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जब परमहंस योगानंद ने बापू को क्रियायोग की दीक्षा दी

परमहंस योगानंद और महात्मा गांधी के बीच अकसर इस बात पर चर्चा होती थी कि सत्य और अहिंसा जैसे आध्यात्मिक आदर्शों को लोगों के व्यावहारिक जीवन में कैसे उतारा जाय। भारत के इन दो संतों ने दुनिया में हर जगह एक दूसरे के प्रति हमेशा सम्मान प्रकट किया। 1925 में गांधीजी ने योगानंद जी के रांची स्थित स्कूल का दौरा किया था और वहां बच्चों के पाठ्क्रम में गहरी रुचि दिखायी थी। योगानंद जी ने अपनी जीवनी ‘योगी कथामृत’ में वर्धा स्थित गांधीजी के आश्रम के अपने 1935 के दौरे का वर्णन किया है। उस समय गांधीजी की इच्छा पर योगानंद जी उन्हें और उनके अनेक शिष्यों को क्रियायोग की दीक्षा दी थी। 1950 में योगानंद जी ने लॉस एंजेल्स, कैलिफोर्निया, अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप लेक श्राइन और महात्मा गांधी वर्ल्ड पीस मेमोरियल की स्थापना की, जहां गांधी जी की अस्थियों के अवशेष भी मंगाकर रखे। सर्वोदय जगत के पाठकों के लिए यहां योगानंद जी की जीवनी के उस 44वें अध्याय का संपादित हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने अपनी वर्धा यात्रा और गांधी जी से अपनी मुलाकात का वर्णन किया है। इसे प्रकाशित करने के लिए सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप लेक श्राइन से अनुमति प्राप्त कर ली गयी है।

‘‘वर्धा में आपका स्वागत है!’’ महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई ने इन शब्दों के साथ खद्दर की मालाएं भेंट करते हुए मिस ब्लेच, राइट और मेरा स्वागत किया। अगस्त महीने की एक सुबह हम लोग वर्धा स्टेशन पर पहुंचे ही थे। ट्रेन की धूल और गर्मी से मुक्ति पाने की हमें खुशी हो रही थी। अपना सारा सामान एक बैलगाड़ी के हवाले कर हम लोग महादेव देसाई और उनके साथी बाबासाहेब देशमुख एवं डॉक्टर पिंगले के साथ एक खुली कार में बैठ गये। कीचड़ भरी कच्ची सड़क पर चलकर कार थोड़ी ही देर में भारत के राजनीतिक संत के आश्रम ‘‘मगनवाड़ी’’ पहुंच गयी।


महादेव देसाई हमें सीधे लेखन-कक्ष में ले गये, जहां पालथी लगाकर बैठे थे महात्मा गांधी। एक हाथ में कलम, दूसरे में कागज, चेहरे पर विस्तृत, दूसरों को जीत लेने वाली, अंत:करणपूर्ण मुस्कान!


‘‘स्वागत है!’’ हिन्दी में उन्होंने लिखा, क्योंकि यह सोमवार था – सप्ताह का उनका मौन-दिवस।


हम दोनों की यह पहली ही मुलाकात थी, फिर भी दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर अत्यंत प्रेम और खुशी के साथ मुस्कुरा रहे थे। 1925 में महात्मा गांधी ने रांची के मेरे विद्यालय में पधार कर उसे सम्मानित किया था और वहां की अतिथि-पुस्तिका में प्रशंसा के शब्द लिखे थे।


मात्र एक सौ पौण्ड वजन के इस क्षीणकाय संत के शरीर से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की आभा प्रकट हो रही थी। उनकी हल्की भूरी-सी आंखों में बुद्धि, ईमानदारी और विवेक का तेज था। इस राजनीतिज्ञ ने हजारों कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक लड़ाइयों में विजय पायी थी। महात्मा गांधी ने भारत की कोटि-कोटि अशिक्षित जनता के हृदय में अपना जो अटल स्थान बनाया है, वैसा स्थान अपनी जनता के हृदय में विश्व के किसी अन्य नेता ने नहीं बनाया। उनकी विख्यात उपाधि ‘‘महात्मा’’ उनके प्रति जनता के सहज आदर एवं प्रेम की निशानी है। उनकी खातिर ही गांधी जी केवल धोती पहनकर रहते हैं, जबकि उनकी इस पोशाक पर सब तरफ व्यंग्यचित्र बनाये जाते हैं। यह पोशाक पददलित जनता के साथ उनकी एकात्मता का प्रतीक है, जो इससे अधिक कुछ पहन नहीं सकती।


