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कभी मुस्लिम बच्चों को कुरान पढ़ाते थे कश्मीरी पंडित

जिस समाज में शांति है, उस समाज से बढ़िया कोई समाज नहीं हो सकता। यहां के पंडित, कभी मुस्लिम बच्चों को कुरान पढ़ाया करते थे, क्योंकि पंडित पढ़ने-पढ़ाने का काम ही करते थे. कोई भी शादी हो, बिना पंडित के पूरी नहीं हो सकती थी। हजारों घरों वाले इस गांव में पंडितों के पांच परिवार चैन से रह रहे थे, पर 1990 के आतंकवादी हमले ने हमें पलायन के लिए मजबूर कर दिया। पढ़ें, कश्मीर की छह दिवसीय यात्रा से लौटे गांधीजनों का अनुभव.

हम एक नए कश्मीर देख कर लौटे हैं। यह सही है कि 6 दिनों का दौरा करके कश्मीर का पूरा सच बयान नहीं किया जा सकता, पर मैंने अपने 6 दिनों की यात्रा में वहां वहां जो देखा, वह अबतक जाने सुने कश्मीर से बिल्कुल अलग था। सोचता हूं कि आतंकवाद से पीड़ित कश्मीर की स्थिति आखिर क्यों बिगड़ी? 1987 में हुए विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस गठबंधन और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) के बीच था। फ्रंट के साथ कश्मीर के युवाओं का पूरा सपोर्ट था और जहां-जहां वह मजबूत था, वहां-वहां 80% से अधिक पोलिंग हुई, परंतु परिणाम उल्टा आया, गठबंधन बुरी तरह हार गया। कश्मीर के पंडित, मुस्लिम और डोंगर बाशिंदे बताते हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस को जबरन जिताया गया। 1990 में फारूक अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और राज्य में राज्यपाल शासन लागू हो गया। दबा हुआ गुस्सा अचानक बाहर आया और स्थानीय युवकों ने बंदूक उठा ली, कश्मीर के जीवन में जहर यहीं से घुलना शुरू हुआ। कहा जाता है कि उस दौर में हजारों कश्मीरी पंडित, मुस्लिम और सिख मारे गए। जो विष 1990 में घुला, उसकी गूंज आज भी सुनाई पडती है, पर यह पूर्ण सत्य नहीं है।
कश्मीरी अवाम को आमतौर पर तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है- कश्मीरी पंडित, कश्मीरी मुस्लिम और अन्य (डोंगरी, राजपूत, सिख इत्यादि)। हम वहां तीनों समुदायों के लोगों से मिले, इनमें सबसे बुरी स्थिति कश्मीरी पंडितों की है, पर वे अपनी इस स्थिति के लिए मिलिटेंट से अधिक सरकार को दोषी मानते हैं। हमलोग (हम चार साथी थे) कश्मीरी पंडितों के घरों और कैंपों में भी गए। पंपोर में हम एक कश्मीरी पंडित के घर, उनके एक मुस्लिम पड़ोसी के सहयोग से पहुंचे। मन में एक बैचेनी और तनाव था कि कैसे उनका सामना करेंगे। उस कश्मीरी मुस्लिम युवक ने दरवाजा खुलवाया और हमारे आने का उद्देश्य बताया, उन्होंने हमारा सहर्ष स्वागत किया, उनका तीन लोगों का एक छोटा-सा परिवार था। हमारी बातचीत होने लगी, उनका कहना था कि जिस समाज में शांति है, उस समाज से बढ़िया कोई समाज नहीं हो सकता। यहां के पंडित, कभी मुस्लिम बच्चों को कुरान पढ़ाया करते थे, क्योंकि पंडित पढ़ने-पढ़ाने का काम ही करते थे. कोई भी शादी हो, बिना पंडित के पूरी नहीं हो सकती थी। हजारों घरों वाले इस गांव में पंडितों के पांच परिवार चैन से रह रहे थे, पर 1990 के आतंकवादी हमले ने हमें पलायन के लिए मजबूर कर दिया। हमारे भाई को मारकर पेड़ पर लटका दिया गया और हमें कश्मीर छोड़ने का आदेश मिला, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहने को कहा गया। हमने पूछा कि क्या मारने वाले या कश्मीर छोड़ देने का आदेश देने वाले स्थानीय लोग थे? उन्होंने कहा कि नहीं, सभी अफगानी थे। यह पूछने पर कि आपके पड़ोसी आपको बचाने आगे क्यों नहीं आए? इस पर उन्होंने बहुत ही मासूम-सा जवाब दिया कि बंदूक के सामने अपने भाई को बचाने जब सगे भाई नहीं आए, तो वे कैसे आते। आगे वे कहते हैं कि अभी भी 40 प्रतिशत पड़ोसी अमन और शांति पसंद हैं। 