देश के राष्ट्रध्वज के नफरती और स्वतंत्रता आंदोलन के गद्दार, आज आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने हमारी गौरवमयी विरासत को बेशर्मी से हथियाने की कोशिश में हैं। ये आजादी का अमृत महोत्सव नहीं है। यह हिंदू सल्तनत के हाथों आजादी और जम्हूरियत की हत्या का स्याह दौर है! हमें राष्ट्रीय संपदाओं को लूटने और बेचने वालों और जनतंत्र के हत्यारों के विरुद्ध उठ खड़े होना चाहिए।
वैसे तो 1885 से ही कांग्रेस आजादी की लड़ाई में अपनी निर्णायक भूमिका में उतर चुकी थी और 1920 से 1947 की अवधि को कांग्रेस का गांधी युग कहा गया, लेकिन 1925 में दो प्रतिगामी विचारधाराएं सामने आती हैं- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और साम्यवादी दल। दोनों कांग्रेस और आजादी के विरोधी रहे। कम्यूनिटों ने तो यहां तक कहा डाला कि ये आजादी झूठी है और नेहरू साम्राज्यवादियों का ‘रनिंग डॉग’ है। हेडगेवार के राजनीतिक गुरू बालकृष्ण शिवराम मुंजे, जो 1920 से 1948 तक हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे, गांधी की दो प्रमुख नीतियों- अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता से असहमत थे।
द्वितीय विश्वयुद्घ के पहले तक इटली के तानाशाह मुसोलिनी से प्रभावित मुंजे ने 19 मार्च, 1931 को इटली की फासीवादी सरकार के मुख्यालय ‘पलाजो वेनेजिया’ में जब बेनिटो मुसोलिनी से मुलाकात की तो उन्हें बालिला, एकेडेमिया डेला फ़र्नेसिना और अन्य सैन्य संस्थानों तथा संगठनों के जरिये समाज का सैन्यीकरण दिखाया गया। उन्होंने इन इतालवी फासीवादी युवा संगठनों की प्रशंसा करते हुए कहा कि इन संगठनों की अवधारणा ने उन्हें सबसे ज्यादा आकर्षित किया। उन संस्थानों में 6 से 18 साल के युवाओं को सामान्य सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता था। उनकी परेड भी होती थी। फासीवादी कार्यकर्ताओं की पोशाक और शैली की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि मैं लड़कों और लड़कियों को सैन्य पोशाक में देखकर मंत्रमुग्ध रह गया। फासीवादी संस्थानों की तारीफ करते हुए मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा कि फासीवाद का विचार स्पष्ट रूप से जनता में एकता स्थापित करने की परिकल्पना को साकार करता है। मुंजे के अनुसार, भारत और विशेष रूप से हिंदू भारत को हिंदुओं के सैन्य उत्थान के लिए फासीवादी इटली के सैन्य संगठनों से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता था। भारत और विशेषकर हिंदुओं को ऐसे संस्थानों की जरूरत है, जो उन्हें भी सैनिकों के रूप में ढाल सकें। यह अकारण ही नहीं है कि इटली के सैन्य संस्थानों की प्रशिक्षण पद्घति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशिक्षण पद्घति में अद्भुत समानताएं हैं।
चूंकि कांग्रेस उदारवाद, जनतंत्रवाद और धर्मनिरपेक्षवाद की विचारधारा से अनुप्राणित थी और संघ हिंदू राष्ट्र का हिमायती था, इसलिए संघ शुरू से ही कांग्रेस को अपना दुश्मन मानने लगा था और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के घातक सिद्धांत पर चल रहा था। यह अकारण ही नहीं था कि 1937 में सावरकर सक्रिय हुए और जिन्ना की विभाजनकारी विचारधारा में अपना सहयोग देने के लिए उसके हमसफ़र बने, यहाँ तक कि जिन्ना की ही लाइन पर चलते हुए स्वाधीनता संग्राम के विरोध में अंग्रेजों के साथ मिलकर वे देश के बंटवारे की भूमिका भी रचने लगे थे। जिन्ना और सावरकर दोनों ही एक दूसरे के धर्मों के कट्टर विरोधी होते हुए भी एक दूसरे के हमख़याल थे। दोनों ही अपनी धर्मांधता भरी सोच के साथ हिन्दू मुस्लिम के नाम पर दो अलग-अलग मुल्क पाने के ख्वाहिशमंद थे और उसकी पूर्ति के मंसूबे बांध रहे थे।