‘‘यहां के सब आश्रमवासी आपकी सेवा में उपस्थित हैं। आपको कोई भी काम पड़े तो कृपया इन्हें बुला लीजिए।’’ महादेव देसाई हमें लेखन-कक्ष से अतिथि भवन की ओर ले जा ही रहे थे कि गांधी जी ने जल्दी-जल्दी में लिखा यह पर्चा अपने स्वभावगत विनय के साथ मेरे हाथ में दे दिया।
महादेव देसाई हम लोगों को फलोद्यानों और पुष्पवाटिकाओं के बीच में से एक खपरैल-छत के मकान में ले गये, जिसकी खिड़कियों में जालियां लगी हुई थीं। सामने के आंगन में एक पच्चीस फुट चौड़ा कुआं था। उन्होंने बताया कि इसका पानी आश्रम के जानवरों के लिए प्रयुक्त होता है। पास में ही सीमेंट का एक घूमने वाला चक्का था, जो धान की झड़ाई करने के काम में लाया जाता था। हमारे छोटे-छोटे कमरों में केवल अत्यावश्यक अल्पतम सामान ही था – केवल रस्सी की एक खटिया। रसोई घर की सफेदी की हुई थी। उसमें एक कोने में नल था और दूसरे कोने में मिट्टी का एक चूल्हा। देहात की विशिष्ट आवाजें हमारे कानों में आ रही थीं – कौओं की कांव-कांव, चिड़ियों की चूं-चूं, मवेशियों का हंभारव, पत्थरों को तोड़ती छेनियों की ठन-ठन।


मिस्टर राइट की यात्रा-दैनन्दिनी पर दृष्टि पड़ी, तो महादेव देसाई ने उसे खोला और एक पन्ने पर महात्मा जी के अनुयायियों (सत्याग्रहियों) द्वारा लिये जाने वाले सत्याग्रह व्रत में शामिल प्रतिज्ञाओं की सूची उन्होंने लिख दी :


‘‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, स्वाद-इंद्रिय पर नियंत्रण, निर्भयता, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी, अस्पृश्यता से मुक्ति। इन ग्याह प्रतिज्ञाओं का विनम्रता के साथ पालन किया जाना चाहिए।’’


(दूसरे दिन गांधी जी ने स्वयं इस पन्ने पर अपने हस्ताक्षर किये और तारीख भी डाल दी – 27 अगस्त 1935)


हमारे आगमन के दो घंटे बाद हम लोगों को भोजन के लिए बुलाया गया। महात्मा जी पहले से ही बरामदे में अपनी थाली के सामने बैठे हुए थे। यह बरामदा उनके लेखन कक्ष के सामने ही आंगन के इस पार था। लगभग पच्चीस सत्याग्रही पीतल की थालियां और कटोरियां अपने-अपने सामने लिये बैठे हुए थे। सामूहिक प्रार्थना के बाद पीतल के विशाल पात्रों में से भोजन परोसा जाने लगा। भोजन में घी लगायी हुई रोटियां, सब्जी और नींबू का मीठा अचार था।


गांधी जी के साथ भोजन


गांधीजी ने रोटियां, उबाले हुए चुकन्दर, कुछ कच्ची सब्जियां तथा संतरे खाये। उनकी थाली में एक ओर काफी बड़ी मात्रा में नीम के कड़वे पत्तों की चटनी थी। नीम उत्कृष्ट रक्तशोधक है। एक चम्मच से उन्होंने थोड़ी-सी चटनी मेरी थाली में डाल दी। बचपन के वे दिन मुझे याद आ गये, जब मां मुझे जबरदस्ती यह अप्रिय औषधि देती थी। मैंने पानी के साथ वह चटनी गले से नीचे उतार दी। परंतु गांधीजी उसे आराम से थोड़ा-थोड़ा कर बिना किसी अरुचि के खा रहे थे।


इस छोटी-सी घटना से गांधी जी की अपने को इच्छानुसार इंद्रियों से अलग करने की क्षमता मेरे ध्यान में आ गयी। कुछ वर्ष पहले किये गये उनके अॅपेन्डिक्स के ऑपरेशन की मुझे याद आयी, जिसे उस समय बहुत प्रसिद्धि भी दी गयी थी। बेहोशी की दवा लेने से इन्कार कर ऑपरेशन के दौरान सारा समय वे प्रफुल्लित मन से अपने अनुयायियों से बातें कर रहे थे; उनके चेहरे पर शांत मुस्कान यह साफ बता रही थी कि उन्हें दर्द का कोई एहसास नहीं हो रहा था।


दोपहर में मुझे गांधीजी की विख्यात शिष्या मीरा बेन से बातचीत करने का अवसर मिला। मीरा बेन एक अंग्रेज नौसेना प्रमुख (एडमिरल) की पुत्री हैं, जिनका नाम आश्रम में आने से पहले मिस मैडेलिन स्लेड था। अपने दैनिक कार्यक्रम का विशुद्ध हिन्दी में विवरण सुनाते हुए मजबूत-सा लगता उनका शांत चेहरा उत्साह से खिल उठा।

