हिमांशु कुमार के पीआईएल को कोर्ट ने लंबे समय के बाद, यह कहकर खारिज कर दिया कि वे अल्ट्रा लेफ्ट और आतंकी गतिविधियों का बचाव करते हैं। हिमांशु का गांधीवादी कैंप में स्थान है और गांधीवादी निडरता के साथ उन्होंने पीआईएल करने के लिए कोर्ट द्वारा लगाए गए 5,00,000/- के जुर्माने की रकम देने की जगह जेल जाना स्वीकार किया है। जनतांत्रिक अधिकारों के लिए यह व्यक्तिगत सत्याग्रह है, जिसमें व्यक्ति का नैतिक बल उसे निडर बना देता है। संविधान में सभी को निर्भय रहने, अपने अधिकारों तथा जनतांत्रिक वातावरण की रक्षा करने और अदालतों तक जाने का अधिकार है।
जस्टिस भगवती ने सुप्रीम कोर्ट में पोस्टकार्ड द्वारा दिए गए आवेदन को भी पीआईएल मानकर लोक अधिकारों की सुनवाई की एक परंपरा शुरू की थी। इन दिनों अदालतें इसे हतोत्साहित करने में लगी हुई हैं। जब न्याय व्यवस्था और प्रक्रिया नागरिक सरोकारों का विषय बन गयी हो, तो पीआईएल को रोकने की ऐसी कोशिशों और हिमांशु कुमार जैसे कार्यकर्ताओं को जेल भेजने के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को पुनर्विचार करना चाहिए।
-प्रियदर्शी
चमोली का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। वायरल वीडियो में 15 जुलाई को जोशीमठ के हेलंग गांव में जंगल से घास ला रही महिलाओं से उनकी घास के गठरी छीनते पुलिस व केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जवान दिख रहे हैं। राज्य में जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर जंगल तथा पनघट, मरघट, चरागाह और पंचायत की भूमि पहले ही कंपनियों को दे दी गयी है। इन कंपनियों की नीयत अब लोगों की भूमि हड़प लेने की है। इससे आम ग्रामीणों के सम्मुख घास, चारा और लकड़ी का संकट पैदा हो गया है।
घसियारी महिलाओं पर हुआ यह अत्याचार निंदनीय, गैर कानूनी और चिंताजनक है। इस घटना द्वारा घसियारियों के नाम पर योजनाएं चलानी वाली सरकार ने दिखा दिया है कि उनका असली मकसद न तो वनों से जुड़ा हुआ है, न घसियारियों के कल्याण से। उत्तराखंड राज्य के वनों, नदियों और पहाड़ों को बचाने और इस राज्य के लिए न्याय के हर संघर्ष में घसियारा समाज हमेशा आगे रहा है। लेकिन वनाधिकार कानून पर अमल करके उनके अधिकारों को मान्यता देने के बजाय, सरकार उनके हक छीन रही है। यह कोई साधारण घटना नहीं थी। यह इस राज्य की संस्कृति, इतिहास और जनता के मूल अधिकारों पर हमला था। सरकार को जिम्मेदार अधिकारियों पर तुरंत कारवाई कर जनता और खास तौर पर महिलाओं के वनाधिकारों को मान्यता देने के लिए युद्धस्तर पर कदम उठाना चाहिए।
-विनोद बडोनी
आजादी के दौर में उन्नाव जनपद मूलतः कलम और क्रांति का केंद्र रहा था। सामाजिक परिवर्तन और आपसी सद्भाव की जो विरासत हमारे पुरखों ने हमें सौंपी, उस छवि को हमारे समय के राजनीतिक अपराधीकरण ने बहुत चोट पहुंचाई है। पतनशील, पूंजीपरस्त और अपराधग्रस्त राजनीति ने आज देश की समूची तस्वीर ही बदल दी है, आजादी के इस कौस्तुभ जयंती वर्ष में इस विषय पर आत्मचिंतन होना चाहिए, पर करेगा कौन? राजनीतिक, आर्थिक ताकतें तो ऐसा करने से रहीं और हमारा सोया हुआ, चेतनाहीन नागरिक समाज?
23 जुलाई को अमर बलिदानी चन्द्रशेखर आजाद के जन्मदिन पर उन्नाव में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला. इस आयोजन में दो बातों ने खास ध्यान खींचा। चंद्रशेखर आजाद और निराला के नामों के पहले पंडित और बाद में जातिसूचक शब्दों के उल्लेख की प्रवृत्ति देखी। पंडित चंद्रशेखर आजाद तिवारी और पंडि़त सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के नाम के बैनर और पोस्टर लगे थे। क्या यह प्रवृत्ति हमारे समय के पुनरुत्थानवाद की सूचना नहीं है? एक वरिष्ठ लेखक और विचारक ने इस विषय पर काफी बहस की। वे अंत तक यह मानने को तैयार नहीं हुए कि आजाद ने क्रांतिकारी आंदोलन में जातिसूचक शब्द हटाकर ही खुद को आजाद कहना शुरू किया था।
आजादी के अमृत महोत्सव काल में क्या हम सचेतन नागरिक जाति मिटाने की पहल का संकल्प ले सकते हैं? न केवल संकल्प, बल्कि उसे आचरण में ढालकर जड़ से मिटाने की वस्तुत: ईमानदार कोशिश कर सकते हैं? बेहतर होगा कि सवर्ण, उसमें भी ब्राह्मण जाति के हर क्षेत्र में स्थापित लोग खुद इसकी पहल करें। इससे भी बेहतर होगा, यदि हर जाति-समाज के छात्र-युवा जाति-विध्वंस का अभियान शुरू करें। बेशक यह कठिन लड़ाई है, जटिल लड़ाई है, किन्तु असंभव बिल्कुल भी नहीं है।
-दिनेश प्रियमन
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