इतिहास का सदैव ही पुनर्लेखन होता रहता है. यह समय की मांग भी होती है और ज्ञान के क्षितिज के प्रसार का द्योतक और सूचकांक भी. इतिहास के दो सत्य और हैं. यह बहुत निर्मम मूल्यांकनकर्ता है, जो अंततः पूर्ण न्याय करता है. इसमें किसी भी तथ्य को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकृति तब तक प्रदान नहीं की जाती है, जबतक उक्त घटना या प्रकरण की पुष्टि सूचना के किसी अन्य स्त्रोत से नहीं हो जाती. अतः सन्दर्भ और प्राथमिक स्रोत अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं. भले ही ये प्राथमिक स्रोत मौखिक परम्परा में ही क्यों न दर्ज हों!
भारत देवपुरुषों की भूमि रही है. शासक वर्ग तो राजत्व के दैवी सिद्धांत से स्वयं को ईश्वर की प्रतिछाया मानता ही था, किन्तु कभी-कभी लोक भी यह महत्त्व अपने असाधारण नेता को प्रदान कर देता था. इसलिए यह देश अवतारों के साथ लोक देवताओं, स्थानीय देवताओं, सतियों से लेकर मानव-रूपी भगवान या ‘गॉडमैन’ तक के प्रति आस्था वाला देश है। इसी कारण बंदीगृहों में निरुद्ध अपराधी ‘गॉडमैन’ भी अब बहुतायत में मिलने लगे हैं.
खैर, यहाँ प्रकरण है मध्यकालीन भारत के अवतारी पुरुष भगवान देवनारायण का। इनका जन्म भीलवाड़ा जिले के मालासेरी में विक्रम संवत 968 की माघ शुक्ल सप्तमी अर्थात 911-912 ईस्वी सन में हुआ था. इस परिवार को भीलवाड़ा जिले की मंडल झील का निर्माता माना जाता है और ऐसी मान्यता है कि इन्होंने आठवीं शताब्दी ईस्वी में अजमेर क्षेत्र में शासन किया था और अरब आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। इस परिवार में जन्मे देवनारायण आजीवन नितांत परमार्थ भाव से जनकल्याण में जुटे रहे. इसी कारण वे लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
देवनारायण का 1111 वां अवतरण दिवस मनाने की योजना बनी और प्रधानमंत्री ने 28 जनवरी 2023 को इस कार्यक्रम में शिरकत करते हुए उनके साथ-साथ कुछ अन्य गुर्जर नेताओं का भी नामोल्लेख किया, जिसमें उन्होंने पन्ना धाय और रामप्यारी गुर्जर को भी सम्मिलित किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि दुर्भाग्य से ऐसे असंख्य वीरों-वीरंगानाओं को इतिहास में अपेक्षित प्रतिष्ठित महत्त्व नहीं मिला है, किन्तु ‘नया भारत’ अब पिछले दशकों की गलतियों को सुधार रहा है।’
हमारे यहाँ तो विशेष पूजन में भी ‘स्थान देवताभ्यो नमः’ कहते हैं. राजनीतिक भाषणों में तो स्थान देवताओं, स्थानीय नेताओं को भी स्मरण किया जाता है और इसमें सर्वथा अतिशयोक्तिपूर्ण भाषा का प्रयोग भी पाया जाता है. दूसरी ओर संवैधानिक पद को सुशोभित कर रहे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी रामप्यारी गुर्जर का गुणगान किया। प्रश्न प्रशंसा का नहीं है. प्रश्न तब उठता है, जब आप इस ‘चित्रण’ को इतिहास कहकर घोषित करते हैं।
वे जब 11 मार्च को मेरठ के पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में कोतवाल धान सिंह गुर्जर की प्रतिमा का अनावरण करने पहुंचे, तब भी उन्होंने सोलह वर्षीय शिवदेवी तोमर तथा महावीरी देवी के शौर्य का उल्लेख किया, जो अंग्रेज़ों के खिलाफ बहादुरी से लड़ी थीं. इन्हीं के साथ उन्होंने रामप्यारी गुर्जर का उल्लेख यह कहते हुए किया कि वे तैमूर के विरुद्ध 40, 000 की सेना के साथ लड़ी थीं और उन्हें सफलता पूर्वक खदेड़ा था।
इन दोनों महानुभावों ने जिस एक स्त्रोत से अपनी सामग्री ग्रहण की, वह मानोशी सिन्हा रावल की पुस्तक ‘सैफरन सोर्ड’ है। आइये पहले इस शीर्षक की ही पड़ताल कर लें, फिर अपनी बात आगे बढाएं. जैसे खून का रंग एक ही होता है, चाहे जिसका भी हो, वैसे ही तलवार के रंग से भी सभी वाकिफ़ हैं. केसरिया झंडे का रंग तो सुना था, पर तलवार भी यूँ चित्रित हो, तो यही इतिहास को पूर्व निर्धारित भावना से मोड़ना कहलाता है. आधुनिक, वैज्ञानिक इतिहास-लेखन में पूर्वाग्रहों को छोड़ने का जहां आग्रह ही नहीं, एक आवश्यक शर्त हो, वहाँ ऐसा पूर्वाग्रह निश्चित तौर पर इतिहास की ऐतिहासिकता के विरुद्ध जाते हुए उसको विकृत करने का प्रयास ही हो सकता है.
जहां तक इस पुस्तक का प्रश्न है, तो इसमें एक भी प्राथमिक स्रोत का वर्णन नहीं है और न ही किसी प्रकरण की पुष्टि हेतु किसी अन्य स्रोत का उल्लेख ही है। जब आधुनिक काल में भी मौखिक स्रोतों की बातों को बिना अन्य स्रोतों से पुष्टि किये मान्यता नहीं मिलती, तो मध्यकाल में तो सिक्के, शिलालेख, अभिलेख, ख्यात, वात, प्रबंध का दौर था. तब इसके उल्लेख की पुष्टि का प्रयास इन स्रोतों से करने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? या फिर ऐसा कोई उल्लेख है ही नहीं?
-प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
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