सेवाग्राम आश्रम के रसोड़े में भोजन करते हुए श्री श्री परमहंस योगानंद, गांधी जी द्वारा लिखा पर्चा पढ़ रहे हैं। उस दिन गांधी जी का मौन दिवस (27 अगस्त 1935, सोमवार) था। उसी दिन योगानंद जी ने गांधी को क्रियायोग में दीक्षित किया।


‘‘ग्रामोद्धार का कार्य बड़ा संतोषप्रद है। प्रतिदिन सुबह पांच बजे हम लोगों का एक दल आसपास के ग्रामीणों की सेवा करने तथा उन्हें स्वास्थ्य एवं साफ-सफाई संबंधी साधारण बातों की जानकारी देने जाता है। हम लोग उनकी घासफूस की झोंपड़ियों एवं शौचालयों की सफाई करने का विशेष ध्यान रखते हैं। ग्रामीण जन अशिक्षित हैं, उदाहरण के बिना उन्हें शिक्षित नहीं किया जा सकता!’’ वे प्रसन्नता के साथ हँस पड़ीं।


उच्च कुल की इस अंग्रेज महिला को मैं आदरभरी दृष्टि से देख रहा था, जो सच्ची ईसाई विनम्रता हृदय में धारण किये मल-सफाई तक का काम कर रही थी, जिसे साधारणत: केवल ‘‘अस्पृश्य लोग’’ ही करते हैं।


मीरा बेन के हाथ शीघ्र ही चरखा चलाने में व्यस्त हो गये। महात्मा जी के प्रयत्नों के फलस्वरूप चरखा अब भारत के ग्रामीण इलाकों में सर्वव्यापी हो गया है।


कुटीर उद्योगों के पुनरुज्जीवन को प्रोत्साहित करने के लिए गांधी जी के पास ठोस अर्थशास्त्रीय और सांस्कृतिक कारण हैं, तथापि वे सभी आधुनिक प्रगति से कट्टरता के साथ दूर रहने की सलाह भी नहीं देते। उनके अपने राष्ट्रव्यापी व्यस्त जीवन में मशीनों, रेलगाड़ियों, मोटर-गाड़ियों तथा टेलीग्राम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। पचास वर्ष की जनसेवा, जेल के अंदर-बाहर आना-जाना, राजनैतिक जगत की छोटी से छोटी बातों एवं उसकी कठोर वास्तविकताओं के साथ दिन-प्रतिदिन संघर्ष – इन सभी बातों द्वारा उनके जीवन में और अधिक संतुलन आया है, उनकी उदारमनस्कता में, उनकी स्वस्थचित्तता में और भी अधिक वृद्धि हुई है तथा इस विलक्षण मानवीय तमाशे का विनोदपूर्ण कौतुक बुद्धि के साथ अवलोकन करना सिखाया है।


ध्यान, प्रार्थना


शाम छह बजे बाबासाहेब देशमुख के यहां उनके निमंत्रण पर हम तीनों ने भोजन का आनंद लिया। सात बजे की प्रार्थना के समय हम लोग आश्रम लौट आये और छत पर पहुंचे, जहां तीस सत्याग्रही गांधी जी के सामने अर्धवृत्ताकार बैठे थे। गांधीजी एक चटाई पर बैठे थे, एक पुरानी जेब-घड़ी उनके सामने खड़ी करके रखी हुई थी। अस्त होते सूर्य की अंतिम किरणें ताड़ और बरगद के वृक्षों पर पड़ रही थीं। रात के अंधेरे की और झींगुरों की गुनगुनाहट शुरू हो गयी थी। वातावरण शांत-गंभीर था; मैं मंत्रमुग्ध हो गया।
महादेव देसाई एक भजन गाने लगे और बाकी लोग उनका साथ देने लगे। इसके बार गीतापाठ हुआ। गांधी जी ने समापन प्रार्थना करने के लिए मुझे संकेत किया। वहां भाव और अभिलाषा का कैसा दिव्य संयोग था! यह एक अविस्मरणीय स्मृति बनकर रह गयी : वर्धा में छत पर तारों के नीचे ध्यान।


समय की पाबंदी का पालन करते हुए ठीक आठ बजे गांधी जी ने अपना मौन भंग किया। उनके लिए अपने जीवन के विशाल कार्यों के कारण अपने समय को सूक्ष्मता से विभाजित कर विविध कार्यों में बांटना आवश्यक है।


‘‘स्वागत, स्वामी जी!’’ इस बार महात्मा जी का अभिवादन कागज के माध्यम से नहीं था। हम छत से उतर कर उनके लेखन-कक्ष में पहुंचे ही थे। लेखन-कक्ष में कोई फर्नीचर नहीं था; वहां केवल बैठने की आसननुमा छोटी-छोटी चौकोर चटाइयां थीं; जमीन पर बैठकर लिखने के काम आ सके, इतनी ऊंचाई की एक डेस्क, कागज और कुछ साधारण कलमें (फाऊन्टन पेन नहीं) थीं; एक कोने में मामूली-सी एक घड़ी टिक-टिक किये जा रही थी। उस कमरे में शांति और भक्ति का वातावरण था। गांधीजी अपनी मोहक, लगभग दंतविहीन मुस्कान बिखेर रहे थे।


