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जब सर्व सेवा संघ और आरएसएस का गठबंधन होने से बचा

दोनों संगठनों से सम्बद्ध कुछ शीर्षस्थ नेताओं की एक बैठक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नागपुर स्थित प्रमुख कार्यालय में संघ के सरकार्यवाह बाबा साहब देवरस की अध्यक्षता में हुई। इस बैठक में सर्वोदय की ओर से जैनेन्द्र कुमार, अण्णा साहब सहस्रबुद्धे, ठाकुरदास बंग, आरके पाटिल, देवेन्द्र कुमार गुप्त आदि तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से बाबा साहब देवरस, नाना जी देशमुख, मा गो वैद्य आदि कुल 12 व्यक्तियों ने भाग लिया।

सत्य, अहिंसा के अपने नैतिक सिद्धांतों पर स्वयं दृढ़ रहते हुए महात्मा गांधी तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अन्य व्यक्तियों तथा संगठनों को सही राह पर लाने के अहिंसक प्रयोग किये। बापू ने यह जानते हुए भी कि नेहरू जी भारत के भावी स्वरूप के विषय में उनसे सहमत नहीं हैं, उन पर विश्वास किया और कहा कि ‘जवाहर कहता है कि मुझे आपकी बातें समझ में नहीं आती किन्तु मेरा विश्वास है कि मेरे बाद वह मेरी भाषा बोलेगा।’ लेकिन नेहरू जी ने उनके विचार आखिरी तक नहीं अपनाये तथा देश को दूसरी दिशा दे दी। इसी प्रकार हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए कृतसंकल्प राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनैतिक शाखा जनसंघ के इस आश्वासन पर कि वह संघ से रिश्ता तोड़कर मुख्य धारा में शामिल हो जायेगा, जेपी ने विश्वास करके दिल्ली की एक रैली में यहां तक कहा कि यदि जनसंघ फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूं। किन्तु अंततोगत्वा जनसंघ ने आरएसएस से अपना नाता नहीं तोड़ा और जनता पार्टी व उसकी सरकार तोड़वा दी।

संपूर्ण क्रांति के आंदोलन और आपातकाल के दौरान जेल में सर्वोदय और आरएसएस के कुछ शीर्ष नेताओं में परस्पर निकटता बन गयी थी। भारतीय संस्कृति और भावी समाज रचना के अनेक विन्दुओं पर उन्हें इन दोनों संगठनों के बीच विचार साम्य की संभावना लगी। इस संभावना की तलाश में दोनों संगठनों से सम्बद्ध कुछ शीर्षस्थ नेताओं की बैठक आरएसएस के नागपुर मुख्यालय में बाबा साहब देवरस की अध्यक्षता में हुई। इस बैठक में सर्वोदय की ओर से जैनेन्द्र कुमार, अण्णा साहब सहस्रबुद्धे, ठाकुरदास बंग, आरके पाटिल, देवेन्द्र कुमार गुप्त आदि तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से बाबा साहब देवरस, नाना जी देशमुख, मा गो वैद्य आदि कुल 12 व्यक्तियों ने भाग लिया।

इस महत्त्वपूर्ण बैठक में दोनों पक्षों के लगभग 15-15 कार्यकर्ताओं के बीच पांच दिन की एक गोष्ठी आयोजित करने का निश्चय हुआ। विवेकानंद केन्द्र के प्रमुख एकनाथ रानाडे ने इस गोष्ठी को विवेकानंद शिला में रखने का प्रस्ताव किया, किन्तु इसे 17 मार्च 1979 को सेवाग्राम आश्रम में रखना तय हुआ। नाना जी देशमुख ने गोष्ठी के निमंत्रण का प्रारूप भी बना लिया। सर्व सेवा संघ के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य राममूर्ति ने वाराणसी पहुंचकर मुझे उक्त जानकारी और निमंत्रण का प्रारूप देते हुए गोष्ठी का संयोजन करने को कहा। सर्व सेवा संघ का मंत्री होने के नाते मैंने तत्काल प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह गोष्ठी नहीं हो सकती। इस पर आचार्य जी का कहना था कि सर्वोदय के प्रमुख नेताओं द्वारा यह निर्णय लिया गया है। मैंने पूछा कि नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार संगठन की कार्यसमिति को ही है, उसकी अनुमति के बिना इतना महत्त्वपूर्ण कदम कैसे उठाया जा सकता है? मैंने अपना यह विश्वास भी व्यक्त किया कि कार्यसमिति इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगी और यदि ऐसा कोई निर्णय हो भी गया तो वह देश और समाज के लिए घातक सिद्ध होगा। पता चला, यह सोचा गया था कि गांधी के श्रेष्ठ विचार और आरएसएस के व्यापक संगठन; दोनों के संयोग से देश में अत्यंत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाया जा सकेगा। मानता हूं कि बापू और जेपी की तरह उनके इन अनुयाइयों में भी अहिंसा का एक प्रयोग करने की इच्छा जागी होगी। अंततोगत्वा उक्त गोष्ठी के आयोजन का विचार छोड़ दिया गया। मैं समझता हूं कि यह बहुत अच्छा हुआ। बाद में संघ परिवार द्वारा रामजन्म भूमि के प्रश्न को लेकर जो सांप्रदायिक उत्तेजना उत्पन्न की गयी, बाबरी मस्जिद के ध्वंस से सारे देश का वातावरण विषाक्त किया गया तथा गुजरात में शासन द्वारा प्रयोजित नरसंहार हुआ, इन घटनाओं के बाद दोनों संगठनों के समन्वय की दिशा में उठने वाले कदम रोक देने का औचित्य पूरी तरह से सही सिद्ध हो गया।

