Writers

झारखण्ड में अब तो कुछ अभिनव पहल हो

केन्द्र द्वारा झारखण्ड के साथ सौतेलेपन का बर्ताव किया जा रहा है. ऐसा यहां की सरकार कह रही है. यदि वास्तव में ऐसा है, तो वाकई दु:खद और चिंताजनक है, क्योंकि केन्द्र के पास कई शक्तियां हैं, जिनका इस्तेमाल कर किसी राज्य का या तो भला कर सकती है या फिर बुरा.

झारखंड राज्य की उम्र पूरे 21 साल हो गई. इस लम्बे अंतराल में इसने काफी उतार-चढ़ाव देखे. अब यह युवा हो गया है. राज्य के अंदर अब तक 5 विधानसभा चुनाव हुए हैं. 21 साल पुराने इस राज्य में 11 बार मुख्यमंत्री बदले, 6 मुख्यमंत्रियों ने अब तक सरकार चलाई है. हेमंत सोरेन 7 वें मुख्यमंत्री हैं. इसे अलग राज्य बनाने के पीछे मकसद था कि तेजी से इसका चहुंमुखी विकास हो. हालाँकि बिहार के साथ-साथ बंगाल, ओडिसा और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक वृहद् झारखण्ड की मांग उठाई गई थी, लेकिन केंद्र ने छोटे राज्य की वकालत करते हुए इसे खारिज कर सिर्फ दक्षिण बिहार को ही झारखण्ड का स्वरूप दिया.


बिहार में रहकर छोटानागपुर और संथाल परगना का इलाका सदा ही उपेक्षित रहा. खनिज-सम्पदा से भरपूर इस क्षेत्र के लोगों की दशा दयनीय थी. झारखण्ड बना तो उम्मीद जगी, कि अब यहां अपना राज होगा। अपने लोग राज्य की बागडोर संभालेंगे, जो अपनों के दुःख-दर्द को करीब से महसूस करते हैं, झारखण्ड का दुर्भाग्य यह रहा कि इन 21 सालों में ज्यादा समय तक यहां बहुमत की सरकारें नहीं बन पाईं. खैर, झारखण्ड में अब तो कुछ ठोस कार्य हों. बहुत ठगी गई यहां की जनता. अब और नहीं. सरकार विवेकपूर्ण ढंग से जनता का शासन करने के बजाय उसके कल्याण हेतु कार्य करे.


स्थानीय नीति
स्थानीय नीति का मामला लम्बे समय से लंबित है. इस नीति को लागू करने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? इसलिए पड़ रही है, क्योंकि बिहार में रहते हुए इस क्षेत्र की जो हालत थी, वही हालत अभी भी बनी हुई है. ज़्यादातर नौकरियां, सुविधाएं आदि बाहरी लोगों द्वारा हाईजैक कर ली जा रही हैं. इसी कारण तो झारखण्ड अलग किया गया, ताकि यहां के आदिवासियों-मूलवासियों, दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों को समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके, लेकिन अब तक इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति ही हुई है. इसके कारण प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था. हर बार चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों ने जनता से वोट लेने के लिए बड़े-बड़े वादे किए, परन्तु पावर में आने के बाद वे प्रायः बिसार दिए गए. स्थानीय नीति का विषय भी कैरी फॉरवर्ड होता रहा.


अब मौजूदा सरकार द्वारा झारखंड के प्राइवेट सेक्टर में 75% आरक्षण की बात की जा रही है, दूसरी तरफ अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि यहां का स्थानीय कौन है। इस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सदन को भरोसा दिलाया कि सरकार नियोजन और स्थानीय नीति पर काम कर रही है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मौजूदा सरकार इस पर क्या कुछ कर पाती है.


जल-जंगल-ज़मीन का मुद्दा
जल-जंगल-ज़मीन का मुद्दा महज़ एक राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया है. यहां के आदिवासी हमेशा इस पर आवाज़ उठाते रहे हैं. आदिवासी समुदाय का जीवन जल, जंगल, जमीन से जुड़ा है। यह सर्वविदित है कि इन पर सबसे पहला हक आदिवासियों और झारखंडियों का है, लेकिन माफिया तत्वों द्वारा बदस्तूर इनका दोहन जारी है. अफ़सोस की बात यह है कि सरकारी मशीनरी द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से माफियाओं के मदद की जाती रही है.


यहां पिछले कई वर्षों से जल-जंगल-ज़मीन पर हो रही लूट के खिलाफ संघर्ष चलता रहा था। इन संघर्षों पर भीषण दमन किया गया. सीधे संविधान का दुरुपयोग करते हुए संघर्षों को दबाने का प्रयास हुआ. झारखंड में चले पत्थलगढ़ी के आंदोलन में हज़ारों लोगों पर फर्जी मुकदमे लगाए गए. सभी पर देशद्रोह का आरोप लगा. यह सब पांचवीं अनुसूची के संवैधानिक अधिकार की मांग किए जाने पर हुआ. हालाँकि वर्तमान सरकार इस मामले पर कुछ नरम रुख अपना रही है, जो अच्छा संकेत है. फिर भी जन जातीय समुदाय को न्याय के लिए लम्बे संघर्ष की राह अपनानी होगी.


