जिस प्रकार किसी बगीचे में विभिन्न फलों के पेड़ अपने स्वभाव व क्षमता के अनुसार फल और ऑक्सीजन देते हैं, कोई आपस में किसी से तुलना नहीं करता कि कौन किसी से कम या ज्यादा फल या ऑक्सीजन दे रहा है, उसी प्रकार सारे महापुरुष भी समाज में अपना-अपना योगदान देते हैं। किसी महापुरुष की दूसरे महापुरुष से तुलना करना उचित नहीं है। सभी श्रद्धेय हैं, सभी का योगदान अमूल्य है। किसी को किसी से छोटा या बड़ा बताने की मुहिम कुत्सित मानसिकता का परिणाम है। दूसरे महापुरुषों को तो छोड़िये, कैसी विडम्बना है कि हमारे देश में दशकों से देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ही छोटा करके दिखाने, बताने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। यह समाज व देश के लिए शुभ नहीं है। देश के महापुरुषों के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा करने की ये कुत्सित कोशिशें देश व समाज के लिए अशुभ संकेत देने वाली हैं।
महात्मा गाँधी के जीवन को समग्रता में देखिये, तो भक्ति मार्ग, योग मार्ग, निष्काम कर्मवाद, स्थितप्रज्ञ भावना आदि जितने भी तत्व गीता में पाए जाते हैं, उनका संपूर्ण समावेश गांधी की विभूति में पाया जाता है। गीता का रचनाकार यदि आज प्रकट होता तो गांधी को देखकर बेलाग कहता की गीता का लक्षित पुरुष तो गांधी ही है। जैन धर्म के एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि को यदि किसी ने साक्षात जिया है, तो वे गांधी ही हैं। गांधी के आदर्शों में भगवान विष्णु और राजनय में भगवान कृष्ण प्रतिबिम्बित होते हैं।
सत्य के साथ गांधी के प्रयोग तो सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सीमा से भी आगे निकल जाते हैं। उनकी आत्मकथा इसका अद्भुत उदाहरण है। गांधीजी ने ऐसे-ऐसे सत्यों का अनुसन्धान किया, जो उनके सिवा किसी और के हाथों संभव भी नहीं होता। गांधीजी की देशभक्ति, हनुमान की रामभक्ति के समांतर दिखाई पडती है। साउथ अफ्रीका में गांधीजी के आंदोलनों के दौरान राम की जय और वंदेमातरम के नारों के साथ जुलूस निकलते थे। कहा जाता है कि उस दौरान दक्षिण भारत में जिन नाटकों का मंचन किया जाता था, उनके अंत में नायक का प्रादुर्भाव गांधी के रूप में होता था और समस्याओं के समाधानकर्ता के रूप में गांधी को ही दिखाया जाता था। गोपाल कृष्ण गोखले कहा करते थे कि इसमें कोई शक नहीं कि गांधी उस धातु के बने हुए हैं, जिस धातु से महानायकों और शहीदों का निर्माण होता है। उनके पास अपने आसपास के लोगों को नायकों और शहीदों में बदलने की अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति है।
गांधीजी की सेवा भावना की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। इतिहास में यह पहला और संभवत: अंतिम उदाहरण होगा कि गांधीजी ने कुष्ठरोग से ग्रसित परचुरे शास्त्री को अपने आश्रम में रखकर उनकी अपने परिवार जैसी सेवा की। वे उनका मल-मूत्र तक साफ करते थे। ये तो ईश्वर के गुण कहे गये हैं, अनेक विदेशी विद्वानों ने अनेक अवसरों पर कहा भी कि गांधीजी में ईसा के गुण पाये जाते हैं। मार्टिन लूथर किंग ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि गांधी को पढ़ने से पहले मुझे ईसा की उस उक्ति पर विश्वास ही नहीं होता था कि एक गाल पर थप्पड़ मारने वाले के सामने दूसरा गाल आगे कर देने पर टकराव को टाला और मरने वाले को लज्जित किया जा सकता है। अपने दुश्मन से भी प्रेम करो, ईसा के इस कथन का गांधी से बेहतरीन कोई दूसरा उदाहरण नहीं पाया जाता।