1990 में हम यहां से पलायन करके जम्मू पहुंच गए। हम ठंडे प्रदेश के रहने वालों का जम्मू के गर्म परिवेश में रहना बहुत मुश्किल था, ऊपर से ऐसी स्थिति में सरकार ने हमें रहने के लिए प्लास्टिक का टेंट दिया था। गर्मी और रहने की कुव्यवस्था से कई पंडितों की मौत हो गई। स्थानीय जम्मूवासियों का व्यवहार अमानवीय था, वे हमारे बच्चो को स्कूलों में दाखिला नहीं लेने देते थे। हमने अपने बच्चों को खुद पढ़ाया, दुकानदार सामान नहीं देते थे और जहां हमें पोस्टिंग दी गई, वहां ड्यूटी नहीं करने दिया जाता था। हम ‘आकाश से गिरे खजूर पे अटके’ वाली स्थिति में आ गए थे।


2010 में मनमोहन सरकार ने कश्मीरी पंडितों को एक पैकेज दिए जाने की घोषणा की कि जो कश्मीरी पंडित अपने घर वापस आयेंगे, उनको 6 हजार रुपए सैलरी की एक सरकारी नौकरी दी जाएगी. इसके बाद हम वापस आ गए, लेकिन यहां कुछ नहीं बचा था। हमारे घरों को जला दिया गया था, सेब के बगान को काटकर खत्म कर दिया गया था। अपनी आधी जमीन बेच कर हमने यह मकान पुनः बनाया, जिसमें अभी हमारा परिवार रह रहा है। हालात सामान्य होने लगे थे, तभी भाजपा की केंद्र सरकार ने धारा-370 हटा दी और तभी से हालात फिर से बिगड़ने लगे. हम पिछले साढ़े तीन वर्षों से घर से बाहर नहीं निकले हैं. न कोई हमारे यहां आता है, न हम किसी के यहां जाते हैं। वर्षों से हम अपने घरों में गुलाम की तरह कैद हैं। बाहर भारतीय सेना का बंकर बना हुआ है, जहां 24 घंटे सेना का पहरा रहता है, शायद उसी कारण हम सुरक्षित भी हैं। हम कहीं आ-जा नहीं सकते. यहां भी हम केवल सैलरी लेने सेना के संरक्षण में महीने में एक दिन बाहर जाते हैं। जब हम उनके घर से जाने के लिए निकलने लगे तो बुजुर्ग कश्मीरी पंडित ने कहा कि अगर आप लोगों की थोड़ी भी पहुंच है, तो हमें यहां बाहर निकलवा दें।

पुलावाम से सटी हुई विशु पंडित कॉलोनी में हमारा कोई विशेष संपर्क सूत्र नहीं था, पर स्थानीय साथी मोहमद गुल ने हमलोगों का संपर्क यहाँ के कश्मीरी पंडितों से कराया। यह कॉलोनी केवल कहने भर को थी, इसकी बसावट एक बड़े जेल की तरह थी, जो ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरी हुई थी। पूरी कॉलोनी मिलिट्री पुलिस की सुरक्षा में थी। यहां हमें 10-15 कश्मीरी युवक मिले, जो विभिन्न सरकारी नौकरियों में लगे हुए थे। इस कॉलोनी में लगभग 200 कश्मीरी परिवार रह रहे हैं। ये लोग भी 2010 में मनमोहन सरकार द्वारा दी गयी पॅकेज स्कीम के अंतर्गत ही अपने घर वापस लौटे थे, इनका भी अनुभव बहुत बुरा है। उन्होंने बताया कि हमारे हालत बदलने लगे थे। मोदी जी के आने से हम बहुत खुश भी थे, तभी धारा 370 हटा दी गयी और अचानक माहौल बदलने लगा, कश्मीर पुनः वापस भय के माहौल में चला गया। हम यहां से बाहर अच्छी स्थिति में थे, सभी कहीं न कहीं नौकरी कर रहे थे। हम यह सोचकर अपने घर वापस लौटे कि अच्छे से जीवन व्यतीत करेंगे, पर हम अपने ही घर में रिफ्यूजी की तरह रहने को मजबूर हैं। हमारा घर यहां से केवल 3 किलोमीटर दूर है, पर 12 वर्षों से हम वहां नहीं गये। हम यहां दो कमरों के एस्बेस्टस से बने घर में रह रहे हैं, जबकि गांव में हमारा 22 कमरों का घर है। हमारे बच्चे बाहर पढ़ने जाते है। जब तक वे घर वापस नहीं लौटते, हमें चैन नहीं मिलता। