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जब आंदोलन की कमान समाजवादियों ने संभाली

गांधी जी आंदोलन विधिवत शुरू करने से पहले वायसराय और गवर्नर जनरल को पत्र भेजकर उनके उत्तर की प्रतीक्षा करना चाहते थे, लेकिन अचानक गिरफ्तारी के चलते वे कांग्रेस जनों को आंदोलन के दिशानिर्देश जारी नहीं कर सके। कांग्रेसी समाजवादी पहले से तैयार थे, इसलिए क्रांति की कार्रवाइयां उनके ही निर्देश पर शुरू हो गयीं।

ऐतिहासिक अगस्त-जनक्रान्ति

उन दिनों दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था। जापान दक्षिण पूर्व एशिया में जीत पर जीत दर्ज कर रहा था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जर्मनी, जापान के साथ सैन्य अभियान में शामिल थे। हिन्दुस्तान की सरहद पर नेता जी की फौज दस्तक दे रही थी। आजाद हिंद फौज के प्रति देश में भावनात्मक लगाव था। उन दिनों ब्रिटेन में चर्चिल की सरकार थी, जो भारत की आजादी के बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी। क्रिप्स मिशन के माध्यम से युद्ध में भारत का समर्थन प्राप्त करने के प्रस्तावों से देश में निराशा और क्षोभ का वातावरण था। मंहगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी थी। इस बीच अमरीकी सेनाएं भी भारत में आ गई थीं।


5 जुलाई 1942 को गांधी जी ने हरिजन में लिखा, ‘अंग्रेजों! भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, लेकिन भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़ जाओ।’ 8 अगस्त 1942 को भारतीय नेशनल कांग्रेस कमेटी की बैठक मुम्बई में हुई। इसमें यह प्रस्ताव किया गया कि भारत अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकता है। अंग्रेज भारत छोड़ दें। कांग्रेस अहिंसक ढंग से, व्यापक धरातल पर गांधी जी के नेतृत्व में जनसंघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव करती है।

गांधी जी ने इस प्रस्ताव पर 70 मिनट तक अपने विचार रखे। उन्होंने वहां उपस्थित हजारों लोगों के बीच कहा, ‘मैं आपको एक मंत्र देता हूँ, करो या मरो।’ इसका अर्थ था कि भारत की जनता आजादी के लिए हर संभव प्रयास करे और इसके लिए अपनी कुर्बानी भी दे। गांधी जी ने अपने ऐतिहासिक आह्वान में पत्रकारों से कहा कि वे वर्तमान पाबंदियों के रहते लिखना छोड़ दें और तभी कलम को हाथ लगाएं, जब भारत स्वतंत्र हो जाए। सरकारी कर्मचारियों से कहा वे नौकरी न छोड़ें, लेकिन दमनात्मक गोपनीय परिपत्रों पर अमल न करें। विद्यार्थियों से अपेक्षा की कि वे शिक्षकों से कह दें कि वे कांग्रेस के साथ हैं और आजादी के संघर्ष में शामिल हों। बापू ने सैनिकों से कहा कि वे उचित हुक्म तो मानें, लेकिन अपने देशवासियों पर गोली चलाने से इंकार कर दें।

8 अगस्त का प्रस्ताव पारित होते ही ब्रिटिश सरकार हरकत में आ गई। 9 अगस्त 1942 की सुबह तड़के ही गांधी जी सहित कांग्रेस के बड़े नेताओं गिरफ्तारी शुरू हो गई। अभी सुबह के पांच भी नहीं बजे थे कि गांधी जी के आवास को पुलिस ने घेर लिया। पुलिस के सिपाही दीवारें फांदकर अंदर पहुंच गए। नेहरू, मौलाना आजाद आदि को गिरफ्तार कर जेल पहुंचा दिया गया। कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी सहित 38 संगठनों को गैर कानूनी घोषित करके जुलूसों पर रोक लगा दी गई।


बम्बई में कांग्रेस भवन पर सरकार का कब्जा हो गया। ढाका से लाहौर और मद्रास तक सभी शिक्षा संस्थाएं बंद कर दी गईं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पर सेना ने कब्जा कर लिया। यद्यपि गांधी जी आंदोलन विधिवत शुरू करने से पहले वायसराय और गवर्नर जनरल को पत्र भेजकर उनके उत्तर की प्रतीक्षा करना चाहते थे, लेकिन अचानक गिरफ्तारी के चलते वे कांग्रेस जनों को आंदोलन के दिशानिर्देश जारी नहीं कर सके।