मुझे लगता है कि बिहार आंदोलन में अन्य छात्र संगठनों के साथ विद्यार्थी परिषद के माध्यम से आरएसएस परिवार की भागीदारी होना और बाद में जनता पार्टी और उसकी सरकार में उसका शामिल होना, देश की साझा संस्कृति और पंथ निरपेक्ष स्वरूप की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक साबित हुआ। जयप्रकाश आंदोलन में शामिल होकर संघ के घटकों को जो महत्त्व प्राप्त हुआ, उसी ने उन्हें केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचने में सहायता पहुंचायी। कुछ संप्रदाय निरपेक्ष दलों की सत्ता लालसा ने संघ परिवार को भारत की संस्कृति और नीति में जो परिवर्तन लाने का अवसर दिया, उससे मानवीय मूल्यों को गलत दिशा मिली और अपूरणीय हानि पहुंची। प्रभु हमें सुबुद्धि दें कि हम इस महान देश की आध्यात्मिकता पर आधारित सत्य, स्नेह, श्रम और संयम के शाश्वत नैतिक मूल्यों के रक्षण और विकास में तत्पर रहें तथा सांप्रदायिक तत्त्वों से देश और समाज को बचाये रखने में अपनी सही भूमिका निभायें। इंसान-इंसान के बीच भेद न मानने वाले व्यक्तियों एवं संगठनों की समन्वित शक्ति से मानवीय मूल्यों की स्थापना तथा समाज रचना के काम में गुणात्मक परिवर्तन लाने के निमित्त जनांदोलन ही वर्तमान संकट का स्थायी समाधान है।

-‘जो मुझे याद रहा’ पुस्तक से

-विनय भाई

दोनों संघों के समन्वय की गोष्ठी हेतु नानाजी देशमुख द्वारा बनाये और आचार्य राममूर्ति की ओर से जाने वाले निमंत्रण का प्रारूप

प्रिय महाशय,

सत्य एवं अहिंसा के पुजारी सर्वोदयकारी रचनात्मक प्रयासों के पुरस्कर्ता, मानवता के प्रतीक गांधीजी के भारत की दुर्दशा देखकर विचारशील भारतवासी दुखी तथा चिन्तित हैं। अशिक्षित एवं निर्धन परेशान हैं। उनका न कोई सहारा है न नेता। निराशा की शरण ही है सामान्य मानव का जीवन।

हिंसा ने अहिंसा को देश निकाला दे रखा है। विध्वंस ने रचना को शूली पर चढ़ा दिया है। भ्रष्टाचार सत्य की विडंबना किये जा रहा है। दुराचार सदाचार पर हावी है। विद्वेष एवं असहिष्णुता सद्भावना तथा सहयोग को पैरों तले रौंद रही है। विघटन ने एकात्मता का अवमूल्यन किया है। विषमता ने समता के सपने को दफना दिया है। स्वार्थ से लड़ने वाले स्वार्थ के लिए लड़ रहे हैं। साधना राष्ट्रभक्ति का उपहास कर रही है। भाई भतीजावाद समाज सेवा की खिल्ली उड़ा रहा है। नैतिकता अज्ञातवास में छिपी पड़ी है और मानवता वनवासिनी बनी है, परिणामस्वरूप अराजकता की विभीषिका स्वाहा करने के लिए कदम बढ़ा रही है।

इस दयनीय अवस्था में जबकि तथाकथित नेतृत्व सत्ता के खेल में बेखबर है, हमारे लिए गांधीजी के मार्ग के अवलंबन के बिना अन्य विकल्प नहीं है। गांधीजी ने भारत मां को ग्रामवासिनी के रूप में देखा था। किन्दु दुख के साथ कहना पड़ता है कि आजादी के 31 वर्ष के काल में हमारा ग्रामीण अंचल उपेक्षित रहा है।

गांधीजी ने देश के स्वातंत्र्य को प्राथमिकता दी थी। यह स्वाभाविक ही था। किन्तु समाज के सर्वांगीण विकास के लिए केवल शासन पर निर्भर रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। सबके प्रयास और सहयोग से ही सर्वोदय संभव है, यह उनकी दृढ़ धारणा थी। रचनात्मक प्रयोग उनके कार्यशैली के आधार थे। उसी में से अहिंसा, समता, सदभावना और सहयोग पनपेगा, सामाजिक पुनर्रचना एवं राष्ट्र का नवनिर्माण संभव होगा, यह उनका सुविचारित मत था।

हम अनुभव कर रहे हैं कि समय रहते हम देश में व्यापक स्तर पर रचनात्मक कार्यों का अभियान प्रारंभ करें। अत: गांधीजी की भावात्मक दिशा के प्रेमी, रचनात्मक कार्यों की महत्ता अनुभव करने वाले महानुभावों का एकत्रित होना, मिल-जुलकर चिन्तन करना, अभियान की दिशा निश्चित करना तथा तदनुसार कार्यक्रम बनाना हमारा प्रथम कदम होगा।

इसी हेतु सेवाग्राम आश्रम में 17-18 मार्च को एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया है। गोष्ठी 17 मार्च को प्रात: 10 बजे प्रारंभ होगी। आपसे सविनय अनुरोध है कि आप समय निकालकर पधारने की कृपा करें।

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