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जहां सुई भी नहीं बनती थी, उस राष्ट्र के शिल्पी हुए नेहरू

“मैं आपका प्रधानमंत्री हूँ, पर इसका मतलब ये कभी नहीं है कि मैं आपका राजा या शासक हूँ। वास्तव में मैं आपका एक सेवक हूँ और जब आप मुझे मेरे कर्तव्य में असफल होते देखते हैं, तो यह आपका कर्तव्य होगा कि आप मेरा कान पकड़ें और मुझे कुर्सी से उतार दें।”

नेहरू आधुनिक राष्ट्र निर्माण के पुरोधा, स्वप्नद्रष्टा, वास्तुकार और निर्माता थे। उनके अनुसार, भारत केवल एक भूगोल का ही नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धारा, उसकी सामासिक विरासत और समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा का नाम है, जिससे संबंध विच्छेद कर भारत, भारत कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।


नेहरू की जनतांत्रिक साख का पता उनके निम्नलिखित उद्धरण से चलता है, “मैं आपका प्रधानमंत्री हूँ, पर इसका मतलब ये कभी नहीं है कि मैं आपका राजा या शासक हूँ। वास्तव में मैं आपका एक सेवक हूँ और जब आप मुझे मेरे कर्तव्य में असफल होते देखते हैं, तो यह आपका कर्तव्य होगा कि आप मेरा कान पकड़ें और मुझे कुर्सी से उतार दें।”


आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माता नेहरू की विरासत चार स्तंभों पर टिकी थी—लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण, धर्मनिपेक्षतावाद, देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था और गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति। नेहरू ने राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में भारत की‌ समृद्धतम सामासिक-सांस्कृतिक विरासत, इसकी महान समावेशी क्षमता, समुत्थान शक्ति, सहनशीलता, उदारता, विविधता में एकता, सामाजिक समरसता, सौहार्द्र, शांति, सद्भाव और समतामूलक समाज की स्थापना सदृश विचारों को समाहित किया तथा भारत को एक स्वतंत्र, स्वाभिमानी, सुदृढ़ और संपन्न धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में विश्व मंच पर प्रतिस्थापित किया।

भाखड़ा नांगल बांध


नेहरू की आंखों में इस देश के सबसे गरीब, सबसे मजलूम को ऊपर उठाने का सपना था, जैसा कि अपने मध्यरात्रि संभाषण‌- ‘नियति के साथ संयोग’ में उन्होंने घोषणा की, “भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की‌ सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता, अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत‌ है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि प्रत्येक आंख के प्रत्येक आंसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं, और पीड़ा है, तब तक हमारा काम‌ पूरा नहीं होगा। मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूंगा, जो भारत को हर‌ तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त कर दे। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस कर सकें कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज़ का‌ महत्व है और जिसमें ऊंच और नीच वर्गों का भेद नहीं होगा।”


नेहरू साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि सांप्रदायिकता के साथ राष्ट्रवाद नहीं चल सकता। वह राजनीति में धर्म की मिलावट के ख़िलाफ़ थे। उनकी नज़र में सांप्रदायिकता किसी भी धर्म की हो, ख़तरनाक होती है। जब नेहरू अपने सुविख्यात मध्यरात्रि संभाषण में भारत का नियति से साक्षात्कार करा रहे थे, तब स्थिति यह थी कि पश्चिम वाले अट्टहास की मुद्रा में यह कहकर हमारा मजाक उड़ा रहे थे कि ‘देखें, भारत जैसा मोटा, लद्धड़, गुलथुल, गरीब, भूखा- नंगा, मूढ़, मंद बुद्धि का दुर्बल दैत्य (Flabby imbecile giant) अपनी नियति को कैसे संवार पाता है।’ चर्चिल ने‌ यह कहकर भारत का उपहास किया था कि ‘अगर भारत को आजादी दी गई तो सत्ता चंद दुष्टों, बेईमानों और लुटेरों के हाथ में पहुंच जाएगी और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।’

बोकाराे स्टील प्लांट


लेकिन जब पाश्चात्य राजनीतिक प्रेक्षकों ने नेहरू को अपने देश को जनतंत्रवाद के पथ पर प्रशस्त करते, गुटनिरपेक्षवाद की स्वतंत्र विदेश नीति का अनुगमन करते और आधुनिकीकरण का चक्र घुमाते देखा तो उन्होंने इस तथ्य को बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि भारत के राजनेताओं में अपने देश की नियति को संवारने के लिए वांछित संकल्प, सामर्थ्य और क्षमता है। नेहरू ने अदम्य इच्छाशक्ति का‌ प्रदर्शन करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि तमाम विविधताओं और भिन्नताओं के बावजूद हर तरह की चुनौतियों और झंझावातों के‌ बीच भारत में जनतंत्रवाद और आधुनिकीकरण के मार्ग पर चलने की‌ हिम्मत और हौसला है। नेहरू ने भारत में जनतंत्र की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे देखकर चर्चिल को भी, यदि वह जिंदा होते, तो यह स्वीकार करना पड़ता कि हम जंगली लोगों में भी जनतंत्र को चलाने का सामर्थ्य है।