वन अधिकार क़ानून
झारखण्ड में वनों की बहुलता है और इन पर सबसे पहला हक झारखण्ड के वनवासियों का है. वन, जहां आदिवासी आदिकाल से रहते आए हैं. आदिवासी समुदाय के रग-रग में समाई हुई है जंगलों की आबोहवा. इसीलिए तो ये स्वयं को जंगल में ही सुरक्षित महसूस करते हैं. समय के साथ-साथ शेष विश्व में काफी बदलाव आया, लेकिन इनकी जीवन-शैली में कोई ख़ास बदलाव नहीं देखा गया. इसका कारण यह है कि जनजातीय समुदाय बाहर की दुनिया में खुद को कभी समायोजित कर ही नहीं पाया. जंगल इनके माता-पिता, बंधू-सखा सबकुछ होते हैं. ऐसे में इनके लिए बनाए गए सरकार के क़ानून इन्हें रास नहीं आ रहे. बाहरी हस्तक्षेप के कारण इनका जीवन बहुत प्रभावित हो रहा है, जो आक्रोश का रूप अख्तियार करने लगा है. जल-जंगल-ज़मीन पर अनावश्यक हस्तक्षेप की वजह से भी जंगल या उसके समीपवर्ती इलाकों में रहने वाले कुछ युवाओं ने मजबूरन हिंसा का मार्ग चुना है. इसके लिए काफी हद तक तथाकथित सभ्य समाज के लोग और सरकारें ज़िम्मेदार हैं. तो क्या है समाधान? कैसे आदिवासियों की अस्मिता की रक्षा हो? कैसे वन अधिकार कानून की व्यावहारिकता सार्थक हो? इसके लिए ज़रूरी है कि उनकी संस्कृति और परंपरा के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ न हो. वनों की रक्षा वनवासियों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है.


पेसा कानून
पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून के तहत ग्राम सभाओं को आदिवासी समाज की परंपराओं, रीति रिवाज, सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल के लिए सक्षम बनाने की बात है. लोगों के पुनर्वास के काम में अनिवार्य परामर्श की शक्ति दी गई है. पेसा क़ानून को आए पच्चीस साल पूरे हो गए हैं. आदिवासी बहुल इलाकों में स्थानीय समाज को मजबूती देने के लिए लाया गया यह कानून आज खुद की प्रासंगिकता के सवालों से जूझ रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है ? सरकारों की क्या भूमिका होनी चाहिए थी इस क़ानून को प्रभावी बनाने में? पांचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र में रह रहे लोगों को इससे मिलने वाले अधिकारों के लिए कितना इंतज़ार करना पड़ेगा या ऐसे ही अपने हक के लिए संघर्ष करते रहना पड़ेगा? क्या पेसा क़ानून महज़ कागजों में सिमटकर रह जाएगा?


ग्राम सभा
ग्राम सभा की अनिवार्य बैठकों की संख्या राज्य पेसा नियम, राज्य पंचायती राज अधिनियम और राज्य पंचायती राज नियम के अनुसार होगी. कई राज्यों में एक वर्ष में ग्राम सभा की न्यूनतम चार अनिवार्य बैठकों का आयोजन करना अनिवार्य है. सरपंच का अनुमोदन मिलने के बाद पंचायत सचिव को ग्राम सभा का गठन करना चाहिए. ग्राम सभा के 10% सदस्यों द्वारा अथवा ग्राम सभा के 50 व्यक्तियों द्वारा ग्राम सभा के आयोजन हेतु अनुरोध किए जाने पर ग्राम पंचायत का सरपंच ग्राम सभा की बैठक बुलाता है. यह तो सैद्धांतिक बातें हैं, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर क्या ऐसा हो रहा है? शायद नहीं. पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद ग्राम सभा के अधिकार कुंद हो गए. त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था की खामियों को दूर किए बगैर गांवों का कल्याण संभव नहीं है. योजनाएं ऊपर से थोपी जाती जाती रहेंगी. पंचायत के साथ एक तारतम्य बिठाने की ज़रूरत है, ताकि गांव वालों के हाथों में गांव के शासन की बागडोर हो.


