता है, उसके बाद अमेरिका 11%, और फिर भारत 6.6% का स्थान है। भारत हर साल लगभग तीन गीगाहन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है; इसमें प्रति व्यक्ति का योगदान लगभग ढाई टन के बराबर है। यह दुनिया के प्रति व्यक्ति औसत का आधा है। यूएनईपी का अनुमान है कि 2030 तक यह 3 और 4 टन के बीच होगा। भारत में CO2 उत्सर्जन चीन की तुलना में बहुत कम है लेकिन बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

प्रमुख उत्सर्जकों की तुलना में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन

भारत में CO2 उत्सर्जन
जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों की सूची में भारत चौथे स्थान पर है। 1901 और 2018 के बीच भारत में औसत तापमान करीब 0.7 °C तक बढ़ गया है। देखने में यह बहुत कम लगता है, लेकिन प्रकृति के लिए यह बहुत ज्यादा है। हमारे शरीर में अगर सामान्य से इतना ज्यादा तापमान बढ़ जाये तो बुखार लग जाता है। ऐसा बदलाव प्रकृति की मुश्किल बढ़ा सकता है। कुछ अनुमानों के अनुसार, वर्तमान सदी के अंत तक भारत में सूखे की संख्या और गंभीरता में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। 2022 में उत्तर भारत में जो गर्मी की लहर आई थी, उसकी तीव्रता जलवायु परिवर्तन के कारण 30 गुना अधिक थी। तिब्बती पठार पर तापमान बढ़ने से हिमालय के ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, जिससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना और अन्य प्रमुख नदियों के प्रवाह को खतरा है। 2007 की वर्ल्ड वाइड फ़ंड फ़ॉर नेचर (WWF) की रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी कारण सिंधु नदी सूख सकती है। जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में गर्म हवाओं की आवृत्ति और तीव्रता भी बढ़ रही है। गंभीर भूस्खलन और बाढ़, असम जैसे उत्तर-पश्चिमी राज्यों में तेजी से बढ़ रहे हैं।

सितंबर-2021 तक भारत अपनी बिजली का 39.8% अक्षय ऊर्जा स्रोतों से और 60.2% बिजली जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न करता रहा है, जिसमें से 51% कोयले से उत्पन्न होता है। भारत में कोयले के खनन के साथ-साथ, कोयले से चलने वाले बिजली स्टेशनों में जलाने के लिए कोयले का आयात भी होता है। नए संयंत्रों के बनने की संभावना नहीं है, पुराने संयंत्रों को बंद किया जा सकता है और बाकी बचे संयंत्रों में अधिक से अधिक कोयला जलाया जा सकता है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती से भारत में वायु प्रदूषण तो कम होगा ही, साथ ही कटौती लागत से 4 से 5 गुना ज्यादा स्वास्थ्य लाभ होगा, जो दुनिया में सबसे अधिक सस्ता होगा।

वैश्विक बिजली में नवीकरणीय ऊर्जा
इस वर्ष का जलवायु शिखर सम्मेलन यूक्रेन-रूस युद्ध और ऊर्जा असुरक्षा की पृष्ठभूमि में हुआ। अक्षय ऊर्जा बड़ा व्यवसाय बन गया है और इसमें रिकॉर्ड तोड़ वृद्धि दिख रही है। 2019 से 2021 तक, दुनिया भर में सौर ऊर्जा उत्पादन में 47 प्रतिशत और पवन ऊर्जा में 31 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन वैश्विक बिजली में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा पिछले 20 वर्षों से लगभग 35 प्रतिशत पर अटका हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करते हुए बिजली की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इसे 2030 तक लगभग 75 प्रतिशत करने की आवश्यकता है। भले ही नवीकरणीय ऊर्जा का पैमाना बढ़ रहा हो, जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने की आवश्यकता होगी। पिछले साल के सीओपी ने कोयले को धीरे-धीरे कम करने का संकल्प लिया था और इस साल भारत ने सभी देशों को चुनौती दी कि वे सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से कम करने के लिए प्रतिबद्ध हों। हालांकि, सीओपी का अंतिम बयान केवल एक विविध ऊर्जा-मिश्रण की मांग करता है। समझौते में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिससे उत्सर्जन में कटौती पर अधिक कार्रवाई की जा सके या जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अधिक वित्तीय या तकनीकी संसाधन जुटाए जा सकें। उत्सर्जन में कटौती पर कुछ मजबूत प्रावधानों को लागू करने के प्रयासों को सभी पक्षों की सहमति नहीं मिली। सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध रूप से बंद करने का प्रस्ताव, मूल रूप से भारत द्वारा आगे रखा गया था. इसे बड़ी संख्या में देशों का समर्थन भी हासिल हुआ, हालांकि इसे अंतिम समझौते में शामिल नहीं किया गया।

