आज से छह साल पहले 8 नवंबर, 2016 को देश को एक नीतिगत झटका लगा था। देश की अर्थव्यवस्था, जो एक अच्छे प्रवाह के साथ गतिमान थी, अचानक ठप हो गयी। इसका सर्वाधिक गंभीर प्रभाव सर्वाधिक कमजोर वर्ग पर पड़ा, जो अपना जीवन निर्वाह बेहद कठिन हालात में करते हैं। ये लोग बड़े पैमाने पर उस असंगठित क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं, जिसमें 94% कार्यबल काम करता है। इस क्षेत्र के धंधे बहुत छोटे होते हैं और इसलिए वे नकदी पर धंधा करते हैं तथा बैंकिंग आदि का उपयोग कम-से-कम करते हैं। नकदी की कमी कम से कम एक वर्ष तक बनी रही और कम से कम दो महीने तक तो न के बराबर थी। यह क्षेत्र बहुत कम कार्यशील पूंजी के साथ काम करता है। ऐसे में एक हफ्ते के लिए भी लेन देन बंद हो जाय तो उनके लिए फिर से काम शुरू करना मुश्किल हो जाता है। फिर से काम शुरू करने के लिए वे अनौपचारिक बाजारों पर निर्भर होते हैं, जहां ब्याज दर ऊंची होती हैं जो उनकी अल्प आय को और घटा देती, जिससे उनकी गरीबी और बढ़ जाती है।
काले धन की अर्थव्यवस्था पर असर नहीं!
नोटबंदी इस गलत धारणा पर आधारित थी कि काले धन का अर्थ नकदी होता है। अगर यह सच था, तो अर्थव्यवस्था से नकदी को बाहर निकालने से काली अर्थव्यवस्था खत्म हो, लेकिन कैश काले धन के 1% से भी कम होता है। अगर सारा काला पैसा बैंकों में वापस आ भी जाता तो भी काले धन पर कोई खास असर पड़ता। इसके अलावा, लेन-देन के कम और अधिक इनवॉयस करने के आधार पर काले धन की आय का सृजन होता है जो कि अप्रभावित ही रहा। अगर काले धन की आय बनी रहती है, तो काला धन फिर से पैदा हो जाएगा। वैसे भी, आरबीआई के अनुसार सारी नकदी वापस आ गई, इसलिए काले धन का 1% भी प्रभावित नहीं हुआ। असल में, यह नए नोटों में परिवर्तित हो गया। हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में नकदी और भी बढ़ गई है।
अगर सरकार यह सोच रही थी कि काले धन को रोकने के लिए कम नकदी उपलब्ध हो तो 2,000 रुपये के नोटों की शुरूआत अजीब थी। बाद में इसने चुनावी बांड पेश किया, जो सत्ताधारी दल के लिए व्हाइट मनी की शक्ल में रिश्वत लेने का एक साधन बन गया। प्रभावी रूप से, विमुद्रीकरण ने काले धन की अर्थव्यवस्था पर कोई अंकुश नहीं लगाया, वह अभी भी कायम है। इस नीतिगत गलत कदम की कीमत गरीब जनता के लिए बहुत अधिक रही है।
अर्थव्यवस्था को झटका
जीडीपी का आधिकारिक डेटा असंगठित क्षेत्र के योगदान को स्वतंत्र रूप से नहीं मापता है। बड़े पैमाने पर, गैर-कृषि असंगठित क्षेत्र के योगदान को मापने के लिए संगठित क्षेत्र के डेटा को ही प्रॉक्सी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कृषि के लिए भी, यह माना जाता है कि लक्ष्य पूरा हो गया है, चाहे हुआ हो या नहीं। दरअसल, अर्थव्यवस्था को झटका लगता है, जैसे कि नोटबंदी से हुआ, तो जीडीपी के आकलन का पुराना तरीका अमान्य हो जाता है। संगठित क्षेत्र इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करके काम कर सकता है, इसलिए उसपर कम असर हुआ जबकि असंगठित क्षेत्र में स्पष्ट रूप से तेजी से गिरावट आई है, यद्यपि यह आंकड़ों में दिखायी नहीं पड़ता है।
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के साल (2016-17) की विकास दर उस दशक की उच्चतम वृद्धि दर थी। वर्ष 2016-17 के आंकड़ों में मौजूद त्रुटियों को आगामी वर्षों में भी आगे बढ़ाया गया। असंगठित क्षेत्र तब से अब तक उबर नहीं पाया है, लेकिन जीडीपी के आंकड़े यह नहीं दर्शाते हैं। संक्षेप में यह कि जीडीपी का अाधिकारिक आंकड़ा गलत रहा है।