उन्होंने बताया, ‘‘अपने पत्र-व्यवहार हेतु समय निकालने के लिए मैंने कई वर्षों पूर्व सप्ताह में एक दिन मौन रखना शुरू किया। परंतु मौन के वे चौबीस घंटे अब एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक आवश्यकता बन गये हैं। नियतकालिक मौन रखने में कष्ट तो कुछ नहीं है, बल्कि यह एक वरदान है।’’ मैं पूर्ण मन से उनके साथ सहमत हो गया।……


दूसरे दिन सुबह जल्दी ही दूध में गुड़ के साथ बनाये हुए दलिये का नाश्ता हम लोगों ने किया। साढ़े दस बजे गांधीजी और सत्याग्रहियों के साथ भोजन करने के लिए हमें बुलाया गया। आज भोजन में हाथ से कूटे हुए चालव का भात, सब्जी और इलायची के दाने थे।


मैं दोपहर को आश्रम की भूमि पर टहलने निकला और घूमते-घूमते चराई के एक मैदान में जा पहुंचा, जहां कुछ गायें शांत चित्त से चर रही थीं। गोरक्षण का गांधी जी के हृदय में अत्यंत विशेष स्थान था।


उन्होंने कहा है, ‘‘मेरे लिए गाय का अर्थ है संपूर्ण मानवेतर जगत। मनुष्य का अपनी जाति की सीमाओं से बाहर निकल कर पशु जगत के प्रति सहानुभूति प्रकट करना। गाय के माध्यम से मनुष्य सारे जीव-जगत के साथ अपनी एकात्मता स्थापित कर सकता है। …..


अतिथि भवन में पुन: प्रवेश करते हुए मैं यहां हर तरफ दिखायी देने वाली नितांत सादगी और त्याग की निशानियों को देखकर फिर एक बार प्रभावित हो उठा। गांधी जी ने अपने वैवाहिक जीवन के काफी प्रारंभ में ही अपरिग्रह व्रत ले लिया था। वार्षिक 60 हजार रुपये से अधिक आय देने वाली वकालत छोड़कर उन्होंने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बांट दी। …..


उस दिन दोपहर को तीन बजे मैं पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उस संत के लेखन-कक्ष में उनसे मिलने जा पहुंचा, जिसने अपनी पत्नी को भी अपनी एकनिष्ठ शिष्या बना दिया था – दुर्लभ चमत्कार! गांधी जी ने सिर उठाकर अपनी अविस्मरणीय मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा।


अहिंसा


चटाई पर उनके पास बैठते हुए मैंने पूछा, ‘‘महात्माजी! क्या आप अहिंसा की अपनी व्याख्या बताने की कृपा करेंगे?’’


“विचार या कृति से किसी जीव को किसी प्रकार की हानि न पहुंचाना।”


“सुंदर आदर्श! परंतु संसार तो सदा ही पूछेगा; किसी बच्चे को या स्वयं अपने को बचाने के लिए क्या सांप को नहीं मारना चाहिए?”


“सांप को मरने के लिए मुझे अपनी दो प्रतिज्ञाएं भंग करनी पड़ेंगी – निर्भयता और अहिंसा। इसकी अपेक्षा तो मैं भीतर ही भीतर प्रेम के स्पंदनों से सांप को शांत करना चाहूंगा। …..


उनकी डेस्क पर आहार के संबंध में पाश्चात्य लेखकों द्वारा लिखित कई आधुनिक पुस्तकें देखकर मैंने कुछ विचार प्रकट किये।


उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘हां, अन्य सब क्षेत्रों की तरह ही सत्याग्रह में भी आहार का बड़ा महत्त्व है। मैं सत्याग्रहियों के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य पर जोर देता हूं, अत: मैं सदा ही ब्रह्मचर्य-पालन के लिए अनुकूल आहार ढूंढने की चेष्टा करता रहता हूं। कामवासना पर विजय प्राप्त करने के लिए पहले रसना पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। उपवास करते जाना या अर्द्ध निराहार रहना या असंतुलित आहार लेना इसका उत्तर नहीं है। भोजन की आंतरिक लालसा पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद सत्याग्रही को चाहिए कि वह विटामिन, खनिज तत्त्व, कैलरी आदि सब आवश्यक तत्त्वों से युक्त संतुलित, शाकाहारी भोजन लें। आहार के संबंध में आंतरिक और बाह्य विवेक से सत्याग्रही का वीर्य सारे शरीर के लिए ओज में परिणत हो जाता है।’ …..


