बीती 31 मई को एनडीटीवी पर एक खबर थी कि मध्य प्रदेश के किसानों को प्याज का भाव प्रति किलो एक रुपया भी नहीं मिल रहा है, जबकि लागत का अनुमान 6 से 8 रुपये तक है। वहीं दूसरी तरफ हम आप भारत के किसी भी कोने में कम से कम 15 रुपये प्रति किलो प्याज खरीद रहे हैं। यहां गुवाहाटी में तो 40 रुपये किलो का लगभग स्थापित भाव है।
एक साल से ऊपर चले किसान आंदोलन की देश भर में जो सामाजिक, आर्थिक स्वीकार्यता थी, वह इसीलिए थी कि किसान के खेत से बाजार तक के बीच का यह रास्ता इतना ऊबड़ खाबड़ क्यों है कि प्याज की 15 से 40 रुपये तक की कीमत में से किसान को दस रुपया भी नहीं मिल रहा है. पिछले साठ सत्तर सालों में फसल का उचित मूल्य मिलने की किसानों की मांग को एमएसपी के प्रावधानों में देखने का जो नया संयोजन विकसित हुआ है, किसान आंदोलन के पीछे का धर्मयुद्ध यही था।
लेकिन किसान आंदोलन को गच्चा भी इसी मुद्दे पर मिला, क्योंकि यह मामला बाजार का था और हमारी सरकार ने तो बहुत पहले से ही बाजार को सर्वोपरि कर दिया है। मतलब यह कि व्यक्ति, समाज, सरकार सब बाजार के हवाले हैं।
अब यहां आपकी हूक, आपकी कसक एकदम वाजिब है. इस बात पर पूरा देश एकमत है कि किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम मिलना चाहिए और जिस आंदोलन को किसानों ने साल भर से ज्यादा समय तक खींचा, उसका हश्र आज ऐसा क्यों है कि आंदोलन के एकछत्र नेता रहे राकेश टिकैत के मुंह पर स्याही फेंकी गई?
एक प्रश्न है, जो बहुत दूर का भी नहीं है कि क्या हम भारत के लोगों की सामूहिक और राजनीतिक शक्ति इतनी भर भी नहीं रह गई है कि हम किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम मिलने की बात पर सरकार और इन बिचौलियों को कठघरे में खड़ा कर सकें? इन बातों को समझने के लिए बाजार के चरित्र और ताकतवर होने के बावजूद कुछ सरकारी एजेंसियों की घुटना-टेक नीति तथा सरकार के मिजाज को समझना जरूरी है।
पश्चिम बंगाल के बर्दवान में बड़े पैमाने पर आलू की खेती होती है, जहां बिना किसी शोर शराबे और एमएसपी की मांग के, एमएसपी से भी बेहतर विकल्प बीसों साल से अभ्यास में है. वहां का किसान भी संतुष्ट है और बाजार भी इतना विकसित है कि आलू के बाज़ार की दृष्टि से यह इलाका पूर्वी भारत का रेगुरेटर बना हुआ है। अर्थात वह शक्ति, जो बाजार को अपनी औकात भर नियंत्रित करे।
बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्रित्व काल में कुछ मंझोले उद्योगपतियों के समूह ने राज्य सरकार से इस योजना के साथ संपर्क किया था कि अगर उन्हें बर्दमान, मालदा, नदिया आदि क्षेत्रों में सरकार की ओर से जमीन, बिजली और सुरक्षा उपलब्ध कराई जाय, तो खाने पीने के सामान, जैसे आलू के चिप्स, जैम, जेली, सॉस, मिक्सचर आदि डिब्बाबंद उत्पादों की एमएसएमई श्रेणी की इंडस्ट्री लगाई जा सकती है, इससे रोजगार के लिए हो रहे लोगों के पलायन पर कुछ तो अंकुश लगेगा।
आज की तारीख में सिर्फ मुनाफ़ाखोरी के लिए उद्योगपतियों की जैसी घुसपैठ सरकार में है, उस हिसाब से तब बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जो मॉडल दिया था, आज वह किसी मील के पत्थर से कम नहीं है. आइये देखें, ये कैसे हुआ?