इसके अलावा, यह गलत आधिकारिक आंकड़ा यह दर्शाता है कि 2017-18 की चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 8% से गिरकर 2019-20 की चौथी तिमाही में 3.1% हो गई। अर्थव्यवस्था की वृद्धि में यह गिरावट वास्तव में संगठित क्षेत्र के पतन का प्रतिनिधित्व करती है। यह मांग पर की गयी नोटबंदी और जीएसटी के निरंतर प्रभाव का परिणाम है। आखिरकार, अगर 94% श्रमिकों को रोजगार और आय में कमी का सामना करना पड़ता है, तो मांग और अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर असर होना तय है।
मांग में यह कमी दिखती है कि संगठित क्षेत्र की क्षमता का कम उपयोग किया जा रहा है। आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि यह लगभग 72% के करीब रहा है। यह निवेश को प्रभावित करती है, जो 2012-13 में सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 36% पर पहुंच गया था और पेंडेमिक के पहले गिर कर लगभग 32% हो गया था। यहां तक कि 2019 में कॉरपोरेट टैक्स की दर में भारी कटौती से भी अर्थव्यवस्था में अधिक निवेश को प्रोत्साहन नहीं मिला। मांग कम होने पर कंपनियों ने निवेश करने के बजाय अपने कर्ज को चुकाने के लिए अतिरिक्त लाभ का इस्तेमाल किया।
असंगठित क्षेत्र का गायब होना
सरकार पूरी तरह से संगठित क्षेत्र के आंकड़ों पर आधारित आधिकारिक गणना पर भरोसा करती रही है और अर्थव्यवस्था के मजबूत प्रदर्शन का दावा करती रही है। इसलिए, उसने असंगठित क्षेत्र के सामने आने वाले संकटों से निपटने के लिए कोई विशेष नीति बनाना आवश्यक नहीं समझा, इसीलिए नीतियों में सुधार नहीं किया है और संकट आजतक जारी है।
बेरोजगारी बढ़ गई है, खासकर युवाओं के लिए। यहां तक कि आधिकारिक तौर पर यह आंकड़ा महामारी से पहले ही 45 साल के रिकॉर्ड उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था। 15 से 29 वर्ष की आयु वर्ग के युवाओं के लिए यह आंकड़ा सर्वोच्च रहा है। साथ ही, यह भी दिखता है कि जितना ही अधिक शिक्षित व्यक्ति हैं, उतनी ही अधिक बेरोजगारी है। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी पिछले कुछ समय से घट रही है। रोजगार और आय के इस नुकसान के परिणामस्वरूप गरीबी बढ़ती जा रही है, क्योंकि परिवार के कम सदस्यों को ही काम मिल रहा है।
अगर आधिकारिक आंकड़ों पर भी जाएं, तो विकास दर में गिरावट का मतलब है कि आय का नुकसान कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये है। यदि असंगठित क्षेत्र में गिरावट के कुछ सबूत जोड़ लें, तो अर्थव्यवस्था की विकास दर 7% नहीं, बल्कि नकारात्मक निकलेगी। असंगठित क्षेत्र के लिए आय का नुकसान उपर्युक्त आंकड़े का गुणक होगा। इसलिए, नोटबंदी से जो नीतिगत संकट उत्पन्न हुआ है, उसकी कीमत कमजोर वर्गों के लिए बहुत अधिक है। इस वर्ग को मिलने वाले मुफ्त उपहारों और सरकारी सहायता के माध्यम से दिये जाने वाले सारे लाभ, नोटबंदी के बाद से उन्हें हुए नुकसान का केवल एक छोटा अंश भर हैं।
निष्कर्ष
यदि नोटबंदी काले धन की अर्थव्यवस्था को समाप्त करने में सफल भी होती तो क्या यह असंगठित क्षेत्र की कीमत पर उचित होता? असंगठित क्षेत्र, जहां आय टैक्स की सीमा से काफी कम है, काला धन पैदा नहीं करता है। इसलिए, नोटबंदी ने उन लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला, जिनका काले धन की आमद से कोई लेना-देना नहीं है, जबकि काला धन पैदा करने वालों को लाभ हुआ है। इसी तरह जहां काले धन की अर्थव्यवस्था लोकतंत्र को कमजोर करती है, वहीं विपक्षी नेताओं की काली कमाई के खिलाफ मौजूदा सेलेक्टेड अभियान इसे और भी कमजोर कर रहा है। ये काले धन की अर्थव्यवस्था के खिलाफ हमारी लड़ाई के अनपेक्षित परिणाम हैं, हमें इनसे बचना चाहिए।
-प्रोफेसर अरुण कुमार
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