पिछली रात को गांधी जी ने लाहिड़ी महाशय के क्रियायोग की दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की थी। महात्मा जी की खुली मनोवृत्ति और जिज्ञासा देखकर मैं अभिभूत हो गया। अपनी ईश्वर-आराधना में वे बच्चों के समान हैं और उस विशुद्ध ग्रहणशीलता को प्रकट करते हैं, जिसकी बच्चों में प्रशंसा करते हुए ईसा मसीह ने कहा था, ‘‘… स्वर्ग का राज्य ऐसों का ही है।’’


क्रिया योग दीक्षा


क्रिया का उपदेश देने के लिए मैंने जो समय निर्धारित किया था, वह आ गया; अब महादेव देसाई और डॉ. पिंगले सहित क्रिया प्रविधि जानने की इच्छा रखने वाले कुछ अन्य सत्याग्रही भी कमरे में दाखिल हो गये।


मैंने पहले उन सबको योगदा के शारीरिक व्यायाम सिखाये। इसमें शरीर को मन की आंख से बीस भागों में विभाजित देखा जाता है और फिर अपनी इच्छाशक्ति से एक-एक करके इस प्रत्येक भाग में शक्ति संचार कराया जाता है। शीघ्र ही वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति मेरे सामने मानव-मोटर की तरह थरथराने लगा। गांधी जी के शरीर के लगभग सदा ही दृष्टि के सामने खुले रहने वाले बीस भागों में शक्ति की थरथराहट की लहरों को देखना आसान था। वे बहुत दुबले-पतले तो हैं, परंतु इतने भी नहीं कि देखने में अच्छे न लगें। उनकी त्वचा चिकनी है और उस पर कोई झुर्रियां नहीं पड़ी हैं।


बाद में मैंने उन सबको क्रियायोग की मुक्तिदायिनी विधि की दीक्षा दी।


गांधी जी ने विश्व के सारे धर्मों का श्रद्धाभाव के साथ अध्ययन किया है। जैन शास्त्र, बाइबिल का न्यू टेस्टामेंट और टालस्टाय का समाजशास्त्रीय साहित्य गांधीजी के अहिंसा सिद्धांत के मुख्य प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने अपने विश्वास के बारे में इस प्रकार लिखा है –


मैं बाइबिल, कुरान और जेंड-अवेस्ता को वेदों के समान ही ईश्वर-प्रेरित मानता हूं। मैं गुरु परंपरा में विश्वास करता हूं परंतु इस युग में लक्ष-लक्ष लोगों को गुरु के बिना ही काम चलाना पड़ेगा, क्योंकि किसी एक व्यक्ति में परिपूर्ण पवित्रता और परिपूर्ण ज्ञान का संयोग मिलना दुर्लभ है। परंतु मनुष्य को यह सोचकर निराश होने की आवश्यकता नहीं कि वह अपने धर्म के सत्य को कभी जान नहीं पायेगा, क्योंकि हिन्दू धर्म के और सभी महान धर्मों के मूल सिद्धांत अपरिवर्तनीय और सहज समझने योग्य हैं।


बापू का हिन्दुत्व
प्रत्येक हिन्दू की भांति मैं भी ईश्वर और उसके एकत्व में, पुनर्जन्म और मुक्ति में विश्वास करता हूं…। अपनी पत्नी के प्रति अपनी भावना के समान ही हिन्दुत्व के प्रति अपनी भावना का भी मैं वर्णन नहीं कर सकता। मेरे मन को जिस तरह से मेरी पत्नी प्रभावित कर सकती है, उस तरह संसार की अन्य कोई नारी कभी नहींकर सकती। ऐसा नहीं है कि उसमें कोई दोष नहीं है, बल्कि मैं तो यह भी कहूंगा कि मैं उसमें जितने दोष देख पाता हूं, उससे भी कहीं अधिक दोष उसमें होंगे। परंतु उसके प्रति एक अटूट बंधन का भाव मेरे मन में है। हिन्दुत्व के प्रति और हिन्दुत्व के बारे में भी ऐसा ही भाव मेरे मन में है, उसमें चाहे कितने ही दोष हों और कितनी ही त्रुटियां हों। गीता पाठ के या तुलसी रामायण के संगीत जैसा आनंद मुझे और किसी भी बात में नहीं मिलता। जब-जब मुझे ऐसा लगा कि मैं अपनी अंतिम श्वास ले रहा हूं, तब गीता ही मेरा आधार थी।
हिन्दू धर्म अनन्यमार्गी धर्म नहीं है। इसमें संसार के सभी प्रेरित-पैगंबरों और संत-महात्माओं की पूजा के लिए जगह है। सामान्य अर्थ में यह मिशनरी धर्म नहीं है। बेशक इसने अनेकानेक जनजाति, वंश, कुल अपने में समा लिये हैं, परंतु यह समाने की प्रक्रिया क्रमविकास की प्रक्रिया के अंतर्गत अनजाने में संपन्न हुई। हिन्दू धर्म शिक्षा देता है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने पथ या अपने धर्म के अनुसार ईश्वर की आराधना करनी चाहिए, और इसलिए किसी धर्म के साथ उसका कोई विरोध नहीं है।


