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जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा का सवाल

विकासशील देशों को समुचित अनुकूलन प्रणाली विकसित कर जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी कृषि की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करने की नीतियां एवं योजनाएं बनानी प्रांरभ कर देनी चाहिए। मुक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था एवं बाजार के विस्तार के कारण महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक कृषि संसाधनों; जल, भूमि, मृदा, वन एवं जैव विविधता का ह्रास तथा तीव्र अवनयन हुआ है। फलस्वरूप विगत तीन दशकों में कृषि उत्पादकता में भारी गिरावट आयी है।

विगत वर्षों में विश्व के विकसित एवं विकासशील देशों में औद्योगीकरण और जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ कृषि भूमि का विस्तार हुआ है। साथ ही जहां एक ओर शहरीकरण तथा यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण सकल कृषि क्षेत्र में कमी आयी है, वहीं दूसरी ओर विकासोन्मुख देशों में अब कृषि योग्य भूमि के विस्तार की संभावनाएं बहुत ही सीमित हो गयी हैं। तीव्र गति से आगे बढ़ती हुई मुक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था एवं बाजार के विस्तार के कारण महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक कृषि संसाधनों; जल, भूमि, मृदा, वन एवं जैव विविधता का ह्रास तथा तीव्र अवनयन हुआ है। फलस्वरूप विगत तीन दशकों में कृषि उत्पादकता में भारी गिरावट आयी है।

जलवायु परिवर्तन ने खाद्यान्न उत्पादन एवं वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। तीव्र औद्योगीकरण के कारण जहां एक ओर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि हो रही है, वहीं इन गैसों को अवशोषित करने वाले प्राकृतिक वनों का भी तीव्र दोहन हो रहा है। औद्योगिक क्रांति के प्रारंभ से लेकर 2022 तक पृथ्वी के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का जमाव 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ गया है। सन 1880 से लेकर 2022 तक प्रति दशक पृथ्वी के तापमान में औसतन 0.140 डिग्री सेल्शियस की वृद्धि हुई है और 1981 से लेकर अबतक प्रति दशक वैश्विक तापमान वृद्धि की दर दुगुनी हो गयी है। विश्व जलवायु अनुसंधान कार्यक्रम के पूर्वानुमान के अनुसार वर्ष 2030 और 2050 तक पृथ्वी के तापमान में क्रमश: 1.50 डिग्री सेल्शियस एवं 2 से 40 डिग्री सेल्शियस तक वृद्धि हो सकती है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की आकलन रिपोर्ट 2022 के अनुसार यदि निकट भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के प्रयासों को अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है, जैसे कि विगत वर्षों में हुए शीर्ष जलवायु सम्मेलनों में उभरे मतभेदों से संकेत मिले हैं, पृथ्वी का तापमान इस शताब्दी के अंत तक और तीव्र गति से बढ़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन : संकट में कृषि, संकट में जीवन

निरंतर बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से जहां संसार की जलवायु और मौसम चक्र में व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव पड़ रहे हैं, हिमाच्छादित क्षेत्र तथा हिमनद तीव्र गति से पिघल रहे हैं और विश्व के अनेक भागों में वर्षा की औसत मात्रा तथा वर्षा दिवसों में कमी परिलक्षित हो रही है, वहीं अतिवृष्टि, तूफान, सूखा एवं बाढ़ जैसी विनाशकारी चरम मौसमी घटनाओं की गहनता एवं तीव्रता में उत्तरोत्तर वृद्धि होने के वैज्ञानिक प्रमाण भी सामने आये हैं। चूंकि कृषि प्रत्यक्ष और पूर्ण रूप से तापमान, वर्षा और आर्द्रता के साथ-साथ भूमि एवं जल जैसे प्राकृतिक तत्वों के ऊपर निर्भर करती है, इसलिए जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव कृषि और उससे जुड़ी आजीविका और अर्थव्यवस्था के ऊपर पड़ता है। वायुमंडलीय तापमान में निरंतर हो रही वृद्धि के कारण जहां एक ओर उच्च अक्षांशीय एवं उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि के विविधीकरण और उसका उत्पादन बढ़ाने के अवसर प्राप्त हो सकेंगे, वहीं दूसरी ओर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में जो सबसे बड़े कृषि उत्पादक प्रदेश हैं, वहां कृषि की उत्पादकता में गिरावट आ सकती है। फलस्वरूप वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा तथा कृषि आधारित आजीविका के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका उत्पन्न हो गयी है।

