अविभाज्य समग्रता सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है। दृश्य-अदृश्य ब्रह्माण्ड में विद्यमान चल-अचल सबकुछ, उसी अविभाज्य समग्रता की परिधि में है। कुछ भी, कोई भी, उसकी सत्ता, सर्वोच्चता और सर्वव्यापकता से बाहर नहीं है। सनातन-हिन्दू धर्म का यही प्रथम व मूल सिद्धान्त है। सनातन-हिन्दू धर्म में सार्वभौमिक एकता निर्माणकर्त्री सर्वव्याप्त और सर्वशक्तिमान अविभाज्य समग्रता के लिए परंब्रह्म एवं ब्रह्म सहित असँख्य नाम प्रकट होते हैं। वेदों और उपनिषदों में वह परमसत्ता अपने भिन्न-भिन्न गुणों और सार्वभौमिक व्यवस्था के संचालनार्थ नियमबद्ध कार्यों के लिए पृथक नामों से सम्बोधित है। परमेश्वर, प्रभु, परमात्मा, दाता, ईश्वर आदि नाम उस सर्वव्याप्त, सदा विद्यमान और सर्वशक्तिशाली परमसत्ता के लिए ही हैं।
महात्मा गाँधी ने ईश्वर को सत्य स्वीकारा। सत्य अर्थात् सत्तावान, सदा विद्यमान, स्थाई, परम लक्ष्य, जो तर्क व खोज से परे है। ईश्वर, महात्मा गाँधी ने माना, प्रकाश व जीवन-स्रोत हैं। सर्वोच्च और सर्वज्ञ हैं। सबके स्वामी हैं; उनके भी जो नास्तिक हैं। वे सभी के जीवनदाता, पालक और संरक्षक हैं। महात्मा गाँधी ने ईश्वर को प्रेम का महासागर कहा। यह प्रभु का वह महागुण है, जो सर्वत्र एकता का आधार है, जगत-कल्याण का मार्ग है। इसीलिए मनुष्य की जगत-कल्याण भावना और कार्यों को उसकी सत्य के प्रति दृढ़ता के साथ सम्बद्ध करके देखा जाता है।
सनातन धर्म के दो मूलाधारों, अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता में महात्मा गाँधी का दृढ़ विश्वास था। ब्रह्माण्ड के स्वामी के रूप में ईश्वर द्वारा सार्वभौमिक एकता के निर्माण को वे स्वीकार करते थे और परमात्मा को ही परम सत्य मानते थे। महात्मा गाँधी जगत-नियन्ता व संचालक के रूप में ईश्वरीय व्यवस्था में पूर्ण विश्वास करते थे। उन्होंने ईश्वर और उनके सार्वभौमिक नियमों की अटूट सम्बद्धता के पक्ष को सजाततियों के समक्ष रखा। परम सत्य स्वरूप परमात्मा के साथ एकाकार अथवा प्रभु-प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य घोषित कर जगत-कल्याणार्थ समर्पण का उनका आह्वान था। इस दिशा में जीवन-मार्ग पर आगे बढ़ते हुए अहिंसा को सदैव ही कर्मों के केन्द्र में रखने का भी उनका आह्वान था। अपनी मूल भावना के अनुसार अहिंसा, प्राणिमात्र के प्रति सक्रिय सद्भावना है। यह प्रकृति, पर्यावरण आदि के साथ भी मित्रवत व्यवहार करने में है। यह प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ एवं उसके अन्यायी दोहन न करने, पर्यावरण को असंतुलित व प्रदूषित न करने में भी है। प्रकृति-संरक्षण और पर्यावरण-संतुलन मानव द्वारा समुचित अहिंसा-पालन की शर्तों में सम्मिलित हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के चतुर्थ मंत्र में “अध्वरं –हिंसा दोष” से रक्षा की प्रार्थना है; यही प्रार्थना वह मूल कड़ी है, जो हिंसा को महादोष और इसके विपरीत अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट व सर्वकालिक मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करती है। इस प्रकार, मूलतः ऋग्वेद से हिंसा के विपरीत स्थिति में प्रकट अहिंसा सनातन-हिन्दू धर्म के अन्य आधारभूत ग्रन्थों में सर्वकल्याणकारी और सदानुकरणीय सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में