समाज में बुनियादी परिवर्तन के लिए एक तीक्ष्ण विचार संपन्न व्यक्ति और एक समाज सुधारक की भूमिका में अंतर होता है। अनुवाद करने के क्रम में विचारधारा को बुनते हुए कनक ने काफी पैनी और जनतांत्रिक दृष्टि पाई थी। इस तरह सहज समाज सुधारक और स्पष्ट विचारक के रूप में कनक का व्यक्तित्व विलक्षण था। यह विलक्षणता छोटी-छोटी बातों को सहेज कर आई थी. निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकार ने पटना की एक संगोष्ठी में इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया था कि बिहार की देशज मिट्टी से उभरे संगठन छात्र युवा संघर्ष वाहिनी ने नारीवाद को पहचान दी थी। निश्चय ही यह महत्वपूर्ण है कि 1977 के बाद नारीवाद ने नगरों, कस्बों और देहात की ओर रुख किया था। इस दौर के जिन प्रखर नेताओं का नाम ससम्मान लिया जाएगा, उनमें से पटना की कनक का का नाम शीर्ष पर होगा।
इस दौर में पटना और पटना विश्वविद्यालय की एक टीम के रूप में नारीवादी पहल का विस्तार हुआ। उस समय की टीम की अन्य महिला नेता अभी भी मौजूद हैं। 1977 तक भारत में नारीवाद यूरोप या पश्चिम के प्रभाव में पनप रहा था और किताबों तथा दस्तावेजों के साथ-साथ 3, 4 महानगरों तक सीमित था। 1977 के बाद बने जनतांत्रिक परिवेश में मानवाधिकार आंदोलन, नारीवादी आंदोलन, अन्य शांतिमय भूमि संघर्ष, विकास नीति के विवेकीकरण के लिए आंदोलन, पर्यावरणवादी आंदोलन आदि का विस्तार हुआ। बोधगया आंदोलन में भूमिहीन दलित परिवारों में महिलाओं के बराबरी के सवाल हर घर में प्रवेश पाते चले गए तो इसके पीछे कनक की नेतृत्व दृष्टि थी। बोधगया आंदोलन में जिन एक दर्जन महिला नेत्रियों ने हिस्सा लेकर उसे गढ़ा था; कनक उनमें सतत और प्रखर भागीदार थीं।
भारत में 1985 के बाद अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का सिलसिला शुरू हुआ और तीसरा सम्मेलन पटना में हुआ था। इस दौर में एक्टिविज्म और एकेडमिक्स में एक महिला नेतृत्व की पहचान बन रही थी. अखिल भारतीय नारीवादी सम्मेलन, पटना के 1987-88 के दो प्रस्तावों ने बोधगया आंदोलन को इस अर्थ में विश्व में नायाब और सबसे अनूठा माना था कि भूमि पुनर्वितरण के बाद जारी किए गए जमीन के पर्चों पर मालिकाना हैसियत में पत्नी को पति के साथ बराबर स्थान दिया गया। इस तरह नारीवादी आंदोलन भले ही पश्चिम से या कम्युनिस्ट क्रांति के मुल्कों से पहचान प्राप्त करता रहा हो, परंतु भारत में यह मौलिक आंदोलन था और इसकी उपलब्धियां अखिल भारतीय महत्व की थीं।
वर्ष 1978 में कनक पटना साइंस कालेज में पीजी की विद्यार्थी थीं. एकदम उज्ज्वल, धवल वस्त्र में। 1978 से पटना विश्वविद्यालय के छात्र बोधगया आंदोलन के करीब दो सौ गांवों में अक्सर जाने लगे थे. कनक उनमें नियमित रहतीं. अनेक युवतियों ने उनका अनुसरण किया. यहीं हमारे अन्य नेताओं से, खासकर महिला नेताओं से अलग, सहज, सातत्यपूर्ण और जनतांत्रिक व्यक्तित्व की दिखती थीं।
गाँवों की परिपाटी में लोग महिलाओं को पुरुषों से अलग करके देखते. गांव में कार्यकर्ता, घरों में रोटेट कर खाना खाते. इस क्रम में एक बात होती- घर के लोग थाली धोने से रोकते. उस समय उनसे बहस होती. घर वाले कहते कि इस काम के लिए घर की औरतें हैं. यही चर्चा का विषय बन जाता. अपनी स्त्रियों को अपना बराहिल (कर्मचारी और दास) समझोगे, तो सामंती अधीनता में ही रहोगे.
इस तरह भुइयां समाज और अन्य वंचित वर्गों में नारीवाद की बुनियाद पड़ी. आगे इसी का विस्तार हुआ. सभी के बीच मसला यह था कि मुक्त की गयी जमीन के वितरण में सरकारी कागज (पट्टे) में स्त्री को मालिक माना जाये. काफी जद्दोजहद के बाद अंततः विश्व में पहली दफा, स्त्रियों को संपत्ति में बराबर का स्थान मिला.
टेक्सास यूनिवर्सिटी में इस आंदोलन पर पीएचडी शोध हुआ है. बोधगया आंदोलन जारी रहने से भूमि आंदोलन के संदर्भ में यह बात मजबूती से सामने आई कि सामंती संबंधों को बदलने के लिए हिंसा अपरिहार्य नहीं है। कनक बोधगया आंदोलन क्षेत्र में जीवन के अंतिम वर्षों में भी आती रहीं।
एक महिला की भूमिका को हमेशा आगे रखने के पूरे मूव से वाहिनी आंदोलन को काफी गहराई मिली। इनमें से कई बातें हैं, जो अब गुणक के रूप में कायम हो गई हैं और आगे बढ़ गई हैं। कनक बहसों में कई महत्वपूर्ण बातों को बहुत सहज रूप से रखती थीं। कई स्थापित परम्पराएँ टूटी थीं। लोग तुलसीदास के दोहे पर काफी प्रतिक्रिया देते थे।
ढोल गंवार शुद्र पशु नारी
यह सब ताड़न के अधिकारी
परंतु कनक सहज ही कहती थीं कि यह तुलसीदास के खुद के विचार नहीं थे, बल्कि उस समय समाज में व्याप्त विचार को उन्होंने रखा था।
मौलिक कथाएं, उपन्यास और साहित्य जगत की नियमित पाठक रहीं कनक प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों को पढ़ते हुए यह मान्यता रखती थीं कि साहित्य में तारीख के उल्लेख के बगैर, ज्यादा प्रामाणिक इतिहास होता है। और यह भी कि इतिहास की किताबों से कई बार साहित्य के पन्नों में इतिहास ज्यादा प्रामाणिक ढंग से मौजूद होता है।
कनक आज यदि होतीं, तो सामाजिक, राजनीतिक जीवन के पांच दशक पूरे करतीं। परंतु 2 मई 2021 के दिन कोविड-19 महामारी ने उन्हें निगल लिया। अब वे केवल हमारी यादों में ही मौजूद हैं.
-प्रियदर्शी
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