विश्व की लगभग 98 प्रतिशत जनसंख्या अपने भोजन की आपूर्ति के लिए सीधे कृषि के ऊपर निर्भर करती है और इस जनसंख्या का न्यूनतम 75 प्रतिशत भाग, भोजन के साथ-साथ अपनी आजीविका भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से प्राप्त करता है। विकासशील और अल्प विकसित देशों में कृषि-आधारित आजीविका पर निर्भरता और भी अधिक है। भारत, चीन और ब्राजील जैसे घनी जनसंख्या वाले देशों में कृषि, खाद्य-सुरक्षा, आजीविका एवं अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। परंतु निर्धनता, घटती कृषि-भूमि, कृषि की कम उत्पादकता और विश्व की 75 प्रतिशत जनसंख्या का केन्द्र होने के कारण विकासशील देशों की कृषि जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।

तापमान और वर्षा के प्रतिरूपों में हो रहे व्यापक एवं तीव्र परिवर्तनों का प्रभाव संपूर्ण पृथ्वी के जल-चक्र तथा जल संसाधनों पर पड़ रहा है, जिससे भूमिगत जल, धरातलीय जल-प्रवाह एवं जल की उपलब्धता में उत्तरोत्तर गिरावट आ रही है, जबकि जल की मांग और उसके उपयोग की प्रतिस्पर्धा निरंतर बढ़ रही है। जल संसाधनों की उपलब्धता में हो रही इस विश्वव्यापी कमी के शुष्क एवं अर्थशुष्क क्षेत्रों की मृदा, सिंचाई और कृषि पर प्रभाव व्यापक, बहुआयामीय, दूरगामी एवं भयावह हो सकते हैं। जल संसाधनों की कमी का सर्वाधिक दुष्प्रभाव विकासशील देशों की कृषि प्रणाली और उसकी उत्पादन क्षमता के ऊपर पड़ेगा, क्योंकि इन देशों में निवास करने वाली विश्व की तीन चौथाई जनसंख्या की पहुंच पहले ही संसार के मात्र 5 प्रतिशत से भी कम जल संसाधनों तक सीमित है। जल संसाधनों की घटती हुई उपलब्धता एवं पानी की निरंतर बढ़ती मांग से विकासशील एवं अल्प विकसित देशों की कृषि सिंचन क्षमता में भारी गिरावट आने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

वैज्ञानिक पूर्वानुमानों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2080 तक वैश्विक उत्पादन में औसतन 5 से 20 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। एक ओर जहां यूरोप और उत्तरी अमेरिका के उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में 8 से 25 प्रतिशत तक कृषि उत्पादन में वृद्धि की संभावना है, वहीं 2080 तक विकासशील देशों के कृषि उत्पादन में 30 प्रतिशत तक की कमी आने की आशंका है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इनमें से अधिकांश देश अत्यधिक घनी जनसंख्या वाले हैं, जिनमें खाद्य उपलब्धता और पोषण का स्तर काफी न्यून है। विश्व खाद्य संगठन के अनुसार अफ्रीका जैसे शुष्क एवं अर्द्धशुष्क जलवायु वाले महाद्वीप में वर्ष 2100 तक खाद्यान्नों के उत्पादान में 50 प्रतिशत से भी अधिक की कमी हो सकती है। ध्यान रहे कि अफ्रीका महाद्वीप के अनेक शुष्क जलवायु वाले देश विगत कई दशकों से अकाल एवं भीषण कुपोषण का सामना कर रहे हैं। अत: स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव विकासशील एवं अल्पविकसित देशों की कृषि और आजीविका पर पड़ेगा, जहां पहले से ही विश्व की 98 प्रतिशत भूखी और कम से कम 50 प्रतिशत कुपोषित जलसंख्या निवास करती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इन देशों की खाद्य और पोषण सुरक्षा पर ही नहीं पड़ेगा, अपितु इन देशों की अर्थव्यवस्था, जन स्वास्थ्य, आंतरिक एवं वाह्य सुरक्षा, गरीबी उन्मूलन तथा पोषण-सुरक्षा के कार्यक्रम भी प्रभावित होंगे।

