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कब बनेगा ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ का कानून!

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा भेजने के पश्चात देश में उंगलियां उठना शुरू हो गयीं तथा देश में यह संदेश गया कि शासन के पक्ष में फैसला करने पर न्यायधीशों को सरकार पुरस्कृत करती है.

देश की सबसे बड़ी अदालत ने ‘कूलिंग ऑफ़ पीरियड’ का कानून बनाने की जिम्मेदारी विधायिका पर छोड़ दी है, मतलब स्पष्ट है कि कानून बने तभी चुनाव प्रक्रिया में सुधार का नया दौर शुरू हो सकता है। हालांकि चुनाव आयोग ‘कूलिंग ऑफ़ पीरियड’ तय करने के पक्ष में रहा है, लेकिन महज सुझाव तक ही बात आकर अटक गई। कई साल पहले भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली ने तो जजों के लिए भी कूलिंग ऑफ़ पीरियड के कानून की वकालत की थी। उनका कहना था कि जजों की सेवानिवृत्ति से पहले दिये गये उनके फैसले सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले फायदों से प्रभावित होते हैं।


सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा में भेजने के पश्चात देश में उंगलियां उठना शुरू हो गयीं तथा देश में यह संदेश गया कि शासन के पक्ष में फैसला करने पर न्यायधीशों को सरकार पुरस्कृत करती है. देश को उम्मीद थी कि कानून के ज्ञाता राज्यसभा में पहुंचे हैं, तो यूएपीए जैसे कानून बनाये जाते समय वे अपना सशक्त प्रतिरोध रखेंगे, परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि सदन में बोलते हुए उनकी तस्वीर भी इस देश की जनता ने अभी तक नहीं देखी है। इस देश में कानून, देश की जनता के हित के लिए बनाये जाते हैं, कानून के लिए जनता नहीं बनाई जाती, इस फर्क को हमारी विधायिका को समझना होगा।

जब कोई नौकरशाह अचानक किसी दल की ओर से बतौर उम्मीदवार सामने आता है तो उसके पिछले कार्यकाल को लेकर उसके वर्तमान राजनीतिक दल से प्रभावित होने का संदेह उठ खड़ा होता है। आम जनता के बीच यह चर्चा का विषय मेरे ख्याल से इसलिए नहीं बन पाता कि लोग सोचते हैं कि जिलाधीश, न्यायाधीश, पुलिस अधिकारी आदि पदों पर आसीन रहा व्यक्ति राजनीति में पदार्पण करेगा तो देश तरक्की करेगा, लेकिन वास्तविक स्थिति कुछ और है. नौकरशाह जब अचानक राजनीति में पदार्पण करते हैं, तो उन्हें देश के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति के दर्द और पीड़ा का एहसास नहीं होता। कानून का ज्ञान उन्हें अवश्य होता है, क्योंकि उन्होंने कानून का अध्ययन किया है, लेकिन समाज का अध्ययन ना किये जाने के कारण समाज का ज्ञान उन्हें नहीं होता।

नौकरशाह आज भी निष्पक्ष होकर अपना काम नहीं कर पाते, कार्यपालिका विधायिका के अनुसार काम करती है, इसी कारण नौकरशाहों को समाज के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति की तस्वीर दिखाई नहीं देती और इसी कारण वे संसद में पहुंचने के बाद बनने वाले कानूनों पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते। हमें हमारे देश में समाज का अध्ययन करके कानून बनाने वालों की आवश्यकता है; जैसे स्वर्गीय मधु लिमये जैसे लोग किया करते थे। मधु लिमये पर लगभग 32 झूठे मुकदमे लादे गये थे, अपने मुकदमों की पैरवी वे स्वयं करते थे. जब वे पैरवी करते थे, तब न्यायाधीश मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातों को सुनते थे. उनके द्वारा की गई बहस पर निर्णय में प्रतिक्रिया भी देते थे। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज ऐसी शख्सियतें नहीं रहीं, जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है।

सरकारें अदालतों में सबसे बड़ी मुकदमेबाज हैं, यह बात हमारे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कही और हम प्रतिदिन देखते हैं कि न्यायालय में लम्बित मामले यह दर्शाते हैं कि सरकार अगर चाहे तो खुद फैसले लेकर बढ़ते हुए मामलों की संख्या पर अंकुश लगा सकती है। आपराधिक मामलों में अगर हम देखें तो सरकार के इशारे पर पुलिस फर्जी मुकदमे बनाकर न्यायालय में पेश तो कर देती है, किन्तु उनके शीघ्र निपटारे में सरकार एवं पुलिस की कोई रुचि नहीं होती। सरकारी गवाह के अभाव में मुकदमे सालों लम्बित रहते हैं, सरकारी गवाह को न्यायालय में उपस्थित करना पुलिस की जिम्मेदारी होती है, जिसका निर्वहन करते देश की पुलिस कम ही दिखाई देती है। सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को फर्जी मुकदमों में फंसाकर सरकार अपने आपको गौरवान्वित महसूस करती है।

हाल ही में चीफ जस्टिस ऑफ़ इण्डिया ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में, कार्यपालिका और विधायिका पर अपनी पूरी क्षमता से काम न करने का अरोप लगाते हुए कहा था कि कार्यपालिका न्यायिक आदेशों की अवहेलना भी करती है। अदालत की अवमानना के बढ़ते मामले इसका प्रमाण हैं। सरकार के खिलाफ न्यायालय की अवमानना के अनेक प्रकरण लम्बित पड़े हैं। उच्चतम न्यायालय के स्थगन आदेश के बावजूद राजधानी दिल्ली की जहांगीरपुरी में कुछ समय तक सरकार बुलडोजर चलाती रही, न्यायिक निर्देशों के बावजूद सरकारों का जानबूझकर निष्क्रियता दिखाना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। न्यायपालिका की टिप्पणी कार्यपालिका को बेहद गम्भीरता से लेनी होगी। अनेक सरकारी एजेन्सियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मुकदमों के तमाम मामले सुप्रीमकोर्ट के सामने बहस हेतु लम्बित हैं। सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वालों पर यूएपीए के मामले तत्काल रजिस्टर करके उन्हें जेल के सींखचों में डाल दिया जाता है। यूएपीए के मामलों में सजा की दर 2.1 प्रतिशत है। 98 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने गिरफ्तार तो कर लिया लेकिन अपेक्षित साक्ष्य नही जुटा पाई, परिणाम स्वरूप न्यायिक प्रक्रिया में कोर्ट का समय ही खराब हुआ और जनता का न्यायपालिका से विश्वास घटा। देश की जनता का न्यायापालिका से विश्वास घटना लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।

-आराधना भार्गव

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