इस क्षेत्र की खेती वाली ज्यादातर जमीनें सरकारी जमीनें हैं, जो किसानों को पंचायत की अनुशंसा पर तीन साल के लिए पट्टे या कहें कि लीज पर दी जाती है। पंचायत या ग्राम सभा की अनुशंसा पर किसान द्वारा एक निश्चित राशि दी जाती है और किसान को खेती की जमीन मिल जाती है। पट्टे के इसी कागज पर स्थानीय बैंक से, ज्यादातर ग्रामीण या सहकारी बैंक से खेती के लिए सिर्फ 6 महीने के निश्चित समय के लिए कर्ज भी मिल जाता है। यह कर्ज गांव के मुखिया या सर्कल ऑफिसर द्वारा पट्टे की जमीन पर की जाने वाली खेती के असेसमेंट के आधार पर दिया जाता है, मतलब अनाप शनाप कर्ज की गुंजाइश नहीं है।
बैंक से कर्ज लेते समय किसान को एक एफ़िडेविट देना होता है कि खेती के लिए बीज वह स्थानीय कृषि ऑफिसर के अनुमोदन पर लेगा और अपनी फसल का 30-40 % प्रीमियम क्रॉप (फसल की सबसे अच्छी क्वालिटी) स्थानीय बाजार समिति को बेचेगा। इस स्थिति की कल्पना आपको एक विचित्र समझ दे रही है कि किस तरह एक भूमिहीन किसान को पहले सरकार से जमीन मिली, फिर कर्ज मिला और वह इस अनुशासन में भी बंधा है कि उसकी खेती के बीज का निर्धारण एक सरकारी बाबू कर रहा है, जो कम से कम जमीन की, मिट्टी की अनुकूलता को समझ रहा है। किसान इस अनुशासन में इस तरह से बंधा है कि उसे अपनी फसल का 30-40% बाजार समिति में भी ले जाना है, लेकिन अब अगले चरण में जो होने वाला है, उसे पढ़कर आप गदगद हो जायेंगे।
मुनाफ़ाखोर उद्योगपतियों का वह जमावड़ा, जो सरकार के पास इस मकसद से आया था कि उद्योग के लिए जमीन मिले और एमएसएमई का कर्ज मिले, यह जमीन और कर्ज तो उन्हें मिला, लेकिन उनको राज्य के सिर्फ एक कानून से बांधा गया कि आपको कच्चा माल या आलू का बीज स्थानीय बाजार समिति की मंडी से ही खरीदना है, न कि कहीं बाहर से.
अब किसान ने जो अपनी फसल का 30-40% प्रीमियम क्रॉप बाजार समिति को बेचा और बाजार समिति ने अपने भाव पर जो आलू उद्योग को बेचा, इससे खेती की पूरी लागत निकल गई और बची हुई 70% कम गुणवत्त्ता वाली फसल ने बाजार को इतना प्रतियोगी और समृद्ध बनाया कि आज पूर्वी भारत की आलू की सबसे बड़ी मंडी बर्दवान है, जो अपनी व्यवस्था से किसान का पोषण कर रही है.
बाज़ार समिति मंडियों में फसल के आवक के समय दो रुपया किलो के भाव से बेचती है और बिहार को भी अचम्भित करती है, जहां न कोई बाजार समिति है, न सीमित कर्ज की कोई पारदर्शी व्यवस्था है, जहां पूंजीपति छुट्टे सांड़ की तरह सीजन में दो रुपए का आलू खरीदते हैं और अपने कोल्ड स्टोरेज में साल भर रख कर उसे ऊंचे भाव में बेचते हैं। अब आप खुद सोचिये कि अगर किसान को अपनी 30% क्रॉप से लागत निकल गई तो आलू जैसे कच्चे माल से चलने वाले उद्योग को कौन सा नुकसान हो गया? क्या यह व्यवस्था एमएसपी से बेहतर व्यवस्था नहीं है? असल में एमएसपी की मांग, एक ऐसी व्यवस्था की मांग है, जो समय के साथ जुमला न साबित हो।
अगर कोई व्यवस्था इसी देश में किसान की बेहतरी के लिए कारगर रूप से काम कर रही है तो उसे खेती और बाजार के दूसरे क्षेत्र में लागू क्यों नहीं किया जा सकता है? इसे समझने के लिए पहले दो चार मुख्य चीजों पर ध्यान देने की जरूरत है। खेती राज्य का विषय है, स्थानीयता अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है। एक भारत एक खेती का नारा जुमले के रूप में भी नहीं चलने वाला है। बर्दवान की इस व्यवस्था पर गौर कीजिये, तो पता चलेगा कि इसके स्टेकहोल्डर कौन-कौन हैं और इस सफल व्यवस्था की जिम्मेदारी किन-किन कंधो पर रही?