दक्षिण एशिया जिसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे घनी जनसंख्या वाले देश सम्मिलित हैं, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है। विश्व की आधी से अधिक जनसंख्या दक्षिण एशिया में निवास करती है, जिसमें संसार के सबसे निर्धनतम एवं कुपोषित लोग सम्मिलत है, जिनके भोजन और आजीविका का प्रमुख स्रोत वर्षा पर आधारित स्वनिर्वाह मूलक कृषि है। ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार विगत दशकों में दक्षिण एशिया में तापमान वृद्धि की दर बहुत उच्च रही है और वर्षा के प्रतिरूप में व्यापक परिवर्तन हुए हैं, बाढ़ एवं सूखे की घटनाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। प्रतिवर्ष बाढ़ और सूखे से प्रभावित जनसंख्या एवं कृषि क्षेत्र में अभिवृद्धि हो रही है। फलस्वरूप सूखा एवं बाढ़ प्रभावित फसलों की संख्या बढ़ रही है तथा कृषि फसल विफलता की घटनाएं समूचे दक्षिण एशिया में बढ़ती हुई प्रवृत्ति का स्पष्ट संकेत दे रही हैं। दक्षिण एशिया में विगत 50 वर्षों में बाढ़ की घटनाओं में विश्व के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक वृद्धि हुई है। विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार 2030 तक विश्व में बाढ़ की घटनाओं में लगभग तीन गुना वृद्धि हो सकती है तथा जलवायु परिवर्तन जनित बाढ़ से 6 करोड़ लोग और उनकी खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है, इसमें से 5 करोड़ लोग दक्षिण एशिया में होंगे। विश्व बैंक द्वारा 2018 में प्रकाशित साउथ एशिया क्लाइमेंट चेंज हॉटस्पॉट में पूर्वानुमान लगाया गया है कि आने वाले वर्षों में वैश्विक तापमान में तीव्र वृद्धि होगी, वर्षा का प्रतिरूप निरंतर परिवर्तित होता रहेगा तथा सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि एवं अल्पवृष्टि जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और गहनता बढ़ेगी। फलस्वरूप दक्षिण एशिया के लोगों का खाद्य एवं पोषण का स्तर और गिरेगा।