शुद्ध-शून्य उत्सर्जन (नेट जीरो इमिशन) के लिए लक्ष्य और निवेश
अगले तीन दशकों में शुद्ध-शून्य उत्सर्जन (नेट जीरो एमिशन) के लिए भारत में लगभग 3 खरब डॉलर के अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता हो सकती है। हमें नवीकरणीय ऊर्जा उत्पन्न करने, इसे संग्रहीत करने, इसे प्रसारित करने, इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए इसका उपयोग करने और उद्योग के लिए हरित-हाइड्रोजन का उत्पादन करने के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा।

भारत में CO2 उत्सर्जन

जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए वित्तीय प्रवाह बढ़ाने पर किसी भी प्रतिबद्धता की कमी सबसे बड़ी चुनौती रही है। शुद्ध-शून्य या नेट जीरो उत्सर्जन लक्ष्य तक पहुंचने के लिए 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के रूप में हर साल लगभग 4 खरब अमरीकी डालर की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त, निम्न-कार्बन विकास पथ में वैश्विक परिवर्तन के लिए हर साल कम से कम 4 से 6 खरब अमरीकी डालर की आवश्यकता पड़ेगी। विकासशील देशों को ही जलवायु कार्य योजनाओं को पूरा करने के लिए 2030 से पहले लगभग 5.6 खरब अमरीकी डालर की आवश्यकता है। विकसित देशों ने अभी तक प्रति वर्ष 100 अरब अमरीकी डालर की अपेक्षाकृत छोटी राशि देने के अपने वादे को पूरा नहीं किया है। समझौते में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो विकसित देशों पर इन्हें जल्द से जल्द लागू करने के लिए दबाव डालता हो। यह समझौता अक्षय ऊर्जा और हरित परियोजनाओं में अधिक से अधिक निवेश जुटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजारों को बदलने की बात करता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि जलवायु फंड सभी के लिए, विशेष रूप से छोटे और कमजोर देशों के लिए आसानी से सुलभ हो। हालांकि अभी इस पर और भी बहुत काम किए जाने की जरूरत है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संसाधन कैसे हों प्रभावी
जलवायु आपदाओं से प्रभावित विकासशील देश अभी भी अपने पुनर्निर्माण के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं। इस फंड के संचालन के लिए महत्वपूर्ण कई मुद्दे बेहद विवादास्पद हैं। इनमें फंड में भुगतान कौन करेगा, कौन इसे एक्सेस कर पाएगा और इसे कैसे प्रबंधित किया जाएगा, जैसे प्रश्न शामिल हैं। इन सभी मुद्दों पर गौर करने के लिए एक समिति का गठन किया गया है, जिसमें धन के स्रोतों की पहचान और विस्तार की संभावना भी शामिल है। कोष का निर्माण वास्तव में महत्वपूर्ण है, लेकिन यह केवल पहला कदम है और अभी बहुत सारे काम किये जाने बाकी हैं। फिर भी यह एक बड़ी सफलता है। इस कोष के निर्माण ने विकसित देशों के बड़े प्रदूषकों को एक चेतावनी दी है कि वे अब अपने जलवायु विनाश से बच नहीं सकते हैं। कई देश विनाशकारी तूफान, लू, बाढ़ और बढ़ते समुद्रस्तर का सामना कर रहे हैं। विकसित देशों को मिलकर काम करना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए की नया फंड पूरी तरह से चालू हो सके और जलवायु परिवर्तन से जूझते सबसे कमजोर देशों और समुदायों को जवाब दे सके।