सबसे पहले तो राज्य का मुख्यमंत्री, जो उद्योगपतियों की बाजार संबंधी धारणाओं से बेपरवाह नहीं है, जो पूंजी के आवारेपन और किसानों को लूट लेने की प्रवृत्ति से वाक़िफ़ है। राज्य का वह प्रधान, जिसके पास गांव के मुखिया, सर्किल ऑफिसर, ग्रामीण बैंक, कृषि विभाग के स्थानीय अधिकारियों आदि की एक पूरी मशीनरी है, जो एक विजन पर प्रतिबद्ध है कि किसानों की खेती की लागत, उस राज्य के उद्योगों को दिये जाने वाले माल से निकल आये। ऐसे विजन, ऐसी प्रतिबद्धता और ऐसी मशीनरी से अलग अगर ये देश किसानों की आय दुगनी करने के जुमले से किसी रिफ़ार्म की बाट जोह रहा हो, तो निश्चय ही हम मुगालते में हैं , न कि वास्ताविकता से रूबरू।
आखिर क्यों हमारे देश में गेहूं का भाव 20-22 रुपए और ब्रांडेड पैक आटे का भाव 35 से 50 रुपये प्रति किलो है? असल में खेती किसानी की उपज से किसानों की आय का मामला एक व्यवस्था का मामला है, जहां हम एक दूसरे को लूट लेने के लिए खड़े हैं और इस व्यवस्था की सबसे मजबूत स्टेक होल्डर सरकार, अपने से थोड़ा कम, लेकिन बाकी सबसे मजबूत स्टेक होल्डर के साथ खड़ी है और वह स्टेक होल्डर है पूंजीपति, जिसका मकसद है मुनाफ़ाखोरी। पूंजीपति मुनाफाखोर होता है. इसी मुनाफ़ाखोरी के उद्देश्य से अगर चुनाव के रास्ते सरकार बनती हो, सरकार गिरा कर फिर से बनाई जाती हो, तो यह जो मुनाफ़ाखोरी, चुनाव और किसान की बदहाली व बेरोजगारी का सर्कल है, ये तो चलता ही रहेगा..!
हाँ, किसान को उसकी उपज का मुनासिब दाम मिले, यह एक भावुकता भरी डिमांड जरूर है, जो हमें झंकृत करती है, लेकिन यह झंकार तब एकदम मद्धिम हो जाती है, जब हमें व्यवस्था में सुधार के नाम पर कहीं ईमानदार पंचायत मुखिया, कहीं ईमानदार सर्कल ऑफिसर और कहीं ईमानदार बैंक कर्मचारी बनना पड़ता है। आखिर इन्हीं के कंधों से होकर बर्दवान में किसानों को सिर्फ अपनी 30- 40% फसल बेच कर ही आलू की लागत वापस मिल जाती है।
अब जरा बुद्धदेव भट्टाचार्य की जगह आज की सरकार को रख कर देखिये। कल्पना कीजिये कि अगर बुद्धदेव बाबू की जगह मोदी जी होते तो क्या करते? सबसे पहले मोदी जी एक जुमला मारते कि किसानों की आय दुगना कर देंगे. दूसरा काम ये करते कि बाजार समिति की मंडियों को दलाल कह कर मंडी की व्यवस्था को ध्वस्त कर देते..! फिर किसानों को कहते कि तुम्हारी जहां मर्जी हो, वहां अपनी फसल बेचो। और फिर एक दिन आप देखते कि अडानी, अंबानी के बड़े-बड़े कोल्ड स्टोरेज और प्रोक्योंरमेंट सेंटर खुल गये, जो फसल तैयार होते ही किसानों से कौड़ी के मोल आलू खरीदते और दस हजार गुने ऊंचे दाम पर देश भर में जहां चाहते, वहां बेचते। अब इस सरकार को यह कौन कहे कि जिस खेती, किसानी में देश का 40% श्रम लगा हो, उसे तरह-तरह से प्रोटेक्ट करना होता है. खेती में पूंजी का बहाव लाकर कोई खेती का संरक्षण नहीं कर सकता. हाँ, पूंजीपति का संरक्षण मुनाफाखोरी का संरक्षण जरूर हो सकता है।
कुल मिलाकर किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम मिलना बाजार से तभी संभव है, जब बाजार सरकार के नियंत्रण में हो और सरकार की प्रतिबद्धता किसान के कल्याण के प्रति हो न कि पूंजीपति और मुनाफाखोर के प्रति। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सरकार अरबों का फंड अपनी किसी एजेंसी के हवाले कर दे, जो दो रुपए चार रुपए के भाव से किसान को सब्सिडी या राहत के रूप में देकर, एमएसपी की घोषणा करके अपनी जान छुड़ा ले।
अव्वल तो सरकार के पास इतना बड़ा कोई फंड ही नहीं हो सकता, दूसरे ऐसी कोई मशीनरी कहां है, जो राहत की इतनी बड़ी राशि किसानों तक पहुंचा सके। किसान की फसल का वाजिब दाम जिसे हम एमएसपी कह रहे हैं, बाजार से ही संभव है, जिसे कई-कई जगहों पर नियंत्रित करने की जरूरत है. स्थानीय ऊंच नीच के अनुसार सख्ती और ईमानदारी से नीतियों को लागू करने से ही यह संभव होगा।
-जितेश कांत शरण
Click here to Download Digital Copy of Sarvodaya Jagat
इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…
पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…
जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…
साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…
कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…
This website uses cookies.