एशिया के मध्य में स्थित हिमालय पर्वत श्रेणी, दक्षिण एशिया का हेडवाटर अर्थात जल उद्गम क्षेत्र है। कुछ लोग हिमालय को एशिया का वाटर टॉवर भी कहते हैं। हिमालय द्वारा सृजित की जाने वाली महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवाएं जैसे जल और मिट्टी दक्षिण एशिया की कृषि एवं अर्थव्यवस्था का मूलाधार है, ये पयार्वरणीय सेवाएं हिमालय से निकलने वाली सिंधु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र सदृश विश्व की विशालतम नदियों द्वारा दक्षिण एशिया के मैदानों में पहुंचकर उनको उपजाऊ और समृद्ध बनाती हैं। काठमाण्डू, नेपाल में स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलेपमेंट की नवीनतम आंकलन रिपोर्ट के अनुसार हिमालय में औसत तापमान वृद्धि एवं हिमनदों के पिघलने की दर विश्व के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक है और इस क्षेत्र में अति वृष्टि, अल्प वृष्टि तथा सूखे की घटनाएं चिन्ताजनक रूप से बढ़ रही हैं। यही कारण है कि मध्य हिमालय के जलस्रोत जो गंगा नदी में 90 प्रतिशत जल का योगदान करते हैं, सूख रहे हैं। परिणामस्वरूप दक्षिण एशिया के मैदानों में भूमिगत जलस्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। सिंचाई, पीने और साफ-सफाई के लिए जल की उपलब्धता घटती जा रही है और उपजाऊ कृषि भूमि बाढ़ एवं सूखे से प्रभावित हो रही है। इस आधार पर समूचे दक्षिण एशिया में आने वाले वर्षों में जल, खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा की समस्या और चिन्ताजनक हो सकती है।
भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा, सबसे अधिक जनसंख्या वाला एवं कृषि प्रधान देश होने के कारण जलवायु परिवर्तन जनित प्रभावों से सर्वाधिक प्रभावित है। ये प्रभाव सिंचन क्षमता में कमी, सूखा एवं बाढ़ प्रभावित कृषि-क्षेत्र में अभिवृद्धि तथा कृषि-उत्पादकता में निरंतर गिरावट के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं। फलत: देश की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को सुदृढ़ करना एक गंभीर चुनौती बन सकती है। खाद्य तथा पोषण की असुरक्षा का सर्वाधिक प्रभाव भारत के निर्धन एवं वंचित वर्ग, जो देश की कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत से अधिक है, तथा महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ेगा, जो पहले से ही कुपोषण की समस्या से संघर्ष कर रहे हैं। विश्व बैंक के अनुसार 2050 तक जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 2.8 प्रतिशत की कमी आ सकती है तथा देश में 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या की उपभोग क्षमता एवं जीवन स्तर में गिरावट आ सकती है। जलवायु परिवर्तन से भारत की केवल खाद्य एवं पोषण सुरक्षा ही प्रभावित नहीं होगी, अपितु नमामि गंगे, स्वच्छ भारत मिशन, जल जीवन मिशन, खाद्य सुरक्षा तथा किसानों की आय दुगुनी करने जैसे कार्यक्रम भी प्रभावित होंगे।

अत: आवश्यकता इस बात की है कि विकासशील एवं अल्प विकसित देशों की कृषि पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर सकारात्मक सोच विकसित की जाय। सभी देश पृथ्वी के वायुमंडल के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए तापमान को नियंत्रित करने में अपने-अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने के लिए प्रभावी व समयबद्ध रणनीति बनाकर उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करें। विकसित एवं समृद्ध राष्ट्र अल्प विकसित एवं विकासशील देशों की कृषि प्रणाली को जलवायु अनुकूलित अर्थात क्लाइमेट स्मार्ट बनाने के लिए उनकी आर्थिक एवं तकनीकी क्षमता में वृद्धि करने को आगे आयें। वहीं विकासशील देशों को समुचित अनुकूलन प्रणाली विकसित कर जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी कृषि की प्रतिरोधक क्षमता में अभिवृद्धि करने की नीतियां एवं योजनाएं बनानी प्रांरभ करनी चाहिए। समन्वित भूमि एवं जल प्रबंधन, फसल चक्र तथा फसलों के प्रकार में परिवर्तन, मोटे खाद्यान्नों के उत्पादन को प्रोत्साहन, कृषि के अतिरक्त अन्य क्षेत्रों में आजीविका के अवसरों का सृजन और खेती में स्थानीय परंपरागत ज्ञान के अनुप्रयोग से कृषि की अनुकूलन प्रणाली को सुदृढ़ कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।

-प्रो पीसी तिवारी

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