इतिहास बताता है कि जुलू विद्रोह के समय जब घायलों की कोई मदद नहीं कर रहा था तो उनका इलाज कर रहे डॉ शावेज ने गांधी जी से मदद मांगी, वे गांधीजी को ईश्वर द्वारा उनकी मदद के लिए भेजे हुए दूत की तरह मान देते थे। इन घायलों की सेवा के लिए गांधीजी को कभी-कभी दिन भर में चालीस-पचास मील तक की मंजिल भी तय करनी पड़ती थी। जनमानस में प्रचलित कथन कि ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, को गांधी जी थोड़ा और आगे बढ़ाकर इस स्तर पर ले गये कि ‘पाप से घृणा करो, लेकिन पापी से प्रेम करो।’
गांधी जी ने कहा कि इस संसार में मेरा कोई दुश्मन नहीं है, इसको उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाया। एक बार दक्षिण अफ्रीका में जब कुछ गोरों ने उन पर आक्रमण किया और लात-घूंसों, थप्पड़ों की बारिश कर दी, किसी तरह उनकी जान बच पायी। इस घटना की खबर जब इंग्लैंड पहुंची तो चैम्बरलेन ने नेटाल सरकार को तार किया कि जिन गोरों ने गांधी पर आक्रमण किया है, उन पर कोर्ट में मुकदमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें न्याय मिलना चाहिए। गांधीजी ने कहा कि मैं अपने ऊपर हुए इस हमले के बारे में किसी के खिलाफ अदालत में शिकायत करूंगा ही नहीं। मैं हमला करने वालों का इसमें कोई दोष नहीं देखता। उन्हें तो उनके नेताओं ने उकसाया था।
दक्षिण अफ्रीका में ही एक और हमले के समय वे ‘हे राम’ बोलते-बोलते बेहोश होकर जमीन पर लुढ़क गये। मीर आलम और उसके साथियों ने उन्हें लाठियों से मारा था। होश में आते ही उन्होंने पूछा कि मीर आलम कहां है? जब पता चला कि उसे और उसके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया है, तो गांधीजी ने कहा कि उन्हें तुरंत छोड़ दीजिये। अपने ऊपर हुए हमले के लिए मैं उन लोगों को दोषी मानता ही नहीं। इन घटनाओं से क्या यह ज़ाहिर नहीं होता कि हमारे वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद जिस किसी व्यक्ति में जिस नैतिकता की बात करते हैं, वह गांधीजी के स्वरुप में किस हद तक मूर्तिमान थी?
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि देश की दशा देखकर मैंने कितने ही वर्षों से यह लालसा लगा रखी थी कि क्या कोई कर्णधार नहीं निकलेगा? मुझे भय होता था कि ऐसे कर्णधार को देखे बिना ही मुझे चले जाना पड़ेगा। परंतु ईश्वर परम कृपालु है, गांधी का समागम हुआ। मैं इस काल में जीवित हूं, यही मुझे मेरा सौभाग्य लगता है। आपकी कितनी ही आलोचना हो, लोग श्रद्धा न करें, कोलाहल और हत्याकांड हों, तो भी आप अटल रहेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। सत्य और अहिंसा, उस चमत्कारी पक्षी फिनिक्स की भांति हजारों बार आग में पड़ने पर भी नित्य नवीन और सजीव ही होते रहेंगे। वह पक्षी कभी हारकर बैठने वाला नहीं है और आपका किया हुआ कभी वृथा नहीं जायेगा। बुद्ध भगवान का किया हुआ वृथा गया क्या? भारत में भले ही बहुत बौद्ध न हों, परंतु बुद्ध के मंत्र तो हमारे जीवन के साथ गुंथे हुए हैं।
आश्चर्य की बात है कि संसार के सभी धर्मों के लोग गांधीजी को अपना समझते हैं। जैन उन्हें जैन मानते हैं, बौद्ध उन्हें बौद्ध मानते हैं और ईसाई उन्हें ईसाई मानते हैं। कुछ ईसाई मित्र तो यह भी कहते हैं कि गांधीजी असल में ईसाई ही हैं, परन्तु डर के मारे स्वीकार नहीं करते। मुसलमान भी उन्हें मुसलमान मानते हैं। गांधीजी ने कहा कि इतना नहीं तो कम से कम मैं मुसलमान बनने की तैयारी में हूं, ऐसा लोग कहते हैं।