नेहरू की मान्यता थी कि विज्ञान इस युग की मूल भावना है और मानवीय जीवन के साथ संस्थाओं की बेहतरी के लिए विज्ञान के अलावा दूसरा और कोई रास्ता नहीं है। अपनी इसी सोच के‌ मद्देनजर नेहरू ने भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण का कार्य बुद्धि, विवेक और विज्ञान की मदद से शुरू किया।


देश के भीतर उन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए औद्योगिक ढाँचा स्थापित किया। नेहरू ने देश के विकास को गति देने के लिए पंचवर्षीय योजना शुरू की। उन्होंने आईआईटी,आईआईएम की स्थापना की। भाखरा नांगल बांध, रिहंद बांध, हीरा कुंड बांध आदि की स्थापना की। हटिया, बोकारो, भिलाई, दुर्गापुर, राउरकेला स्टील और इस्पात संयंत्रों की स्थापना की और इन्हें उन्होंने ‘टेम्पल्स ऑफ मोडर्न इंडिया’ का नाम दिया था।
आजादी के समय भारत की अर्थव्यवस्था मात्र 2.7 लाख करोड़ की थी। उद्योग धंधे नहीं थे। वैज्ञानिक चेतना का अभाव था। खेती भी हजारों साल पुरानी तकनीक से चल रही थी। आजादी के समय भारत एक जनसंकुल देश था, जिसकी जनसंख्या 361,088,090 (आज के अमरीका की जनसंख्या से भी ज़्यादा) थी। नेहरू की आँखों के सामने एक ऐसा भारत था, जहां आदमी की औसत उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। बंगाल के अकाल में ही पंद्रह लाख से ज्यादा लोग मौत का शिकार हो गए थे। टी बी, कुष्ठ रोग, प्लेग और चेचक जैसी बीमारियां महामारी बनी हुई थीं। पूरे देश में 15 मेडिकल कॉलेज थे। देश में मात्र 26 लाख टन सीमेंट और नौ लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 2100 मेगावाट तक सीमित थी।


नेहरू ने प्रतिमाएं नहीं बनवाईं, संस्थानों के प्रतिमान बनाये। यक्ष्मा एक बड़ी समस्या थी। 1948 में इसके लिए मद्रास में प्रयोगशाला स्थापित की गई और 1949 में टीका तैयार किया गया। चेचक एक बड़ी समस्या थी। 1951 में एक लाख 48 हजार मौतें हो चुकी थीं। अगले दस साल में ये मौतें 12 हजार तक सीमित हो गयीं। 1952 में पुणे में नेशनल वायरोलोजी इन्स्टीट्यूट खड़ा किया गया। देश की आधी आबादी मलेरिया की चपेट में थी। इसके लिए 1953 में अभियान चलाया गया। शीघ्र ही मलेरिया पर काफी हद तक काबू पा लिया गया। भारत की 3 प्रतिशत जनसंख्या प्लेग से प्रभावित रहती थी, उस पर भी काबू पा लिया गया। पहले जहां 15 मेडिकल कॉलेजों में 1200 डॉक्टर तैयार हो रहे थे,1963 में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 81 और डॉक्टर्स की दस हजार हो गई। 1956 में भारत को पहला AIMS मिल गया। 1958 में मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज और 1961 में गोविन्द बल्लभ पंत मेडिकल संस्थान खड़ा किया गया।

नेहरू ने देश के कोने-कोने में फैक्ट्रियों और कारखानों का जाल बिछाया


नेहरू की मान्यता थी कि राष्ट्र निर्माण का भवन वैज्ञानिक, शिक्षक, चिकित्सक और इंजीनियर की नींव पर ही खड़ा होता है। इसलिए उन्होंने IIT, IIM, AIIMS जैसे संस्थानों के निर्माण पर जोर दिया। नेहरू 1949 में अमेरिका में MIT गए ,जानकारी ली और भारत लौटते ही 1950 में खड़गपुर में भारत का पहला IIT खोला। फिर 1958 में मुंबई, 1959 में मद्रास और कानपुर तथा आखिर में 1961 में दिल्ली IIT की स्थापना हुई।
इतना ही नहीं, तरह तरह के शोध- संस्थानों और अनेकानेक राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं, जैसे, फिजिकल रिसर्च लैब, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर, भारतीय सांख्यिकी संस्थान व बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट, कलकत्ता, द हॉफकिन इंस्टीट्यूट और डिपार्टमेंट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी, बम्बई, कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, नेशनल केमिकल लेबोरटरी, राष्ट्रीय धातु संस्थान, फ्यूल रिसर्च सेंटर और ग्लास एंड सिरेमिक रिसर्च केंद्र की स्थापना की गई। निजी क्षेत्र में चल रहे अनुसंधान संस्थानों- जेके इंस्टीट्यूट ऑफ अप्लाइड फिजिक्स, इलाहाबाद, जे.के.इंस्टीट्यूट ऑफ रेडियोलॉजी, कानपुर, सीबा रिसर्च सेंटर, बम्बई, एमआरएफ रिसर्च सेंटर, मद्रास और अहमदाबाद टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज रिसर्च इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद में भी नेहरू की गहरी दिलचस्पी थी।