जलवायु परिवर्तन का दंश अंततः प्रति वर्ष खरबों डॉलर का हो सकता है। ऐसे में लॉस एंड डैमेज फंड एक व्यावहारिक और प्रभावी प्रक्रिया का नुस्खा नहीं भी हो सकता है। हो सकता है कि भविष्य में यह भी एक खाली खोल साबित हो। विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि इस साल पाकिस्तान में आई बाढ़ से करीब 40 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। ऐसे में नया लॉस एंड डैमेज फंड आपदाओं से निपटने के लिए गरीब देशों को राहत दे सकता है, हालांकि अब तक बताए गए कुछ वित्तीय वादे लाखों डॉलर में हैं, जबकि नुकसान अरबों डॉलर का हो रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की प्रथाओं में सुधार करके नई धनराशि प्रदान करना सीओपी-27 की वास्तविक विरासत हो सकती है, जो भारत जैसे देशों की हरित विकास आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है। भारत ने इस बार ग्रुप ऑफ ट्वेंटी (जी-20) की अध्यक्षता की। जी-20 विश्व की 85 प्रतिशत जीडीपी और 75 प्रतिशत व्यापार को कवर करने वाली सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। जी-20 अध्यक्ष के रूप में, भारत के पास स्थायी विकास एवं ऊर्जा परिवर्तन एजेंडा को मजबूत करने के लिए एक अनूठा और बड़ा मंच है। इसमें स्वच्छ प्रौद्योगिकी और ऊर्जा के लिए मजबूत साझेदारी आगे की दिशा तय करेगी। जी-20 की पर्यावरण और जलवायु कार्य समूह की पहली बैठक 8 से 10 फरवरी, 2023 के बीच बेंगलुरु में होगी। सतत विकास के लिए भारत की जी-20 अध्यक्षता महत्वपूर्ण साबित होगी, खासकर एजेंडा 2030 के लिए, जिसे 2015 में अपनाया गया था। सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एस डी जी और इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जी-20 के तत्वावधान में एक ‘विकास कार्य समूह’ गठित किया गया है। यह समूह बैठक में अब तक के प्रयासों की समीक्षा करेगा। हरित विकास के संदर्भ में, विकासशील देशों के लिए जलवायु, वित्त और प्रौद्योगिकी के साथ-साथ साफ़ ऊर्जा भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन का मुद्दा समाज, उद्योग, कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए एक सामूहिक व्यवहार-आधारित आंदोलन की जरूरत है, जो लोगों को देश की समृद्ध, प्राचीन और स्थानीय परंपराओं से जोड़कर पर्यावरणीय जीवनशैली की तरफ आकर्षित कर सके। भविष्य में यह एक बड़ा मुद्दा बनने वाला है। भारत की मेज़बानी में जी-20 का आदर्श वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और थीम “वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर” रखा गया है, जो पर्यावरण के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। विकास और प्रौद्योगिकी को सही मायने में मानव-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने होंगे, साथ ही कृषि, ऊर्जा, परिवहन से लेकर शिक्षा तक के क्षेत्रों में तकनीक-सक्षम धारणीय विकास पर भी आगे बढ़ना होगा। सामाजिक-आर्थिक विकास और एसडीजी को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं को आगे लाने के प्रयासों सहित महिला सशक्तिकरण और प्रतिनिधित्व पर भी शिद्दत से काम करना होगा। आज हम जिन सबसे बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनमें जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और महामारी सबसे आगे हैं। इन सबका समाधान आपस में लड़कर नहीं, बल्कि अहिंसा और प्रेम से एकजुट हो कर ही किया जा सकता है।

-डॉ. वेंकटेश दत्ता

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