कांग्रेसी समाजवादी पहले से तैयार थे, इसलिए क्रांति की कार्रवाइयां उनके ही निर्देश पर शुरू हो गयीं। कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने गुप्त आंदोलन के संचालन के लिए एक सेंट्रल डाइरेक्टरेट स्थापित किया, जिसमें डॉ लोहिया, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ अली, अशोक मेहता तथा अच्युत पटवरर्द्धन आदि शामिल थे।

हजारी बाग जेल में बंद जयप्रकाश नारायण आंदोलन में सक्रिय होने के लिए बेचैन थे। 8 नवम्बर 1942 को दीपावली की रात जयप्रकाश, योगेन्द्र शुक्ल, रामानंद तिवारी और 19 अन्य साथियों के साथ जेल से भाग निकले। अंग्रेज अवाक रह गए। जयप्रकाश देश के नए हीरो बन गए। फरारी के बाद वे वाराणसी, बम्बई, बिहार के सहरसा होते हुए नेपाल पहुंच गये, जहां उन्होंने छापामार ट्रेनिंग देने के लिए क्रांतिकारी ‘आजाद दस्ता’ बनाया। डॉ राममनोहर लोहिया ने आजाद रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ प्रचार शुरू किया, आजादी के आंदोलन की खब़रें प्रसारित कीं। दोनों को 1945 में गिरफ्तार कर लाहौर जेल में भारी अमानुषिक यंत्रणाएं दी गईं।


जयप्रकाश नारायण ने आंदोलनकारी साथियों को एक पत्रक के जरिये कहा कि हम लोगों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया है। हम अंग्रेजों को आक्रमणकारी मानते हैं, अतः बम्बई प्रस्ताव के अनुसार हमें अंग्रेज सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष छेड़ने का अधिकार है। 9 अगस्त की सुबह देश भर में खुले विद्रोह का बिगुल बज गया। बंबई के ग्वालियर टैंक में जब अरुणा आसफ अली ने तिरंगा फहराने की कोशिश की तो पुलिस ने लाठियां बरसाई। यह खबर देश भर में आग की तरह फैल गई।

यहां एक ऐतिहासिक घटनाचक्र का बयान जरूरी है। इलाहाबाद में 27 अप्रैल 1942 को कांग्रेस कार्यसमिति को भेजे एक प्रस्ताव में गांधी जी ने कहा था कि ब्रिटेन ने भारत की इच्छा के विरुद्ध उसे युद्ध में घसीट लिया है, वह भारत की सुरक्षा करने में असमर्थ है, इसके विपरीत भारत खुद अपनी रक्षा करने में समर्थ है। इस प्रस्ताव के पक्ष में न तो नेहरू थे, न राजाजी और न मौलाना आजाद, लेकिन अंततः सबने तय किया कि संघर्ष में गांधी जी के नेतृत्व में चलना अनिवार्य है। नेहरू ने कहा कि अब तो हम आग में कूद पड़े हैं। या तो सफल होकर निकलेंगे या उसी में जलकर भस्म हो जाएंगे।

गांधी जी का मन तो आजादी की आखिरी लड़ाई के लिए छटपटा रहा था, किन्तु उसके तौर तरीकों को लेकर वे बराबर ऊहापोह में थे। अहिंसा उनके लिए सर्वोपरि थी। अराजकता होने पर भी हिंसा न हो, यह उनकी शर्त थी, लेकिन सरकार ने आन्दोलन के प्रस्ताव के साथ ही भयंकर दमनचक्र शुरू कर दिया। कांग्रेस में शामिल समाजवादी विचारधारा के नौजवानों ने रेल पटरियां उखाड़ीं, टेलीफोन के तार काटे और पुल उड़ाये. इसके साथ ही हड़तालों व प्रदर्शनों का तांता लग गया।

अगस्त आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया। उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और बंगाल में रेल हड़ताल हो गई। 10 अगस्त को बम्बई में सेना ने 10 बार और 11 अगस्त को 13 बार गोलियां चलाईं। पटना में नौजवानों ने सचिवालय पर धावा बोला। वाराणसी, लखनऊ में गोलीकाण्ड हुए। बलिया 10 दिन अंग्रेजी सरकार से मुक्त रहा। सतारा, गाजीपुर, में आजाद सरकारें स्थापित की गईं। किसानों ने भी खुलकर विद्रोह में हिस्सा लिया।


इसमें दो राय नहीं कि गांधी जी के ‘करो या मरो’ के आह्वान पर पूरा देश एक धधकता हुआ ज्वालामुखी बन गया था। 1857 की क्रांति में मेरठ के सिपाहियों से हथियार छीन लिए गए थे। उनके विद्रोह के फलस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज खत्म हुआ था। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने निहस्थी जनता को कुचला, गांवों को जलाया, घरों में लूट की, महिलाओं को सरेआम बेइज्जत किया, अंधाधुंध गिरफ्तारियां की, बच्चों को भी गोलियां मारीं। और अंततः आक्रोषित जनता ने क्रांति की मशाल अपने हाथों में थाम ली।