ईसा मसीह के बारे में गांधी जी ने लिखा है, ‘‘मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि आज वे इस संसार में लोगों के बीच जी रहे होते, तो उन अनेक लोगों के जीवन को अपने आशीर्वाद से धन्य करते, जिन्होंने शायद उनका नाम भी कभी सुना न हो…। जैसा कि लिखा ही गया है, ‘वह प्रत्येक मनुष्य नहीं जो मुझे प्रभु, प्रभु कहता है… परंतु वह जो मेरे परमपिता की इच्छा का पालन करता है।’ स्वयं अपने जीवन के दृष्टांत से ईसा ने मानवजाति को वह उच्च उद्देश्य और एकमात्र लक्ष्य दिखाया है, जिसे प्राप्त करने का हम सबको प्रयास करना चाहिए। मेरा यह विश्वास है कि वे केवल ईसाइयों के नहीं, बल्कि पूरे संसार के, सब देशों के और सब जातियों के हैं।’’


वर्धा में हमारे अंतिम दिन की शाम को महादेव देसाई द्वारा टाऊन हॉल में आयोजित सभा में मैंने व्याख्यान दिया। योग पर व्याख्यान सुनने के लिए आये लगभग 400 लोगों से हॉल खचाखच भर गया, यहां तक कि लोगों को खिड़कियों में भी बैठना पड़ा। मैं पहले हिन्दी में बोला, फिर अंग्रेजी में। हम लोग व्याख्यान समाप्त कर आश्रम में लौट आये और अपने कमरों की तरफ जा रहे थे, तो देखा कि गांधी जी शांति में और अपने पत्र-व्यवहार में मग्न बैठे हैं। …..


सुबह पांच बजे जब मैं उठा तो अभी रात का अंधेरा छाया हुआ था। ग्रामीण जीवन में धीरे-धीरे जागृति आ रही थी; सबसे पहले आश्रम के प्रवेश द्वार के सामने से एक बैलगाड़ी गयी, फिर एक किसान सिर पर भारी बोझ संभालते हुए गुजरा। सुबह के नाश्ते के बाद गांधी जी से विदा लेने और उन्हें प्रणाम करने के लिए हम तीनों उनके पास गये। महात्मा जी अपनी प्रात:कालीन प्रार्थना के लिए सुबह 4 बजे ही उठ जाते हैं।
‘‘महात्मा जी, अब हम चलते हैं!’’ मैंने उनके चरणों का स्पर्श किया। ‘‘आपके हाथ में भारत सुरक्षित है।’’


वर्धा में वह सुखद समय बिताये बरसों बीत गये हैं। जल, स्थल, आकाश में युद्धरत विश्व में अंधकार छा गया है। महान नेताओं में अकेले गांधी जी ने ही सशस्त्र शक्ति के स्थान पर व्यावहारिक अहिंसा का विकल्प प्रस्तुत किया है। शिकायतों को और अन्यायों को दूर करने के लिए महात्मा जी ने अहिंसा के उपायों का अवलंबन किया है और बार-बार उन उपायों ने अपनी प्रभावकारिता सिद्ध की है।


विहंगम दृष्टि


विश्व का राजनैतिक घटनाक्रम इस सत्य की ओर कटु संकेत कर रहा है कि आध्यात्मिक दृष्टि के बिना मनुष्य का विनाश सुनिश्चित है। यदि धर्म ने नहीं, तो विज्ञान ने मानव जाति के मन में असुरक्षा और सब भौतिक पदार्थों की निस्सारता की अस्फुट-सी भावना जगा दी है। अब सचमुच, मनुष्य अपने स्रोत और उद्गम, अपने भीतर स्थित परमात्मा के पास न जाये, तो और कहां जायें?


इतिहास पर दृष्टि डालें, तो यह कहना पूर्णत: तर्कसंगत होगा कि पाशवी शक्ति के प्रयोग से मनुष्य की समस्याएं हल नहीं हुई हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के भीषण दुष्कर्मों के कर्मफल ने ही द्वितीय विश्वयुद्ध का रूप लिया। वर्तमान रक्तपिपासु दुष्कर्मों के हिमपर्वत को परस्पर बंधुत्व-भाव की उष्णता ही पिघला सकती है, अन्यथा दुष्कर्मों का यह हिमपर्वत तृतीय विश्वयुद्ध को जन्म दे सकता है। बीसवीं सदी की अमंगल त्रयी! विवादों के निबटारे के लिए मनुष्य मानवी विवेक के स्थान पर जंगल न्याय का अवलंबन करने जायेंगे, तो पृथ्वी पुन: जंगल ही बन जायेगी। जीवन में भाईचारा स्थापित न हो सका, तो भयानक मृत्यु की गोद में भाईचारा होगा। यह ऐसे घृणित परिणाम के लिए नहीं था कि ईश्वर ने मनुष्य को अणुशक्ति का आविष्कार करने दिया था!