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हम दो बार उनसे कश्मीर में मिले, हमने उनसे स्कूल के लिए कहा था, उसका भवन भी बन गया पर उनकी सरकार के सत्ता से हटते ही वह काम आजतक दोबारा शुरू नहीं हुआ। जब सत्यपाल मलिक यहां के राज्यपाल थे, तो अच्छा काम कर रहे थे, पर उन्हें हटा दिया गया। दरअसल, सरकार हमारे लिए कुछ करना नहीं चाहती। हमने उनसे प्रश्न किया कि आखिर टारगेट में यहां के पंडित ही क्यों है? उनका जवाब था कि घाटी से बाहर और यहां हमारे मारे जाने से कुछ राजनीतिक पार्टी को वोट मिलता है, इसलिए हमें मारा जाता है। हमारा उनसे दूसरा प्रश्न था कि ये टारगेट किलिंग्स क्यों हो रही हैं? कौन कर रहा है? उनका जवाब था कि ये तो आप सरकार से ही पूछें। एसडीएम ऑफिस जो पूरी सुरक्षा में रहती है, वहां दिन-दहाड़े ऑफिस में घुस कर गोली मारी गई, कैसे? इसका जवाब भी आप सरकार से ही पूछें। इस स्थिति का समाधान क्या है? इस समस्या का समाधान सरकार और राजनीतिक पार्टियों के पास नही हैं। उन पर किसी का विश्वास नहीं है, न हमलोगों को और न ही मिलिटेंट को। तो आगे समाधन कैसे निकलेगा? अगर आप जैसे सामान्य नागरिक पहल करें तो इसका समाधान हो सकता है, पर अब वह 1990 से पहले वाला माहौल शायद कभी न मिल सके. जब तक सरकार बीच में रहेगी, कश्मीरी पंडितों और मुस्लिमों के बीच अब वह तारतम्य नहीं बैठेगा। जब हम गए थे, तब कॉलोनी के चार लोग टारगेट किलिंग में मारे गए थे, उसके विरोध में कॉलोनी के लोग 108 दिनों से विरोध में बैठे थे, पर सरकार का कोई भी प्रतिनिधि उनसे मिलने नहीं आया। वहां के लोगों का कहना है कि ये कॉलोनी नहीं हैं और न ही जेल है, उससे भी बद्तर जगह है। हमारी सरकार से बस इतनी ही मांग है कि हमलोगों को यहां से बाहर निकालें, अब हम यहां नहीं रहना चाहते हैं।

कश्मीर में हमलोग श्रीनगर से 500 किलोमीटर दूर स्थित गांवों बनिहाल, पहलगाम, मट्टन, पंपोर, मनसबल, टंगमर्ग, वारीपोर, मगम, विरवा, चड्डूरा, चरारे शरीफ, वासु, बारामुला, पुलवामा, अनंतनाग, कुलगाम, बड़गाम, गंदरबल आदि गए, पर हमें कहीं भी आतंकवाद जैसी स्थिति नहीं लगी, किसी किस्म के आतंकवाद से सामना नहीं करना पड़ा और न ही कहीं जलालत झेलने को मिली. हमलोगों ने सच में वहां स्वर्ग को महसूस किया. न केवल वादियों और पहाड़ियों में, बल्कि वहां के बंदिशों में भी। सड़क पर चलते किसी भी व्यक्ति को आप या कोई भी आपको वालेकुम सलाम बोल सकता है. फिर उनका आपसे आग्रह होगा कि आप उनके घर पधारें, कम से कम कहवा और नाश्ता कर के जाएं। जो तहजीब और नजाकत हमने कश्मीरी मुस्लिमों के यहां देखी, वह कहीं भी मिलनी मुश्किल है। कोई पर्दा नहीं, जिनके यहां हमलोग गए, उनके घर के सभी सदस्य हमारी खातिरदारी में उपस्थित हो गए. घर के पुरुष, महिलाएं, बच्चे सभी रात में उनके घर में ठहरने का आग्रह करने लगे। कोई कपड़े से नहीं पहचाना जा सकता है कि वह किस संप्रदाय से है। रात में हम पहलगाम पहुंचे और वहीं के एक होटल में खाना खाया, रात के तकरीबन 