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कैसे बचायें बच्चों का मन?

बाल साहित्य पर वाराणसी में दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन

कामकाजी मां, बाप वाले एकल परिवारों में पल रहे आज के बच्चों का बचपन कैसा है? क्या दादा-दादी, नाना-नानी के सान्निध्य से वंचित बच्चों को यथेष्ट मानसिक खुराक मिल पा रही है? क्या बाल साहित्य बच्चों के मानसिक विकास में सहायक होता है? क्या आज के बच्चे साहित्य से दूर हो रहे हैं? यदि हाँ तो क्यों? संचार के विविध उपकरणों द्वारा परोसी जा रही गंदगी क्या बच्चों को कुसंस्कारित कर रही है? यदि हां तो बच्चों को इससे कैसे बचाया जा सकता है? क्या इस दिशा में बाल साहित्य की कोई भूमिका हो सकती है? यदि हां तो बच्चों को बाल साहित्य से कैसे जोड़ा जाय? क्या आज लिखा जा रहा बाल साहित्य आज के बच्चों की रुचि एवं आवश्यकता के अनुकूल है? यदि नहीं तो आज के बच्चों के लिए कैसा साहित्य रचा जाना चाहिए? क्या बच्चों तक बाल साहित्य पहुंच पा रहा है? यदि नहीं तो क्यों? इसके लिए क्या प्रयास किये जा सकते हैं? बच्चों को साहित्यिक संस्कार देने में विद्यालयों की क्या भूमिका हो सकती है? क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों का मशीनीकरण कर रही है? यदि हां तो बच्चों को इससे कैसे बचाया जा सकता है? ये तमाम प्रश्न हैं, जो आज के परिवेश में बेहद महत्त्वपूर्ण हैं।

इन प्रश्नों पर विमर्श के लिए सर्व सेवा संघ, वाराणसी तथा त्रिवेणी सेवा न्यास, लखनऊ के संयुक्त तत्त्वावधान में 11 एवं 12 फरवरी 2023 को वाराणसी में दो दिवसीय एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी का केन्द्रीय विषय था ‘आज का बाल साहित्य: परिदृश्य और चुनौतियां’। इस विषय के बहाने बच्चों, बचपन तथा बाल साहित्य के विविध आयामों पर तीन सत्रों में गहन विचार-विमर्श हुआ। गोष्ठी का आयोजन एवं प्रबंधन उत्तर प्रदेश सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष रामधीरज द्वारा तथा संयोजन और संचालन त्रिवेणी सेवा न्यास, लखनऊ के संरक्षक अखिलेश श्रीवास्तव द्वारा किया गया।

गोष्ठी में बोलते हुए रामधीरज ने कहा कि आज टीवी, मोबाइल अनीति, अपराध, हिंसा, घृणा, अश्लीलता, असहिष्णुता आदि कुसंस्कार परोस रहे हैं। इन सबका सर्वाधिक दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है। बच्चों को इन विकृतियों से किस तरह बचाया जाय, यह एक गंभीर प्रश्न है। इसी प्रश्न पर चिन्तन करना तथा किसी मार्ग की तलाश करना इस दो दिवसीय संगोष्ठी का उद्देश्य है।

समीर गांगुली ने कहा कि परंपरागत बाल साहित्य से आज के बच्चों की मानसिक भूख नहीं मिटायी जा सकती है। आज बदलते परिवेश के अनुरूप बच्चों की जिज्ञासाओं से कदमताल करता बाल साहित्य रचे जाने की आवश्यकता है। अनंत प्रसाद रामभरोसे ने बाल साहित्य की उपयोगिता की चर्चा की, डॉ आनंद वर्धन ने अन्य भारतीय भाषाओं यथा बंगाली, मराठी, गुजराती तथा तमिल आदि में बाल साहित्य की स्थिति पर प्रकाश डाला। रामकिशोर ने बच्चों की बाल साहित्य से बढ़ती दूरी पर चिन्ता व्यक्त की तथा डॉ नमिता सिंह का लिखित वक्तव्य पढ़कर सुनाया। उसके बाद डॉ रामप्रकाश द्विवेदी, डॉ हरिकेश सिंह तथा विजय नारायण आदि ने भी अपनी बात रखी।

दूसरे सत्र में बच्चों से सीधे संवाद स्थापित करने तथा उन तक बाल साहित्य पहुंचाने की दृष्टि से वाराणसी के तीन विद्यालयों के विद्यार्थियों तथा शिक्षकों को आमंत्रित किया गया था। तीनों विद्यालयों के शिक्षकों, शिक्षिकाओं के साथ लगभग पचास छात्रों, छात्राओं ने इस सत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। शीला पाण्डेय के वक्तव्य के बाद माइक बच्चों को सौंप दिया गया, बच्चों ने उत्साह के साथ भागीदारी की और कविताएं, कहानियां, लेख तथा भाषण आदि प्रस्तुत किये।

तीसरा और अंतिम सत्र 12 फरवरी को हुआ। इस सत्र में सूर्यनाथ सिंह ने बाल साहित्य और विज्ञान विषय पर बोलते हुए कहा कि आज के बच्चों के लिए बाल साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना अति आवश्यक है। राजीव सक्सेना ने बाल साहित्य में फैंटेसी विषय पर अपनी बात रखी। उनका कहना था कि फैंटेसी से बच्चों की कल्पना शक्ति का विकास होता है। लायक राम मानव ने बाल मन के विकास में बाल नाटक, बाल एकांकी तथा कठपुतली कला की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। उपासना ने बाल साहित्य के उद्देश्य पर, आरपी सारस्वत ने आधुनिक बनाम परंपरागत बाल साहित्य पर, रजनीकांत शुक्ल ने फिल्मी गीतों में बच्चे विषय पर, अलका प्रमोद ने बाल साहित्य से अपेक्षाएं विषय पर तथा योगेन्द्र मौर्य ने बाल कविताओं के वर्तमान स्वरूप पर अपने विचार रखेा कार्यक्रम का समापन आयोजक रामधीरज के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।

-अखिलेश श्रीवास्तव

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