युद्ध और अपराध से कभी कोई लाभ नहीं होता। अरबों डॉलर विस्फोटकों का धुआं बनकर शून्य में मिल गये। इतने पैसे से तो एक नये विश्व का निर्माण हो सकता था – ऐसे विश्व का निर्माण, जो रोग-व्यथा से लगभग मुक्त और दारिद्र्य से पूर्णत: मुक्त होता। भय, अराजकता, अकाल और महामारी आदि के प्रलय नृत्यों का रंगमंच न रहकर पृथ्वी शांति, समृद्धि और वृद्धिगत होते ज्ञान की विस्तीर्ण भूमि बनती।


अहिंसा की पुकार


गांधीजी की अहिंसा की पुकार मनुष्य की अंतरात्मा को छूती है। राष्ट्रों को अब मृत्यु के साथ नहीं, बल्कि जीवन के साथ; विध्वंस के साथ नहीं, बल्कि निर्माण के साथ; घृणा के साथ नहीं, बल्कि प्रेम के रचनाकारी चमत्कारों के साथ अपना संबंध जोड़ना चाहिए।


महाभारत में कहा गया है, ‘‘चाहे किसी भी प्रकार की हानि क्यों न की गयी हो, मनुष्य को क्षमा कर देना चाहिए। कहा गया है कि मनुष्य की क्षमशीलता के कारण ही मानव जाति का अस्तित्व निरंतर बना हुआ है। क्षमा पवित्रता है; क्षमा के कारण ही सृष्टि टिकी हुई है। क्षमा ही शक्तिमानों की शक्ति है; क्षमा ही त्याग है; क्षमा ही मन की शांति है। क्षमा और सौम्यता आत्म-संयमी व्यक्तियों के गुण हैं। ये शाश्वत सद्धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं।’’


अहिंसा क्षमा और प्रेम का स्वाभाविक परिणाम है। गांधीजी कहते हैं : ‘‘धर्मयुद्ध में प्राणहानि आवश्यक ही हो जाय, तो मनुष्य को ईसा मसीह की तरह स्वयं अपना रक्त बहाने के लिए तैयार होना चाहिए, दूसरों का नहीं। इससे विश्व में रक्तपात तो कम होगा!’’


किसी दिन भारतीय सत्याग्रहियों पर महाकाव्य लिखे जायेंगे, जिन्होंने घृणा का प्रेम से, हिंसा का अहिंसा से सामना किया; जिन्होंने शस्त्र उठाने की अपेक्षा निर्दयता से कट जाना बेहतर समझा। कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों पर तो परिणाम यह हुआ कि दमनकारी अपनी बंदूकें फेंककर भाग गये, क्योंकि दूसरों के जीवन को अपने जीवन से अधिक मूल्यवान मानने वाले उन मनुष्यों को देखकर उनके मन लज्जा से भर गये, वे अंतर में हिल गये।


गांधी जी कहते हैं, ‘‘रक्तपात के द्वारा अपने देश को स्वतंत्र कराने का प्रयास करने की अपेक्षा आवश्यक हुआ तो मैं सदियों तक स्वतंत्रता की प्रतीक्षा करूंगा।’’ बाइबिल चेतावनी देती है, ‘‘जो तलवार हाथ में लेंगे, वे तलवार से ही कटकर मर जायेंगे।


महात्मा गांधी ने लिखा है : मैं अपने को राष्ट्रवादी कहता हूं, लेकिन मेरा राष्ट्रवाद उतना ही व्यापक है, जितना यह विश्व। वह पृथ्वी के सारे राष्ट्रों को अपने घेरे में लेता है। मेरे राष्ट्रवाद में पूरे विश्व का कल्याण समाविष्ट है। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रों के भस्मावशेषों पर मेरा भारत खड़ा हो। मैं नहीं चाहता कि भारत एक मनुष्य का भी शोषण करे। मैं चाहता हूं कि भारत शक्तिशाली बने ताकि वह अन्य राष्ट्रों में भी शक्ति का संचार कर सके। आज ऐसा करने वाला एक भी राष्ट्र यूरोप में नहीं है; वे दूसरों को शक्ति नहीं देते।


किसी भी अन्य देश के किसी भी नेता ने केवल गोलियों के द्वारा ही जो राजनैतिक रियायतें कभी प्राप्त की होंगी, उनसे कहीं अधिक राजनैतिक रियायतें गांधीजी ने अहिंसा के मार्ग द्वारा अब तक प्राप्त भी कर ली हैं। सब प्रकार के अन्यायों एवं बुराइयों के उन्मूलन के लिए अहिंसात्मक उपायों का प्रयोग केवल राजनैतिक अखाड़े में ही किया गया है, ऐसी बात नहीं, भारतीय समाज-सुधार के अत्यंत नाजुक और पेचीदे क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया गया है।