11 बज चुके थे। जिस होटल में हमने खाना खाया, वे रामनगर (यूपी) के बाशिंदे थे। मैंने उनसे पूछा, क्या आपको डर नहीं लगता? उन्होंने कहा, तेरह वर्ष हो गए होटल चलाते, अबतक कभी कुछ नहीं हुआ। मैंने पूछा, यूपी क्यों छोड़ा? उन्होंने कहा कि वहां रहते तो खाने को भी नहीं मिलता और बच्चे भी मूर्ख रह जाते, यहां दोनो बच्चे सेंट्रल स्कूल में पढ़ते हैं। एक दिन पहलगाम में सुबह मैं अपनी आदत के अनुसार टहलने निकल गया। दो लोग मिल गए, उनमें से एक से मैंने पूछ लिया, आतंकवादी कहां रहते हैं? उन्होंने पहाड़ी की ओर इशारा किया और कहा कि वह मेरा गांव है, आप चले जाओ। हरेक घर पर एक आतंकवादी मिलेगा, अगर कोई घर आपको बिना खाना खाए जाने दे, तो समझना वह कश्मीरी नहीं है। हम क्यों आतंकवाद करें, पर्यटक तो हमारे लिए ईश्वर हैं। अभी एक महीने की अमरनाथ यात्रा पूरी हुई है। अब हमें वर्ष भर कुछ कमाने को नहीं भी मिले, तो कोई बात नहीं। मैं दैनिक मजदूर हूं खेतों में काम करता हूं, पर एक महीने की अमरनाथ यात्रा ने मुझे साल भर का इतना पैसा दे दिया है कि अब केवल अपने खेत पर काम करूंगा तो भी आराम से जिंदगी कट जाएगी। मैंने उनसे पूछा कि कश्मीर का अमन कहां रुक गया है? कैसे पुनः लौटेगा? उन्होंने कहा कि इन नेताओं को बीच से हटा दो कश्मीर में पुनः अमन लौट आयेगा। हम उसी दिन शाम को विरवा पहुंचे, यह श्रीनगर से 500 किलोमीटर की दूरी पर है। हमें लगा कि यहां किसी गांव का दर्शन होगा पर ऐसा नहीं था, चौड़ी सड़कों और बड़ी मार्केट से सजा यह स्थान किसी बड़े शहर की ही तरह लग रहा था। यहां हमीदुल्ला हमीद भाई ने अपने घर ‘अपना घर’ में एक कार्यक्रम रखा था। यहां हमें कुछ तल्ख टिप्पणियाँ सुनने को मिलीं। उनका कहना था कि हम 1947 के पहले आजाद मुल्क थे, हमें फिर आजाद कर दें। भाजपा सरकार ने धारा 370 हटा दी, ठीक है। ये उनके मेनिफेस्टो में था, पर क्या हमें इसके विरोध में नारा भी नहीं लगाने देंगे? कब तक हमें सेना से दबाएंगे? ये सब ज्यादा दिन नहीं चलेगा। पुलवामा की बैठक में बताया गया कि केवल पुलवामा में बीस हजार से अधिक युवा जेलों में बंद हैं, पूरे कश्मीर में यह संख्या लाखों में हो सकती है। तीन वर्ष पहले कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म कर दिया गया, लोगों को महीनों सेना के साये में घेरकर घरों में रखा गया, टेलीफोन, इंटरनेट, काम-धंधा, पढ़ाई-लिखाई सब ठप्प कर, कश्मीर और कश्मीरियत को नीचा दिखाया गया। इसका दुष्परिणाम कभी भी देश के सामने आ सकता है। पर उन्होंने कभी इसके लिए कश्मीरी पंडितों को जिम्मेवार नहीं माना। जिस तरह कश्मीरी पंडित सरकार को इसके लिए दोषी मानते हैं, ये भी इसका पूरा दोषी राजनीतिक पार्टियों और सरकार को ही मानते हैं। कश्मीरी मुस्लिम ये साजिंदगी के साथ मानते हैं कि गलतियां हुई हैं और आज भी हो रही हैं। गंदे लोग हमारे समाज में भी हैं, उनको सरकार सजा दे, कश्मीरी अवाम उनके साथ है। कौन-सी राजनीतिक पार्टी अच्छी है, के जवाब में वे कहते हैं कि किसी भी राजनीतिक पार्टी का नेता जनता के बीच आ जाए, किसी राजनीतिक दल में ऐसी हिम्मत नहीं है।