व्याख्यायित और विश्लेषित हुई है। यह अन्ततः सनातन-हिन्दू धर्म के तृतीय मूलाधार के रूप में निरन्तर स्थापित हुई है। उन आधारभूत ग्रन्थों में वृहद् कल्याण को केन्द्र में रखकर व्यक्तिगत और परस्पर व्यवहारों में अहिंसा के पालन हेतु दिशानिर्देशों के उल्लेख भी हुए हैं। सनातन धर्म के अग्रणियों –अवतारों, ऋषियों-महर्षियों एवं धर्मगुरुओं ने प्राणिमात्र के प्रति सक्रिय सद्भावना और सृष्टि के साथ मित्रवत रहते हुए अपने जीवन तथा कार्यों के माध्यम से अहिंसा-पालन के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए।
जीवन के सभी क्षेत्रों के एक-दूसरे पर अपरिहार्य प्रभाव, सभी क्षेत्रों की एक-दूसरे पर निर्भरता, उनकी अविभाज्यता की वास्तविकता को केन्द्र में रखते हुए महात्मा गाँधी अहिंसा को राजनीतिक क्षेत्र में लाए। धर्म, समाज और राजनीति की एक-दूसरे के साथ सम्बद्धता की सत्यता को उन्होंने स्वीकार किया; देशकाल की परिस्थितियों की माँग के अनुसार आवश्यक परिमार्जन के साथ राजनीतिक क्षेत्र में इसके बल पर उन्होंने प्रभावकारी प्रयोग किए। प्रयोगों से उन्हें अपने जीवनकाल में ही आशातीत सफलताएँ प्राप्त हुई। महात्मा गाँधी के प्रयोगों से प्रेरित विश्व भर के अनेक जननायक भी अपने-अपने देशों में सम्बन्धित प्रयोगों में सफल हुए। इससे जीवन के समस्त क्षेत्रों की अपरिहार्य सम्बद्धता –एकता की सत्यता सामने आई। साथ ही, सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में अहिंसा की सर्वकालिक उपादेयता की स्पष्टता भी हुई।
महात्मा गाँधी ने अहिंसा को इसकी मूल भावना के अनुरूप एक अतिश्रेष्ठ व्यावहारिक आयाम देते हुए इसके आधार पर स्वयं की सनातन धर्म से सम्बद्धता को सिद्ध किया। उन्होंने देशकाल की परिस्थितियों की माँग के अनुसार अहिंसा को, इसकी मूल भावना के साथ ही अविकल रखते हुए, परिमार्जन के साथ इसे प्रयोगों में लाकर सनातन-हिन्दू धर्म के चतुर्थ मूलाधार ‘नूतनैरुत –नित नवीन’ (ऋग्वेद: 1: 1: 2) को दृढ़ इच्छा के साथ अंगीकार किया। ‘नूतनैरुत’ की मूल भावना के अनुरूप महात्मा गाँधी के वैचारिक दृष्टिकोण को उनके उस एक उल्लेख के माध्यम से भी स्पष्टतः जाना व समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा, ‘सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें भी सीखी हैं। आयु में भले ही मैं वृद्ध हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा। मुझे एक ही बात की चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्य-नारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता। इसलिए, जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब यदि उसे मेरी समझदारी पर विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद वाले लेख को प्रमाणभूत माने।’(हरिजनबन्धु, 30 अप्रैल, 1933)
इस प्रकार, अविभाज्य समग्रता व सार्वभौमिक एकता की सत्यता में अटूट विश्वास, सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में अहिंसा की अनुभूति और व्यवहारों-गतिविधियों में इसका आलिंगन व शाश्वत परिवर्तन के लिए प्रतिबद्धता प्रकट कर इसको भी अहिंसा ही की भाँति जीवन-व्यवहार में अपनाकर महात्मा गाँधी ने स्वयं को एक श्रेष्ठ सनातनधर्मी सिद्ध किया।
-डॉ रवीन्द्र कुमार
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