महात्मा गांधी लगभग 80 वर्ष की उम्र में एक वीर तरुण की भांति देश में लगी नफरत की आग को बुझाने का अद्भुत पुरुषार्थ कर रहे थे। एक तरफ जहाँ वे नोआखाली में मुसलमानों द्वारा की गई पागल हिंसा की आग बुझाने के लिए कंटीली राहों पर नंगे पैर यात्राएं कर रहे थे, तो वहीं दूसरी तरफ बिहार के हिंदुओं द्वारा की जा रही बदले की कार्रवाई के विरुद्ध भी खड़े थे। जब दोनों स्थानों पर लगी आग बुझ गई, तब भी उन्हें चैन कहां था! उन्हें दिल्ली का तख्त नहीं, दिल्ली का बेचैन जन-समुद्र पुकार रहा था। चारों तरफ दंगाई हिंसा की आग लगी थी और गांधी अपना सीना खोलकर निहत्थे प्रेम के गीत गा रहे थे। उसी खुले सीने और निहत्थे गांधी पर, जो उस वक्त प्रार्थना में लीन होकर प्रार्थना मंच की ओर संपूर्ण मानवता पर प्रेम का रस बरसाने जा रहे थे, सावरकर द्वारा प्रेरित उसके एक भक्त ने गोलियों की बौछार कर दी। गांधी ने अपना बलिदान दिया और शहीद हो गए।
गांधी ने अपने मित्रों से हत्या के कुछ ही दिनों पहले कहा था कि मेरी हत्या का व्यापक षड्यंत्र रचा जा रहा है। जिसने गांधी पर बम फेंका, वह समूह तो पकड़ा गया। जिसने गांधी की हत्या की, वह समूह भी पकड़ा गया। लेकिन आखिर वह षडयंत्रकारी कौन था, जो ऐसी हिंसा के लिए जाल बिछाता रहा? इस हत्या को अंजाम देने वाले सारे पकड़े जाते हैं, पर जाल बिछाने वाले वाला बच निकलता है! आज से कोई 74 साल पहले अपराधों की तहकीकात के वैज्ञानिक तरीके विकसित नहीं थे। विज्ञान या मनोविज्ञान का उपयोग अपने प्राथमिक स्तर पर था। फिर भी सावरकर गांधी की हत्या के आरोप से बरी नहीं किए गए। उन्हें सबूतों के अभाव में छोड़ना पड़ा। कोई 20 वर्ष के बाद 1965 में जब व्यापक षड्यंत्र की बात उठी तो 1966 में कपूर कमीशन का गठन किया गया। इस कमीशन का स्पष्ट मानना था कि सारी परिस्थितियां षड्यंत्रकारी के रूप में विनायक सावरकर की ओर इशारा करती हैं और हत्यारा सावरकर के परम भक्त और शिष्यों में से एक था।
आज की न्याय प्रक्रिया में परिस्थितियां घटनाओं को कैसे अंजाम देती हैं, यह बात काफी महत्व की हो गयी है। कई मामलों में परिस्थितियों को पैदा करने वाले व्यक्तियों को सजा भी मिल चुकी है। यदि परिस्थितियों की जड़ तक पहुंचने की क्षमता रखने वाला विज्ञान 1948 के वक्त आज के जितना विकसित होता तो सावरकर सबूतों के अभाव में नहीं छोड़े जा सकते थे।
इन बातों से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि जब गांधी जी देश को नफरत और बंटवारे के घोर संकट से उबारने में जान की बाजी लगाए हुए थे, तब सावरकर के इर्द-गिर्द गांधी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा था। मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच जो नफरत की आग जल रही थी, उसमें घी डालने का काम किया जा रहा था और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाने और दो राष्ट्रों के सिद्धांत को हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण करने की योजना बनाकर पक्का किया जा रहा था।
उनके माफीनामे (जिसे वो एक बैरिस्टर द्वारा लिखा पेटीशन कहना पसंद करते थे) के कारण वे काले पानी से निकालकर रत्नागिरी जेल में रखे गए थे। कलापानी से छूटे लोगों को अंग्रेजी सरकार जो पेंशन देती थी (जिसे अन्य किसी स्वतंत्रता सेनानी ने स्वीकार नहीं किया था), सावरकर ने उसे स्वीकार किया। लेखन कार्य में महारथ हासिल थी तो एक से एक भावप्रवण साहित्य का निर्माण हुआ, लेकिन इनका वह साहित्य राष्ट्र की जातिगत और संकीर्ण परिभाषा से जुड़ा होने के कारण केवल अभिमान और नफरत का ही प्रसार कर सका।
सावरकर गांधी के सभी उदात्त विचारों और सिद्धांतों का विरोध करते रहे और साथ ही अहिंसा की जगह हिंसा, धर्मों में आपसी मोहब्बत की जगह घनघोर मुस्लिम द्वेष आदि संकीर्ण और नीचे गिराने वाले सिद्धांतों की वकालत करते रहे। 1920 से 1947 तक जब गांधी हिंदू मुस्लिम एकता, सवर्ण हरिजन बराबरी, स्त्री शक्ति जागरण, नई तालीम और अहिंसा की शक्ति के विकास में अपना मन और धन ही नहीं, शरीर को भी झोंके हुए थे, तब सावरकर अंग्रेजी राज से तालमेल बिठाने में लगे हुए थे। मालवीय जी के काल में जो हिंदू महासभा कांग्रेस के साथ मिलकर काम करती थी, सावरकर ने उसे कांग्रेस विरोधी, मुस्लिम द्वेषी और अंग्रेजपरस्त बना दिया। गांधी के व्यक्तिगत जीवन और विचारों में जो आध्यात्मिक गहराई थी, उनके आर्थिक और शिक्षा संबंधी विचारों में जो तार्किकता और नवीनता थी, उसकी दुनिया भर में एक पहचान थी और दुनिया के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी उन विचारों का लोहा मानते थे। सावरकर की विचार के इन क्षेत्रों में कोई पहुंच नहीं थी।
विडंबना यह है कि 1911में अपनी गिरफ्तारी से पहले सावरकर हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक और अंग्रेजी राज के विरोधी थे, हिंसा में विश्वास करते थे, इसलिए 1909 में ही उनकी प्रेरणा और योजना से दो दो अंग्रेज अधिकारी मारे गए। अनंत कन्हेरे ने नासिक के मजिस्ट्रेट जैक्सन को मारा और मदन लाल ढींगड़ा ने कर्जन वाइली को लंदन में मारा। दोनों युवक फांसी पर चढ़ गए, लेकिन सावरकर बच गए। लेकिन बाद की जांच में सावरकर की भागीदारी का पता चल गया और उन्हें कालापानी की सजा हुई। ये दोनों अंग्रेज़ भारत और भारतीय संस्कृति के जानकार और हितैषी माने जाते थे।
सवारकर, जो एक हिंसक क्रांतिकारी के रूप में विकसित हो रहे थे, सेल्यूलर जेल के बंदी होने के बाद बदल गए। मानो एक बढ़ता हुआ वृक्ष बौनेपन का शिकार हो गया। इसका कारण उस भय के अलावा कुछ और नहीं हो सकता, जो कायरता का रूप ले लेता है। खुद पीछे रहकर षडयंत्र रचना और भावुक व बहादुर युवकों को प्रेरित कर उनसे हत्याएं करवाने के काम में सावरकर कुशल थे, लेकिन उनकी यह कुशलता भय और मत्सर से उपजी हुई थी।
-कुमार शुभमूर्ति
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