जयप्रकाश नारायण ने एक बार बड़े खूबसूरत शब्दों में इस फर्क को व्यक्त किया था। उन्होंने कहा था कि महात्मा गांधी हम युवा समाजवादियों, मार्क्सवादियों के बौद्धिक मन को उस तरह नहीं छूते थे, जिस तरह जवाहरलाल छूते थे। ऐसा इसिलए था कि हम भी किताबों से निकले थे और जवाहरलाल भी। लेकिन महात्मा गांधी किताबों से पैदा नहीं हुए थे, किताबें उनसे पैदा होती थीं। वे इस हद तक मौलिक थे कि उनकी कही बातों, स्थापनाओं को समझने में मुझे वर्षों लगे।
जलियांवाला बाग काण्ड
अपने देश के प्रति गांधीजी के प्रेम का एक नमूना देखिये! 1942 में बंगाल के अकाल में लगभग 16 लाख लोग मर गये, इसके बाद भी कोई देशव्यापी भावना जागृत नहीं हो सकी, लेकिन जलियांवाला बाग कांड के बाद गांधीजी के चिंतन में जो परिवर्तन आया, उसने अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिला डालीं। प्रश्नपत्र को ही फाड़ देना व्यक्ति को असफल कर देता है, प्रश्नों को हल करने में ही सफलता है। गांधीजी अपने युग के सभी प्रश्नों को हल करने में सफल रहे।
1919 में, अमृतसर के बाद सारे पंजाब में दमन का जो नंगा नाच हुआ, राजनैतिक कार्यकर्ताओं को जो अमानवीय यंत्रणाएं दी गयीं, पढ़े-लिखे लोगों को जिस तरह सताया और अपमानित किया गया, उन सबके मूल में अंग्रेज अफसरों के मन पर छाया हुआ ‘जन-विद्रोह का आतंक’ काम कर रहा था। इसी आतंक से प्रेरित जनरल डायर ने, जिस जगह अंग्रेज महिला पर हमला किया गया था, उस सड़क पर भारतीयों को पेट के बल रेंगने के लिए मजबूर किया, उनकी नाक रगड़वायी। इसी आतंक से प्रेरित होकर उन्हें हुक्म दिया गया कि जब भी कोई अंग्रेज सामने पड़ जाये, उसे सवारी से उतरकर फौरन सलाम किया जाये। इसी आतंक के कारण कई गांवों पर मशीनगनों और हवाई जहाजों से गोलियां बरसायी गयीं, भारतीयों की सारी मोटरगाड़ियां छीन ली गयीं। कर्नल जॉनसन ने लाहौर के सभी कॉलेजों के लगभग एक हजार विद्यार्थियों के लिए तीन सप्ताह तक मई की चिलचिलाती धूप में रोजाना 16 मील पैदल चलकर यूनियन जैक के सामने दिन में चार बार हाजिरी देने का नियम लागू कर दिया और जब एक कॉलेज की बाहरी दीवार पर यह नोटिस फटा हुआ पाया गया, तो उस कॉलेज के सारे छात्रों, कर्मचारियों और अध्यापकों तक को गिरफ्तार कर लिया गया।
जलियांवाला बाग़ कांड के बाद गांधीजी ने कहा कि पंजाबियों के लिए मैंने सुना है कि वे बड़े उस्ताद और बहादुर होते हैं, परंतु मुझे कहना चाहिए कि अप्रैल में तो वे डर गये थे और ऐसा कहने के लिए मेरे पास ठीक-ठीक कारण हैं। मैं पूछता हूं कि अगर आप डर नहीं गये थे, तो किसलिए जमीन पर नाक रगड़ी थी? मैंने तो आपसे नहीं कहा था कि आप नाक से लकीर खींचना या सांप की तरह पेट के बल चलना। ऐसे हुक्म हुए, तब आप उनके सामने झुकने के बजाय मर क्यों नहीं गये? मेरा काम पेट के बल चलना नहीं, बल्कि मैं सारी दुनिया के सामने छाती खोलकर खड़ा रहूंगा। अवश्य ही पंजाबी डर गये थे, परंतु इस समय मैं पंजाब पर दोष लगाने के लिए खड़ा नहीं हुआ हूं। जिस मिट्टी से पंजाब बना है, उसी से मैं भी बना हूं। ऐसे हालात में मैं भी वही अपराध नहीं करूंगा, यह मैं कैसे कह सकता हूं? मैं तो प्रार्थना करता हूं कि मेरी गर्दन कट जाय, परंतु मैं ऐसा कभी न करूं। आपके लिए भी मैं यही प्रार्थना करता हूं।