विस्थापन
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसी साल मार्च में कहा था कि सरकार राज्य में विस्थापितों की हर समस्या का समाधान निकालेगी. इसके लिए जरूरत पड़ी तो पुर्नवास व विस्थापित आयोग का गठन किया जाएगा. विपक्ष ने सरकार में रहते हुए 20 साल तक विस्थापन की चिंता नहीं की. एचईसी के लिए सरकार की ओर से 9200 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गयी थी. इससे 3200 परिवार विस्थापित हुए थे. स्वर्णरेखा परियोजना, कोयलकारो, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज, जैसी दर्जनों छोटी-बड़ी योजनाओं के कारण झारखण्ड में बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है, जिनका सही तरीके से पुनर्वास नहीं हुआ है. सिर्फ कहने से कुछ नहीं होगा, ज़मीनी स्तर पर परिणाम चाहिए. चार दशकों से स्वर्णरेखा परियोजना के तहत विभिन्न कार्य लंबित हैं. सिर्फ चांडिल बांध के निर्माण में ही खरबों रुपए खर्च हो गए, लेकिन काम पूरा नहीं हुआ, न नहर का, न पुनर्वास का. न तो चांडिल बाँध से अभी तक विद्युत उत्पादन की इकाई चालू हो सकी है और न ही विस्थापितों व स्थानीय लोगों को नियोजित करने का कार्य पूरा हुआ. इस बाँध के कारण चांडिल अनुमंडल क्षेत्र के आंशिक व पूर्ण रूप से कुल 116 गांव विस्थापित हुए हैं. हज़ारों लोगों को इस बाँध के कारण अपनी पुश्तैनी ज़मीनें छोड़नी पड़ी हैं. लोगों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा. समुचित पुनर्वास और रोज़गार देकर इस दर्द को मिटाया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. हां, विस्थापितों के पैसों से सरकारी अफसरों, ठेकेदारों और दलालों की तिजोरियां ज़रूर भरी. कमोबेश यही दशा ऐसी सभी परियोजनाओं की रही है.


कृषि
कृषि देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लोगों का पेट भरने का अनाज किसान ही पैदा करता है, परन्तु किसानों की बदकिस्मती यह है कि उन्हें कभी संसाधनों से लैस नहीं किया जा सका. झारखण्ड की बात की जाय, तो यहां भी कमोबेश वही स्थिति है. मानसून के साथ जुआ खेलना पड़ता है हमारे किसानों को. सिंचाई के पुख्ता इंतज़ाम नहीं किए जा सके. कई योजनाएं लाई भी गयीं, मगर वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयीं. पिछली सरकार ने डोभा निर्माण योजना चलाई, जो फेल रही. चेक डैम भी ज्यादातर फेल रहे. लिफ्ट सिंचाई कुछ हद तक सफल रही, मगर उसको विस्तार नहीं दिया जा सका. नतीजतन झारखण्ड के अधिकांश किसान अर्द्ध बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं. महज़ खरीफ की खेती हो पाती है, वह भी वर्षा ठीक से होने की स्थिति में. कृषि से जुड़े कई छोटे-छोटे उद्योगों के ज़रिए किसानों को समृद्ध किया जा सकता है. कृषि के साथ-साथ पशुपालन एक अहम् और बेहतर विकल्प है, क्योंकि इसके अनुकूल वातावरण है यहां. हर-भरे जंगलों से परिपूर्ण सत्ता में बैठे लोगों का मन बने, तब तो बात बने. चुनाव के समय राजनेता तो बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन सरकार में आने के बाद अक्सर वे वादे बिसार देते हैं. मेरे विचार से इन दो दशकों में कृषि के क्षेत्र में औसत कार्य हुआ है. राज्य की कृषि को यदि उन्नति करनी है, तो सरकार को अभिनव पहल करनी होगी. कार्य चुनौतीपूर्ण है.


खनिज-सम्पदाओं का दोहन
खनिज संपदाओं से भरपूर झारखण्ड राज्य की जनता बदहाल क्यों है ? यहाँ लोहा, मैंगनीज़, अभ्रक, सोना, यूरेनियम आदि के अकूत भण्डार है, लेकिन आम झारखंडी गरीब क्यों है ? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब शायद सत्ता पाने के लिए अपनी ऊर्जा लगाने वाले नेताओं के पास नहीं होंगे, क्योंकि वे भी मैली-कुचैली व्यवस्था के ही कहीं न कहीं अंग हैं. संभवतः यह उनकी विवशता है. आज चुनाव लड़ना एक व्यवसाय की तरह हो गया है. इसमें लोग निवेश करते हैं. 5 साल में निवेश का कई गुना वापस चाहिए. ऐसे में जनता की सुधि लेने वाले लोगों की ज़रूरत है. कर्मठ, सच्चे और ईमानदार लोगों को अगुआई करनी होगी.

-शशांक शेखर

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

सर्वोदय जगत (16-31 अक्टूबर 2024)

Click here to Download Digital Copy of Sarvodaya Jagat

2 months ago

क्या इस साजिश में महादेव विद्रोही भी शामिल हैं?

इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…

2 months ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

1 year ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

2 years ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

2 years ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

2 years ago

This website uses cookies.