संपादक महोदय, मैं 83 वर्ष का एक वरिष्ठ नागरिक हूं। पिछले 60 वर्षों से सर्वोदय तथा खादी के माध्यम से सामाजिक कार्यों में संलग्न हूं। आपने ‘सर्वोदय जगत’ पत्रिका को बहुत अच्छी ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। इसके माध्यम से जो संदेश आप आम जनता तथा इसके पाठकों को दे रहे हैं, वह बहुत ही प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय है। इसके हर अंक का संग्रह होना चाहिए, भविष्य की पीढ़ियों का मार्गदर्शन करके यह पत्रिका नया रचनात्मक इतिहास सृजित करने में सहायक हो सकती है, ऐसा मेरा मानना है।
आपने एक-दो अंकों में खादी पर आसन्न संकट तथा खादी क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन आ रही गिरावट पर भी संकेत किया है, लेकिन इन अंकों का फोकस केवल सूती खादी पर रहा। हम पहाड़ क्षेत्र वाले कार्यकर्ता व संस्थाएं ऊनी खादी के प्रशिक्षण, उत्पादन तथा उसके माध्यम से स्वरोजगार देने व लोगों को स्वावलंबी बनाने का कार्य करते आ रहे हैं। अतीत में यह बहुत समृद्ध उद्योग था, लेकिन सरकारी नीतियों ने इसको बिलकुल असहाय बना दिया। मैं पिछले साठ वर्षों से ऊनी खादी के काम को केन्द्र में रखकर सारे सार्वजनिक कार्य करता रहा हूं। वर्तमान में ऊनी खादी ही नहीं, यहां के सभी परम्परागत उद्योग, जो कभी विकेन्द्रित उद्योग थे तथा यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे, सब लुप्तप्राय हो गये हैं। इस बात से बहुत दुखी होकर मैंने प्रधानमंत्री; भारत सरकार को पत्र लिखा, लेकिन उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई, बल्कि उसके कारण मेरा उपहास ही हुआ.
पुराने गजेटियर्स के अनुसार पर्वतीय अंचल से किसी समय 120 वस्तुएं नीचे मैदान को निर्यात होती थीं, लेकिन आज हमारे लिए एक झाडू भी बाहर से आयात होता है. इस निर्यात में खादी के ऊनी उत्पाद मुख्य होते थे. केवल ऊन उद्योग ही नहीं, जल-संकट, कृषि और प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में सुधार आदि मुद्दों पर भी मैंने अनेक प्रयोग किये तथा इस हेतु शासन, प्रशासन, मुख्यमंत्री, अनेक राजनेताओं तथा सांसदों को अनेक पत्र कई बार भेजे, लेकिन आजतक कोई सकारात्मक जवाब या परिणाम नहीं मिला. बहुत निराश होकर अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जो लोग रचनात्मक विकास की कुछ सोच रखते हैं, उनका सत्ता क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं और जो लोग सत्ता में हैं, उनके पास कोई रचनात्मक सोच नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र का एक कार्यकर्ता या संस्था राजनीतिकों तथा सत्ताधारियों की नजर में किसी भी श्रेणी में शामिल नहीं है।
–सदन मिश्र
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