हम हजरत बल, चरारे शरीफ और खीर भवानी मंदिर भी गए। मजहब के हिसाब से कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी। खीर भवानी मंदिर गंदरबल जिले के तुलमुल गांव में स्थित है, जो श्रीनगर से 25 किलोमीटर दूर है। वहां पहुंचने पर देखा कि मंदिर का मुख्यद्वार कटीलें तारों से घेरा हुआ है और वहां सेना का सख्त पहरा भी है। मालूम हुआ कि यहां भी आतंकवादियों ने हमला किया था। अंदर मंदिर के दरवाजे पर उमर काजी, जो 25-26 वर्ष का युवक था, हमारा इंतजार कर रहा था। अंदर एक गुल्ला साहब हमारा इंतजार कर रहे थे। हम सभी ने मिल कर पूजा-अर्चना की, किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं। गुल्ला साहब का पूरा नाम गुलाम मोहमद था और वे 32 वर्षों से सरकार की तरफ से मंदिर की देखभाल कर रहे हैं। वहां पूजा करा रहे पंडित जी से जानकारी ली कि जब आप सभी 1990 में पलायन कर गए थे, तो मंदिर की पूजा कौन करता था? उनका जवाब था, स्थानीय मुस्लिम परिवार के लोग. खीर भवानी मंदिर में गाय के बच्चा देने के बाद पहला दूध चढ़ाया जाता है, केवल हिंदू ही नहीं चढ़ाते, हम सभी चढ़ाते हैं। ऐसा सौहार्द है कश्मीर में।

जम्मू में हमलोग टिकरी, उधमपुर, रामबन, सांबा और कठुआ के लोगों से मिले। जम्मू में रात्रि भोजन शहर के प्रसिद्ध सरदारी लाल वैद्य के यहां था। 10-15 गणमान्य व्यक्ति थे। बातें होने लगीं, हमें डर था कि कहीं हिंदू-मुस्लिम पर बात न होने लगे, पर ऐसा हुआ नहीं, जबकि सभी स्वर्ण हिंदू थे. उन्होंने कहा कि कश्मीरी मुस्लिम पिछले 3 वर्षों से जम्मू नहीं आ रहे हैं, जबकि हमारी पूरी इकॉनमी उनके ऊपर ही आधारित है। आज जम्मू के सबसे बड़ा मार्केट काम्प्लेक्स में तीन 3 सप्ताह बीत जाता है, बोहनी तक नहीं होती, जबकि कश्मीर से आए कश्मीरी एक दुकान में घुस जाएं, तो पूरे महीने भर की खरीदारी कर लेते हैं. अगर पूरे महीने बिक्री न भी हो, तो हमारी भरपाई हो जाती है, पर वे आते ही नहीं हैं। वे कहते हैं कि राजनीतिज्ञ ही सारे फसाद की जड़ हैं, इसके लिए वे कश्मीरी पंडितों को भी दोषी मानते हैं। वे कहते हैं कि इनके कारण ही कश्मीरी हमारे यहां नहीं आते और कश्मीरी पंडितों के हमारे यहां रहने से हम आतंकवादियों और फौजियों दोनों की नजर में चढ़े और डरे रहते हैं। स्थिति सामान्य लगती है, पर है नहीं। जिस कश्मीर को आज दबाकर रखा जा रहा है, एक न एक दिन आवाज़ का विस्फोट होना तय है। हम सांबा में थे। हमलोगों ने उनसे पूछा कि इस आतंकवाद का इलाज क्या है? उन्होंने कहा कि सबसे पहले सेना का दबाव कम होना चाहिए, संवाद होना चाहिए। धारा 370 को हटाए जाने पर उनका कहना था कि किसी की औकात नहीं है कि कश्मीर में जमीन खरीद कर रहे या उद्योग लगाए। यह सरकार की हम डोंगरों, राजपूतों और लद्दाखियों की जमीनें हड़पने की बहुत बड़ी साजिश है। धारा 370 को निरस्त करने से कुछ फायदा नहीं हुआ, जो माहौल ठीक था, वह भी डीरेल हो गया। जब हमने पूछा कि आखिर कश्मीरी पंडित ही टारगेट में क्यों हैं? उन्होंने कहा, क्योंकि कश्मीरी पंडितों को 10% आरक्षण मिला हुआ है, जबकि उनकी पूरी आबादी ही 10% के आसपास है। इस मसले का हल राजनीतिक और सामाजिक बातचीत से ही संभव है। हम तो इसे राजनीतिज्ञों और मीडिया के टीआरपी का खेल मानते हैं. इन्होंने ही कश्मीर मसले (कश्मीरी पंडितों के मसले) की झूठी खबरों को विष की तरह समाज में फैलाया है, अभी कुछ नहीं हुआ है अगर कश्मीर में संवाद के जरिए प्रयास किया जाए, तो यह पुनः स्वर्ग हो जायेगा।

-डॉ मनोज मीता

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