इस आंदोलन में ब्रिटिश सरकार ने बर्बरता की हद कर दी थी। देहाती इलाकों में सामूहिक जुर्माना लगाकर कुर्की-वसूली की गई। छात्रों को घेरकर उनके सीने पर संगीनें रखकर गोलियां चलाई गईं। उनके नंगे बदन पर बेंत मारे गये। स्त्रियों के साथ बलात्कार की तमाम घटनाएं घटीं। उड़ीसा में पुरुषों और स्त्रियों को सर्वथा नंगा करके पेड़ों पर टांग दिया गया और उनके कपड़ों में आग लगा दी गई। मुंगेर, बलिया में हवाई जहाजों से गोले बरसाकर स्वाधीनता की आवाज को कुचलने की कोशिश हुई।

अगस्त क्रान्ति के प्रभाव के सही मूल्यांकन के लिए उस पर अधिक शोध किये जाने की जरूरत है। जवाहर लाल नेहरू के एक आंकड़े के अनुसार 1942 में 60 हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया। तकरीबन 10 हजार लोग मारे गये, लेकिन सुदूर क्षेत्रों में तत्कालीन सरकार के उत्पीड़न के शिकार बहुतों की कहानी अनकही रह गयी। जेल यातना में कितने ही परिवार बिखर गए थे।

ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट थी कि उस समय 60 हजार गिरफ्तार हुए, 18 हजार बिना अभियोग चलाए नज़रबंद हुए, जिनमें 90 की मौत हो गई। 250 रेलवे स्टेशनों पर हमले हुए। 50 डाकखाने जला दिए गए। 150 पुलिस चौकियों पर हमले हुए और 30 से ज्यादा सिपाही मरे।

सरकारी प्रकाशन में इन घटनाओं के लिए गांधी जी को दोषी ठहराते हुए कहा गया था कि जयप्रकाश नारायण के हजारीबाग जेल तोड़कर भाग जाने के बाद आन्दोलन उग्र और क्रान्तिकारी हो गया था। प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये ने ‘अगस्त क्रान्ति का बहुआयामी परिदृष्य‘ पुस्तक में एक शोधकर्ता मैक्स हरकोर्ट का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने ही किसान सभा को जमींदारी उन्मूलन का कार्यक्रम अपनाने की सलाह दी थी और इसने जनता को आकृष्ट किया। इन दोनों ने ही अगस्त आन्दोलन को जनता की क्रान्ति बनाया। मैक्स हरकोर्ट ने यह भी लिखा कि 1942 के सेनानी एक सुगठित और अनुशासित राजनैतिक पार्टी के साथ जुड़े थे। इस विद्रोह में अंतरक्षेत्रीय चेतना थी, जो शुद्ध पारम्परिक विद्रोह में साधारण तौर पर नहीं होती।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गोविन्द सहाय ने तब ‘सन बयालीस का विद्रोह’ पुस्तक में लिखा था कि सन 1857 का गदर, फ्रांसीसी राज्यक्रांति, सन 1917 की रूसी लालक्रांति आदि सभी सं 42 की क्रांति के सामने फीके जान पड़ते हैं। सन 42 का खुला विद्रोह, पुराने सब प्रयत्नों से ध्येय, नीति-निपुणता, संगठन, बलिदान और जनोत्साह सभी मामलों में कहीं बढ़ा-चढ़ा है। यह वह सामूहिक प्रयत्न था, जिसकी चिंगारी गांव-गांव फैल गई थी। ऐसा लगता था कि सारा राष्ट्र जैसे गहरी नींद से जागकर एकाएक उठ खड़ा हुआ है।

डॉ राममनोहर लोहिया ने 2 अगस्त 1967 को डॉ जीजी पारीख को लिखे पत्र में कहा था कि 15 अगस्त हमारा राज्य दिवस है, जबकि 9 अगस्त जन-दिवस है। कोई दिन ऐसा जरूर आएगा, जब 9 अगस्त के सामने 15 अगस्त फीका पड़ेगा और हिन्दुस्तान अमेरिका के 4 जुलाई और फ्रांस के 14 जुलाई की तरह 9 अगस्त को जन-दिवस मनाएगा। अगस्त क्रान्ति की 80 वीं वर्षगांठ पर हम उन सभी का श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं, जिनके बलिदानों से आज हम एक संप्रभु राष्ट्र की खुली हवा में सांस ले रहे हैं।

-मधुकर त्रिवेदी

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