गांधीजी और उनके अनुयायियों ने दीर्घकाल से चले आ रहे अनेक हिन्दू-मुसलमान विवादों को खत्म कर दिया है। लाखों मुसलमान गांधी जी को अपना नेता भी मानते हैं। अस्पृश्यों को तो गांधी जी के रूप में अपना निर्भय और विजयी योद्धा मिल गया है। गांधी जी ने लिखा था, ‘‘यदि मुझे फिर से जन्म लेना पड़े तो मैं अछूतों के बीच अछूत बनकर ही जन्म लेना चाहूंगा, क्योंकि उसके द्वारा मैं और अधिक प्रभावशाली ढंग से उनकी सेवा कर सकूंगा।’’


महात्मा जी सचमुच महान आत्मा ही हैं, पर उन्हें यह उपाधि प्रदान करने का श्रेय भारत की कोटि-कोटि अशिक्षित जनता की सूक्ष्म दृष्टि को जाता है। इस नम्र संत का स्वयं अपने देश में भी आदर होता है। साधारण किसान भी गांधी जी के उच्च आदर्शों को अपना सका। गांधी जी पूर्ण अंत:करण से मानव की अंतर्जात महानता में विश्वास करते हैं। इस मामले में विश्वास को धक्का लगते रहना तो अपरिहार्य है, परंतु फिर भी वे कभी निराश नहीं हुए। वे लिखते हैं, ‘‘सत्याग्रही को कोई बीस बार धोखा दे, तो भी इक्कीसवीं बार वह फिर उस पर विश्वास करने के लिए तैयार रहता है, क्योंकि मानव स्वभाव में निर्विवाद विश्वास ही इस पथ का सार है।’’


एक बार किसी टीकाकार ने उनसे कहा, ‘‘महात्मा जी!आप असाधारण पुरुष हैं। आपको संसार से अपने जैसे आचरण की आशा नहीं करनी चाहिए।’’


गांधी जी ने कहा, ‘‘कितना विचित्र है हम लोगों का यह सोचना कि शरीर में तो सुधार किया जा सकता है, पर आत्मा की सुप्त शक्तियों को जगाना असंभव है। यही सिद्ध करने की कोशिश में तो मैं लगा हूं कि मुझमें ऐसी शक्तियां हों भी, तब भी मैं अन्य सब की तरह ही नश्वर हूं और मुझमें न तो कोई असाधारणता कभी थी और न अभी है। मैं एक साधारण व्यक्ति मात्र हूं जो अन्य किसी भी मर्त्य मानव की भांति ही भूल कर सकता है। हां, यह मैं अवश्य स्वीकार करूंगा कि अपनी भूल मान लेने की और अपने कदम वापस लेने की विनम्रता मुझ में है। मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि ईश्वर और उसकी महिमा में मेरा अटल विश्वास है तथा सत्य और प्रेम के प्रति मुझमें अदम्य अनुराग है। परंतु क्या यही सब प्रत्येक मनुष्य में सुप्त अवस्था में नहीं है?’’ फिर आगे उन्होंने कहा, “भौतिक जगत में यदि हम नयी-नयी खोजें और आविष्कार कर सकते हैं, तो क्या आध्यात्मिक क्षेत्र में ही अपना दीवालियापन घोषित करना जरूरी है? क्या यह अपरिहार्य है कि मनुष्य पहले पशु ही बने और फिर मनुष्य, वह भी यदि कभी बन सका तो?” …..


गांधीजी ने घोषणा की है, ‘‘मैं विश्वशांति के लिए लड़ रहा हूं, उससे कम किसी बात पर यह लड़ाई नहीं रुक सकती। यदि भारतीय आंदोलन अहिंसक सत्याग्रह के आधार पर सफल हुआ, तो देश प्रेम को एक नया अर्थ प्राप्त होगा, और यदि छोटे मुंह बड़ी बात कहूं, तो स्वयं जीवन को ही एक नया अर्थ मिल जायेगा।’’


इससे पहले की पाश्चात्य जगत गांधीजी के कार्यक्रम को एक अव्यावहारिक स्वप्नद्रष्टा का कार्यक्रम मानकर उसकी उपेक्षा करे, उसे गैलिली के प्रभु की सत्याग्रह की व्याख्या पर विचार करना चाहिए –


‘‘तुमने सुना है कि यह कहा जाता है कि आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत; पर मैं तुमसे कहता हूं कि तुम दुष्टता का (दुष्टता से) प्रतिकार मत करो, बल्कि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर तमाचा मारे, तो तुम अपना दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।’’


विधि-योजना की सूक्ष्म अचूकता के अनुरूप ही गांधी-युग एक ऐसी शताब्दी में प्रसृत हो चला है, जो दो-दो विश्वयुद्धों से ध्वस्त और बर्बाद हो चुकी है। गांधी जी के जीवन की प्रस्तर प्राचीर पर दिव्य लिखावट साफ झलक रही है, जो भाइयों के बीच फिर रक्तपात के विरुद्ध चेतावनी दे रही है।

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