पंजाब पर सितम ढाये गये हैं, इन जुल्मों का न्याय कराने के लिए हम महीनों से जूझ रहे हैं, परंतु अभी तक हम ब्रिटिश सरकार को रास्ते पर नहीं ला सके। क्या लोग अब तक इतना सब कुछ करने के बाद, इतना जोश और भाव प्रकट करने के बाद केवल अपनी क्रोध की भावना का थोथा प्रदर्शन करके ही बैठे रहना पसंद करेंगे? पंजाब का किस्सा सर्वविदित है। जो बेगुनाह जलियांवाला बाग में मरे, वे तो मरे, परंतु जिन दूसरों से अंग्रेज अफसरों ने नाक घिसवायी, पेट के बल चलाया, सलामी करायी और हजार तरह से बेइज्जत किया, वह सब किसलिए किया? आपको यह बताने के लिए कि तुम गुलाम हो और हम मालिक हैं, हमारे दिल पर यह जमा देने के लिए कि हम मनुष्य के नाम के योग्य नहीं हैं, हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं। इस नौकरशाही से उसके कुकर्मों की तोबा कराने के लिए हम क्या करेंगे? इनका मुकाबला करने के तमाम साधन इस नौकरशाही ने हमसे छीन लिये हैं। उन्होंने अपने विरुद्ध होने के लायक हमें किसी तरह नहीं रहने दिया। फिर भी ईश्वर ने एक हथियार अभी तक हमारे हाथ में रखा है, और वह है–हमारा आत्मबल।
गीता में जो अभेद-बुद्धि कही गयी है, उसका क्या अर्थ है? पंजाब के पुरुषों पर जो मारपीट हुई, उन्हें पेट के बल चलाया गया और उनसे नाक रगड़वायी गयी, विद्यार्थियों पर जो अत्याचार हुए, वे आपको अपने पर ही हुए, ऐसा महसूस न हो, तब तक आप समझिये कि आपको अभेद-बुद्धि प्राप्त नहीं हुई।
हमारे एक पंजाबी भाई को जिस दिन अमृतसर की उस गंदी गली में पेट के बल चलना पड़ा, उस दिन सारा भारत पेट के बल चला, जिस दिन मियांवाला की एक निर्दोष स्त्री का घूंघट एक उद्धत अंग्रेज अफसर के हाथों उठाया गया, उस दिन भारत की तमाम स्त्रियों का इज्जत पर हाथ डाला गया और नाजुक उम्र के कोमल बालकों को पंजाब में मार्शल लॉ के मातहत जब दिन में चार-चार बार भरी दुपहरी में यूनियन जैक को सलामी देने के लिए पैदल चलने को विवश किया गया, जिसके परिणामस्वरूप सात-सात वर्ष के दो बच्चों ने प्राण छोड़े, उस दिन समस्त हिन्दुस्तान के बच्चों पर सितम गुजरा। जब तक सरकार इन सब पापों का प्रायश्चित न करे, तब तक उसके आश्रय में चलने वाले स्कूल-कॉलेजों में पढ़ना नरक भोगने के समान है। ऐसी सरकार को स्वेच्छा से सहायता देने या उसकी मदद स्वीकार करने में हम उसके अपराधों और पापों में हिस्सेदार बनते हैं।
मैं अंग्रेजों का दुश्मन नहीं हूं, परंतु मैं मानता हूं कि इस हुकूमत में शैतानी हवा फैली हुई है। मैं यकीन रखता हूं कि खुदा मुझे ताकत देगा, तो मैं इस सल्तनत को मिटाऊंगा या सुधारूंगा। यह मेरा परम धर्म है। इस सल्तनत को मिटाये बिना न मैं चैन से बैठ सकता हूं और न आपको बैठने दूंगा। मैं राजद्रोह का कानून तोड़कर फेंक देने को तैयार हो गया हूं, क्योंकि मैं शुद्ध हूं, अपने दिल में जो है, वही कहता हूं। मैं अंग्रेजों की रैयत नहीं, परंतु उनका शरीफ वफादार मित्र हूं, इसलिए उन्हें इस प्रकार सुना रहा हूं। यह हमारे देश के लोगों का अपमान है और यह अपमान बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। अंग्रेजों को देश छोड़कर जाना होगा।
गांधीजी ने यंग इंडिया के 15 दिसंबर 1921 के अंक में लिखा कि लार्ड रीडिंग को यह बात समझ लेनी चाहिए कि असहयोग करने वाले लोग सरकार से जंगी लड़ाई लड़ रहे हैं और उन्होंने सरकार के खिलाफ बगावत कर दी है।
-चित्रा वर्मा
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