भारत आणविक शक्ति बने, इसकी बुनियाद नेहरू ने ही रखी। 1954 में भारत ने आणविक ऊर्जा विभाग और रिसर्च सेंटर स्थापित कर लिया था। नेहरू ने उस दौर के नामवर वैज्ञानिकों सर सी वी रमन, विक्रम साराभाई, होमी जहांगीर भाभा, सतीश धवन और एस एस भटनागर सरीखे वैज्ञानिकों को साथ लिया। इसरो तभी स्थापित किया गया। विक्रम सारा भाई इसरो के प्रथम प्रमुख बने। भीषण चुनौतियों और झंझावातों के बीच घिरे नेहरू चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए औपनिवेशिक शोषण से खोखले हो चुके देश को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश में लगे रहे और भारत को एक बुलंद नींव पर खड़ा किया।


भारत के साथ स्वतंत्र हुए एशिया और अफ्रीका के लगभग सारे देश तानाशाही और सैनिकशाही के चंगुल में फंस गए। नेहरू की अगुआई में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने जोर पकड़ा और भारत विकासशील देशों की आशा का केंद्र बना। उपनिवेशवाद, नव उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, रंगभेद और अन्य कई प्रकार के भेदभावों को दूर करने, विश्व के तमाम देशों को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पताका फहराने का श्रेय नेहरू को ही जाता है।


नेहरू के व्यक्तित्व में चेम्बरलेन और चर्चिल‌ दोनों की छाप थी। उनमें आदर्शवाद और नैतिकता के बीच एक सधे हुए यथार्थवादी के लक्षण थे। उनकी बातों का कालजयी महत्व होता था। दुनिया के किसी भी आसन्न संकट पर, मामला चाहे स्वेज का हो, क्यूबा का या फिर कोरिया का हो, नेहरू की‌ राय का सर्वोच्च महत्व होता था। इस या उस पक्ष में नेहरू एक शब्द बोल दें, इसके लिए दुनिया तरसती थी। एशिया और अफ्रीका के देशों ने नेहरू क़ो तृतीय विश्व के नेता के रूप में स्वीकार किया और पूरे विश्व ने भी नेहरू की विश्वदृष्टि और नेतृत्व क्षमता का लोहा माना।
शीतयुद्ध के दौर में ब्रिटेन और अमेरिका ने पूरी ताकत लगा दी थी कि कश्मीर पाकिस्तान को मिल जाए। मगर दुनिया की तमाम ताकतों के सामने पंडित नेहरू जैसा कूटनीतिज्ञ चट्टान की तरह खड़ा था, वे हर कीमत पर कश्मीर हिंदुस्तान में चाहते थे। पाक, चीन, अफगानिस्तान से सटे और सोवियत संघ के नजदीक बसे कश्मीर की भौगोलिक स्थिति नेहरू को अच्छे से पता थी। उन्हें पता था कि अगर कश्मीर हाथ से गया तो पाकिस्तान को पिट्ठू बनाकर अमेरिका, सोवियत संघ को मात देने के लिए कश्मीरी जमीन पर सैनिक तांडव करेगा। कश्मीर पर नेहरू अडिग थे।


अमरीकी संसद के सामने अपने उद्बोधन में नेहरू ने विश्व मंच‌ पर यह घोषणा करते हुए कि “विश्व में जब और जहां स्वतंत्रता खतरे में आएगी, उस पर हमले किए जाएंगे और विश्वशांति खतरे में आएगी, तो हम मौन अथवा तटस्थ नहीं रहेंगे, हम अवश्य अपनी आवाज बुलंद करेंगे। ऐसा नहीं करना उन तमाम मूल्यों के साथ धोखेबाजी होगी, जो हमारी विरासत रहे हैं और जिनके लिए हमने संघर्ष किया है” भारत की नैतिक श्रेष्ठता व साख का झंडा गाड़ दिया।

-सच्चिदानंद पाण्डेय

Sarvodaya Jagat

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  • बहुत सुंदर और यथार्थपरक लेख है।

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