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि संघ के हीरो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर को चिट्ठी लिखकर भारत छोड़ो आंदोलन को हर हाल में कुचलने की सलाह दी थी और अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी इन शब्दों में दोहराई थी- ‘प्रश्न यह है कि भारत छोड़ो आंदोलन से कैसे निपटा जाए? प्रांत का प्रशासन इस तरह से चलाया जाना चाहिए कि कांग्रेस द्वारा हर कोशिश करने के बाद भी यह आन्दोलन प्रांत में जड़ पकड़ने में असफल रहे। हमलोगों को, विशेषकर जिम्मेदार मंत्रियों को चाहिए कि जनता को समझाएं कि कांग्रेस ने जिस स्वतंत्रता को हासिल करने के लिए आंदोलन शुरू किया है, वह स्वतंत्रता जनप्रतिनिधियों को पहले से ही हासिल है। कुछ मामलों में आपात स्थिति में यह स्वतंत्रता कुछ सीमित हो सकती है। भारतवासियों को अंग्रेजों पर भरोसा करना चाहिए ..’-श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लीव्स आफ ए डायरी, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, पृ. 183)
संघ इस दिशा में 1925 से ही लगातार काम कर रहा था और अपनी विषैली विचारधारा को बड़ी ख़ामोशी से घर घर तक पहुंचा रहा था। संघ के अनवरत प्रयास का ही नतीजा है कि आज इस देश का शासन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ में है, जिसके पूर्व सरसंघचालक गुरू गोलवलकर ने 1940 में ही घोषणा कर दी थी कि मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने के लिए तैयार हूं, लेकिन जो दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को बराबरी का अधिकार देती हो, ऐसी आजादी मुझे नहीं चाहिए।
संघ और सावरकर का गांधी विरोध नया नहीं है। आरंभ से ही गांधी इनके निशाने पर रहे हैं। उनकी हत्या के अनेकानेक प्रयास हुए और अंततोगत्वा हत्यारे सफल भी हो गये, क्योंकि गांधी जिस तरह का भारत चाहते थे, वह संघियों को मंजूर नहीं था। अलबत्ता उनके लाख चाहने के बावजूद देश की सत्ता की बागडोर कांग्रेस के साथ में ही रही। यही संघियों की बेचैनी का मुख्य कारण बना। और अब जबकि संघ दिल्ली की सत्ता पर काबिज है, वह कांग्रेस, गांधी और नेहरू का नामोनिशान मिटा देने पर अमादा है। इसके लिए वह हर कुछ कर रहा है, जिससे हिंदू राष्ट्र का उसका सपना साकार हो जाए, लेकिन चूंकि देश की इस ऐतिहासिक विरासत को मिटाना आसान नहीं है, इसलिए वह वे तमाम हथकंडे अपना रहा है, जिससे उसका शासन निष्कंटक चलता रहे। यही कारण है कि समाज के तमाम ऐसे मंचों, जगहों और अवसरों को समाप्त किया जा रहा है, जहाँ से ज्ञान की आभा बिखरती है, ज्ञानार्जन और बौद्धिक विकास के अवसर प्राप्त होते हैं।
इतिहास को राजनीतिक अफवाह और प्रचार का हथकंडा बनाया जा रहा है। अतीत के अन्यायों की सच्ची-झूठी कहानियों के जरिए सुनियोजित तरीके से नई पीढ़ी में घृणा, नफरत, विद्वेष और सांप्रदायिक आक्रोश भरने के उद्देश्य से और पुराने हिसाब-किताब बराबर करने के लिए ऐतिहासिक अभिलेखों से छेड़छाड़ की जा रही है। आधिकारिक पाठ्य पुस्तकों को भी अजीबोगरीब नकारात्मक तथ्यों से भरा जा रहा है। नई पीढ़ी को हिंसा के मार्ग पर धकेला जा रहा है। अपने ही इतिहास पुरुषों का चरित्र-हनन कर नई पीढ़ियों को कुंठित मानसिकता वाला बनाया जा रहा है। समाज में द्वेष और विभाजन पैदा करने वाली ऐतिहासिक शख्सियतों का अतिशयोक्तिपूर्ण महिमामंडन कर लोगों को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।
तेज गति से इतिहास बदलने की कोशिशें जारी हैं। नया संसद भवन बनाना, नया प्रधानमंत्री निवास बनाना, नया वार मेमोरियल बनाना, अमर जवान ज्योति के साथ छेड़छाड़ करना औऱ अशोक स्तंभ के मूल स्वरूप को बदलना आदि सायास प्रयास हैं, हर उस विरासत और गौरवमय इतिहास को बदल देने के, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने वास्तविक प्रतीकों और महानायकों को भुलाकर केवल इतना याद रखें कि आजादी के बाद का इतिहास कांग्रेस, नेहरू से नहीं, संघ और बीजेपी की मौजूदा सरकार से शुरू हुआ। इसीलिए एक जुमला बार बार कहा जाता है कि पिछले 70 सालों में देश में कुछ नहीं हुआ। किसी ने कहा भी कि भारत का इतिहास 2014 से ही शुरू हुआ और 1947 में जो आजादी मिली थी, वह भीख में मिली थी।
महात्मा गाँधी का इस्तेमाल करने की गरज से 2014 के बाद उनके नाम से स्वच्छ भारत आंदोलन चलाया गया, एक-एक करके गाँधी के सारे प्रतीकों और तथ्यों को अपने हिसाब से बदला गया और उन्हें कांग्रेस की समाप्ति की कामना करने वाला संघ का नया विचारक बनाने का भी प्रयास किया गया। चूंकि नाम लेने लायक इनका अपना कोई महापुरुष नहीं था, इसलिए सुभाष, अंबेडकर और भगत सिंह को भी हड़पने की ऐसी ही कोशिशें की गईं, लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों ने इनका साथ नहीं दिया।
आजादी के 75वें साल में आजादी का अमृत महोत्सव मनाने और घर-घर तिरंगा लगाने का जो अभियान शुरू किया गया है, उसका उद्देश्य भी मौजूदा पीढ़ी के दिमाग में यह भरना है कि 2014 से पहले भारत का कोई इतिहास ही नहीं था और देश में जो कुछ भी है, वह सब 2014 से बनना शुरू हुआ है।
पहले ध्वजारोहण के नियम थे. भारत का राष्ट्रीय ध्वज हाथ से काते और बुने गए ऊनी, सूती, सिल्क या खादी से बना होना चाहिए, झंडे पर किसी तरह के अक्षर नहीं लिखे जाने चाहिए, तिरंगे को यूनिफॉर्म के रूप में नहीं पहना जाना चाहिए, झंडे का कमर्शियल इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, तिरंगे को केवल सूर्योदय से सूर्यास्त तक फहराया जाना चाहिए, अब इनमें बदलाव करके हाथ या मशीन से बने, कपास, पॉलिएस्टर, ऊन, रेशम या खादी से बने तिरंगे को भी घर-घर फहराने की इजाजत दे दी गई है।
इसी तरह साबरमती आश्रम का भी नवीनीकरण किया जा रहा है। साबरमती आश्रम नवीनीकरण योजना के तहत आश्रम के प्राकृतिक सौंदर्य, शांति और गांधी की सादगी तथा तपस्या के संदेश को संरक्षित करने के बजाय, सरकार इसे सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बनाकर इसका कमर्शियल इस्तेमाल करना चाहती है।
राष्ट्रध्वज तिरंगे में बदलाव का और साबरमती आश्रम के नवीनीकरण का विरोध करने के लिए कई गांधीवादी संगठन एक साथ आए हैं और एक मार्च निकाल रहे हैं, जिसका उद्देश्य हाल ही में जालियांवाला बाग़ के नवीनीकरण की तर्ज़ पर प्रस्तावित साबरमती आश्रम के नवीनीकरण के प्रति जागरूकता फैलाना है। मार्च में शामिल लोगों का उद्देश्य साबरमती आश्रम की प्रकृति को बदलने के लिए केन्द्र और गुजरात सरकार की कोशिशों के खिलाफ़ लोगों को जोड़ना है। उनकी मांग है कि इसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से मूल्यवान विरासत के रूप में ही संरक्षित रखा जाए, न कि इसका नवीनीकरण करके गांधी की विरासत को नष्ट किया जाए।
महात्मा गांधी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गठित गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका अंतिम जन का जून-2022 अंक, जिसे सावरकर विशेषांक के रूप में निकाला गया है, में सावरकर के योगदान को गांधी के बराबर बताया गया है और कहा गया है कि गांधी और सावरकर दो ध्रुव नहीं हैं। दोनों का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रवाद था और दोनों राष्ट्र की ही लड़ाई लड़ रहे थे। सावरकर एक चिंगारी थे, जिनका इतिहास में वही स्थान है, जो गांधी जी का है। सावरकर को गांधी के बरक्स खड़ा कर यह झूठ और भ्रम फैलाया जा रहा है कि भारत की स्वतंत्रता में सावरकर का योगदान अमूल्य रहा है।
विगत वर्षों में यह जताने के चौतरफा प्रयास किए जाते रहे हैं कि 2014 से एक सर्वथा नए भारत के निर्माण का सिलसिला शुरू हो गया है और आज भारत विश्वगुरू बन चुका है। वरना ऐसा क्यों होता कि गांधी का चरित्र हनन करने की, उनका कद छोटा करने की, सावरकर को गांधी के बरक्स खड़ा करने की, गांधी के हत्यारे नाथूराम का महिमामंडन करने की, साबरमती आश्रम का नवीनीकरण करके उसे सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बनाने की, तिरंगे झंडे का आयात करने की, नया संसद भवन, नया प्रधानमंत्री निवास, नया वार मेमोरियल बनाने की, अमर जवान ज्योति के साथ छेड़छाड़ करने की औऱ अशोक स्तंभ के मूल स्वरूप को बदलने की, हर विरासत और गौरवशाली इतिहास को खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं?
-सच्चिदानंद पाण्डेय
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